Skip to main content

दादू के काव्य में सामंती जीवन की त्रासदी का चित्रण

- डॉ० शगुफ्ता नियाज
रूपक चेतना काव्य का प्राणतत्त्व है दादू काव्य का स्वरूप लौकिक एवं पारलौकिक दोनों की आधारभूत भावनाओं के समन्वय से निर्मित हुआ है। दादू काव्य की आत्मा भक्ति एवं अध्यात्म चिंतन है तथा इसका शरीर लोक व्यापार है यही कारण है कि दादू काव्य के प्रतिमान के रूप में रूपक की भूमिका अनन्यतम दिखाई देती है और समग्र रूप से रूपक काव्य का ऐसा तत्त्व है जिनका यदि सम्यक रूप से अनुभावन किया जाए तो वे किसी भी युग की कविता के लिए अप्रासंगिक नहीं हो सकते। संत श्री दादूदयाल सामाजिक व्यवस्था की विकृत चेतना से आहत थे। उनका सम्बन्ध और व्यावसायिक जीवन समाज के उस वर्ग से सम्बन्धित था जो तिरस्कृत जीवन जीता हुआ जीवन की उन उपयोगी और व्यावहारिक दिशाओं से जुड़ा रहा है। जो सामाजिक संरचना के मूल आधार हैं। जहाँ मानव चेतना व्यावसायिक चेतना से जुड़कर नई-नई भाव दशाएँ ग्रहण करती हैं। धर्म समाज की धुरी है तो राजनीति नियामिका वह भी उसी के द्वारा संचालित होती है। दूसरे शब्दों में समाज के हर क्रियाकलाप में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उसका अस्तित्त्व प्रमाणित होता रहा। दादू के काव्य की मूल संवेदना आध्यात्मिक है। धार्मिक विकृतियों के बोझ तले दबी और साम्प्रदायिक कट्टरता से सहमी जनता को धर्म के प्रगतिशील व्यक्तित्त्व से परिचित कराने के लिए उस पथ का पार्थिव बनना उनकी जीवनचर्या बन गई जिससे साम्प्रदायिक कट्टरता से टक्कर लेने और उसे वाक्‌शक्ति एवं सतर्क प्रमाणों द्वारा परास्त करने की क्षमता भी उसमें आ गई। साम्प्रदायिकता धार्मिक बनकर जब शासन सूत्र को अपने हिसाब से चलने की विवशता से जिलाने लगता है तभी अव्यवस्था का बोलबाला हो जाता है।१ दादू का युग इसी अव्यवस्था का युग था। केन्द्रीय सत्ता के अत्याचारों से हिन्दू जाति पस्त हो चली थी। हिन्दू राजाओं में संगठन का अभाव था और उनमें ऊँच-नीच जाति-पाति छुआछूत भेदभाव की भावना दृढ़ होती जा रही थी। दादू का युग अकबर का युग था। अकबर की नीति संहारपरक नहीं थी। उससे पहले हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष काफी रक्तरंजित रहा। राजनैतिक वर्चस्व एवं धार्मिक प्रहार दोनों की तलवार पर आश्रित थे। अकबर ने अपने पूर्वजों के संघर्षरत जीवन से ही जान लिया था कि साम्राज्य विस्तार की नीति तलवार के बल पर सफल नहीं हो सकती तो धार्मिक अत्याचार भी विद्रोह को जन्म देगा। फलतः उसने राजपूत राजाओं से आत्मीयता बढ़ाई और धार्मिक कट्टरता के स्थान पर सौहार्द का रास्ता अपनाया। धर्म के नाम पर लगे करों को समाप्त किया परन्तु राजपूत राजाओं से उसे युद्ध करने पड़े। विद्रोह के दमन के लिए अकबर ने कूटनीति अपनाई। अकबर ने धार्मिक समन्वय नीति अवश्य अपनाई परन्तु शासक वर्ग व आम जनता के बीच की खाई वैसे ही बनी रही। कृषि जीवी जनता कभी-कभी आक्रोश में आकर संघर्ष पर आमादा हो जाती परन्तु राजकर्मचारी उनका भी दमन कर देते हैं और कभी-कभी ऐसा संघर्ष भी भीषण रूप धारण कर लेता है तथा उसमें भी कितनों का बलिदान होता है पर परिणाम में शून्यता ही रहती है। दादू ने इस सच्चाई को अपने काव्य में रूपकों के माध्यम से व्यक्त किया है। दादू को भी विश्वास है कि भौतिक उपलब्धियों की चाहत ही समाज को मूल्यहीन एवं आस्थाहीन बना रही है।२ दादू का काव्य विद्रोह की अपेक्षा जीवनधारा को बदलने की प्रगतिशील तर्कसम्मत वकालत करना दृष्टिगत होता है। दरबार से परे रूढ़ियों के बोझ तले दबे हिन्दू-मुस्लिम जनता को मुक्ति की सांस दिलाना उनका लक्ष्य रहा। इसीलिए दादू के काव्य में व्यक्त यथार्थ के जीवन्त प्रसार का समीक्षण परिवेश के सूत्रों की अपेक्षा करता है। राजनैतिक व्यवस्था की अमानवीयता उनकी रचनाओं में क्षोभ एवं उद्बोधन रूप में नज+र आती है। राजनैतिक विद्रोह की क्रान्तिकारी भूमिका में सन्त कवियों से इतनी ही अपेक्षा की जा सकती है कि वे शासक को उसके कुकर्मों से परिचित करा उसे झिंझोड़कर आत्ममूल्यांकन की जमीन पर ले जा रहा है कि नहीं। दादू इस कसौटी पर पूर्णतया खरे उतरे हैं। दादू का राजदरबार से कोई सरोकार नहीं था। राजनैतिक जीविका के प्रति घृणा का भाव उनके राजनैतिक पतन के साक्षात्कार को व्यक्त करता है - दादू ने तत्कालीन राजनीतिक शोषण व अत्याचार को बड़ी बारीकी से देखा दोहरी-तिहरी मारों में पिसती आम जनता के प्रति उनकी पूरी सहानुभूति थी। इसीलिए राजदरबार से सरोकार न होने पर भी वे राजनैतिक यथार्थ को अनदेखा नहीं करते। उदाहरणस्वरूप देखिए - दादू माया का बल देषि करि आया अति अहंकार।अंधा भया सूझै नहीं का करिहै सिरजनहार॥दादू मोट विकार की कोई न सकई डारि।वहि वहि मूए बापुड़े गये बहुत पचिहारि॥३ उपरोक्त रूपकों में दादू ने साम्राज्य विस्तार के प्रबल आकांक्षी अत्याचारी राजाओं को वे बार-बार ठहरकर सर्वशक्तिमान की सत्ता का ध्यान कराते हैं। इसी सन्दर्भ में सत्ता एवं सम्पत्ति की व्यर्थता का संकेत भी चुभने की क्षमता रखता है। दादू महत्त्वाकांक्षा के अधीन जुल्मी शासक को अन्धत्त्व से मुक्ति की कामना से फटकारते हैं सृजनहार से बढ़कर कोई नहीं। मोट विकारी अर्थात्‌ बड़े अहंकारी राजा भी सृजनहार के सामने बेचारे हो गए। जीवन से हाथ उन्हें भी धोना पड़ा। सबको जोर जुल्म की बदौलत बेचारा बनाने वाला स्वयं बेचारा हो गया यही सत्य है सृजनहार के न्यायालय दण्ड विधान के आगे किसी अत्याचारी की नहीं चलती। दादू के काव्य में राजा की क्रूरता और उनकी निर्भीक सत्यवक्ता और प्रखर जनपक्षधरता की परिणति है - दादू मिहिर महावति मनि नहीं दिल के वज्र कठोर काले काफ़िर ते कहिए मोमिन मालिक और।४ उपर्युक्त पंक्तियो में राजदरबार की सफलता के लिए दिल की वज्रवत कठोरता निर्दयता दर्दहीनता घमण्ड कथनी-करनी में फर्क होना दोहरे-तिहरे चरित्र वाला होना आवश्यक माना गया है। दादू इस क्षणिक सफलता से प्रेरित अमानवीय कर्म व्यापार के प्रति अपना आक्रोश निर्भीकता से व्यक्त करते हैं और इस सत्य से जनसाधारण को अवगत कराते हैं कि जनता की विश्वसनीयता तार-तार हो रही है। इसके मूल में कथनी-करनी में विभेद और अमानवीय आचरण ही है। यही आज का राजनैतिक सच है। आम आदमी के प्रति राजा अपनी विश्वसनीयता को खो बैठा है अविश्वास से त्रस्त प्रजा असहाय-सी हो रही है। इसी शोषण पर कुठाराघात करते हुए दादू कहते हैं कि प्रजा का शोषण और उस पर अत्याचार केवल राजा ही नहीं करता बल्कि उससे अधिक तो अधीनस्थ कर्मचारी करते हैं और राजा कर्मचारियों की सूचनाओं को ही सत्य मान लेता है। दर्द को मर्मस्पर्शी ढंग से उकेरा गया है। दर्द से जुड़ा एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत है - दादू गला गुसे का काटिये मीयाँ मनी कूं मारि पंचौ बिसमिलि कीजिए ये सब जीव उबारि॥५ दोहरे शासन के द्वन्द्व में पूजा की फरियाद तक राजा के पास नहीं जा पाती बीच में ही उनका दमन कर दिया जाता है। राजा के लिए संवेदनशीलता लोकतांत्रिक दृष्टि साधुवत आचरण सरलता एवं दयाधर्मी होना अनिवार्य है परन्तु इसके विपरीत आचरण वाला व्यक्ति राजा बन गया और उसे सफलता की ओर अग्रसर होते देख दादू व्यथित हो उठते हैं और राजा को सम्बोधित करते हैं कि गला काटना ही है तो गुस्से का गला काटो इन्सान का नहीं क्योंकि सृजनहार तुम्हें कभी भी नष्ट कर सकता है। राज दरबार के सत्य को उन्होंने दूर रहकर भी पैनी आँखों से देखा और भयमुक्त होकर व्यक्त किया उनका लक्ष्य प्रजा गुमराह न हो और राजा सचेत हो। दादू ने जजि+या कर की क्रूरता की पीड़ा को अत्यधिक निकट से पहचाना। झूठ फरेब और धूर्तता सफलता के सोपान बनने लगे। इसमें निहित मूल को दादू ने पहचाना उनके काव्य में जातीय चेतना के साथ मुस्लिमों के बल प्रयोग की क्रूरता कहीं सांकेतिक रूप में तो कहीं अभिधा रूप में मिल जाती है। समाज में व्याप्त उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्परिणाम की चर्चा में दादू एक यथार्थवादी कवि की तरह नज+र आते हैं। शोषण व सामंती व्यवस्था पर उन्होंने राजनैतिक व समाज व्यवस्था पर चुभती शैली में प्रहार किया है। भौतिक उपलब्धियों की अतिशय लालसा एवं दैहिक आवश्यकताओं के वेग ने समाज की संवदेनशील और अव्यवस्थित कर दिया। दादू इस तथ्य की चर्चा पीड़ा के साथ करते हैं - हिन्दुओं की जाति भेदपरक जीवन पद्धतियों ने मिथ्या अहं में जिलाकर उसे अत्यधिक जर्जर बना दिया है। इस भेदपरक अवहेलना ने जड़ता ला दी। दादू इस स्थिति से भली-भांति अवगत हो चुके थे। इसीलिए हिन्दुओं का जातीय भेद और मुस्लिमों का बल प्रयोग उनके सामाजिक विश्लेषण का प्रथम पक्ष बन जाता है। भले ही उनकी केन्द्रीय संवेदना में धर्म ही रहा हो। भेद नीति से अमानवीय तो बल प्रयोग है जाति परिवर्तन का बल प्रयोग जीवन को लाचारी की अति में ढकेल देता है जिस दमघोंटू खाई में सांस लेकर जीना भी दुश्वार लगता है।६ दादू ऐसे क्षणों से सीधा साक्षात्कार करते हैं। सत्ता में पूरी सामर्थ्य के साथ प्रतिष्ठित होने पर भी उनके (मुस्लिम शासकों कुकृत्यों पर निर्भीकता से खुलेआम सवालिया निशान लगाकर चुनौती देते हैं। इस चुनौती में आक्रामक मुद्रा की लठैती नहीं मानवीय संवेदना का वह पैमाना कसौटी बनकर आता है जहाँ चौराहे पर खड़े होकर दादू उसके सारे बल प्रयोग को खारिज कर देते हैं उस पर लगी तथाकथित धर्म की गुहार को तार-तार कर उसके साम्प्रदायिक कट्टरता वाले खौफनाक चेहरे को उजागर कर देते हैं। इन साहसिक अभिव्यक्ति में तर्क और धर्म के विराट रूप की वह छवि सामने आती है जो सबको निरूत्तर कर अपना सिक्का जमा देती है और दादू एक सन्त की हैसियत से निर्भीक होकर इस सत्य का उद्घाटन अपने काव्य में रूपकों के माध्यम से करते हैं - नीच ऊँच मधिम को नाही देषौं राम सबनि कै मांही।दादू सांच सवनि मैं सोई पेड़ पकड़ि जनि नृभै होइ॥७ उपरोक्त पंक्ति में जातीय ऊँचाई स्पष्ट है। प्रभु तो ऊँच-नीच न देखकर मन से व्याप्त श्रद्धा व सच्चे भाव को देखता है। मूल तो उस आकाश में है। वृक्ष की शाखा-प्रशाखा के रूप में सृष्टि व्याप्त है। जब संसार के प्रत्येक अवयव में ब्रह्म का साक्षात्कार सम्भव है तो छोटे-बड़े का भेद क्यों उदाहरण देखिए - अलह राम छूटा भ्रम मोटा हिन्दू तुरक भेद कछु नाही देखौ दरसन तोरा।सोई हस्त पाव पुनि सोई सोई एक सरीरा॥ यहु सब खेलु खलिक हरि तोरा तोहि एक हरि लीन्हा।दादू जुगति जानि करि सी तब यह प्रान पतीना॥८ हिन्दुओं की जातीय अवहेलना से क्षुब्ध तथा जजि+या कर की क्रूरता से पीड़ित गरीब निम्न तबके की जातियों ने मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया लेकिन वहाँ भी उन्हें अत्यधिक अपमान व तिरस्कार का सामना करना पड़ा। हिन्दू-तुर्क की जातीय भेद के मिथ्यात्त्व को उन्होंने भारतीय दर्शन के तर्क द्वारा स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया है। उपर्युक्त पंक्ति से यह स्पष्ट होता है कि जातीय और देहधारी का भेद तो वाह्य है पर सब में आन्तरिक एकता है। यह एकता केवल परमात्मा की सत्ता के कारण ही नहीं है बल्कि आन्तरिक क्षमता की एकता बनाम समानता की भौतिक बनाम दैहिक पुष्टि की है जिसके लिए आध्यात्मिक व व्यावहारिक तर्क को सहजग्राह्य रूप में प्रस्तुत किया गया है कि नेत्रा अलग हैं पर देखने की शक्ति एक-सी है यही स्थिति अन्य अंगों की है। तब हिन्दू-मुसलमान भेद क्यों यह मिथ्या को सत्य मानना है। आत्मा में स्थित परमात्मा का सत्य भले ही साधना की अपेक्षा रखता हो पर यह तर्क आध्यात्मिक नहीं प्रत्यक्ष प्रमाण है। अनुमान पर नहीं प्रत्यक्ष एहसास पर आधारित है। इस आन्तरिक एकता का आभास होने पर जातीय भेद का भ्रमजाल उसका मिथ्या फैलाव स्वतः तिरोहित हो जाता है। आज भारत आजाद है परन्तु दादू का युग विदेशी हुकूमत से त्रास्त और पस्त होकर घुटने टेक देने के बावजूद संघर्ष का काल था। मुस्लिम सत्ताधारियों एवं उनके इर्द-गिर्द रहने वाले कर्मियों में भोग विलासिता की अति ने दोहन शोषण एवं जोरो जुल्म की प्रवृत्ति को जन्म देकर उसका पूरा संवर्धन पोषण एवं संरक्षण किया। दादू ने माया की चर्चा करते समय आध्यात्मिक सांचे से इसी सामाजिक यथार्थ पर उतर आते हैं और भौतिक उपलब्धियों के लिए होने वाले जोरों जुल्म की खुलकर भर्त्सना करते हैं। निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए - दादू झूठे तन के कारनै कीए बहुत विकार गृहदार । धन सम्पदा पूत कुटुम्ब परिवार।ता कारणि हरि आत्मा झूठ कपट अहंकार सो माटी मिलि जाइगा विसरया सिरजनहार॥९ इस झूठे शरीर के कारण अपने जीवन को हमने कुमार्गी बना दिया। दैहिक आवश्यकताओं और लालसाओं की अधीनता से इस जीवन को विकारग्रस्त कर लिया तथा दूसरे शब्दों में आत्मा झूठ फरेब दम्भ से आवृत्त हो गयी उसकी आवाज को दबाकर मानव धन सम्पत्ति के लिए अपने लोगों को भूला वसूलों को उसने झटके से फेंक दिया और ये जुल्म करने वाले मानवत्त्व से परे आत्मा को भुलाकर परमात्मा को भूल गया। तत्कालीन शासन व्यवस्था पर ऐसे अनेक उदाहरण दादू के काव्य में बिखरे पड़े हैं - दादू हस्ती हैं वर धन देषि करि फूल्या अंगि न माइ।भेरि दमामा एक दिन सब ही छांड़े जाइ॥१० दादू जूवा षेले जांण राइ ताकूं लषै न कोइ।सब जग बैठा जीति करि काहू लिपति न होइ॥११ उपरोक्त पंक्तियों में दादू ने देह की क्षणिकता और सारहीन सम्पत्ति की नश्वरता और प्राप्ति के मूल्यहीन पथ की अमानवीयता का दर्शन कराया है। शक्ति और सम्पत्ति की लालसा ने जुल्म करने वालों को हैवान बना दिया है। अनुचित साधनों से सारहीन सम्पत्ति को अर्जित कर आदमी फूला नहीं समा रहा है। वे इसी सन्दर्भ में सचेत करते हैं कि षड्यन्त्र कुचक्र अव्यवस्था शोषण से अर्जित सम्पत्ति और सारे साधन क्षण भर में नष्ट हो जाएंगे। सत्ता और सम्पत्ति को सर्वस्व मानकर जीने वाले लोगों में विलासिता मदिरापान फिजूलखर्जी वेश्यागमन द्यूत क्रीड़ा घर कर लेती है। आम जनता क्षोभ एवं विफल विद्रोह के बाद उन्हें उसी हाशिए पर खड़ा कर अपनी श्रेणी अलग कर लेती हैं। ऐसी श्रेणी के लोगों के उद्गार हृदय को छू लेते हैं - मांस अहारी मदु पीवै विषै विकारी सोइ।दादू आतम राम बिना दया कहाँ थी होइ॥१२ सत्ताधारी की जीवनचर्या का महत्त्वपूर्ण अंग मास मदिरा का सेवन है जिसके सेवन के बाद मानव में सही गलत का निर्णय लेने की क्षमता नहीं रहती दूसरे शब्दों में मानव न रहकर उसमें दानवी प्रवृत्तियाँ व्याप्त हो जाती है और ऐसे मनुष्यों से जिनमें राम का वास नहीं है उनके हृदय में दया कहाँ से आयेगी। चतुर्थ श्रेणी का मनुष्य तो इसी दया पर आश्रित था। शोषकों के शोषण की भर्त्सना करते हुए दादू के अन्य उदाहरण प्रस्तुत है - दादू दया जिन्हूके दिल नहीं बहुरि कहावै साध।जो मुष उनका देषिए तौ लागै बहु अपराध॥दादू जोर करे मसकीन संतावै दिल उसकी में दरद न आवे।सांई सेती नांही नेह ग्रव करै अति अपनी देह॥१३ साधना-सम्पन्न लोगों की महफिल समाज में शोषण के किसी भी स्तर से न चूकना अपनी जीवन पद्धति समझी जाती थी इस सुविधाभोगी लोगों की शोषण प्रधान नियति का खुलासा वे उपरोक्त पंक्ति में करते हैं कि जिन दयाहीन लोगों को अपनी देह पर बड़ा गर्व है यह मिथ्या गर्व ही उन्मादों को जन्म देता है और शक्ति का प्रभाव ही शोषण की प्रेरणा देता है। अपनी सत्ता के विस्तार और अर्थ के लिए जीने वाले लोग निर्मम व क्रूर हैं ऐसे दयाहीन शोषकों का मुँह देखना भी अपराध है। यह प्रवृत्ति सुविधाभोगी लोगों की सभ्यता एक अनिवार्य जीवन पद्धति-सी बनती जा रही थी। दादू का भौतिक उपलब्धियों के प्रति घृणा का भाव इस बढ़ती प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया स्वरूप था। दादू धूर्तता झूठ एवं फरेब से पूर्ण महत्त्वाकांक्षी राजन्य सभ्यता के अतिरिक्त इस सम्पन्न समाज में भोगवादी और शोषणपरक दोहक पद्धति से खिन्न होकर श्रम प्रधान जीविका पद्धति को ही आदर प्रदान करते हैं। श्रम प्रधान आजीविका में झूठ फरेब छल आदि की गुंजाइश नहीं होती। विलासी लोगों द्वारा समाज का ये वर्ग सदैव पीड़ित किया जाता रहा है। इसका दर्द दादू के काव्य में अनेक स्थान पर मिलता है। कमजोर को दलित बनाकर उसे बेजान की तरह व्यवहार करने की परिपाटी सत्ता वैभव सम्पन्न लोगों में आम चलन बन चुकी है। इस शाश्वत सत्य को नकारा नहीं जा सकता। श्रमजीवी अभावग्रस्त लोग इसके भोगी बनते हैं - दादू ने शुष्क क्रूर संवेदनाहीन शोषकों के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उनका मानना है अगर यही राजन्य जीवन की पद्धति समाज में हो जाएगी तो मानव मानवता से रहित होकर अपनी पहचान खो देगा और क्रूरता का ताण्डव होगा। उदाहरणस्वरूप निम्न पंक्तियाँ देखिए - दादू सो मोमिन मोमदिल होइ साँई कूं पहिचानै सोइ।जोर न करै हराम न षाइ सो मोमिन भिस्त मै जाइ॥१४ मोम दिल आँच से द्रवीभूत होने वाला व्यक्ति ही प्रभु का साधक हो सकता है। हराम की कमाई खाने वाला और शक्ति से आतंकित करने वाला नरक में जाता है। ये दोनों पद्धतियाँ समाज में तेजी से हावी हो रही थी। मानव प्रत्यक्ष लाभ के लिए इन्हीं तौर-तरीकों को अपना रहा था। यह रूक्षता एवं क्रूर भावहीनता दादू को व्यथित करती है। जनता की समझ को विकसित करने के लिए दादू ने शोषकों के निजी स्वांग थोथेपन और स्वार्थपरता के निम्नस्तर से परिचित कराया। तलवार के बल पर शासन करने वाले मुगलों ने शक्ति से धर्म परिवर्तन की जोर ज+बरदस्ती की और जुल्मों की अति कर दी। दादू ने अपने काव्य के माध्यम से जन साधारण में ये चेतना जाग्रत की कि इन सभी दुष्ट लोगों के चंगुल व संत्रास से मुक्ति का एकमात्र उपाय प्रभु ही है वो सबका रक्षक है। अपने रूपकों के माध्यम से दादू शोषकों को सुधार कर उसे बेहतर इंसान बनाने की कामना के साथ जनता के बीच सक्रिय होते हैं। स्पष्ट है कि दादू सामाजिक कपटाचार धार्मिक मिथ्याचार राजनैतिक विसंगति महत्त्वाकांक्षाजन्य मूल्यहीनता आदि के विरोध में अपने काव्य रूपकों के लिए सामग्री ग्रहण करते हैं। जीवन और ईश्वर के प्रति आस्था के द्वारा हम परमसत्य के सुन्दरतम सोपान तक जा सकते हैं। दादू के काव्य में लोक जीवन की गहरी पैठ रही है। दादू के रूपकों में गहरा अनुभव जीवन और जगत की सारवानता बड़े सहज और आकर्षक बनकर आती हैं जीव के साधारण उपकरणों प्राणियों क्रिया-कलापों द्वारा सशक्त जीवन दर्शन की अभिव्यक्ति इनकी केन्द्रीय शक्ति है। दादू ने सामंती जीवन की त्रासदी को बहुत निकट से देखा था इसीलिए उन्होंने रूपक को केवल आध्यात्मिक बिम्ब तक ही सीमित नहीं रखा वरन्‌ आध्यात्मिक अनुभूति की अभिव्यंजना जिन अप्रस्तुतों के माध्यम से हुई है वे भी लौकिक जीवन की अनुभूति साधना को एक दिशा देते हैं। आज दादू के इस अप्रस्तुत विधान का अनुशीलन साहित्य और संस्कृति के सन्दर्भ में इसलिए भी आवश्यक हो जाता है कि आज की राजनैतिक परिवेश भी सामंती जीवन की भाँति शोषक और शोषित का परिदृश्य प्रस्तुत कर रहा है। आधुनिक परिदृश्य में अतीत का विषय बनता जा रहा है। अतः दादू का साहित्य भी समाज सापेक्ष है जिसने लोक चेतना मानवीय सरोकार व उस सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्वों को पूरा किया जो रचनाकार का प्रथम दायित्व होता है। यही कारण है कि इतने वर्षों के बाद भी दादू का काव्य आज भी अमर है।
संदर्भ - सूचीः१ डॉ० विद्योत्तमा मिश्र दादूदास तुम्हारा नरेश प्रकाशन दिल्ली पृ० १०७२ वही पृ० ९८-९९३ परशुराम चतुर्वेदी दादू ग्रंथावली नागरी प्रचारिणी सभा काशी माया कौ अंग साखी पृ० १२९४ दादू ग्रंथावली सांच कौ अंग पृ० १४७५ वही वैर निवृता कौ अंग पृ० २७५६ दादू दास तुम्हारा पृ० १०८७ दादू ग्रंथावली राग भैरू पद २९ पृ० ४७८८ आचार्य परशुराम चतुर्वेदी संत काव्य धारा भारती प्रकाशन प्रयाग पृ० १४०९ दादू ग्रंथावली माया कौ अंग ४३ पृ० १३२१० दादू ग्रंथावली माया कौ अंग साखी १३ पृ० १२८११ वही साषीभूत कौ अंग साखी ५ पृ० ३००१२ वही साँच को अंग साखी १ पृ० १४७१३ वही पृ० १४७-१५०१४ वही सांच कौ अंग २८ पृ० १५१

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क