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स्त्री-विमर्श के दर्पण में स्त्री का चेहरा

- मूलचन्द सोनकर

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अब हम इस बात की चर्चा करेंगे कि स्त्रियाँ अपनी इस निर्मित या आरोपित छवि के बारे में क्या राय रखती हैं। इसको जानने के लिए हम उन्हीं ग्रन्थों का परीक्षण करेंगे जिनकी चर्चा हम पीछे कर आये हैं। लेख के दूसरे भाग में वि.का. राजवाडे की पुस्तक ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास' के पृष्ठ १२८ से उद्धृत वाक्य को आपने देखा। इसी वाक्य के तारतम्य में ही आगे लिखा है, ‘‘यह नाटक होने के बाद रानी कहती है - महिलाओं, मुझसे कोई भी संभोग नहीं करता। अतएव यह घोड़ा मेरे पास सोता है।....घोड़ा मुझसे संभोग करता है, इसका कारण इतना ही है अन्य कोई भी मुझसे संभोग नहीं करता।....मुझसे कोई पुरुष संभोग नहीं कर रहा है इसलिए मैं घोड़े के पास जाती हूँ।'' इस पर एक तीसरी कहती है - ‘‘तू यह अपना नसीब मान कि तुझे घोड़ा तो मिल गया। तेरी माँ को तो वह भी नहीं मिला।''
ऐसा है संभोग-इच्छा के संताप में जलती एक स्त्री का उद्गार, जिसे राज-पत्नी के मुँह से कहलवाया गया है। इसी पुस्तक के पृष्ठ १२६ पर अंकित यह वाक्य स्त्रियों की कामुक मनोदशा का कितना स्पष्ट विश्लेषण करता है, ‘‘बाद में प्रगति हासिल करके जब लोगों को अग्नि तैयार करने की प्रक्रिया का ज्ञान हुआ तब वे वन्य लोग अग्नि के आस-पास रतिक्रिया करते थे। किसी भी स्त्री को किसी भी पुरुष द्वारा रतिक्रिया के लिए पकड़कर ले जाना, उस काल में धर्म माना जाता था। यदि किसी स्त्री को, कोई पुरुष पकड़कर न ले जाए, तो वह स्त्री बहुत उदास होकर रोया करती थी कि उसे कोई पकड़कर नहीं ले जाता और रति सुख नहीं देता। इस प्रकार की स्त्री को पशु आदि प्राणियों से अभिगमन करने की स्वतंत्रता थी। वन्य ऋषि-पूर्वजों में स्त्री-पुरुष में समागम की ऐसी ही पद्धति रूढ़ थी।'' यह कथन निर्विवाद रूप से स्त्रियों की उसी मानसिकता का उद्घाटन करता है कि वे संभोग के लिए न केवल प्रस्तुत रहती हैं, बल्कि उनका एकमात्र अभिप्रेत यौन-तृप्ति के लिए पुरुषों को प्रेरित करना है।
इस तरह के दृष्टांत वेद-पुराण इत्यादि में भी बहुततायत से उपलब्ध हैं। यहाँ ऋग्वेद के कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं -
मेरे पास आकर मुझे अच्छी तरह स्पर्श करो। ऐसा मत समझना कि मैं कम रोयें वाली संभोग योग्य नहीं हूँ(यानी बालिग नहीं हूँ)। मैं गाँधारी भेड़ की तरह लोमपूर्णा (यानी गुप्तांगों पर घने रोंगटे वाली) तथा पूर्णावयवा अर्थात्‌ पूर्ण (विकसित अधिक सटीक लगता है) अंगों वाली हूँ।(ऋ. १।१२६।७) (डॉ. तुलसीराम का लेख-बौद्ध धर्म तथा वर्ण-व्यवस्था-हँस, अगस्त २००४)
कोई भी स्त्री मेरे समान सौभाग्यशालिनी एवं उत्तम पुत्र वाली नहीं है। मेरे समान कोई भी स्त्री न तो पुरुष को अपना शरीर अर्पित करने वाली है और न संभोग के समय जाँघों को फैलाने वाली है।(ऋ. १०/८६/६) ऋग्वेद-डॉ. गंगा सहाय शर्मा, संस्कृत साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण १९८५)
हे इन्द्र! तीखे सींगों वाला बैल जिस प्रकार गर्जना करता हुआ गायों में रमण करता है, उसी प्रकार तुम मेरे साथ रमण करो।(ऋ. १०/८६/१५) (वही)
ब्रह्म वैवर्त पुराण में मोहिनी नामक वेश्या का आख्यान है जो ब्रह्मा से संभोग की याचना करती है और ठुकराए जाने पर उन्हें धिक्कारते हुए कहती है, ‘‘उत्तम पुरुष वह है जो बिना कहे ही, नारी की इच्छा जान, उसे खींचकर संभोग कर ले। मध्यम पुरुष वह है जो नारी के कहने पर संभोग करे और जो बार-बार कामातुर नारी के उकसाने पर भी संभोग नहीं करे, वह पुरुष नहीं, नपुंसक है।(खट्टर काका, पृ. १८८, सं. छठाँ)
इतना कहने पर भी जब ब्रह्मा उत्तेजित नहीं हुए तो मोहिनी ने उन्हें अपूज्य होने का शाप दे दिया। शाप से घबराए हुए ब्रह्मा जब विष्णु भगवान से फ़रियाद करने पहुँचे तो उन्होंने डाँटते हुए नसीहत दिया, ‘‘यदि संयोगवश कोई कामातुर एकांत में आकर स्वयं उपस्थित हो जाए तो उसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जो कामार्त्ता स्त्री का ऐसा अपमान करता है, वह निश्चय ही अपराधी है। (खट्टर काका, पृष्ठ १८९) लक्ष्मी भी बरस पड़ीं, ‘‘जब वेश्या ने स्वयं मुँह खोलकर संभोग की याचना की तब ब्रह्मा ने क्यों नहीं उसकी इच्छा पूरी की? यह नारी का महान्‌ अपमान हुआ।'' ऐसा कहते हुए लक्ष्मी ने भी वेश्या के शाप की पुष्टि कर दी।(वही, पृष्ठ १८९)
विष्णु के कृष्णावतार के रूप में स्त्री-भोग का अटूट रिकार्ड स्थापित करके अपनी नसीहत को पूरा करके दिखा दिया। ब्रह्म वैवर्त में राधा-कृष्ण संभोग का जो वीभत्स दृश्य है उसका वर्णन डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी' ने अपने लेख ‘कृष्ण और राधा' में करने के बाद अपनी प्रतिक्रिया इन शब्दों में व्यक्त किया है, ‘‘पता नहीं, राधा कृष्ण संभोग करते थे या लड़ाई लड़ते थे कि एक संभोग के बाद बेचारी राधा लहूलुहान हो जाती थी। उसके नितंब, स्तन और अधर बुरी तरह घायल हो जाते। राधा मरहम पट्टी का सामान साथ रखती होगी। राधा इतनी घायल होने पर प्रति रात कैसे संभोग कराती थी, इसे बेचारी वही जाने। (सरिता, मुक्ता रिप्रिंट भाग-२) इस प्रतिक्रिया में जो बात कहने को छूट गयी वह यह है कि इस हिंसक संभोग, जिसे बलात्कार कहना ज्यादा उचित है, से राधा प्रसन्न होती थी जिससे यही लगता है कि स्त्रियाँ बलात्कृत होना चाहती हैं।
History of prostitution in india के पृष्ठ १४७ पर पद्म पुराण के उद्धृत यह आख्यान प्रश्नगत प्रसंग में संदर्भित करने योग्य है। एक विधवा क्षत्राणी जो कि पूर्व रानी होती है, किसी वेद-पारंगत ब्राह्मण पर आसक्त होकर समर्पण करने के उद्देश्य से एकांत में उसके पास जाती है लेकिन ब्राह्मण इनकार कर देता है। इस पर विधवा यह सोचती है कि यदि वह उस ब्राह्मण के द्वारा बेहोशी का नाटक करे तो वह उसको ज+रूर अपनी बाँहों में उठा लेगा और तब वह उसे गले में हाथ डालकर और अपने अंगों को प्रदर्शित व स्पर्श कराकर उसे उत्तेजित कर देगी और अपने उद्देश्य में सफल हो जाएगी। निम्न श्लोक उसकी सोच को उद्घाटित करते हैं - सुस्निग्ध रोम रहितं पक्वाश्वत्थदलाकृति।/दर्शयिष्यामितद्स्थानम्‌ कामगेहो सुगन्धि च॥
मैं उसको पूर्ण विकसित पीपल के पत्ते की आकार की रोम रहित मृदुल और सुगंधित काम गेह(योनि) को (किसी न किसी तरह से) दिखा दूँगी क्योंकि - बाहूमूल कूचद्वंन्दू योनिस्पर्शन दर्शनात्‌।/कस्य न स्ख़लते चिन्तं रेतः स्कन्नच नो भवेत्‌॥
यह निश्चित है कि ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जिसका वीर्य किसी के बाहु-युगल, स्तन-द्वय और योनि को छूने और देखने से स्खलित न होता हो।
ये कुछ दृष्टांत हैं स्त्रियों के काम-सापेक्ष प्रवृत्ति की निर्द्वन्द्व स्वच्छंदता के, जो वर्तमान नारी-विमर्श के परिप्रेक्ष्य में गहन वैचारिक मंथन की मांग करते हैं।
अभी तक की चर्चा से यह निष्कर्ष स्थापित होता है कि यौन-सम्बन्धों के धरातल पर स्त्री-पुरुष समान हैसियत में नहीं खड़े हैं। कहने को स्त्री पुरुषों के वर्चस्व से अपनी देह को स्वतंत्र कराने के लिए युद्धरत हैं परन्तु अपनी देह के बहुमूल्य कोष को दोनों हाथों से उन्हीं को लुटाने के लिए व्यग्र भी है। यहाँ पर आकर मामला दो पृथक्‌ मानसिकता का बनता है जो स्वयं शासक और शासिता, स्वामी और सेविका(सेविता) में परिणित हो जाता है। यही मानसिकता का वह कारक तत्त्व है जो स्त्रियों की प्रताड़ना के लिए पुरुषों को उकसाता रहता है। अतः नारी-विमर्श के परिप्रेक्ष्य में पहले इस मानसिकता को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता है। आज भी पुरुष किस जकड़न के साथ इसी मानसिकता को जी रहा है और स्त्री जाने-अनजाने उसकी सहयोगिनी की भूमिका निभा रही है, इसकी पुष्टि में कुछ वास्तविक घटनाएँ उद्धृत की जा रही हैं-
सर्वाधिक कन्या भ्रूण हत्याएँ वाराणसी में- (‘हिन्दुस्तान', वाराणसी, २०.४.०६)
महिला के साथ सामूहिक दुराचार, घर से ले गये थे दबंग, पीड़िता के देवर को दरोगा ने किया बंद। (दैनिक जागरण, वाराणसी, दिनांक २७.०५.२००५) जनपद गाजीपुर में घटित घटना।
थानें में तीन तलाक और पत्नी से छुटकारा। (‘हिन्दुस्तान', वाराणसी, दिनांक ०४.०५.२००५)। जनपद लखीमपुर-खीरी के गोला कोतवाली में सुलह-समझौते के समय घटित घटना।
बेटियों के दुष्कर्म करने वाले पिता को ३२ साल की सजा। (दैनिक जागरण, वाराणसी, दिनांक २१.०४.२००६)। सिंगापुर में ६४ बच्चों के पिता और दस पत्नियाँ रखने वाले इस्लामी इतिहास के एक विद्वान द्वारा अपनी कुछ पत्नियों की मदद से १८ महीने तक १२-१५ वर्ष की अपनी बेटियों के साथ बलात्कार किया जा रहा और उनमें से दो गर्भवती भी हो गई। मामले की सुनवाई के दौरान बचाव पक्ष के वकील की इस दलील-’’आरोपी को विश्वास है कि यदि उसने अपनी बेटियों की यौन-इच्छा को तृप्त कर दिया तो वे विवाह से पहले अन्य व्यक्तियों के साथ यौन-सम्बन्ध नहीं बनायेंगी'', की विकृति के लिए कोई भी शब्द पर्याप्त नहीं है।
नींद में कहे गए तलाक ने खिलाया नया गुल : धार्मिक नेताओं ने दम्पत्ति को अलग रहने का आदेश दिया।(हिन्दुस्तान, वाराणसी, दिनांक २७.०३.०६)। सिलीगुड़ी में आफताब अंसारी नामक व्यक्ति ने नींद में अपनी पत्नी से तीन बार तलाक कह दिया। स्थानीय इस्लामी धर्मगुरुओं ने इसे बाक़ायदा तलाक़ मान लिया।
नजमा करेगी दूसरी शादी, कट्टरपंथियों की जिद मानी : ‘हलाला' के लिए तीन पुरुषों में एक को चुनेगी शौहर (हिन्दुस्तान, वाराणसी, दिनांक १८.०८.०६)। सिलीगुड़ी के केन्द्रपाड़ा में एक मजदूर ने शराब के नशे में अपनी पत्नी को तलाक दे दिया। गाँव की धार्मिक समिति ने उसे ‘हलाला' होने का आदेश दिया और निकाह करने के लिए तीन पुरुषों में से किसी एक के चयन का विकल्प भी दिया।
जहाँ छात्राओं पर पड़ते हैं ‘तालिबानी हंटर' : सरकारी छात्रावास में देनी होती है बेहद अंतरंग जानकारी (‘हिन्दुस्तान', वाराणसी, दिनांक २७.०३.०६) कर्नाटक के मदुरै जिले में स्थित गरीब और पिछड़े वर्ग के छात्रााओं के छात्रावास में महिला वार्डेन द्वारा छात्राओं को इस बात के लिए प्रताड़ित किया जाता है कि वे अपने मासिक धर्म की तिथि एक सार्वजनिक रजिस्टर में दर्ज करें।
कश्मीरी बालाओं के लिए कालेजों में आचार संहिता (हिन्दुस्तान, वाराणसी, दिनांक ०७.०७.०६)। कश्मीर के महिला कालेजों और बालिकाओं के स्कूलों में पढ़ने और पढ़ाने वालों के लिए आचार संहिता लागू हो गई है। क्या करना है और कैसे करना है, के साथ-साथ कब करना है, को भी लागू कर दिया गया है।
पाक सदन में बोलने नहीं दिया जाता महिला सांसदों को : प्रशिक्षण कार्यक्रम में सुनाई अपनी व्यथा कथा (हिन्दुस्तान, वाराणसी, दिनांक २३.०४.०६)।
जान के लिए प्यारा जेलखाना : पाकिस्तानी अखबारों से (हिन्दुस्तान, वाराणसी, दिनांक २३.०७.०६)। पाकिस्तान की जेलों में बलात्कार की शिकार ढाई हजार ऐसी महिलाएं बंद हैं। जो शरीयत कानून के अनुसार बलात्कार के आरोपियों के खिलाफ चश्मदीद गवाह नहीं पेश कर सकीं। उन्हें भय है कि यदि वे छोड़ दी जाती हैं तो उनके पति और भाई उनकी हत्या कर देंगे।
मजिस्टे्रट पुत्र ने यौन शोषण के बाद की ममेरी बहन की हत्या (दैनिक जागरण, वाराणसी, दिनांक १४.०५.२००६)
आदिवासी युवतियों के साथ सामूहिक दुराचार : शिकायक के बावजूद नहीं दर्ज हो पायी प्राथमिकी (दैनिक जागरण, वाराणसी, दिनांक ०९.०१.२००६)
ईसाई अभिनेत्री के मंदिर में प्रवेश से विवाद : मंदिर में केवल हिन्दू श्रद्धालुओं को ही दर्शन की अनुमति (दैनिक जागरण, वाराणसी, दिनांक ०२.०७.०६)। कन्नड़ अभिनेत्री जयमाला और मलयालम अभिनेत्री मीरा जास्मीन द्वारा मंदिर में प्रवेश पर बवाल मच गया।
नाइयों की औरतों को बरातियों के पैर न धोने पर नग्न घुमाया (दैनिक जागरण, वाराणसी, दिनांक २४.०९.२००५)। उड़ीसा के पुरी जिले के भुवनपति गाँव में तथाकथित ऊँची जाति के बारातियों की ओछी और काली करतूत।
मुस्लिम जमात ने महिला का सिर मूंडने को कहा(हिन्दुस्तान, वाराणसी, दिनांक ०२.०४.०६)। चिरूचिरापल्ली में एक पचपन वर्षीय महिला का सिर मूडने का आदेश दिया गया। उस पर आरोप लगाया गया कि उसने अपनी बेटी को वेश्यावृत्ति के लिए प्रोत्साहित किया।
रंगरेलियाँ मनाते पकड़ी गई युवती ने खुद को जलाया (हिन्दुस्तान, वाराणसी, १३.०७.२००६)। स्त्री के लिए शब्द ‘रंगरेलियाँ' और पुरुष के लिए?
शराबी पिता ने दुराचार के बाद हत्या कर बेटी को कुएँ में फेंका(हिन्दुस्तान, वाराणसी, २६.०७.२००६)
क्यों करती हैं अभिनेत्रिायाँ आत्महत्या? (हिन्दुस्तान, वाराणसी, १०.०२.०६)। क्योंकि अन्यों के साथ ही साथ उनके परिवार वाले भी उन्हें पैसा देने वाला पेड़ समझकर शोषण करते हैं।
नागरिकता नहीं तो परमिट ही मिल जाए (दैनिक जागरण, वाराणसी, दिनांक २३.०२.०५)। स्त्रियों के हक के लिए इस्लामी कट्टरवाद से लड़ने वाली विश्व प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन की भारत सरकार से गुहार। अनगिनत बंगलादेशियों के अवैध घुसपैठ को वोटर-लिस्ट के माध्यम से वैध करने वाला पराक्रमी देश इस असहाय स्त्री की वैध माँग पर उससे अधिक असहाय।
बलात्कार को लेकर गंभीर नहीं है पुलिस : आई.जी., बलात्कार की बढ़ती घटनाओं से मानवाधिकार आयोग चिन्तित (हिन्दुस्तान, वाराणसी, ०७.०६.०५)।
बरनाला का विधायक पुत्र बलात्कार के आरोप में बंदी (हिन्दुस्तान, वाराणसी, दिनांक १३.०८.२००६)।
उक्त सभी घटनाएँ ऐसी हैं जिनमें पुरुष ही मुख्य कर्ता है लेकिन इनमें कहीं न कहीं से स्त्रियों की भागीदारी को भी रेखांकित किया जा सकता है। अब उन स्थितियों और घटनाओं को इंगित किया जा रहा है जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि स्त्रियाँ ही पुरुषों की इस मनोदशा की पोषक और वाहक होती हैं क्योंकि जिस पुत्रा-रत्न को प्राप्त करके इनके पाँव जमीन पर नहीं पड़ते वही तो भविष्य का पुरुष होता है। कन्या-भ्रूण की हत्या को आदि युग से प्रचलित कन्या-वध की प्रथा के वर्तमान रूप में देखा जा सकता है। कन्या-हत्या निश्चित रूप से मातृ-सत्तात्मक समाज की देन है जिसकी झलक राहुल जी की पुस्तक ‘वोल्गा से गंगा' की पहली कहानी ‘निशा' में मिलती है जिसमें जब निशा यह देखती है कि उसके वर्चस्व को उसकी अपनी ही बेटी लेखा से खतरा उत्पन्न हो गया है तो वह उसकी हत्या का प्रयास करती है और दोनों ही मर जाती हैं। उनकी मृत्यु के बाद परिवार की सबसे बलिष्ठ स्त्री रोचना का निशा-परिवार की स्वामिनी बनने का सीधा संकेत तो यही है कि परिवार के सभी पुरुषों पर एक ही स्त्री का एकाधिकार। इसने स्त्रियों के मध्य आपसी वैमनस्य और शत्रुता तो पैदा ही किया होगा, इस एकाधिकार के विरुद्ध गुप्त संभोग हेतु वेदों में वर्णित जार-प्रथा का प्रचलन भी किया होगा। काशीनाथ विश्वनाथ राजवाडे ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास' में इस आधार पर कि गांधारी के सौ पुत्र और मात्रएक ही कन्या थी, कन्या-हत्या का प्रचलन स्थापित किया है। (पृष्ठ ७०)।
स्त्रियों का स्त्रियों के प्रति इस मारक द्वेष की मानसिकता की चरम परिणति उसकी पुत्र-प्राप्ति की अदम्य और दम्भपूर्ण लालसा में देखा जा सकता है जो पुरुष-सत्ता का मातृ-सत्ता पर बिना प्रयास के विजय सरीखा है। इस मानसिकता की पुष्टि दैनिक जागरण, वाराणसी के दिनांक १३.०९.०६ में छपे दो समाचारों से बिना किसी संशय के होती है। पहले समाचार का शीर्षक है ‘महिलाएँ कल रखेंगी जीवित्पुत्रिका व्रत' इसकी शुरुआत इस प्रकार है-’स्त्री के जीवन में पति और पुत्र ही उसका प्रत्यक्ष आभूषण है। इनकी रक्षा हेतु अनेक व्रत-उपवास का विधान शास्त्राों में बताया गया है।....यह व्रत स्त्रियाँ अपने पुत्रों की जीवन-रक्षा के उद्देश्य से करती हैं। इसी तिथि को प्रकाशित दूसरे समाचार का शीर्षक है, ‘‘जहाँ अवांछित लड़कियों को कहा जाता है ‘काफी' और ‘अनचाही' - पंजाब और हरियाणा राज्य जहाँ बड़े पैमाने पर कन्या भ्रूण-हत्या के कारण लिंगानुपात खतरनाक रूप से असंतुलित हो गया है, से संबंधित इस समाचार का सार यह है कि परिवार में अवांछित होने के कारण इन लड़कियों के ‘काफी', ‘अनचाही', ‘भरपाई', ‘भतेरी' जैसे अटपटे नाम रख दिए जाते हैं। इसकी थोड़ी-सी बानगी देखिए - ‘एक ओर जहाँ काफी का भाई अपनी माँ की आँखों का तारा है, तो काफी आँख की किरकिरी।...उसकी माँ दयावती कहती है कि ...चूँकि हम लड़की को कुदरत की ओर से सजा ही मानते हैं, इसलिए उसका नाम भरपाई रख दिया गया है। यानी अपराध की भरपाई।
स्पष्ट है सजा कोई भी नहीं भुगतना चाहेगा और अनचाही सजा तो क़तई नहीं। एक समाचार शीर्षक की बानगी और देखिए, ‘‘पुत्र की कामना के साथ हजारों ने लगाई लोलार्क कुंड में डुबकी' (‘हिन्दुस्तान', वाराणसी, दिनांक ३०.०८.०६)। अभी-अभी हरितालिका तीज का पर्व सम्पन्न हुआ। (अगस्त २००६)। यह पर्व स्त्रियाँ अपने पति की रक्षा और अखंड सौभाग्यवती रहने के लिए निर्जला व्रत रहकर मनाती हैं। इसी श्रेणी का एक पर्व करवा चौथ भी है। ‘हिन्दुस्तान', वाराणसी के दिनांक २५.०८.२००६ के परिशिष्ट ‘सुबह-ए-बनारस' में ‘ताकि सुहाग सलामत रहे' शीर्षक से प्रकाशित सियाराम यादव का यह पैरा उद्धृत है, ‘‘पश्चिमी समाज की महिलाओं को आश्चर्य होता है कि भारत (एक हद तक पूरब) की महिलाएँ पति में इनकी आस्था कैसे रखती हैं? उनके प्रति इतना विश्वास उनमें क्यों होता है कि वे उनकी पूजा तक करती हैं। वे पति को परमेश्वर मानती हैं। यहाँ तक स्पष्ट कर देना जरूरी है कि भारत में विवाह जन्म-जन्म का पवित्र रिश्ता होता है जबकि पश्चिम में यह एक समझौता। जाहिर है जो जन्म-जन्म का रिश्ता है वह स्थित दीर्घजीवी बल्कि अमर होता है। वह अनेक जन्मों तक चलता रहता है। इसलिए उसके प्रति गहरी आस्था विश्वास होना स्वाभाविक है और इसलिए पति परमेश्वर भी हो जाता है। हालांकि रिश्ता दो तरफा है, इसलिए पत्नी का भी इतना ही महत्त्व होना चाहिए, जितना पति का होता है, यानी पति अगर परमेश्वर है तो पत्नी को भी देवी होना चाहिए। यूँ तो भारतीय नारी को देवि का दर्जा प्राप्त है लेकिन यह सैद्धान्तिक ही है, व्यावहारिक जगत्‌ में ऐसा नहीं है। फिर भी भारतीय समाज में दाम्पत्य की गहरी नींव का श्रेय महिलाओं को ही जाता है।'' यादव जी का लेख उन तमाम वैचारिक झोल का सम्पुट है जो इस प्रकार के परम्परावादी लेखों की विशेषता होती है लेकिन यहाँ इस पर चर्चा नहीं करनी है। उनके द्वारा अंतिम वाक्य में सत्य को स्वीकार कर लिया गया है। अब स्त्रियों को ही सोचना है कि वे कब तक अपनी अस्मिता को मारकर दाम्पत्य जीवन की गहरी नींव की ईंट बनी रहेंगी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म, ईश्वर, देवता, परम्परा आदि सभी कुछ स्त्री के विरोध मंय संगुफित है और पुरुष इनका एकमात्र घोषित प्रतिनिधि है जो इन्हीं के माध्यम से स्त्री की प्रताड़ना का संहिताकरण करता है और फिर उन संहिताओं की विधि-विधान से पूजा करने के लिए स्त्रियों का मानसिक अनुकूलन भी करता है। जब कोई स्त्री पुत्र को जन्म देने के बाद अपने चारों तरफ एक दंभभरी मुस्कान फेंकती है, या एक पत्नी या माँ के रूप में पति और पुत्र के आवरण में लिपटे पुरुष नामधारी जीव की रक्षा और दीर्घायु के लिए कष्टकारी अनुष्ठान करती है, अथवा पुत्र की तुलना में पुत्री की उपेक्षा करती है, पुत्र या परिवार के अन्य सदस्यों की प्रताड़ना का अनुमोदन करती है तो निश्चित मानिए, वह भविष्य के किसी बलात्कारी के स्वागत में तोरण द्वार सजा रही होती है। वह एक कहावत है न ‘charity begins at home' तो स्त्रियों का ही यह दायित्व है कि पुत्र पैदा करके उनके अंदर यह संस्कार भी डालें कि वह स्त्रियों का सम्मान करना सीखें। स्त्री को किसी हिंसक पशु से कोई खतरा नहीं है। उसके लिए पुरुष ही एक मात्र हिंसक पशु है। वह घर-आँगन से लेकर हर गली-कूचे में इन्हीं का शिकार होती रहती है। यदि कोई स्त्री अपने बलात्कारी पुत्र या पति की सुरक्षा और दीर्घायु के लिए व्रत उपवास रखती है, यदि वह इन तथाकथित धर्म-ग्रन्थों अथवा उन पर स्थापित इतर शक्तियों की पूजा करती है, जो उसको मनुष्य का दर्जा ही नहीं देते तो क्या यह स्त्री-विमर्श की राह में सबसे बड़ा रोड़ा नहीं है? क्या स्त्री पुरुष-वर्चस्व के इन प्रतीक चिद्दों को ध्वस्त करने के लिए तैयार है? क्या वह इसके लिए वह अपनी मानसिकता में बदलाव करने का साहस कर सकेगी?
मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूँ कि उक्त या ऐसे किसी भी प्रश्न का उत्तर नकारात्मक ही होगा क्योंकि वर्ण-व्यवस्था सामाजिक पहचान की दंभी सोच का परिचायक भी है और स्त्रियाँ अपनी वास्तविक हैसियत से अनभिज्ञ अपनी जातीय श्रेष्ठता के विज्ञापन-प्रदर्शन में पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक क्रूर होती हैं। अपने से निम्न जाति के स्त्री-पुरुषों के साथ उसका व्यवहार घृणास्पद और शत्रुवत्‌ ही होता है और यदि कोई व्यक्ति दलित हो तो कहना की क्या? वह तो पैदाइशी घृणा का पात्र है। किसी दलित स्त्री का बलात्कार हो जाए तो कितनी सवर्ण स्त्रियाँ उद्वेलित होती हैं? कोई सामाजिक कार्यकत्री हो तो शायद औपचारिकता निभा दे अन्यथा एक के भी कान पर कोई जूँ नहीं रेंगती। यही कारण है कि आये दिन थोक के भाव से दलित और आदिवासी युवतियाँ सामूहिक बलात्कार का शिकार होती हैं परन्तु किसी का कुछ नहीं बिगड़ता। मैं इस लेख का समापन दैनिक जागरण, वाराणसी के दिनांक १४.०९.२००६ के अंक में ‘बालिका संग दुराचार पीड़ितों को ही जेल' शीर्षक से छपे समाचार से करना चाहूँगा। मामला जनपद आजमगढ़ के जहानागंज थाना क्षेत्र के भोपतपुर गाँव का है। गाँव की एक तेरह वर्षीय दलित बालिका के साथ गाँव का ही एक दबंग युवक बलात्कार कर देता है। घर वाले जब शिकायत लेकर बलात्कारी के घर जाते हैं तो मार-मारकर लहूलुहान कर दिए जाते हैं। थाने पर गुहार लगाते हैं तो मार-पीट के आरोप में जेल पाते हैं। संयोगवश इस वर्ष जीवित्पुत्रिका के व्रत की तिथि भी यही है। बलात्कारी की माँ उसकी रक्षा और दीर्घायु के लिए व्रत रख रही होगी। यह हिन्दी दिवस की भी तिथि है। पूरी सरकार और बुद्धिजीवियों की फ़ौज हिन्दी की अस्मिता बचाने में व्यस्त रहेगी। कितनी बिंदियों के चीथड़े किए गए किसी से क्या मतलब?
स्त्री-विमर्श बौद्धिक-विलास के रंग-मंच पर खेला जाने वाला नाटक नहीं है। यह सक्रिय आन्दोलन का विषय है। अभी भी अधिसंख्य स्त्रियाँ इससे उसी तरह अनभिज्ञ हैं जैसे अपने अस्तित्व से। स्त्री के अस्तित्व की वास्तविक पहचान और मिथक-भंजन इसकी पहली और अंतिम अनिवार्य शर्त है। बीच का सब कुछ अपने आप ढह जाएगा। स्त्री को शिक्षित और नए संस्कार में दीक्षित करने की आवश्यकता है यदि चाहते हैं कि इसका अगला संस्करण समतावादी सोच की धरातल पर मजबूती से खड़ा हो सके।

Comments

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कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क