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कन्या भ्रूण हत्या और महिला मानवाधिकार

डा0 शगुफ्ता नियाज़

हमारे देश में महिलाओं की स्थिति में प्राचीन से लेकर वर्तमान काल तक अनेक उतार-चढ़ाव आए हैं। वैदिक युग में वे समान स्थिति पर आसीन थीं। प्राचीनकाल में शिक्षा सुविधा के कारण नारी के प्रति सम्मान और महत्त्व की भावना भी अवश्य प्रचलित थी, मनुस्मृति इसकी साक्षी है। जहाँ नारी का सम्मान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं, जहाँ स्त्रियों का सम्मान नहीं और देश की उन्नति की आशा नहीं की जा सकती। असंख्य कानून होने के बावजूद भी नारी का शोषण प्रत्येक क्षेत्र परिवार, सम्पत्ति, वर का चयन, शासकीय सेवा, खेल शिक्षा, विज्ञापन, फिल्म आदि में होता रहा है। हम रोज+ इन क्षेत्र में इनके शोषण के समाचार पढ़ते सुनते हैं। इसी क्रम में कन्या भ्रूण हत्या आज आम बात हो गयी है। बेटा गर्भ में आते ही सम्पत्ति का हक़दार लेकिन बेटियाँ भ्रूण हत्या की शिकार परिवार या विवाह संस्था के मूल ढाँचे में समता और समाज में न्याय (सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक) की नींव डाले बिना न कन्या भ्रूण हत्या रोकना सम्भव होगा और न टूटते बिखरते परिवार को बचाना। निःसन्देह पितृसत्ता को सिरे से दोबारा सोचना समझना पड़ेगा, सम्पत्ति और सत्ता में महिलाओं का बराबर का हिस्सा दिए बिना परिवार बचाना मुश्किल है, बेटियाँ नहीं होंगी तो बहु कहाँ से आयेंगी ? वंश कैसे चलेगा? पुत्रोति जाता महतहि चिंता, कस्मा प्रदेयेति महानिवर्तकः। दत्वा सुख़म वाचसवयाति वा न वेति, कन्या पितृत्वं खलुनाम कष्टम।'' अर्थात्‌ कन्या का जन्म महती चिंता का कारण है, क्योंकि सबसे बड़ा सवाल यह है कि उसका परिणय किससे किया जाय? परिणय कर भी दिया जाए तो वह ससुराल में सुख पाएगी या नहीं, यह सवाल मन को मंथने लगते हैं अतएव कन्या का पिता होना निश्चित रूप से कष्टकारी है, पुत्री को बचपन से पूरे अधिकार भी नहीं दिए जाते हैं। लड़कियों को मौलिक स्वास्थ्य सेवा पोषण और शिक्षा की पर्याप्त सुलभता से वंचित रखा जाता है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ अधिक कुपोषण का शिकार होती हैं। इसी प्रकार परिवारों में लड़कों की शिक्षा पर जितना अधिक ध्यान दिया जाता है उतना लड़कियों पर नहीं दिया जाता उनके विवाह की बात से सदा उन्हें जोड़े रखा जाता है। अधिकांश परिवारों में दहेज का दानव उन्हें व उनके पूरे परिवार को डराता व कोसता रहता है क्योंकि दहेज जुटा पाना एक अत्यंत कठिन तथा अनिश्चय भरा कार्य होता है, अतः सारी उम्र माता-पिता बेटी को कोसते रहते हैं यही सब कारण हैं कि आज उसे भ्रूणावस्था में नष्ट कर देना साधारण बात हो गई है जो कि एक हत्या है पाप है व अमानवीयकृत है। सन्‌ २००१ की जनगणना के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर प्रति १००० पुरुषों पर ९३३ महिलाओं का अनुपात आता है। ०-६ वर्ष की आयु में यह अनुपात केवल १००ः९२७ ही आता है जबकि १९९१ में यह १०००.९४५ था। पंजाब में यह अनुपात १०००ः७९३ पाया गया जबकि १९९१ में प्रति १०००० लड़कों पर ८७८ कन्याओं का अनुपात था। इसी प्रकार गुजरात में १९९१ यह अनुपात १०००ः९२८ था जो कि अब १०००ः८७८ रह गया है। इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्रीय विकास कार्यक्रम की एक ताजा रिपोर्ट है कि केवल मुम्बई में वर्ष १९८४ में कन्या भ्रूण हत्या के ४०,००० मामले प्रकाश में आए तथा तमिलनाडु में ६ जनपदों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार १९९४ में ३१७८ मामलों में कन्या भ्रूण को नष्ट कर दिया। १९९० में प्रो० ताराबाई ने एक सर्वेक्षण में पाया कि १९८९ में केवल तमिलनाडु के कल्वर जिले में २०० कन्याओं की हत्या की गई। अहमदाबाद में १९८९ में अनुमानतः प्रति वर्ष इस प्रकार भ्रूण हत्या के १०,००० मामले होते हैं। राजस्थान के १२ गाँवों के एक समूह में हर वर्ष १५० कन्या भ्रूणों की हत्या कर दी जाती है। इसलिए वहाँ १०,००० की जनसंख्या में युवतियाँ केवल ५० हैं। जापान के प्रति हजार पुरुषों पर १०३३ महिलाएँ हैं जबकि इण्डोनेशिया में यह अनुपात केवल १०००ः१००९ है तथा पाकिस्तान में केवल १०००ः९०५ है। इसी प्रकार बांग्लादेश तथा श्रीलंका में क्रमशः १०००ः९४१ और १०००ः९६२ का अनुपात है जबकि नेपाल में प्रति १००० पुरुषों पर ९४६ महिलाएँ हैं।कानूनी प्रावधान - ऐसा नहीं है कि इस समस्या से निपटने के लिए कोशिशें नहीं की गईं बल्कि बहुत पहले से इस पर रोक लगायी जाती रही है। बनारस (उ०प्र०) राज्य के रेजीडेंट जोनाथन डंकन ने १७८९ में जौनपुर जि+ले की राजीकुमार जनजाति में कन्या भ्रूण हत्या पर अंकुश लगाने के प्रयत्न में १७ दिसंबर, १७८९ को उक्त जनजाति के सभी लोगों को कसमें दिलवायीं थीं कि यह अमानुषिक कार्य नहीं करेंगे। सन्‌ १७९५ तथा १८०४ में कन्या भ्रूण हत्या पर पाबंदी लगाने के लिए अधिनियम बनाए गए जो तत्कालीन परिस्थितियों में प्रभावी सिद्ध नहीं हुए। राष्ट्रीय अभिलेखागार में विद्यमान दस्तावेजों के अनुसार बस्ती जिले के सात गाँवों में किए गए सर्वेक्षण में १०४ लड़के और मात्र एक लड़की पाई गई। सत्ताइस अन्य गाँवों के सर्वेक्षण में यह बात सामने आई थी कि वहाँ के ग्रामीणों ने कन्या विवाह देखा भी नहीं था। जौनपुर जि+ले के कबीला जाति में दूध पीती कन्याओं को एक प्रथा के रूप में भूखा रखकर मार डाला जाता था क्योंकि उनके लिए दहेज जुटा पाना अत्यंत कठिन था। भारतीय दण्ड संहिता की धारा ३१२ व ३१३ के अन्तर्गत महिला के जीवन को बचाने के अतिरिक्त भ्रूण नष्ट करने के मामलों में चाहे वह सहमति से हों या असहमति से, कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई है जो कि तीन वर्ष तक के कारावास या जुर्माना दोनों हो सकता है। यदि अधिक अवधि का भ्रूण है तो ७ वर्ष तक का कारावास और जुर्माना हो सकता है। उस महिला को भी दण्ड दिए जाने का प्रावधान है जो अपने गर्भ में पल रहे भ्रूण को नष्ट करती है। चिकित्सीय गर्भ समापन अधिनियम १९७१ में कुछ विशेष परिस्थितियों में भ्रूण को नष्ट किए जाने को वैद्यता प्रदान की गई है, परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि निर्धारित विशेष परिस्थितियों एवं शर्तों की घोर अपेक्षा एवं उल्लंघन करते हुए चिकित्सकों ने कन्या भ्रूण की हत्या के २९४ में एक विशेष प्रकार का अपराधिक व्यवहार करना आरंभ कर दिया। चिकित्सक धन के समक्ष अपना धर्म भूल गए और भ्रूण हत्याएँ बहुत अधिक की जाने लगी हैं। अस्सी के दशक ने इस समस्या के विरोध में एक जन आन्दोलन का रूप ले लिया। अतः १९८८ में विधेयक यह तैयार किया गया जो प्रसव पूर्व नैदानिक तकनीक (नियमन एवं दुरुपयोग से बचाव) अधिनियम १९९४ बना तथा जनवरी १, १९९६ को लागू हो गया। इस कानून से गर्भस्थ भ्रूण के लिंग परीक्षण पर प्रतिबंध लगा दिया गया है तथा इसका उल्लंघन करने वालों के लिए तीन से पाँच वर्ष तक के कारावास एवं तीस से पचास हजार रुपये तक के जुर्माने की व्यवस्था की गई है। प्रसव पूर्व निदान तकनीक के आधार पर एक विशिष्ट जैवीय असमानता अथवा अवस्था का पता लगाने के अनुज्ञा एवं उसके विनियमन का प्रावधान किया गया है। इसके अतिरिक्त कोई भी जैविकीय परामर्श केन्द्र जैवकीय प्रयोगशाला अथवा जैवकीय उपचार केन्द्र किसी भी ऐसे व्यक्ति को नियोजित नहीं करेगा जो विहित योग्यता नहीं रखता है। इसी अधिनियम की धारा-३ के अन्तर्गत कोई भी रजिस्टर्ड मेडिकल प्रेक्टिशनर अथवा अन्य व्यक्ति केवल इस कानून में पंजीकृत स्थान के अतिरिक्त न हो किसी स्थान पर इस कार्य का संचालन कर सकता है न ही करवा सकता है और न ही किसी प्रकार की सहायता कर सकता है। धारा-४ के अन्तर्गत जन्म पूर्व निदान तकनीक का प्रयोग केवल निम्न मान्यताओं की जानकारी करने के लिए ही किया जायेगा - १. क्रोमोजोम से सम्बन्धित असमानता २. जिनेटिक मेटाबोलिक रोग ३. होमियो ग्लोबिनोपैथिज ४. लिंग से सम्बन्धित जैवकीय बीमारी ५. आजीन्मक असमान्यताएँ ६. इसके अतिरिक्त धारा - ५ के प्रावधाननुसार कोई भी व्यक्ति जन्म पूर्व निदान प्रक्रिया का संचालन तब तक नहीं करेगा जब तक कि - वह इस प्रक्रिया के सभी प्रभावों को उक्त महिला को स्पष्ट नहीं कर देता है तथा उसने विहित प्रारूप में उस महिला की लिखित स्वीकृति इस प्रक्रिया के अनुपालन के लिए उसके द्वारा समझी जा सकने वाली भाषा में प्राप्त नहीं कर ली है। उल्लेखनीय है कि धारा-६ में भ्रूण का लिंग सुनिश्चित किया जाना विशेष रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया है। धारा-७ में परामर्श बोर्ड के गठन, धारा-१६ में बोर्ड के कार्यों धारा २२ से २८ तक में दण्ड धारा २९ में अभिलेखों के रख-रखाव, धारा-३० में तलाशी एवं जब्ती शक्तियों, धारा-३१ में केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा किए कार्यों और धारा-३२ में केन्द्र की नियम बनाने की शक्ति का वर्णन किया गया है। उच्चतम न्यायालय ने सेंटर फार इंक्वायरी इन्टू हेल्थ बनाम भारत संघ २००१ के मामले में यह स्वीकार किया गया है कि पी.एन. डी.टी. एक्ट के अधिकांश प्रावधानों को केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा लागू नहीं किया जा रहा है तथा केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों/केन्द्र शासित राज्यों के प्रशासनों को इस अधिनियम को लागू करने के लिए उपयुक्त अधिकारिता, प्रसव पूर्व लिंग जाँच तथा कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध टी.वी. मीडिया व अन्य अनेक साधनों द्वारा जन जागृति उत्पन्न करने, अधिनियम के प्रावधानों के प्रवर्त्तन की समीक्षा एवं पुनर्विचार करने उपरोक्त बोर्ड के पास तिमाही रिपोर्ट भेजने, प्रसव पूर्व लिंग जाँच करने वाली संस्थाओं के पंजीकरण करने तथा आपंजीकरण संस्थाओं के विरुद्ध की गई कार्यवाही के सम्बन्ध में अनेक निर्देश दिए। इतना ही नहीं २९ जनवरी,२००२ को न्यायालय ने कन्या भ्रूण हत्याओं को रोकने के अपने पक्के आशय के साथ पुनः सभी राज्यों को निर्देशित किया कि उन सभी अल्ट्रासाउण्ड मशीनों को सील कर दिया जाए जिनके लिए लाइसेंस प्राप्त नहीं किया गया है तथा उनका प्रयोग लिंग जाँच करने के लिए कहीं भी किया जा रहा है। यहाँ तक कि पंजीकरण के लिए दिए गए आवेदन पत्रों के किसी दशा में अपूर्ण होने की स्थिति में पंजीकरण प्रमाण पत्र निर्गत न करने का निर्देश भी न्यायालय ने दे दिया है। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी कानून असफ़ल रहा है क्योंकि गर्भपात कानून के अंतर्गत चिकित्सकों को मानसिक आघात के आधार पर किसी महिला को गर्भपात कराने की सलाह देने तथा उसके भ्रूण को नष्ट करने की छूट प्राप्त है। कन्या भ्रूण कि जानकारी मात्र से महिला के मानसिक आघात का मामला बनाकर चिकित्सक आसानी से गर्भपात करवा देते हैं तथा कानून उन्हें दण्डित नहीं कर पाता है। इसके अतिरिक्त कार्यवाही करने के लिए आवश्यक है कि किसी महिला ने शिकायत की हो कि उसे इस प्रकार के परीक्षण के लिए बाध्य किया गया तथा उसके कन्या भ्रूण की हत्या कर दी गई है। शासन के पास प्रायः इस प्रकार की शिकायतें नहीं पहुँचती हैं। इस अधिनियम में यह स्पष्ट नहीं है कि कन्या भ्रूण की हत्या के लिए दण्ड किसे दिया जाएगा - माता को, पति को, रिश्तेदारों को या चिकित्सक को, यथा - इस कानून को पूरी तरह सफ़ल न रहने के उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त वास्तविकता यह भी है कि शासन ने कोई विशेष पहल नहीं की है। प्रदेश जनपद और निचले स्तर पर इस कानून को लागू करने हेतु किसी प्रकार की मशीनरी की व्यवस्था नहीं की गई है, अतः जिस प्रकार से बाल विवाह निषेध कानून, सती निरोधक कानून, दहेज प्रतिबंध कानून आदि महज+ औपचारिकता बन कर रह गए, समाज की समस्याओं को निरूपित नहीं कर पाए, उसी प्रकार से यह अधिनियम भी सफ़ल नहीं हो पा रहा है। लेसली गार्नर के अनुसार मानवता के अभ्यूदयकाल से आज तक प्रकृति ने सदैव चतुर चितेरे की भूमिका निभाई है। उसने लड़का और लड़की के अनुपात के बीच सदैव संतुलन बनाए रखा है। यदि हम प्रकृति के इस नियम का विरोध करके चारों तरफ़ लड़के ही लड़के उत्पन्न कर देंगे तो भविष्य में युवकों का समूह यौन कुण्ठाओं से घिर जाएगा,उसका स्वभाव अक्रामक हो जायेगा और उसकी प्रवृत्ति विध्वसंक, प्रकृति के नियमानुसार हर युवक को युवती की मित्रता चाहिए होती है। इससे उसमें आत्मीयता निःस्वार्थता एवं दूसरे के दुःखों की चिंता करने जैसे सद्गुणों का विकास होता है उसे उद्वण्डी और उच्र्छृखल होने से बचाता है। उसमें पूरे के पूरे जनसमूहों को जलाकर राख कर देने का जुनून पैदा नहीं होता है। माता-पिता को अपनी विचारधारा में परिवर्तन लाना होगा। यदि पति-पत्नी केवल एक या दो बच्चे चाहे किसी भी लिंग के हों, जन्म देने का निर्णय कर लें तो समाज में परिवर्तन संभव है। धार्मिक बहाने बाजी छोड़नी पड़ेगी। अनुशासन के नाम पर हो रही हिंसा पर यदि तत्काल रोक न लगायी गयी तो कल कितना भयावह होगा यह विचारणीय है। कानून की जानकारी जनमानस में प्रसारित करनी होगी। लड़कियों की शिक्षा को हर स्तर पर निःशुल्क करना होगा इससे आदर्श परिवार का स्वरूप भी बदलेगा। इन सभी परिवर्तनों के लिए हमें तैयार रहना होगा।सहायक ग्रन्थ -१. (सम्पादक) सं० राजेन्द्र यादव, अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण २००१२. (सम्पादक) अरविंद जैन, लीलाधर मडलोई, स्त्रीःमुक्ति का सपना, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण २००४३. (सम्पादक) चन्द्रमोहन अग्रवाल, भारतीय नारी : विविध आयाम, श्री अल्मोड़ा बुक डिपो, १९९४
प्रवक्ता हिन्दी,वीमेन्स कालेज,ए.एम.यू., अलीगढ़

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