डॉ. हरेराम पाठक
हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है।
परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी हैं, परन्तु ‘साक्षात्कार' समाज के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों की मनोवृत्तियों से सीधा साक्षात्कार करा रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने इस विधा को इतना लोकप्रिय बनाया है कि इसके विकास की अनंत संभावनाएँ दिखाई दे रही हैं।
साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति समाज के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों से मुलाकात कर निर्धारित तिथि को उनके जीवन, रुचियों, कृतित्व, विचार, प्रेरणास्रोत आदि के संबंध में प्रश्न करता है और उनके दिये गये उत्तरों को लिपिबद्ध करता है। इस प्रकार के लिए गये साक्षात्कार में कल्पना का समावेश नहीं होता। अतः ये साक्षात्कार ऐतिहासिक तथ्य के रूप में धरोहर बन जाते हैं। कालान्तर में इन साक्षात्कारों का महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि ये इतिहास, समाजशास्त्रा, राजनीतिशास्त्रा, अर्थविज्ञान, साहित्य का इतिहास आदि के लेखन में तथ्यमूलक प्रामाणिक दस्तावेज का काम करते हैं।
साहित्य की अन्य विधाओं के समान साक्षात्कार-लेखन कोई शगल नहीं है। संग्रह एवं संकलन की भावना इसमें संवेदनात्मक स्तर पर बहुत गहरी होती है। साक्षात्कारकर्ता की संवेदना व्यक्तिगत एवं वस्तुगत दोनों स्तरों पर होती है। साहित्य की अन्य विधाओं के समान यहाँ कल्पना-तत्त्व की कोई खास जगह नहीं होती। यदि कोरी भावुकता-प्रदर्शन एवं दुराग्रहपूर्ण विचार से बचा जाय तो साक्षात्कार जैसी सशक्त विधा कोई हो ही नहीं सकती।
हिन्दी साक्षात्कार विधा की बढ़ती लोकप्रियता के चलते आज उसके स्वरूप एवं संभावनाओं की पड़ताल होने लगी है। उसके ऐतिहासिक विकास-क्रम पर समीक्षक विचार करने लगे हैं। हिन्दी साहित्य में जैसे अन्य विधाओं की उत्पत्ति के विषय में विवाद चलते रहे हैं, उसी प्रकार साक्षात्कार विधा के उद्भव के विषय में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान इस विधा का आरंभ श्री चन्द्रभान से मानते हैं तो कुछ पं. बनारसीदास चतुर्वेदी से। चतुर्वेदी जी ने ‘रत्नाकर जी से बातचीत' शीर्षक साक्षात्कार सितंबर, १९३१ के ‘विशाल भारत' में प्रकाशित किया था। इसके पश्चात् ‘प्रेमचंद जी के साथ दो दिन' शीर्षक से उनका दूसरा साक्षात्कार जनवरी, १९३२ में ‘विशाल भारत' में ही प्रकाशित हुआ था। ‘हिन्दी इण्टरव्यू : उद्भव और विकास' नामक अपने शोध-प्रबन्ध में डॉ. विष्णु पंकज ने हिन्दी इण्टरव्यू विधा का जन्म सन् १९०५ ई. से मानते हुए श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को इसके प्रवर्तक के रूप में स्वीकार करते हैं। साक्षात्कार विधा का प्रारंभ भले ही सन् १९०५ से माना जाय परन्तु यह सर्व विदित है कि बीसवीं सदी के तीसरे दशक में ही इस विधा का स्वस्थ अंकुरण हो पाया था। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे सुधी चिंतक ने ही इस विधा को पुष्पित एवं पल्लवित करने के लिए सर्वप्रथम सार्थक कदम बढ़ाया था। हिन्दी पत्रकारिता के उन्मुक्त प्रांगण में इस विधा का जन्म हुआ। आज इसका विकसित रूप पत्रकारिता, रेडियो, दूरदर्शन आदि से होता हुआ केबल चैनलों तक आ पहुँचा है। समयानुकूल एवं समसामयिक विषयों, घटनाओं आदि पर आधारित विशेषज्ञों के साक्षात्कार पुस्तकों, कैसेटों एवं सीडियों में संकलित किये जा रहे हैं।
पत्रकारिता के माध्यम से साक्षात्कार विधा को लोकप्रिय बनाने का श्रेय पं. श्रीराम शर्मा को दिया जाता है। डॉ. सत्येन्द्र ने ‘साधना' के मार्च-अप्रैल सन् १९४१ अंक में अनेक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साक्षात्कार प्रस्तुत किये।
पुस्तकाकार रूप में लेखक बेनी माधव शर्मा ने ‘कविदर्शन' प्रकाशित कराया जिसमें श्री हरिऔध, श्यामसुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, सनेही आदि साहित्यकारों के साक्षात्कार सामने आये, परन्तु शैली की रोचकता के अभाव में इस पुस्तक को लोकप्रियता नहीं प्राप्त हो सकी। पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित साक्षात्कार विधा की प्रभावशाली पुस्तक डॉ. पद्म सिंह शर्मा ‘कमलेश' की ‘मैं इनसे मिला' है।
साहित्य की अन्य विधाओं में यांत्रिाकता अथवा अस्वाभाविकता हो सकती है, परन्तु साक्षात्कार विधा इनसे बिलकुल अछूती होती है। एक बार जब डॉ. पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश' मुम्बई के वयोवृद्ध हिन्दी पत्राकार तथा नाटककार हरिकृष्ण जौहर से साक्षात्कार लेने हेतु उनके आवास पर पहुँचे तो श्री कृष्ण जौहर ने गद्गद् होकर कहा था : ‘‘मेरे जीवन के अंतिम दिनों में आज, आप मेरी साहित्य साधना के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए आने वाले एक मात्रसज्जन हैं। मेरे हर्ष की अब कोई सीमा नहीं है।''
उपर्युक्त कथन के आधार पर ही डॉ. कमलेश ने ‘मैं इनसे मिला' की पृष्ठभूमि में लिखा है : ‘‘उस वयोवृद्ध साहित्यकार के इन शब्दों ने मुझे अनुभव कराया कि उन जैसे अनेक महारथी हिन्दी की सेवा में मर खप रहे हैं और उनके संबंध में कोई कुछ नहीं लिखता। फलतः लोगों को उनके जीवन के विषय में भी कोई जानकारी नहीं होती। यदि ऐसे अनुभवी साहित्यकारों से उनके संग्रह हो सकें तो हिन्दी में एक नयी सामग्री भावी आलोचकों और इतिहास लेखकों को मिल जायेगी जिसके प्रकाश में वे उनके साहित्य को ठीक-ठीक कसौटी पर कस सकेंगे।''
उपर्युक्त कथनों से यह प्रमाणित होता है कि साक्षात्कार विधा साहित्य को अधिक प्रामाणिक एवं विश्वसनीय बनाने की एक सशक्त विधा है। साहित्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने-परखने एवं समझने की दार्शनिक पद्वति ही ‘साक्षात्कार' है।
डॉ. कमलेश जी द्वारा उग्र जी एवं जौहर जी पर लिए गये साक्षात्कार दिल्ली के ‘नवयुग' में प्रकाशित हुए। पाठकों ने इन साक्षात्कारों की काफी प्रशंसा की। परिणामस्वरूप दो खंडों में हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साक्षात्कार उन्होंने प्रकाशित कराये।
कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर' का ‘वट-पीपल' एक ऐसी पुस्तक है जिसमें साक्षात्कार, संस्मरण एवं रेखाचित्रतीनों एक ही साथ समाहित हैं। ‘वट पीपल' में श्री काशी प्रसाद जायसवाल, राहुल सांकृत्यायन, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन', सुमित्राानंदन पंत, मराठी साहित्य के मामा बरेकर, नृत्यांगना रुक्मिणी देवी तथा पोलैण्ड के राष्ट्रकवि अदम मित्स के संस्मरण एवं साक्षात्कार हैं।
हिन्दी के सशक्त लोक साहित्यकार स्व. देवेन्द्र सत्यार्थी द्वारा रचित ‘कला के हस्ताक्षर' साक्षात्कार की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इसका प्रकाशन सन् १९५४ में हुआ था।
डॉ. पद्म सिंह शर्मा ‘कमलेश' तथा ‘देवेन्द्र सत्यार्थी' के बाद हिन्दी साहित्य में साक्षात्कार विधा के अनेक लेखक सामने आये। इस विधा का विकास इतनी तेजी से हुआ कि केवल हिन्दी भाषा ही नहीं बल्कि ग़ैर हिन्दी भाषी तथा विदेशी साहित्यकारों के साक्षात्कार भी हिन्दी में प्रकाशित होने लगे। राजेन्द्र यादव ने रूसी साहित्यकार एण्टन चेखव से भेंटकर उनका साक्षात्कार प्रकाशित कराया। सन् १९६६ में सेठ गोविन्द दास द्वारा आचार्य रजनीश से लिया गया साक्षात्कार ‘माध्यम' पत्रिका में प्रकाशित हुआ। सन् १९६५ में हरवंश लाल शर्मा की पुस्तक ‘उदयशंकर भट्ट : व्यक्ति और साहित्यकार' प्रकाश में आयी जिसमें कुछ साहित्यकारों एवं कलाकारों के साक्षात्कार समाविष्ट हैं। सन् १९६२ ई. में ‘समय और हम' शीर्षक से प्रकाशित वीरेन्द्र कुमार गुप्त की पुस्तक जैनेन्द्र जी से लिये गए साक्षात्कार पर आधारित एक कालजयी कृति है।
बीसवीं सदी के सातवें दशक से इस विधा में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए जिसका प्रभाव आज तक विद्यमान है। इसके पहले सामान्यतः विख्यात लोगों के साक्षात्कार ही प्रकाशित होते थे परन्तु सातवें दशक से वैसे लोगों के साक्षात्कार भी सामने आने लगे जो सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे लोगों के साक्षात्कार से बहुत सारी बातें निष्पक्ष रूप से सामने आती हैं। सातवें, आठवें एवं नवें दशक में इस विधा में काफी लचीलापन आया। मनोहर श्याम जोशी, शैलेश मटियानी, प्रेम कपूर, डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, ओमप्रकाश शर्मा आदि साहित्यकारों ने इस विधा को काफी महिमा मंडित किया। श्री अक्षय कुमार जैन, कन्हैयालाल नंदन, विष्णुकांत शास्त्राी, डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. शिवदान सिंह चौहान, दूधनाथ सिंह, प्रदीप पंत, डॉ. बापूराव देसाई आदि साहित्यकारों ने इस विधा को और अधिक सशक्त किया। महिला साक्षात्कारों में डॉ. सची रानी गुर्टू, विपुला देवी, सुशीला अग्रवाल, डॉ. माजदा असद, सावित्री परमार, वीणा अग्रवाल, सुधा अग्रवाल आदि प्रमुख हैं।
इक्कीसवीं सदी के इन पाँच-छह वर्षों में ‘हंस', ‘आजकल', ‘नया ज्ञानोदय', साहित्य अमृत', ‘आलोचना', द्वीप लहरी', ‘वाङ्मय', ‘भाषा', ‘समकालीन भारतीय साहित्य' हिन्दुस्तान दैनिक आदि पत्रा-पत्रिकाओं में साक्षात्कार विधा को काफी महत्त्व मिला है। प्रायः इन पत्र-पत्रिकाओं में किसी न किसी व्यक्ति का साक्षात्कार होता ही है। इक्कीसवीं सदी में अब तक लिये गये साक्षात्कारों की संख्या सैकड़ों हैं जिनका मूल्यांकन कर पाना यहाँ संभव नहीं है। फिर भी कुछ साक्षात्कारों का नामोल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। इन साक्षात्कारों में प्रकाश प्रसाद उपाध्याय और शुभंकर मिश्र द्वारा कमला सांकृत्यायन से लिया गया साक्षात्कार, ललित खुराना और सीमा ओझा द्वारा गिरिराज किशोर से लिया गया साक्षात्कार, कमलेश भट्ट ‘कमल' द्वारा गोपालदास नीरज से लिया गया साक्षात्कार आदि में लेखकों की पीड़ाएँ उभरकर सामने आयी हैं।
‘साक्षात्कार' लेना भी एक कला है। इसके लिये पर्याप्त परिपक्वतों एवं सूझ-बूझ की आवश्यकता होती है। साक्षात्कार लेने के कुछ सामान्य नियमों की यहाँ जानकारी दी जा रही है -
(१) साक्षात्कार के लिये सर्वप्रथम जिस व्यक्ति का चुनाव करें उसके कार्य-क्षेत्रा, अभिरुचियों आदि के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त कर लें।
(२) जिस व्यक्ति का साक्षात्कार लेना हो उसके कार्य-क्षेत्र के विषय के अनुसार प्रश्नावली तैयार कर लें।
(३) जिसका साक्षात्कार लेना हो उससे मिलकर अथवा दूरभाष से संपर्क स्थापित कर तिथि, समय एवं स्थान निश्चित करें।
(४) प्रस्तुत साक्षात्कार के संबंध में भेंट नायक को अपना उद्देश्य स्पष्ट करें।
(५) चयनित भेंट नायक से वही प्रश्न करें जिस पर उन्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो।
(६) आप जब भी प्रश्न करें इसका ख्याल अवश्य रखें कि आप सामान्य जनता की ओर से प्रश्न कर रहे हैं। श्रोता एवं पाठक को आपका प्रश्न उन्हें अपना जैसा लगना चाहिए।
(७) साक्षात्कार के समय दोनों का प्रसन्नचित्त एवं सहज होना आवश्यक है।
(८) जिनका साक्षात्कार लिया गया हो, यदि उनकी इच्छा हो तो साक्षात्कार के लिखित अथवा टेप किये हुए अंश को उन्हें दिखा दें।
(९) साक्षात्कार के दौरान कोई ऐसा प्रश्न न उठावें जिससे साक्षात्कार देने वाले व्यक्ति की जाति, धर्म अथवा व्यक्तिगत अभिरुचियों को ढेस पहुँचे।
(१०) साक्षात्कार के अंत में धन्यवाद ज्ञापन करें।
दूरभाष एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव से साक्षात्कार विधा में गत्यात्मक परिवर्तन होना स्वाभाविक है। आजकल के अत्यंत व्यस्ततम युग में यह संभव नहीं है कि प्रत्येक साहित्यकार के घर जाकर साक्षात्कार लिया जाय। अतः ऐसी परिस्थिति में निःसंकोच दूरभाष का प्रयोग किया जा सकता है। कुछ बड़े लेखक इसे अपनी मर्यादा के खिलाफ ले सकते हैं। परन्तु मेरी समझ से ऐसा सोचना व्यर्थ है। साहित्य के प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण हेतु हमें आधुनिक तकनीकी का सहारा लेना ही पड़ेगा।
यद्यपि हिन्दी साक्षात्कार विधा की उत्तरोत्तर प्रगति हुई है, फिर भी इसमें बहुत कुछ करना अभी भी बाकी है। अभी भी साहित्य की विभिन्न विधाओं के विद्वानों से अलग-अलग साक्षात्कार लेकर उसे प्रकाशित करने का कार्य नहीं हो पाया है। व्यक्तित्व केन्द्रित साक्षात्कार तो बहुत लिए जा रहे हैं परन्तु कृति-केन्द्रित साक्षात्कारों की कमी अभी भी खलती है। इस क्षेत्र में सार्थक पहल की आवश्यकता है।
बदलते समय के अनुसार साक्षात्कार लेने की पद्वति में परिवर्तन होना चाहिए। यदि साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन की छाप उसके साहित्य में है और अगर वह उसे स्वीकार करता है तो साक्षात्कारकर्त्ता सामान्यजन की जिज्ञासा का ख्याल रखते हुए उक्त साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन संबंधी प्रश्न भी कर सकता है, परन्तु मर्यादा के भीतर रहकर ही। बहुत-सी ऐसी साहित्यिक कृतियाँ हैं जो अभी भी विवादों के घेरे में हैं उन कृतियों के रचनाकारों से उन विवादित समस्याओं से संबंधित प्रश्न कर सकते हैं, इससे साक्षात्कार विधा को और मजबूती मिलेगी।
ज्ञानवर्द्धक साक्षात्कारों को पाठ्यक्रम में स्थान देना भी आवश्यक है। इससे साक्षात्कार लेने वाले व्यक्तियों का मनोबल भी बढ़ेगा और इस विधा का विकास होगा।
सारांशतः हम यह कह सकते हैं कि आधुनिक साक्षात्कार विधा का भविष्य उज्ज्वल है। वह समय दूर नहीं है जबकि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा की गरिमा एवं लोकप्रियता अधिक विकसित होगी।
हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है।
परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी हैं, परन्तु ‘साक्षात्कार' समाज के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों की मनोवृत्तियों से सीधा साक्षात्कार करा रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने इस विधा को इतना लोकप्रिय बनाया है कि इसके विकास की अनंत संभावनाएँ दिखाई दे रही हैं।
साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति समाज के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों से मुलाकात कर निर्धारित तिथि को उनके जीवन, रुचियों, कृतित्व, विचार, प्रेरणास्रोत आदि के संबंध में प्रश्न करता है और उनके दिये गये उत्तरों को लिपिबद्ध करता है। इस प्रकार के लिए गये साक्षात्कार में कल्पना का समावेश नहीं होता। अतः ये साक्षात्कार ऐतिहासिक तथ्य के रूप में धरोहर बन जाते हैं। कालान्तर में इन साक्षात्कारों का महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि ये इतिहास, समाजशास्त्रा, राजनीतिशास्त्रा, अर्थविज्ञान, साहित्य का इतिहास आदि के लेखन में तथ्यमूलक प्रामाणिक दस्तावेज का काम करते हैं।
साहित्य की अन्य विधाओं के समान साक्षात्कार-लेखन कोई शगल नहीं है। संग्रह एवं संकलन की भावना इसमें संवेदनात्मक स्तर पर बहुत गहरी होती है। साक्षात्कारकर्ता की संवेदना व्यक्तिगत एवं वस्तुगत दोनों स्तरों पर होती है। साहित्य की अन्य विधाओं के समान यहाँ कल्पना-तत्त्व की कोई खास जगह नहीं होती। यदि कोरी भावुकता-प्रदर्शन एवं दुराग्रहपूर्ण विचार से बचा जाय तो साक्षात्कार जैसी सशक्त विधा कोई हो ही नहीं सकती।
हिन्दी साक्षात्कार विधा की बढ़ती लोकप्रियता के चलते आज उसके स्वरूप एवं संभावनाओं की पड़ताल होने लगी है। उसके ऐतिहासिक विकास-क्रम पर समीक्षक विचार करने लगे हैं। हिन्दी साहित्य में जैसे अन्य विधाओं की उत्पत्ति के विषय में विवाद चलते रहे हैं, उसी प्रकार साक्षात्कार विधा के उद्भव के विषय में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान इस विधा का आरंभ श्री चन्द्रभान से मानते हैं तो कुछ पं. बनारसीदास चतुर्वेदी से। चतुर्वेदी जी ने ‘रत्नाकर जी से बातचीत' शीर्षक साक्षात्कार सितंबर, १९३१ के ‘विशाल भारत' में प्रकाशित किया था। इसके पश्चात् ‘प्रेमचंद जी के साथ दो दिन' शीर्षक से उनका दूसरा साक्षात्कार जनवरी, १९३२ में ‘विशाल भारत' में ही प्रकाशित हुआ था। ‘हिन्दी इण्टरव्यू : उद्भव और विकास' नामक अपने शोध-प्रबन्ध में डॉ. विष्णु पंकज ने हिन्दी इण्टरव्यू विधा का जन्म सन् १९०५ ई. से मानते हुए श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को इसके प्रवर्तक के रूप में स्वीकार करते हैं। साक्षात्कार विधा का प्रारंभ भले ही सन् १९०५ से माना जाय परन्तु यह सर्व विदित है कि बीसवीं सदी के तीसरे दशक में ही इस विधा का स्वस्थ अंकुरण हो पाया था। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे सुधी चिंतक ने ही इस विधा को पुष्पित एवं पल्लवित करने के लिए सर्वप्रथम सार्थक कदम बढ़ाया था। हिन्दी पत्रकारिता के उन्मुक्त प्रांगण में इस विधा का जन्म हुआ। आज इसका विकसित रूप पत्रकारिता, रेडियो, दूरदर्शन आदि से होता हुआ केबल चैनलों तक आ पहुँचा है। समयानुकूल एवं समसामयिक विषयों, घटनाओं आदि पर आधारित विशेषज्ञों के साक्षात्कार पुस्तकों, कैसेटों एवं सीडियों में संकलित किये जा रहे हैं।
पत्रकारिता के माध्यम से साक्षात्कार विधा को लोकप्रिय बनाने का श्रेय पं. श्रीराम शर्मा को दिया जाता है। डॉ. सत्येन्द्र ने ‘साधना' के मार्च-अप्रैल सन् १९४१ अंक में अनेक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साक्षात्कार प्रस्तुत किये।
पुस्तकाकार रूप में लेखक बेनी माधव शर्मा ने ‘कविदर्शन' प्रकाशित कराया जिसमें श्री हरिऔध, श्यामसुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, सनेही आदि साहित्यकारों के साक्षात्कार सामने आये, परन्तु शैली की रोचकता के अभाव में इस पुस्तक को लोकप्रियता नहीं प्राप्त हो सकी। पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित साक्षात्कार विधा की प्रभावशाली पुस्तक डॉ. पद्म सिंह शर्मा ‘कमलेश' की ‘मैं इनसे मिला' है।
साहित्य की अन्य विधाओं में यांत्रिाकता अथवा अस्वाभाविकता हो सकती है, परन्तु साक्षात्कार विधा इनसे बिलकुल अछूती होती है। एक बार जब डॉ. पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश' मुम्बई के वयोवृद्ध हिन्दी पत्राकार तथा नाटककार हरिकृष्ण जौहर से साक्षात्कार लेने हेतु उनके आवास पर पहुँचे तो श्री कृष्ण जौहर ने गद्गद् होकर कहा था : ‘‘मेरे जीवन के अंतिम दिनों में आज, आप मेरी साहित्य साधना के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए आने वाले एक मात्रसज्जन हैं। मेरे हर्ष की अब कोई सीमा नहीं है।''
उपर्युक्त कथन के आधार पर ही डॉ. कमलेश ने ‘मैं इनसे मिला' की पृष्ठभूमि में लिखा है : ‘‘उस वयोवृद्ध साहित्यकार के इन शब्दों ने मुझे अनुभव कराया कि उन जैसे अनेक महारथी हिन्दी की सेवा में मर खप रहे हैं और उनके संबंध में कोई कुछ नहीं लिखता। फलतः लोगों को उनके जीवन के विषय में भी कोई जानकारी नहीं होती। यदि ऐसे अनुभवी साहित्यकारों से उनके संग्रह हो सकें तो हिन्दी में एक नयी सामग्री भावी आलोचकों और इतिहास लेखकों को मिल जायेगी जिसके प्रकाश में वे उनके साहित्य को ठीक-ठीक कसौटी पर कस सकेंगे।''
उपर्युक्त कथनों से यह प्रमाणित होता है कि साक्षात्कार विधा साहित्य को अधिक प्रामाणिक एवं विश्वसनीय बनाने की एक सशक्त विधा है। साहित्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने-परखने एवं समझने की दार्शनिक पद्वति ही ‘साक्षात्कार' है।
डॉ. कमलेश जी द्वारा उग्र जी एवं जौहर जी पर लिए गये साक्षात्कार दिल्ली के ‘नवयुग' में प्रकाशित हुए। पाठकों ने इन साक्षात्कारों की काफी प्रशंसा की। परिणामस्वरूप दो खंडों में हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साक्षात्कार उन्होंने प्रकाशित कराये।
कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर' का ‘वट-पीपल' एक ऐसी पुस्तक है जिसमें साक्षात्कार, संस्मरण एवं रेखाचित्रतीनों एक ही साथ समाहित हैं। ‘वट पीपल' में श्री काशी प्रसाद जायसवाल, राहुल सांकृत्यायन, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन', सुमित्राानंदन पंत, मराठी साहित्य के मामा बरेकर, नृत्यांगना रुक्मिणी देवी तथा पोलैण्ड के राष्ट्रकवि अदम मित्स के संस्मरण एवं साक्षात्कार हैं।
हिन्दी के सशक्त लोक साहित्यकार स्व. देवेन्द्र सत्यार्थी द्वारा रचित ‘कला के हस्ताक्षर' साक्षात्कार की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इसका प्रकाशन सन् १९५४ में हुआ था।
डॉ. पद्म सिंह शर्मा ‘कमलेश' तथा ‘देवेन्द्र सत्यार्थी' के बाद हिन्दी साहित्य में साक्षात्कार विधा के अनेक लेखक सामने आये। इस विधा का विकास इतनी तेजी से हुआ कि केवल हिन्दी भाषा ही नहीं बल्कि ग़ैर हिन्दी भाषी तथा विदेशी साहित्यकारों के साक्षात्कार भी हिन्दी में प्रकाशित होने लगे। राजेन्द्र यादव ने रूसी साहित्यकार एण्टन चेखव से भेंटकर उनका साक्षात्कार प्रकाशित कराया। सन् १९६६ में सेठ गोविन्द दास द्वारा आचार्य रजनीश से लिया गया साक्षात्कार ‘माध्यम' पत्रिका में प्रकाशित हुआ। सन् १९६५ में हरवंश लाल शर्मा की पुस्तक ‘उदयशंकर भट्ट : व्यक्ति और साहित्यकार' प्रकाश में आयी जिसमें कुछ साहित्यकारों एवं कलाकारों के साक्षात्कार समाविष्ट हैं। सन् १९६२ ई. में ‘समय और हम' शीर्षक से प्रकाशित वीरेन्द्र कुमार गुप्त की पुस्तक जैनेन्द्र जी से लिये गए साक्षात्कार पर आधारित एक कालजयी कृति है।
बीसवीं सदी के सातवें दशक से इस विधा में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए जिसका प्रभाव आज तक विद्यमान है। इसके पहले सामान्यतः विख्यात लोगों के साक्षात्कार ही प्रकाशित होते थे परन्तु सातवें दशक से वैसे लोगों के साक्षात्कार भी सामने आने लगे जो सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे लोगों के साक्षात्कार से बहुत सारी बातें निष्पक्ष रूप से सामने आती हैं। सातवें, आठवें एवं नवें दशक में इस विधा में काफी लचीलापन आया। मनोहर श्याम जोशी, शैलेश मटियानी, प्रेम कपूर, डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, ओमप्रकाश शर्मा आदि साहित्यकारों ने इस विधा को काफी महिमा मंडित किया। श्री अक्षय कुमार जैन, कन्हैयालाल नंदन, विष्णुकांत शास्त्राी, डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. शिवदान सिंह चौहान, दूधनाथ सिंह, प्रदीप पंत, डॉ. बापूराव देसाई आदि साहित्यकारों ने इस विधा को और अधिक सशक्त किया। महिला साक्षात्कारों में डॉ. सची रानी गुर्टू, विपुला देवी, सुशीला अग्रवाल, डॉ. माजदा असद, सावित्री परमार, वीणा अग्रवाल, सुधा अग्रवाल आदि प्रमुख हैं।
इक्कीसवीं सदी के इन पाँच-छह वर्षों में ‘हंस', ‘आजकल', ‘नया ज्ञानोदय', साहित्य अमृत', ‘आलोचना', द्वीप लहरी', ‘वाङ्मय', ‘भाषा', ‘समकालीन भारतीय साहित्य' हिन्दुस्तान दैनिक आदि पत्रा-पत्रिकाओं में साक्षात्कार विधा को काफी महत्त्व मिला है। प्रायः इन पत्र-पत्रिकाओं में किसी न किसी व्यक्ति का साक्षात्कार होता ही है। इक्कीसवीं सदी में अब तक लिये गये साक्षात्कारों की संख्या सैकड़ों हैं जिनका मूल्यांकन कर पाना यहाँ संभव नहीं है। फिर भी कुछ साक्षात्कारों का नामोल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। इन साक्षात्कारों में प्रकाश प्रसाद उपाध्याय और शुभंकर मिश्र द्वारा कमला सांकृत्यायन से लिया गया साक्षात्कार, ललित खुराना और सीमा ओझा द्वारा गिरिराज किशोर से लिया गया साक्षात्कार, कमलेश भट्ट ‘कमल' द्वारा गोपालदास नीरज से लिया गया साक्षात्कार आदि में लेखकों की पीड़ाएँ उभरकर सामने आयी हैं।
‘साक्षात्कार' लेना भी एक कला है। इसके लिये पर्याप्त परिपक्वतों एवं सूझ-बूझ की आवश्यकता होती है। साक्षात्कार लेने के कुछ सामान्य नियमों की यहाँ जानकारी दी जा रही है -
(१) साक्षात्कार के लिये सर्वप्रथम जिस व्यक्ति का चुनाव करें उसके कार्य-क्षेत्रा, अभिरुचियों आदि के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त कर लें।
(२) जिस व्यक्ति का साक्षात्कार लेना हो उसके कार्य-क्षेत्र के विषय के अनुसार प्रश्नावली तैयार कर लें।
(३) जिसका साक्षात्कार लेना हो उससे मिलकर अथवा दूरभाष से संपर्क स्थापित कर तिथि, समय एवं स्थान निश्चित करें।
(४) प्रस्तुत साक्षात्कार के संबंध में भेंट नायक को अपना उद्देश्य स्पष्ट करें।
(५) चयनित भेंट नायक से वही प्रश्न करें जिस पर उन्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो।
(६) आप जब भी प्रश्न करें इसका ख्याल अवश्य रखें कि आप सामान्य जनता की ओर से प्रश्न कर रहे हैं। श्रोता एवं पाठक को आपका प्रश्न उन्हें अपना जैसा लगना चाहिए।
(७) साक्षात्कार के समय दोनों का प्रसन्नचित्त एवं सहज होना आवश्यक है।
(८) जिनका साक्षात्कार लिया गया हो, यदि उनकी इच्छा हो तो साक्षात्कार के लिखित अथवा टेप किये हुए अंश को उन्हें दिखा दें।
(९) साक्षात्कार के दौरान कोई ऐसा प्रश्न न उठावें जिससे साक्षात्कार देने वाले व्यक्ति की जाति, धर्म अथवा व्यक्तिगत अभिरुचियों को ढेस पहुँचे।
(१०) साक्षात्कार के अंत में धन्यवाद ज्ञापन करें।
दूरभाष एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव से साक्षात्कार विधा में गत्यात्मक परिवर्तन होना स्वाभाविक है। आजकल के अत्यंत व्यस्ततम युग में यह संभव नहीं है कि प्रत्येक साहित्यकार के घर जाकर साक्षात्कार लिया जाय। अतः ऐसी परिस्थिति में निःसंकोच दूरभाष का प्रयोग किया जा सकता है। कुछ बड़े लेखक इसे अपनी मर्यादा के खिलाफ ले सकते हैं। परन्तु मेरी समझ से ऐसा सोचना व्यर्थ है। साहित्य के प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण हेतु हमें आधुनिक तकनीकी का सहारा लेना ही पड़ेगा।
यद्यपि हिन्दी साक्षात्कार विधा की उत्तरोत्तर प्रगति हुई है, फिर भी इसमें बहुत कुछ करना अभी भी बाकी है। अभी भी साहित्य की विभिन्न विधाओं के विद्वानों से अलग-अलग साक्षात्कार लेकर उसे प्रकाशित करने का कार्य नहीं हो पाया है। व्यक्तित्व केन्द्रित साक्षात्कार तो बहुत लिए जा रहे हैं परन्तु कृति-केन्द्रित साक्षात्कारों की कमी अभी भी खलती है। इस क्षेत्र में सार्थक पहल की आवश्यकता है।
बदलते समय के अनुसार साक्षात्कार लेने की पद्वति में परिवर्तन होना चाहिए। यदि साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन की छाप उसके साहित्य में है और अगर वह उसे स्वीकार करता है तो साक्षात्कारकर्त्ता सामान्यजन की जिज्ञासा का ख्याल रखते हुए उक्त साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन संबंधी प्रश्न भी कर सकता है, परन्तु मर्यादा के भीतर रहकर ही। बहुत-सी ऐसी साहित्यिक कृतियाँ हैं जो अभी भी विवादों के घेरे में हैं उन कृतियों के रचनाकारों से उन विवादित समस्याओं से संबंधित प्रश्न कर सकते हैं, इससे साक्षात्कार विधा को और मजबूती मिलेगी।
ज्ञानवर्द्धक साक्षात्कारों को पाठ्यक्रम में स्थान देना भी आवश्यक है। इससे साक्षात्कार लेने वाले व्यक्तियों का मनोबल भी बढ़ेगा और इस विधा का विकास होगा।
सारांशतः हम यह कह सकते हैं कि आधुनिक साक्षात्कार विधा का भविष्य उज्ज्वल है। वह समय दूर नहीं है जबकि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा की गरिमा एवं लोकप्रियता अधिक विकसित होगी।
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