- मूलचन्द सोनकर
स्त्री और पुरुष के बीच सम्बन्ध का यही कटु यथार्थ है कि स्त्री पुरुष को उत्पन्न करती है परन्तु पुरुष उसका अमर्यादित शोषण करता है और ऐसा करने के लिये वह सामाजिक, नैतिक और धार्मिक रूप से अधिकृत है। इतना ही नहीं, पुरुष द्वारा स्त्री को भोग्य के रूप में मान्यता ‘उत्पादन द्वारा उत्पादक' के भक्षण का एक मात्र उदाहरण है। स्त्री के प्रति पुरुष की इस मानसिकता का विकास संभवतः सृष्टि-रचना के आदि सिद्धान्त में निहित है जहाँ सृष्टिकर्ता स्त्री नहीं पुरुष है। हिन्दू माइथालोजी में पशु-पक्षी इत्यादि के स्रोत का तो पता नहीं, मनुष्य की उत्पत्ति भी योनि से न होकर ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न हिस्से से हुई और वह भी मनुष्य के रूप में नहीं बल्कि वर्ण के रूप में। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से लेकर सभी अनुवर्ती गन्थों में उत्पत्ति का यही वर्ण-व्यवस्थायीय प्रावधान मिलता है और इसके लिये रचित मंत्र और श्लोकों का जो टोन है उनसे यही ध्वनित होता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में केवल पुरुषों की ही उत्पत्ति हुई स्त्रियों की नहीं और अब, जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि दलित शूद्र के अंग नहीं है क्योंकि शूद्र अस्पृश्य नहीं थे, तो इसमें कोई विवाद नहीं होना चाहिये कि स्त्री की भाँति दलित भी वर्ण-व्यवस्थायीय उत्पत्ति नहीं हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारतीय समाज-व्यवस्था में स्त्री और दलित दोनों ही बाहरी व अपरिचित तत्त्व हैं। इसलिये भारतीय समाज का रवैया यदि इनके प्रति शत्रुवत् है तो आश्चर्य नहीं करना चाहिये।
उपरोक्त कथन के विरोध में यह तर्क दिया जा सकता है कि समय के साथ न जाने कितने विरोधाभाषों का समरस विलीनीकरण अथवा सहमतिपूर्ण सामंजस्य हो जाता है और मनुष्य अपनी विकास-यात्रा के जिस पड़ाव पर पहुँच चुका है। उस परिप्रेक्ष्य में यह एक मूर्खतापूर्ण सोच है। यह तर्क दिखने में चाहे जितना दमदार हो लेकिन वास्तव में इसमें कोई दम नहीं है क्योंकि धार्मिक मान्यताओं के प्रति भारतीय समाज ही नहीं समग्र मानव समाज इतना जड़ है कि वह आदि युगीन मानव की भाँति ही सोचता है और उसी समय में जीता है। उसके लिये आज भी ईश्वरीय सत्ता ही वास्तविक सत्ता है और बिना उसकी मर्जी के कुछ भी घटित होना संभव नहीं है। उसकी दिनचर्या का निर्धारण और नियंत्राण हजारों हजार मील दूर स्थित कोई ग्रह करता है; यह बात अलग है कि वह ग्रह स्वयं अपनी गोद में किसी जीव का पालन करने में समर्थ नहीं है। स्त्री-पुरुष के सहज संयोग को सन्तानोत्पत्ति का कारण न मानकर इसे ईश्वर की देन कहने वालों की आज भी कोई कमी नहीं है और इसमें प्रजनन करवाने वाली डॉक्टर भी शामिल है जो इसकी वैज्ञानिक वास्तविकताओं से पूरी तरह भिज्ञ होती है किन्तु यही लोग बिना वैवाहिक सम्बन्ध के उत्पन्न सन्तान को ईश्वर की देन मानने से न केवल इनकार करते हैं अपितु माँ को कुलटा भी घोषित कर देते हैं। चन्द्र एवं सूर्यग्रहण आज भी इनके लिये कोई वैज्ञानिक परिघटना न होकर राहु और केतु कारस्तानी है। ऐसा नहीं है कि हिन्दू धर्म के अनुयायी ही ऐसा करते हैं। किसी भी धर्म के अनुयायिओं के आचरण के बारे में इस प्रकार के दृष्टान्त उद्धृत किये जा सकते हैं। चूँकि धर्म एवं वर्ण-व्यवस्था की मानसिक ग्रन्थि से भारतीय समाज आज भी निकलना नहीं चाहता। अतः दलितों और स्त्रियों के प्रति उसके व्यवहार के बारे में मेरे कथन के विरोध में व्यक्त तर्क स्वतः ही दम तोड़ देता है। इस लेख का विषय स्त्री-विमर्श से सम्बन्धित होने के कारण इसी परिप्रेक्ष्य में इस चर्चा को आगे विस्तार दिया जा रहा है।
अध्यात्म के स्तर पर धर्म का चाहे जो तात्पर्य हो लेकिन व्यवहार के स्तर पर उसका वही आशय है जो कानून का है। दोनों का उद्देश्य समाज को नियंत्रित करना है। इसके लिए ‘क्या करना चाहिये' और ‘क्या नहीं करना चाहिये' का संहिताकरण और उल्लंघन करने पर दंडित करने का प्रावधान दोनों जगह किया गया है लेकिन दोनों में एक अन्तर है। कानून लोकतांत्रिक व्यवस्था की देन है और सबको समान दृष्टि से देखने की वकालत करता है और धर्म राजतंत्र द्वारा पोषित ब्राह्मणवादी व्यवस्था है जो वर्ग-हित की वकालत करता है। इसमें मनुष्य के साथ समानता के आधार पर नहीं बल्कि उसके वर्णगत् हैसियत के आधार पर व्यवहार करने का प्रावधान है, जिसे ईश्वर अथवा मनुष्येतर शक्तियों द्वारा अनुमोदित घोषित करवाकर इसे अनुल्लंघनीय बना दिया गया । इस उपाय के द्वारा राजा के हाथों से नियंत्रण की शक्ति स्वतः छिन गयी और वह ईश्वर के नाम पर दंड देने के बहाने एक से एक अनैतिक काम करने लगा। इन अनैतिक कार्र्यों के पाप-बोध से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि और ब्राह्मण को उसकी इच्छाओं का व्याख्याकार उद्घोषित किया गया। अब राजा बनने की एक मात्र योग्यता पूर्ववर्ती राजा का ज्येष्ठ पुत्र रह गयी और राजा बनने का एकमात्र कार्य ब्राह्मणों की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए उनकी अनुगामिता और इसी विषाक्त मानसिकता की भूमि पर धर्म का बीजारोपण होता है जो बात तो करता है मानव के समग्र कल्याण की, आत्मिक चेतना के विकास की और प्रावधान ऐसा करता है कि अधिसंख्य मानव-समुदाय न केवल हाशिये पर पहुँच गया बल्कि दलित और स्त्री तो मनुष्य होने से वंचित हो गये।
समाज को व्यवस्थित नियंत्रित और अनुशासित करने के लिये करणीय और अकरणीय का प्रावधान, जो वास्तविक व्यवहार में कानून ही था, धार्मिक घाल-मेल के रूप में अवतरित हो गया और भारतीय समाज इसी परिवेश में पलने लगा। धार्मिक व्यवस्था के नाम पर इसमें दलितों और स्त्रियों के लिये ऐसे-ऐसे घृणित प्रावधान किये गये कि किसी भी सभ्य समाज का सिर शर्म से झुक जाये मगर धर्म की मानसिक ग्रन्थि ने समाज को मानवीय संवेदना और समानता के स्तर पर कभी भी सभ्य नहीं होने दिया क्योंकि इसने वर्ण-व्यवस्था को शाश्वत और अक्षुण्ण बनाये रखने के लक्ष्य का कभी परित्याग ही नहीं किया। लोकतंत्रीय व्यवस्था ने यद्यपि समानता, बन्धुता और स्वतंत्रता के नैसर्गिक सिद्धान्त को अपनाकर सबको आगे बढ़ने का तो अवसर प्रदान किया लेकिन साधन-संसाधन पर व्यक्तिगत् नियंत्रण से कोई छेड़-छाड़ नहीं की और न सरकार ने कभी विपन्न समुदाय के लिए इतनी व्यवस्था की वे साधन-हीन होते हुए भी अपनी क्षमता का पूर्ण विकास कर सकें। तथाकथित आरक्षण व्यवस्था जो मात्र सरकारी क्षेत्र तक ही सीमित रही और सदा से इन सशक्त सामंती प्रवृत्ति के लोगों की आँखों की किरकिरी बनी हुई है, आज तक अपना लक्ष्य नहीं प्राप्त कर सकी है और अब इसे अपनी मौत करने के लिये छोड़ दिया गया है। इसके बल पर जो थोड़े से लोग किसी प्रकार आगे बढ़ गये हैं उन्हीं को देखकर यह धारणा बन गई है कि इनका वांछित विकास हो चुका है। अब जो कुछ करना हो अपने बलबूते पर ही करें। यहाँ पर यह कहना असंगत न होगा कि अभी तक कोई ऐसा सर्वेक्षण नहीं किया गया कि आरक्षित समुदाय को जो कुछ भी प्राप्त हुआ वह किसके हिस्से का था? मुझे लगता है कि आजादी मिलने के साथ पढ़े-लिखे मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया। आजाद भारत का मुसलमान शैक्षिक रूप से पिछड़ जाने के कारण अपने पूर्ववर्तियों द्वारा रिक्त स्थान तक नहीं पहुँच सका। फलतः वे आरक्षित समुदाय के हिस्से में आ गया। सवर्णों को मिलने वाले हलवा-पूड़ी में कोई कटौती हुई कि नहीं, इस पर चर्चा करने की बजाय आरक्षण के विरोध में उनके सुर से सुर मिलाने वाले लोग समाज के प्रति नैतिक निष्ठा और उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं कर रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर सबसे गम्भीर चिन्तन मुसलमान बुद्धिजीवियों को ही करना है जिनका जन-सामान्य फतवाओं की राजनीति में ही उलझा रहता है। इस विश्लेषण से हम पाते है कि मुसलमान भी उसी पायदान पर खड़े हैं जिस पर दलित और स्त्री हैं। अन्य अल्पसंख्यकों के परिप्रेक्ष्य में इस विचार को विस्तारित करने का पूरा स्कोप है।
अभी तक के विश्लेषण से दो तथ्य स्पष्ट रूप से प्रतिपादित होते हैं। पहला, जो समुदाय वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति नहीं हैं उनके प्रति हिन्दू धर्म की अवधारणायें, मान्यतायें तथा प्रावधान अत्यन्त कठोर, अश्लील और घृणास्पद हैं। आज इसे शायद ही कोई माने लेकिन यह स्वर्णों के अवचेतन में दबी हुई वह कुंठा है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानान्तरित होते हुए दैनंदिक दिनचर्या का सहज स्वाभाविक अंग बनकर व्यवहार में झलकती तो रहती हैं मगर उन्हें दिखाई नहीं देतीं। दूसरा, आरक्षण के रूप में विशेष सुविधा देने के बावजूद राज्य द्वारा साधन-संसाधन की समुचित व्यवस्था न किये जाने के कारण विपन्न समुदाय का वांछित विकास संभव नहीं हो सका; परिणामस्वरूप आज भी सत्ता पर वहीं सामन्त-समूह या उनकी पालित संतानों ही ठसक के साथ काबिज हैं। ये धार्मिक पूर्वाग्रहों से इस बुरी तरह से ग्रस्त हैं कि जो जहाँ है वहीं लोकतांत्रिक कानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर दलित और स्त्री का अपमान करने की सुखानुभूति कर रहा है।
अरविन्द जैन ने अपने लेख ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा' (अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्यः खंड-१, ‘हंस' जनवरी-फरवरी २०००) में उच्चतम न्यायालय सहित विभिन्न न्यायालयों द्वारा यौन हिंसा और बलात्कार के निर्णीत मामलों का जो लोमहर्षक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है उसे पढ़ने के बाद शायद ही कोई ऐसा होगा जो मेरे प्रतिपादित कथन से सहमत न हो। अपर्णा भट्ट द्वारा सम्पादित पुस्तक court on rape trials की भूमिका में चार वर्ष की बच्ची के साथ घटित बलात्कार के मामले में सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की जो टिप्पणी उद्धृत की गई हैं, वह यह है, ‘If a 25 year old man lay on top of a four year old girl, the girl would get crushed and die. कहने की आवश्यकता नहीं है कि अपील जिसे लेखिका ने स्वयं दायर किया था, ख़ारिज कर दी गयी। जन-मानस में स्त्रियों की छवि ‘जवान हो या नन्हीं-सी गुड़िया, कुछ भी हो औरत जहर की है पुड़िया' अथवा ‘तिरिया चरित न जाने कोय खसम मार के सत्ती होय' की बनी है तो इसमें स्त्रियों के प्रति दबी हुई स्वाभाविक घृणा के अतिरिक्त और क्या है? इसी प्रकार अपनी पुस्तक dalits and law में लेखक द्वय गिरीश अग्रवाल और कालिन गॉन साल्वेस द्वारा इस तथ्य की विस्तृत पड़ताल की गई है कि किस प्रकार दलितों की सुरक्षा के लिये बनाये गये कानूनों की हर स्तर पर धज्जियाँ उड़ाकर उनका प्रायोजिक उत्पीड़न किया जाता है। राजस्थान उच्च न्यायालय के प्रांगण में मनु की काल्पनिक मूर्ति स्थापित करने का यदि यह संदेश जाये कि उच्च जाति का पुरुष नीच जाति की स्त्री से संभोग नहीं कर सकता तो क्या आश्चर्य (भंवरी बाई बलात्कार कांड)। कल्याण सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अयोध्या में मनु की मूर्ति स्थापित करवाने का प्रस्ताव किया था। (राष्ट्रीय सहारा, लखनऊ २८.३.९९) इस प्रस्ताव का क्या हुआ, यह जानने से ज्यादा इस निहितार्थ को जानना महत्त्वपूर्ण है कि यह एक शूद्र मुख्यमंत्री का मनु-प्रेम है जो वर्णीय-भ्रातृत्व-प्रेम का आदर्श उदारहण है। आज जिस तेजी और सहजता से शूद्रों की अन्तर्वर्णीय ग्राह्यता बढ़ी है लेकिन दलित और स्त्री इसी प्रकार से हेय व उपेक्षित हैं, उससे वर्ण-व्यवस्था से बाह्यीकरण के सिद्धान्त की संदेह-रहित पुष्टि होती है।
स्त्री-विमर्श का सबसे अहम् मद्दा देह का है। स्त्री लेखन से प्रायः यही संदेश मिलता है कि अपनी देह की स्वतंत्रता और उस पर स्वयं का अधिकार ही इसका एक मात्रध्येय और लक्ष्य है, लेकिन अपने अध्ययन और चिन्तन के द्वारा मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि स्त्री मात्र’योनि' है जिसकी काम-पिपासा शाश्वत् अतृप्त रहती है और जो सदैव ‘लिंग-भक्षण' के लिये लालायित रहती है। इसी आधार पर ‘स्त्री-योनि' को नरक-द्वार और ‘नरक-कुंड' तक कहा गया है। इसकी यह छवि सोद्देश्य बनाई गयी है अथवा यह उसके स्वभाव की वास्तविकता है, स्त्री-विमर्श के क्षेत्र में या तो छूटा हुआ है या समुचित स्पेस नहीं पा सका हैः यद्यपि इसके लिये भरपूर स्कोप है। लेकिन इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक यह है कि जिन ग्रन्थों, दृष्टान्तों और आख्यानों ने उनकी देह को योनि में संकुचित कर दिया उन्हीं के प्रति वे पूज्य भाव
बनाये रखती है। इससे यही लगता है कि इस स्थिति से वे सहमत भी हैं। यहाँ कुछ ऐसे दृष्टांत उद्धृत किये जा रहे हैं जो यह दर्शाते हैं कि स्त्रियाँ स्वयं यह घोषणा करती हैं कि वे मात्र योनि हैं और काम-पिपासा को तृप्त करना उनका एकमात्र लक्ष्य है।
सुधीर पचौरी ने अपने लेख ‘स्त्रीत्ववाद में मर्दों की जगह' (‘हंस', स्त्री विशेषांक, जनवरी-फरवरी २०००) की शुरुआत निम्न संवाद को संदर्भित करते हुए किया है-
फ्रायड ने पूछा है कि औरत चाहती क्या है?...
बौदलेयर ने जवाब दिया है कि वह फ़क होना चाहती है...
इस संवाद को पढ़कर फ़क होने वाली कोई बात नहीं है। पचौरी ने पता नहीं क्यों फ्रायड..... को उद्धृत किया। ऐसे आख्यानात्मक दृष्टांत तो यहाँ भरे हैं। विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे की पुस्तक ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास' के पृष्ठ १२८ पर उद्धृत यह वाक्य ‘मैं तुम्हारे पास गर्भधारणार्थ आयी हूँ, तुम भी मेरे पास बीज डालने के लिये आओ...। स्त्रियों को लिंग जान से भी प्यारा होता है। क्योंकि वह योनि को कुचलता है...।' उक्त संवाद से कहीं अधिक स्पष्ट और अर्थपूर्ण है। यह स्पष्ट संकेत करता है कि स्त्री का पूरा अस्तित्व ही योनि में सिमट गया है। यह मात्रएक उदाहरण है। इस पुस्तक में स्वच्छन्द यौन-संसर्ग के अनेक दृष्टांत दिये गये है। जो उक्त कथन की पुष्टि करते हैं: साथ ही आर्ष ग्रन्थों के प्रति प्रचलित पूज्य भावना को पुनर्रेखांकित करने की भी मांग करते हैं।
वेद, पुराण, स्मृति, महाभारत आदि ग्रन्थ हमारी सभ्यता और संस्कृति की धरोहर हैं और इनका इसी दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाय तो हमारे इतिहास की न जाने कितनी विश्रृंखलित कड़ियों को जोड़ने में मदद मिल सकती है लेकिन विडम्बना यह है कि इनको धर्म-ग्रन्थ मानकर पूज्य घोषित कर दिया गया है जबकि स्त्री-विमर्श के दृष्टिकोण से तो इनके विशेष अध्ययन की आवश्यकता है क्योंकि इन्हीं के अन्दर उस रहस्य की चाभी छुपी है जो यह बताती है कि किस प्रकार मातृ-सत्तात्मक युग की शक्तिशाली स्त्रियों को पहले देह में और फिर योनि में संकुचित करके उसे औपनिवेशक सम्पत्ति घोषित कर दिया गया। यदि प्रथम लिखित शब्द से ही सभ्यता की शुरुआत मानें तो कह सकते हैं कि यही स्त्री के स्त्रीतत्व का बलिदान दिवस था जिसे लगातार सुनियोजित षड़यंत्र करके न केवल पुख्+ता किया गया बल्कि इसके लिये उनका मानसिक अनुकूलन भी किया गया जो आज भी जारी है। यही कारण है कि नारी-विमर्श और नारी-सशक्तिकरण का चाहे जितना डंका पीटा जाये, सिवाय चन्द नारी-वादिनियों के यह किसी को सुनाई नहीं देता। इस भाग में वेद, पुराण और महाभारत से उदाहरण देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि आज के परिप्रेक्ष्य में किस प्रकार इन ग्रन्थों में स्त्रियों की अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया गया है। वेदों में वर्णित कुछ कामुक दृष्टांत हरिमोहन झा की पुस्तक ‘खट्टर काका' से साभार लेकर यहाँ पर उद्धृत किए जा रहे हैं - मर्य इव युवतिभिः समर्षति सोमः/कलशे शतयाम्ना पथा (ऋ. ९/८६/१६)
कलश में अनेक धारों से रस का फुहारा छूट रहा है। जैसे, युवतियों में... (पृष्ठ १९४)
को वा शयुत्र विधवेव देवरं मर्यं न योषा वृणुते (ऋ. ७/४०/२)
‘‘जैसे विधवा स्त्री शयनकाल में अपने देवर को बुला लेती है, उसी प्रकार मैं भी यज्ञ में आपको सादर बुला रही हूँ। (पृष्ठ १९५)
यत्र द्वाविव जघनाधिषवरण्या/उलूखल सुतानामवेद्विन्दुजल्गुलः (ऋ. १/२८/२)
‘‘जैसे कोई विवृत-जघना युवती अपनी दोनों जंघाओं को फैलाये हुई हो और उसमें..(पृष्ठ १९३)
अभित्वा योषणो दश, जारं न कन्यानूषत/मृज्यसे सोम सातये (ऋ. ९/५६/३)
‘‘कामातुरा कन्या अपने जार (यार ) को बुलाने के लिये इसी प्रकार अंगुलियों से इशारा करती हैं। (पृष्ठ १९३ )
वृषभो न तिग्मश्रृंगोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्! (ऋ. १०/८६/१५)
अर्थात् ‘जिस प्रकार टेढ़ी सींग वाला साँड़ मस्त होकर डकरता हुआ रमण करता है, उसी प्रकार तुम भी मुझसे करो। (पृष्ठ १९६)
डॉ. तुलसीराम ने अपने लेख ‘बौद्ध धर्म तथा वर्ण व्यवस्था' (‘हंस', अगस्त २००४) में ऋग्वेद के प्रथम मंडल के छठवें मंत्र का अनुवाद इस तरह किया है, ‘‘यह संभोग्य युवती (यानी जिसके गुप्तांग पर बाल उग आए हों) अच्छी तरह आलिंगन (बद्ध) होकर सूतवत्सा नकुली (यानी एक रथ हाँकने वाले की बेटी, जिसका नाम नकुली था) की तरह लम्बे समय तक रमण करती है। वह बहु-वीर्य सम्पन्न युवती मुझे अनेक बार भोग प्रदान करती हैं।'' इसी लेख में यह भी कहा गया है कि ऋग्वेद के अंग्रेजी अनुवाद राल्फ टी ग्रीफिथ को दसवें मंडल के ८६ वें सूक्त के मंत्र १६ और १७ इतने वीभत्स लगे कि उन्होंने इनका अनुवाद ही नहीं किया।
ऋग्वेद के दसवें मंडल के दसवें सूक्त में सहोदर भाई-बहन यम और यमी का संवाद है जिसमें यमी यम से संभोग याचना करती है। इसी मंडल के ६१ वें सूक्त के पाँचवें-सातवें तथा अथर्ववेद (९/१०/१२) में प्रजापति का अपनी पुत्री के साथ संभोग वर्णन है। यम और यमी के प्रकरण का विवरण अथर्ववेद के अठारहवें कांड में भी मिलता है। (भारतीय विवाह संस्था का इतिहास - वि.का. राजवाडे, पृष्ठ ९७) इसी पुस्तक के पृष्ठ ७८-७९ पर पिता-पुत्री के सम्बन्धों पर चर्चा करते हुए वशिष्ठ प्रजापति की कन्या शतरूपा, मनु की कन्या इला, जन्हू की कन्या जान्हवी (गंगा) सूर्य की पुत्राी उषा अथवा सरण्यू का अपने-अपने पिता के साथ पत्नी भाव से समागन होना बताया गया है। ‘स्त्री-पुरुष समागम सम्बन्धी कई अति प्राचीन आर्ष प्रथाएँ नामक यह अध्याय सगे-सम्बन्धियों के मध्य संभोग-चर्चा पर आधारित है। इस प्रकार के सम्बन्धों की चर्चा महाभारत के ‘शांतिपूर्व' के २०७ वें अध्याय के श्लोक संख्या ३८ से ४८ तक में भीष्म द्वारा की गई है। राजवाडे ने अपनी उक्त संदर्भित पुस्तक के पृष्ठ ११५-११६ पर (श्लोक का क्रम ३७ से ३९ अंकित है।) इन श्लोकों का अर्थ निम्नवत् किया है- कृतयुग (संभवतः सतयुग) में स्त्री-पुरुषों के बीच, जब मन हुआ तब, समागम हो जाता था। माँ, पिता, भाई, बहन का भेद नहीं था। वह यूथावस्था थी। (श्लोक सं. ३८) त्रेता युग में स्त्री-पुरुषों द्वारा एक-दूसरे को स्पर्श करने पर समाज उन्हें उस समय के लिए संभोग करने की अनुमति देता था। यह पसन्द-नापसन्द या प्रिय-अप्रिय का चुनाव करने की व्यवस्था थी। (श्लोक सं. ३९) द्वापर युग में मैथुन धर्म शुरू हुआ। इस पद्धति के अनुसार, स्त्री-पुरुष अपनी टोली में जोड़ियों में रहने लगे, किन्तु अभी भी इन जोड़ियों को स्थिर अवस्था प्राप्त नहीं हुई थी और कलियुग में द्वंद्वावस्था की परिणति हुई, अर्थात् जिसे हम विवाह संस्था कहते हैं उसका उदय हुआ। (श्लोक सं. ४०)
‘खट्टर काका' के पृष्ठ ६४ पर भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग खंड के हवाले से उद्धृत निम्न श्लोक की मानें तो ईश्वरीय सत्ता के तीनों शीर्ष प्रतीक भी इस स्वच्छन्द सम्बन्ध से मुक्त नहीं हैं-स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विष्णुदेवः स्वमातरम्/भगनीं भगवान् शंभुः गृहीत्वा श्रेष्ठतामगात्!
स्त्री के मुँह से ही स्त्रियों की बुराई सिद्ध करने के आख्यान मिलते हैं। स्त्रियों का यह चरित्र- चित्राण उनकी विश्व-विख्यात ईर्ष्या-भावना की छवि को उद्घाटित करता है। इस प्रकार का एक दृष्टांत महाभारत से यहाँ पर उद्धृत है। आगे, सम्बन्धित खंड में रामरचितमानस से भी ऐसा ही दृष्टांत उद्धृत किया गया है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अन्तर्गत ‘दानधर्म' पर्व में पंचचूड़ा, अप्सरा और नारद के मध्य एक लम्बा संवाद है, जिसमें पंचचूड़ा स्त्रियों के दोष गिनती है। इसमें से कुछ श्लोकार्थ यहाँ दिये जा रहे हैं-नारद जी! कुलीन, रूपवती और सनाथ युवतियाँ भी मर्यादा के भीतर नहीं रहतीं। यह स्त्रियों का दोष है॥११॥ प्रभो! हम स्त्रियों में यह सबसे बड़ा पातक है कि हम पापी पुरुषों को भी लाज छोड़कर स्वीकार कर लेती हैं॥१४॥ इनके लिये कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है, जो अगम्य हो। इनका किसी अवस्था-विशेष पर भी निश्चय नहीं रहता। कोई रूपवान हो या कुरूप; पुरुष है- इतना ही समझकर स्त्रियाँ उसका उपभोग करती हैं॥१७॥ जो बहुत सम्मानित और पति की प्यारी स्त्रियाँ हैं; जिनकी सदा अच्छी तरह रखवाली की जाती है, वे भी घर में आने-जाने वाले कुबड़ों, अन्धों, गूँगों और बौनों के साथ भी फँस जाती है॥२०॥ महामुनि देवर्षे! जो पंगु हैं अथवा जो अत्यन्त घृणित मनुष्य (पुरुष) हैं, उनमें भी स्त्रियों की आसक्ति हो जाती है। इस संसार में कोई भी पुरुष स्त्रियों के लिये अगम्य नहीं हैं॥२१॥ ब्रह्मन! यदि स्त्रियों को पुरुष की प्राप्ति किसी प्रकार भी सम्भव न हो और पति भी दूर गये हों तो वे आपस में ही कृत्रिम उपायों से ही मैथुन में प्रवृत्त हो जाती हैं॥२२॥ देवर्षे! सम्पूर्ण रमणियों के सम्बन्ध में दूसरी भी रहस्य की बात यह है कि मनोरम पुरुष को देखते ही स्त्री की योनि गीली हो जाती है॥२६॥ यमराज, वायु, मृत्यू, पाताल, बड़वानल, छुरे की धार, विष, सर्प और अग्नि - ये सब विनाश हेतु एक तरफ और स्त्रियाँ अकेली एक तरफ बराबर हैं॥२९॥ नारद! जहाँ से पाँचों महाभूत उत्पन्न हुए हैं, जहाँ से विधाता ने सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि की है तथा जहाँ से पुरुषों और स्त्रियों का निर्माण हुआ है, वही से स्त्रियों में ये दोष भी रचे गये हैं (अर्थात् ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं।)॥३०॥
इस आख्यान से दो बातें स्पष्ट सिद्ध होती है। पहली एक ही स्रोत से रची गई चीजों में विधाता ने मात्र स्त्रियों के लिये ही दोषों की रचना करके पक्षपात किया और दूसरी यह कि स्वयं विधाता ही पुरुष-वर्चस्व का पोषक है। अब सवाल यह है कि ऐसे विधाता के विरुद्ध एक जुट होकर विद्रोह करने के लिये सामान्य स्त्रियों को प्रेरित करने के लिये नारीवादिनियों के पास कौन-सी योजना है?
स्त्री और पुरुष के बीच सम्बन्ध का यही कटु यथार्थ है कि स्त्री पुरुष को उत्पन्न करती है परन्तु पुरुष उसका अमर्यादित शोषण करता है और ऐसा करने के लिये वह सामाजिक, नैतिक और धार्मिक रूप से अधिकृत है। इतना ही नहीं, पुरुष द्वारा स्त्री को भोग्य के रूप में मान्यता ‘उत्पादन द्वारा उत्पादक' के भक्षण का एक मात्र उदाहरण है। स्त्री के प्रति पुरुष की इस मानसिकता का विकास संभवतः सृष्टि-रचना के आदि सिद्धान्त में निहित है जहाँ सृष्टिकर्ता स्त्री नहीं पुरुष है। हिन्दू माइथालोजी में पशु-पक्षी इत्यादि के स्रोत का तो पता नहीं, मनुष्य की उत्पत्ति भी योनि से न होकर ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न हिस्से से हुई और वह भी मनुष्य के रूप में नहीं बल्कि वर्ण के रूप में। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से लेकर सभी अनुवर्ती गन्थों में उत्पत्ति का यही वर्ण-व्यवस्थायीय प्रावधान मिलता है और इसके लिये रचित मंत्र और श्लोकों का जो टोन है उनसे यही ध्वनित होता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में केवल पुरुषों की ही उत्पत्ति हुई स्त्रियों की नहीं और अब, जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि दलित शूद्र के अंग नहीं है क्योंकि शूद्र अस्पृश्य नहीं थे, तो इसमें कोई विवाद नहीं होना चाहिये कि स्त्री की भाँति दलित भी वर्ण-व्यवस्थायीय उत्पत्ति नहीं हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारतीय समाज-व्यवस्था में स्त्री और दलित दोनों ही बाहरी व अपरिचित तत्त्व हैं। इसलिये भारतीय समाज का रवैया यदि इनके प्रति शत्रुवत् है तो आश्चर्य नहीं करना चाहिये।
उपरोक्त कथन के विरोध में यह तर्क दिया जा सकता है कि समय के साथ न जाने कितने विरोधाभाषों का समरस विलीनीकरण अथवा सहमतिपूर्ण सामंजस्य हो जाता है और मनुष्य अपनी विकास-यात्रा के जिस पड़ाव पर पहुँच चुका है। उस परिप्रेक्ष्य में यह एक मूर्खतापूर्ण सोच है। यह तर्क दिखने में चाहे जितना दमदार हो लेकिन वास्तव में इसमें कोई दम नहीं है क्योंकि धार्मिक मान्यताओं के प्रति भारतीय समाज ही नहीं समग्र मानव समाज इतना जड़ है कि वह आदि युगीन मानव की भाँति ही सोचता है और उसी समय में जीता है। उसके लिये आज भी ईश्वरीय सत्ता ही वास्तविक सत्ता है और बिना उसकी मर्जी के कुछ भी घटित होना संभव नहीं है। उसकी दिनचर्या का निर्धारण और नियंत्राण हजारों हजार मील दूर स्थित कोई ग्रह करता है; यह बात अलग है कि वह ग्रह स्वयं अपनी गोद में किसी जीव का पालन करने में समर्थ नहीं है। स्त्री-पुरुष के सहज संयोग को सन्तानोत्पत्ति का कारण न मानकर इसे ईश्वर की देन कहने वालों की आज भी कोई कमी नहीं है और इसमें प्रजनन करवाने वाली डॉक्टर भी शामिल है जो इसकी वैज्ञानिक वास्तविकताओं से पूरी तरह भिज्ञ होती है किन्तु यही लोग बिना वैवाहिक सम्बन्ध के उत्पन्न सन्तान को ईश्वर की देन मानने से न केवल इनकार करते हैं अपितु माँ को कुलटा भी घोषित कर देते हैं। चन्द्र एवं सूर्यग्रहण आज भी इनके लिये कोई वैज्ञानिक परिघटना न होकर राहु और केतु कारस्तानी है। ऐसा नहीं है कि हिन्दू धर्म के अनुयायी ही ऐसा करते हैं। किसी भी धर्म के अनुयायिओं के आचरण के बारे में इस प्रकार के दृष्टान्त उद्धृत किये जा सकते हैं। चूँकि धर्म एवं वर्ण-व्यवस्था की मानसिक ग्रन्थि से भारतीय समाज आज भी निकलना नहीं चाहता। अतः दलितों और स्त्रियों के प्रति उसके व्यवहार के बारे में मेरे कथन के विरोध में व्यक्त तर्क स्वतः ही दम तोड़ देता है। इस लेख का विषय स्त्री-विमर्श से सम्बन्धित होने के कारण इसी परिप्रेक्ष्य में इस चर्चा को आगे विस्तार दिया जा रहा है।
अध्यात्म के स्तर पर धर्म का चाहे जो तात्पर्य हो लेकिन व्यवहार के स्तर पर उसका वही आशय है जो कानून का है। दोनों का उद्देश्य समाज को नियंत्रित करना है। इसके लिए ‘क्या करना चाहिये' और ‘क्या नहीं करना चाहिये' का संहिताकरण और उल्लंघन करने पर दंडित करने का प्रावधान दोनों जगह किया गया है लेकिन दोनों में एक अन्तर है। कानून लोकतांत्रिक व्यवस्था की देन है और सबको समान दृष्टि से देखने की वकालत करता है और धर्म राजतंत्र द्वारा पोषित ब्राह्मणवादी व्यवस्था है जो वर्ग-हित की वकालत करता है। इसमें मनुष्य के साथ समानता के आधार पर नहीं बल्कि उसके वर्णगत् हैसियत के आधार पर व्यवहार करने का प्रावधान है, जिसे ईश्वर अथवा मनुष्येतर शक्तियों द्वारा अनुमोदित घोषित करवाकर इसे अनुल्लंघनीय बना दिया गया । इस उपाय के द्वारा राजा के हाथों से नियंत्रण की शक्ति स्वतः छिन गयी और वह ईश्वर के नाम पर दंड देने के बहाने एक से एक अनैतिक काम करने लगा। इन अनैतिक कार्र्यों के पाप-बोध से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि और ब्राह्मण को उसकी इच्छाओं का व्याख्याकार उद्घोषित किया गया। अब राजा बनने की एक मात्र योग्यता पूर्ववर्ती राजा का ज्येष्ठ पुत्र रह गयी और राजा बनने का एकमात्र कार्य ब्राह्मणों की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए उनकी अनुगामिता और इसी विषाक्त मानसिकता की भूमि पर धर्म का बीजारोपण होता है जो बात तो करता है मानव के समग्र कल्याण की, आत्मिक चेतना के विकास की और प्रावधान ऐसा करता है कि अधिसंख्य मानव-समुदाय न केवल हाशिये पर पहुँच गया बल्कि दलित और स्त्री तो मनुष्य होने से वंचित हो गये।
समाज को व्यवस्थित नियंत्रित और अनुशासित करने के लिये करणीय और अकरणीय का प्रावधान, जो वास्तविक व्यवहार में कानून ही था, धार्मिक घाल-मेल के रूप में अवतरित हो गया और भारतीय समाज इसी परिवेश में पलने लगा। धार्मिक व्यवस्था के नाम पर इसमें दलितों और स्त्रियों के लिये ऐसे-ऐसे घृणित प्रावधान किये गये कि किसी भी सभ्य समाज का सिर शर्म से झुक जाये मगर धर्म की मानसिक ग्रन्थि ने समाज को मानवीय संवेदना और समानता के स्तर पर कभी भी सभ्य नहीं होने दिया क्योंकि इसने वर्ण-व्यवस्था को शाश्वत और अक्षुण्ण बनाये रखने के लक्ष्य का कभी परित्याग ही नहीं किया। लोकतंत्रीय व्यवस्था ने यद्यपि समानता, बन्धुता और स्वतंत्रता के नैसर्गिक सिद्धान्त को अपनाकर सबको आगे बढ़ने का तो अवसर प्रदान किया लेकिन साधन-संसाधन पर व्यक्तिगत् नियंत्रण से कोई छेड़-छाड़ नहीं की और न सरकार ने कभी विपन्न समुदाय के लिए इतनी व्यवस्था की वे साधन-हीन होते हुए भी अपनी क्षमता का पूर्ण विकास कर सकें। तथाकथित आरक्षण व्यवस्था जो मात्र सरकारी क्षेत्र तक ही सीमित रही और सदा से इन सशक्त सामंती प्रवृत्ति के लोगों की आँखों की किरकिरी बनी हुई है, आज तक अपना लक्ष्य नहीं प्राप्त कर सकी है और अब इसे अपनी मौत करने के लिये छोड़ दिया गया है। इसके बल पर जो थोड़े से लोग किसी प्रकार आगे बढ़ गये हैं उन्हीं को देखकर यह धारणा बन गई है कि इनका वांछित विकास हो चुका है। अब जो कुछ करना हो अपने बलबूते पर ही करें। यहाँ पर यह कहना असंगत न होगा कि अभी तक कोई ऐसा सर्वेक्षण नहीं किया गया कि आरक्षित समुदाय को जो कुछ भी प्राप्त हुआ वह किसके हिस्से का था? मुझे लगता है कि आजादी मिलने के साथ पढ़े-लिखे मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया। आजाद भारत का मुसलमान शैक्षिक रूप से पिछड़ जाने के कारण अपने पूर्ववर्तियों द्वारा रिक्त स्थान तक नहीं पहुँच सका। फलतः वे आरक्षित समुदाय के हिस्से में आ गया। सवर्णों को मिलने वाले हलवा-पूड़ी में कोई कटौती हुई कि नहीं, इस पर चर्चा करने की बजाय आरक्षण के विरोध में उनके सुर से सुर मिलाने वाले लोग समाज के प्रति नैतिक निष्ठा और उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं कर रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर सबसे गम्भीर चिन्तन मुसलमान बुद्धिजीवियों को ही करना है जिनका जन-सामान्य फतवाओं की राजनीति में ही उलझा रहता है। इस विश्लेषण से हम पाते है कि मुसलमान भी उसी पायदान पर खड़े हैं जिस पर दलित और स्त्री हैं। अन्य अल्पसंख्यकों के परिप्रेक्ष्य में इस विचार को विस्तारित करने का पूरा स्कोप है।
अभी तक के विश्लेषण से दो तथ्य स्पष्ट रूप से प्रतिपादित होते हैं। पहला, जो समुदाय वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति नहीं हैं उनके प्रति हिन्दू धर्म की अवधारणायें, मान्यतायें तथा प्रावधान अत्यन्त कठोर, अश्लील और घृणास्पद हैं। आज इसे शायद ही कोई माने लेकिन यह स्वर्णों के अवचेतन में दबी हुई वह कुंठा है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानान्तरित होते हुए दैनंदिक दिनचर्या का सहज स्वाभाविक अंग बनकर व्यवहार में झलकती तो रहती हैं मगर उन्हें दिखाई नहीं देतीं। दूसरा, आरक्षण के रूप में विशेष सुविधा देने के बावजूद राज्य द्वारा साधन-संसाधन की समुचित व्यवस्था न किये जाने के कारण विपन्न समुदाय का वांछित विकास संभव नहीं हो सका; परिणामस्वरूप आज भी सत्ता पर वहीं सामन्त-समूह या उनकी पालित संतानों ही ठसक के साथ काबिज हैं। ये धार्मिक पूर्वाग्रहों से इस बुरी तरह से ग्रस्त हैं कि जो जहाँ है वहीं लोकतांत्रिक कानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर दलित और स्त्री का अपमान करने की सुखानुभूति कर रहा है।
अरविन्द जैन ने अपने लेख ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा' (अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्यः खंड-१, ‘हंस' जनवरी-फरवरी २०००) में उच्चतम न्यायालय सहित विभिन्न न्यायालयों द्वारा यौन हिंसा और बलात्कार के निर्णीत मामलों का जो लोमहर्षक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है उसे पढ़ने के बाद शायद ही कोई ऐसा होगा जो मेरे प्रतिपादित कथन से सहमत न हो। अपर्णा भट्ट द्वारा सम्पादित पुस्तक court on rape trials की भूमिका में चार वर्ष की बच्ची के साथ घटित बलात्कार के मामले में सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की जो टिप्पणी उद्धृत की गई हैं, वह यह है, ‘If a 25 year old man lay on top of a four year old girl, the girl would get crushed and die. कहने की आवश्यकता नहीं है कि अपील जिसे लेखिका ने स्वयं दायर किया था, ख़ारिज कर दी गयी। जन-मानस में स्त्रियों की छवि ‘जवान हो या नन्हीं-सी गुड़िया, कुछ भी हो औरत जहर की है पुड़िया' अथवा ‘तिरिया चरित न जाने कोय खसम मार के सत्ती होय' की बनी है तो इसमें स्त्रियों के प्रति दबी हुई स्वाभाविक घृणा के अतिरिक्त और क्या है? इसी प्रकार अपनी पुस्तक dalits and law में लेखक द्वय गिरीश अग्रवाल और कालिन गॉन साल्वेस द्वारा इस तथ्य की विस्तृत पड़ताल की गई है कि किस प्रकार दलितों की सुरक्षा के लिये बनाये गये कानूनों की हर स्तर पर धज्जियाँ उड़ाकर उनका प्रायोजिक उत्पीड़न किया जाता है। राजस्थान उच्च न्यायालय के प्रांगण में मनु की काल्पनिक मूर्ति स्थापित करने का यदि यह संदेश जाये कि उच्च जाति का पुरुष नीच जाति की स्त्री से संभोग नहीं कर सकता तो क्या आश्चर्य (भंवरी बाई बलात्कार कांड)। कल्याण सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अयोध्या में मनु की मूर्ति स्थापित करवाने का प्रस्ताव किया था। (राष्ट्रीय सहारा, लखनऊ २८.३.९९) इस प्रस्ताव का क्या हुआ, यह जानने से ज्यादा इस निहितार्थ को जानना महत्त्वपूर्ण है कि यह एक शूद्र मुख्यमंत्री का मनु-प्रेम है जो वर्णीय-भ्रातृत्व-प्रेम का आदर्श उदारहण है। आज जिस तेजी और सहजता से शूद्रों की अन्तर्वर्णीय ग्राह्यता बढ़ी है लेकिन दलित और स्त्री इसी प्रकार से हेय व उपेक्षित हैं, उससे वर्ण-व्यवस्था से बाह्यीकरण के सिद्धान्त की संदेह-रहित पुष्टि होती है।
स्त्री-विमर्श का सबसे अहम् मद्दा देह का है। स्त्री लेखन से प्रायः यही संदेश मिलता है कि अपनी देह की स्वतंत्रता और उस पर स्वयं का अधिकार ही इसका एक मात्रध्येय और लक्ष्य है, लेकिन अपने अध्ययन और चिन्तन के द्वारा मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि स्त्री मात्र’योनि' है जिसकी काम-पिपासा शाश्वत् अतृप्त रहती है और जो सदैव ‘लिंग-भक्षण' के लिये लालायित रहती है। इसी आधार पर ‘स्त्री-योनि' को नरक-द्वार और ‘नरक-कुंड' तक कहा गया है। इसकी यह छवि सोद्देश्य बनाई गयी है अथवा यह उसके स्वभाव की वास्तविकता है, स्त्री-विमर्श के क्षेत्र में या तो छूटा हुआ है या समुचित स्पेस नहीं पा सका हैः यद्यपि इसके लिये भरपूर स्कोप है। लेकिन इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक यह है कि जिन ग्रन्थों, दृष्टान्तों और आख्यानों ने उनकी देह को योनि में संकुचित कर दिया उन्हीं के प्रति वे पूज्य भाव
बनाये रखती है। इससे यही लगता है कि इस स्थिति से वे सहमत भी हैं। यहाँ कुछ ऐसे दृष्टांत उद्धृत किये जा रहे हैं जो यह दर्शाते हैं कि स्त्रियाँ स्वयं यह घोषणा करती हैं कि वे मात्र योनि हैं और काम-पिपासा को तृप्त करना उनका एकमात्र लक्ष्य है।
सुधीर पचौरी ने अपने लेख ‘स्त्रीत्ववाद में मर्दों की जगह' (‘हंस', स्त्री विशेषांक, जनवरी-फरवरी २०००) की शुरुआत निम्न संवाद को संदर्भित करते हुए किया है-
फ्रायड ने पूछा है कि औरत चाहती क्या है?...
बौदलेयर ने जवाब दिया है कि वह फ़क होना चाहती है...
इस संवाद को पढ़कर फ़क होने वाली कोई बात नहीं है। पचौरी ने पता नहीं क्यों फ्रायड..... को उद्धृत किया। ऐसे आख्यानात्मक दृष्टांत तो यहाँ भरे हैं। विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे की पुस्तक ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास' के पृष्ठ १२८ पर उद्धृत यह वाक्य ‘मैं तुम्हारे पास गर्भधारणार्थ आयी हूँ, तुम भी मेरे पास बीज डालने के लिये आओ...। स्त्रियों को लिंग जान से भी प्यारा होता है। क्योंकि वह योनि को कुचलता है...।' उक्त संवाद से कहीं अधिक स्पष्ट और अर्थपूर्ण है। यह स्पष्ट संकेत करता है कि स्त्री का पूरा अस्तित्व ही योनि में सिमट गया है। यह मात्रएक उदाहरण है। इस पुस्तक में स्वच्छन्द यौन-संसर्ग के अनेक दृष्टांत दिये गये है। जो उक्त कथन की पुष्टि करते हैं: साथ ही आर्ष ग्रन्थों के प्रति प्रचलित पूज्य भावना को पुनर्रेखांकित करने की भी मांग करते हैं।
वेद, पुराण, स्मृति, महाभारत आदि ग्रन्थ हमारी सभ्यता और संस्कृति की धरोहर हैं और इनका इसी दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाय तो हमारे इतिहास की न जाने कितनी विश्रृंखलित कड़ियों को जोड़ने में मदद मिल सकती है लेकिन विडम्बना यह है कि इनको धर्म-ग्रन्थ मानकर पूज्य घोषित कर दिया गया है जबकि स्त्री-विमर्श के दृष्टिकोण से तो इनके विशेष अध्ययन की आवश्यकता है क्योंकि इन्हीं के अन्दर उस रहस्य की चाभी छुपी है जो यह बताती है कि किस प्रकार मातृ-सत्तात्मक युग की शक्तिशाली स्त्रियों को पहले देह में और फिर योनि में संकुचित करके उसे औपनिवेशक सम्पत्ति घोषित कर दिया गया। यदि प्रथम लिखित शब्द से ही सभ्यता की शुरुआत मानें तो कह सकते हैं कि यही स्त्री के स्त्रीतत्व का बलिदान दिवस था जिसे लगातार सुनियोजित षड़यंत्र करके न केवल पुख्+ता किया गया बल्कि इसके लिये उनका मानसिक अनुकूलन भी किया गया जो आज भी जारी है। यही कारण है कि नारी-विमर्श और नारी-सशक्तिकरण का चाहे जितना डंका पीटा जाये, सिवाय चन्द नारी-वादिनियों के यह किसी को सुनाई नहीं देता। इस भाग में वेद, पुराण और महाभारत से उदाहरण देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि आज के परिप्रेक्ष्य में किस प्रकार इन ग्रन्थों में स्त्रियों की अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया गया है। वेदों में वर्णित कुछ कामुक दृष्टांत हरिमोहन झा की पुस्तक ‘खट्टर काका' से साभार लेकर यहाँ पर उद्धृत किए जा रहे हैं - मर्य इव युवतिभिः समर्षति सोमः/कलशे शतयाम्ना पथा (ऋ. ९/८६/१६)
कलश में अनेक धारों से रस का फुहारा छूट रहा है। जैसे, युवतियों में... (पृष्ठ १९४)
को वा शयुत्र विधवेव देवरं मर्यं न योषा वृणुते (ऋ. ७/४०/२)
‘‘जैसे विधवा स्त्री शयनकाल में अपने देवर को बुला लेती है, उसी प्रकार मैं भी यज्ञ में आपको सादर बुला रही हूँ। (पृष्ठ १९५)
यत्र द्वाविव जघनाधिषवरण्या/उलूखल सुतानामवेद्विन्दुजल्गुलः (ऋ. १/२८/२)
‘‘जैसे कोई विवृत-जघना युवती अपनी दोनों जंघाओं को फैलाये हुई हो और उसमें..(पृष्ठ १९३)
अभित्वा योषणो दश, जारं न कन्यानूषत/मृज्यसे सोम सातये (ऋ. ९/५६/३)
‘‘कामातुरा कन्या अपने जार (यार ) को बुलाने के लिये इसी प्रकार अंगुलियों से इशारा करती हैं। (पृष्ठ १९३ )
वृषभो न तिग्मश्रृंगोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्! (ऋ. १०/८६/१५)
अर्थात् ‘जिस प्रकार टेढ़ी सींग वाला साँड़ मस्त होकर डकरता हुआ रमण करता है, उसी प्रकार तुम भी मुझसे करो। (पृष्ठ १९६)
डॉ. तुलसीराम ने अपने लेख ‘बौद्ध धर्म तथा वर्ण व्यवस्था' (‘हंस', अगस्त २००४) में ऋग्वेद के प्रथम मंडल के छठवें मंत्र का अनुवाद इस तरह किया है, ‘‘यह संभोग्य युवती (यानी जिसके गुप्तांग पर बाल उग आए हों) अच्छी तरह आलिंगन (बद्ध) होकर सूतवत्सा नकुली (यानी एक रथ हाँकने वाले की बेटी, जिसका नाम नकुली था) की तरह लम्बे समय तक रमण करती है। वह बहु-वीर्य सम्पन्न युवती मुझे अनेक बार भोग प्रदान करती हैं।'' इसी लेख में यह भी कहा गया है कि ऋग्वेद के अंग्रेजी अनुवाद राल्फ टी ग्रीफिथ को दसवें मंडल के ८६ वें सूक्त के मंत्र १६ और १७ इतने वीभत्स लगे कि उन्होंने इनका अनुवाद ही नहीं किया।
ऋग्वेद के दसवें मंडल के दसवें सूक्त में सहोदर भाई-बहन यम और यमी का संवाद है जिसमें यमी यम से संभोग याचना करती है। इसी मंडल के ६१ वें सूक्त के पाँचवें-सातवें तथा अथर्ववेद (९/१०/१२) में प्रजापति का अपनी पुत्री के साथ संभोग वर्णन है। यम और यमी के प्रकरण का विवरण अथर्ववेद के अठारहवें कांड में भी मिलता है। (भारतीय विवाह संस्था का इतिहास - वि.का. राजवाडे, पृष्ठ ९७) इसी पुस्तक के पृष्ठ ७८-७९ पर पिता-पुत्री के सम्बन्धों पर चर्चा करते हुए वशिष्ठ प्रजापति की कन्या शतरूपा, मनु की कन्या इला, जन्हू की कन्या जान्हवी (गंगा) सूर्य की पुत्राी उषा अथवा सरण्यू का अपने-अपने पिता के साथ पत्नी भाव से समागन होना बताया गया है। ‘स्त्री-पुरुष समागम सम्बन्धी कई अति प्राचीन आर्ष प्रथाएँ नामक यह अध्याय सगे-सम्बन्धियों के मध्य संभोग-चर्चा पर आधारित है। इस प्रकार के सम्बन्धों की चर्चा महाभारत के ‘शांतिपूर्व' के २०७ वें अध्याय के श्लोक संख्या ३८ से ४८ तक में भीष्म द्वारा की गई है। राजवाडे ने अपनी उक्त संदर्भित पुस्तक के पृष्ठ ११५-११६ पर (श्लोक का क्रम ३७ से ३९ अंकित है।) इन श्लोकों का अर्थ निम्नवत् किया है- कृतयुग (संभवतः सतयुग) में स्त्री-पुरुषों के बीच, जब मन हुआ तब, समागम हो जाता था। माँ, पिता, भाई, बहन का भेद नहीं था। वह यूथावस्था थी। (श्लोक सं. ३८) त्रेता युग में स्त्री-पुरुषों द्वारा एक-दूसरे को स्पर्श करने पर समाज उन्हें उस समय के लिए संभोग करने की अनुमति देता था। यह पसन्द-नापसन्द या प्रिय-अप्रिय का चुनाव करने की व्यवस्था थी। (श्लोक सं. ३९) द्वापर युग में मैथुन धर्म शुरू हुआ। इस पद्धति के अनुसार, स्त्री-पुरुष अपनी टोली में जोड़ियों में रहने लगे, किन्तु अभी भी इन जोड़ियों को स्थिर अवस्था प्राप्त नहीं हुई थी और कलियुग में द्वंद्वावस्था की परिणति हुई, अर्थात् जिसे हम विवाह संस्था कहते हैं उसका उदय हुआ। (श्लोक सं. ४०)
‘खट्टर काका' के पृष्ठ ६४ पर भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग खंड के हवाले से उद्धृत निम्न श्लोक की मानें तो ईश्वरीय सत्ता के तीनों शीर्ष प्रतीक भी इस स्वच्छन्द सम्बन्ध से मुक्त नहीं हैं-स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विष्णुदेवः स्वमातरम्/भगनीं भगवान् शंभुः गृहीत्वा श्रेष्ठतामगात्!
स्त्री के मुँह से ही स्त्रियों की बुराई सिद्ध करने के आख्यान मिलते हैं। स्त्रियों का यह चरित्र- चित्राण उनकी विश्व-विख्यात ईर्ष्या-भावना की छवि को उद्घाटित करता है। इस प्रकार का एक दृष्टांत महाभारत से यहाँ पर उद्धृत है। आगे, सम्बन्धित खंड में रामरचितमानस से भी ऐसा ही दृष्टांत उद्धृत किया गया है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अन्तर्गत ‘दानधर्म' पर्व में पंचचूड़ा, अप्सरा और नारद के मध्य एक लम्बा संवाद है, जिसमें पंचचूड़ा स्त्रियों के दोष गिनती है। इसमें से कुछ श्लोकार्थ यहाँ दिये जा रहे हैं-नारद जी! कुलीन, रूपवती और सनाथ युवतियाँ भी मर्यादा के भीतर नहीं रहतीं। यह स्त्रियों का दोष है॥११॥ प्रभो! हम स्त्रियों में यह सबसे बड़ा पातक है कि हम पापी पुरुषों को भी लाज छोड़कर स्वीकार कर लेती हैं॥१४॥ इनके लिये कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है, जो अगम्य हो। इनका किसी अवस्था-विशेष पर भी निश्चय नहीं रहता। कोई रूपवान हो या कुरूप; पुरुष है- इतना ही समझकर स्त्रियाँ उसका उपभोग करती हैं॥१७॥ जो बहुत सम्मानित और पति की प्यारी स्त्रियाँ हैं; जिनकी सदा अच्छी तरह रखवाली की जाती है, वे भी घर में आने-जाने वाले कुबड़ों, अन्धों, गूँगों और बौनों के साथ भी फँस जाती है॥२०॥ महामुनि देवर्षे! जो पंगु हैं अथवा जो अत्यन्त घृणित मनुष्य (पुरुष) हैं, उनमें भी स्त्रियों की आसक्ति हो जाती है। इस संसार में कोई भी पुरुष स्त्रियों के लिये अगम्य नहीं हैं॥२१॥ ब्रह्मन! यदि स्त्रियों को पुरुष की प्राप्ति किसी प्रकार भी सम्भव न हो और पति भी दूर गये हों तो वे आपस में ही कृत्रिम उपायों से ही मैथुन में प्रवृत्त हो जाती हैं॥२२॥ देवर्षे! सम्पूर्ण रमणियों के सम्बन्ध में दूसरी भी रहस्य की बात यह है कि मनोरम पुरुष को देखते ही स्त्री की योनि गीली हो जाती है॥२६॥ यमराज, वायु, मृत्यू, पाताल, बड़वानल, छुरे की धार, विष, सर्प और अग्नि - ये सब विनाश हेतु एक तरफ और स्त्रियाँ अकेली एक तरफ बराबर हैं॥२९॥ नारद! जहाँ से पाँचों महाभूत उत्पन्न हुए हैं, जहाँ से विधाता ने सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि की है तथा जहाँ से पुरुषों और स्त्रियों का निर्माण हुआ है, वही से स्त्रियों में ये दोष भी रचे गये हैं (अर्थात् ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं।)॥३०॥
इस आख्यान से दो बातें स्पष्ट सिद्ध होती है। पहली एक ही स्रोत से रची गई चीजों में विधाता ने मात्र स्त्रियों के लिये ही दोषों की रचना करके पक्षपात किया और दूसरी यह कि स्वयं विधाता ही पुरुष-वर्चस्व का पोषक है। अब सवाल यह है कि ऐसे विधाता के विरुद्ध एक जुट होकर विद्रोह करने के लिये सामान्य स्त्रियों को प्रेरित करने के लिये नारीवादिनियों के पास कौन-सी योजना है?
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