प्रो० रामकली सराफ
दलित विमर्श जैसे विषय पर बातचीत का ऐसा समय आ गया है, जिसे हम पुनर्पाठ, सिंहावलोकन या आत्मावलोकन की कोटि में रख सकते हैं। वजह यह कि इधर घुमा-फिराकर जो बातें हो रही हैं, लगभग एक जैसी कोल्हू के बैल सरीखे एक ही घेरे में चक्कर लगाती घूम रही है। इस स्थिति से भिन्न दलित विमर्श को आत्मलोचन के जरिये विस्तार और गहराई देने के प्रति संजीदा होने का समय है, क्योंकि आत्मालोचना ही उन्हें आबद्ध घेरे से बाहर निकाल आगे बढ़ने का साहस दे सकती है। यह निरंतर चलने वाली ऐसी बौद्धिक-प्रक्रिया है, जो सामाजिक-आर्थिक विकास के दर्शन को विस्तृत सामाजिक विकास-प्रक्रिया के भीतर से जानने का माद्दा भरती है। कई दलित लेखकों को अपनी आत्मसंतुष्ट जड़ता पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि सृजनशीलता कभी भी अपने तईं सिमटी नहीं रहती, उसमें जन्मा फैलाव गहराई ही उसे स्थायी महत्त्व दिलवाता है। निश्चित ही उन्हें व्यापक मेहनतकश दलित समूह के हितों की चिंता करनी होगी, अन्यथा भविष्य के विकास की संभावनायें भी क्षीण होगी। यही वजह है, सदियों से चली आ रही अन्यायकारी व्यवस्था के खिलाफ चिनगारियाँ उठी जरूर, लेकिन जलती हुई स्थिति में नहीं रह सकी, उन पद पर राख पड़नी शुरू हो गयी है। दरअसल अंधेरे में उठी चिंगारी को धधकती आग में तब्दील करने का संघर्ष बरकरार रखना होगा।मौजूदा दलित विमर्श के विकासमान स्वरूप के लिए यह आवश्यक है कि वह जमींनी संघर्ष से सम्बद्ध हो। प्रारम्भिक दौर के भटकावों के बावजूद बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में तीव्रता से जन्में इस दलित लेखन ने अपनी भिन्न और स्पष्ट पहचान कायम की। निश्चित ही इस कालखंड की यह ऐतिहासिक उपलब्धि है। लेकिन आज भी दलित लेखन और दलित लेखक वैचारिक स्तर पर कई तरह के अन्तर्निहित अन्तर्विरोधों के शिकार हैं। हालांकि दलितों में आई जागृति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी मौजूद है। चार्वाक दर्शन, बुद्ध, कबीर, रैदास के साथ इधर महात्मा फूले, डॉ० अम्बेडकर और गाँधीजी की ऐतिहासिक भूमिका रही। गाँधी जी की बनिस्पत अम्बेडकर ने दलितों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाकर उनमें स्वत्व - स्थापना हेतु संघर्ष का माद्दा पैदा किया। वे यथास्थिति को बदल डालना चाहते थे, गाँधी जी उसे बरकरार रखते हुए उसी में सुधार के हामी थे। उनके हरिजनोद्धार के एजेन्डे में सवर्ण जातियों का साथ छोड़ने की बात कहीं नहीं थी।आज यह विडम्बना ही है कि दलित लेखन में वही लोग ज्यादा मुखर नजर आ रहे हैं, जो सरकारी नौकरियों या आरक्षित सुविधाओं से लैस हैं। सद्यः प्रस्फुटित यह नवघनाढ्य वर्ग अपने ही जातीय भाइयों से दूरी का रिश्ता कायम करने लगा है। स्वयं उच्च बना यह अपने से निम्न जातियों के दलितों को हिकारत की नजर से देखता है। यहाँ भी जाति-पाँति, ऊँच-नीच का भेदभाव तेजी से पनपा है। ऐसे में ऊँचाई पर पहुँचे अधिकार प्राप्त दलित और ब्राह्मण में भेद कहाँ रह जाता है? एक-सा बाना धारण किये दोनों वर्ग-सहयोगी हो जाते हैं। फलतः जातिहित पिछड़ता जाता है और वर्गहित सर्वोपरि हो जाता है। बाकी नीचे के दलितों को एक बड़ा तबका कहीं सफाईकर्मी बना, कहीं बंधुआ बना, कहीं दिहाड़ी मजदूरी पर काम करता दारिद्रय के दलदल से ऊपर नहीं उठ पाता। ये लोग अम्बेडकर मेले, उत्सवों में तमगा, मूर्तियाँ, चित्र, खिलौने, बिल्ला आदि खरीदते भकुआये हुए से महज वोटर की पांत में खड़े रह जाते हैं। दलित संज्ञान के भीतर से जन्मा दलित आन्दोलन का ऐसा जनाधार उसे कितना आगे बढ़ायेगा यह स्पष्ट है।सवर्ण बने इन दलित बुद्धिजीवियों को दलित समाज के बीच उठना-बैठना, खाना-पीना सम्मानजनक नहीं लगता। ये राजनीतिक या सांगठनिक हलकों का प्रयोग दलित हित में करें ऐसा नहीं हो पाता। आम दलितों पर अत्याचार हो और वे चिल्लाएं बोलें, लड़ें, ऐसी उनकी फितरत नहीं हैं, वरन् अपनी उपाधियों को निगलकर, जाति-समर्थक शब्दों को हटाकर यह साबित करना हम दलित नहीं हैं, आज एक बड़ी सच्चाई बन गयी है। रहन-सहन, खान-पान, अतिप्रदर्शन की प्रवृत्ति उन्हें सवर्णों के निकट ले जाती है। जहाँ वे पॉश कॉलोनी में रहते हुए ऊँची जातियों में उठना-बैठना, शादी-करना, रिश्ते-सम्बन्धों को जीने जैसे अघोषित कार्यक्रमों से जुड़ जाते हैं। इस प्रकार उनकी जाति पर परदा डालने की ग्रंथिग्रस्तता अपने कछुआधर्मी रुख से उन्हें कैसे मुक्ति मिलेगी? यह एक गंभीर सवाल है। उनकी सवर्ण मानसिकता और सत्ता-व्यवस्था के साथ समझौता उन्हें व्यापक संघर्ष-चेतना से दूर कर देता है। निश्चित ही निरन्तर सवर्ण होते दलित और निरन्तर विवर्ण होते दलित की दूरी बढ़ी है। यदि अति विवर्ण होते हुए अति दलितों, पिछड़ों, घुमन्तू जातियों की समस्याओं, उनके गीतों, कथाओं, वार्ताओं और रोज की जिन्दगी को सामने लाया जाय, तो दलित साहित्य प्रमाणिक हो सकता है।जाति में विश्वास न करना और फिर आवश्यकतानुरूप जाति के बल-दल के साथ खड़ा होना उनका मुख्य अन्तर्विरोध बनता जा रहा है। क्या कहीं ऐसा हुआ है कि किसी कामगार औरत, किसी दस्तकार दलित ने अपना अनुभव लिखा? शायद नहीं। ब्राह्मण बने दलित लेखकों का अनुभव परकाया प्रवेश की तरह है। उनका झरोखा अलग बना हुआ है। जबकि बराबर तक पहुँचने का नहीं, बराबर तक उतारने का साहित्य रचना होगा सवर्ण नहीं होना है, सवर्ण मानसिकता का विखंडन करना है। अपनी मलीनता को, गरीबी को, जातिगत दंश को जीवनीशक्ति के रूप में विकसित कर सवर्ण समाज के लिए चुनौती बनना है, जैसा कि सिद्धों, अघोरियों, आजीविकों और लोकायतों ने किया। दलित लेखन में एक बड़े अन्तराल 'गैप' के पैदा होने का परिणाम है कि रैदास और कबीर जैसी विश्वसनीयता या यहाँ तक कि हीराडोम जैसी प्रामाणिकता उनके साहित्य में खोजने पर मिलती है।भूमंडलीकरण के दौर में जहाँ बाजार तंत्र पूरे माहौल पर तारी है। बाजार की सज-धज विशुद्ध ढंग से इस मुखर बौद्धिक समुदाय और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न लोगों की छीना झपटी का मामला है। दिल्ली के अन्डरग्राउण्ड गोलघर मार्केट में प्रायः सत्तर प्रतिशत जगह दलित नवधनाढ्यों की हैं, जिसे पैसे और आरक्षण कला के भीतर से प्राप्त किया गया है। इस नवउदारीकृत व्यवस्था ने असमानता और गरीबी में बेतहाशा वृद्धि की है। लेकिन ब्राह्मणवादी-सामन्तवादी व्यवस्था का जो भीषण जाति का शिकंजा कसा हुआ था, उसकी जकड़न अवश्य ढीली पड़ी है। बाजार के लिए जातिवाद-दलितवाद का कोई मायने नहीं है। उसका एक ही ध्येय है, 'धनी बनो-सुखी होओ।' आज आर्थिक नैतिकता का जबरदस्त द्द्वास हुआ है। इस कैरेक्टर को कैसे बचाये रक्खें, यह बड़ी चुनौती है। इस दतिल मुक्ति का संघर्ष इस प्रवृत्ति की वजह से भी कमजोर हुआ है। यह सच्चाई है कि आज भी एक बड़ा समूह विरासत में मिली अभिशप्त जिन्दगी के इर्द-गिर्द है। मैला ढोने, मरे पशुओं को उठाने, खाल उतारने, गोबरहा खाने, सुलभ शौचालयों में बैठे दलित ही दिखते हैं। उन्हें वैसी घृणा और अपमान की जिन्दगी नहीं जीनी पड़ती, पर वे इससे मुक्त हो गये यह कहना भी ज्यादती होगी। इतना जरूर हुआ है कि यह उनके प्रति बरती जाने वाली निर्ममता और जुर्म के प्रति प्रतिक्रियायें दलितों की तरफ से ही नहीं वरन् समूचे समाज-राष्ट्र के भीतर से, हर तरफ से उठती है। भौतिक उपलब्धियाँ जरूरी हैं, पिछड़ों-दलितों के लिए तो और भी ज्यादा जरूरी है। लेकिन वैश्वीकृत व्यवस्था के भीतर पैठे अलगावाद और उसके साथ सत्तातंत्रा की सहमति को अपनी मौजूदा यथास्थिति को बनाए रखने के कारक के रूप में देखने से दलित लेखन परहेज करता है। लेकिन दलित मुक्ति के साथ जुड़ी सत्तासीनों की विरोधी भूमिका को नजरअन्दाज करना मुश्किल है। इधर राजनीति में दलितों की हितचिंता की बजाय जातिचिंता बढ़ी है।इसके कारण इस 'करप्ट' राजनीति में अभी जाति नहीं टूटी है। जातिवाद की ठोस जमीन पर वोट की राजनीति खेली जा रही है। पिछले दिनों दलित राजनेताओं और भगवाधारकों का 'एलायंस' दलित हितों को मुँह चिढ़ाता नजर आया। दलित राजनीति की जो भड़ैंती उभरकर आयी, दलित राजनेताओं ने राजनीति के एजेन्डे पर दलित समस्याओं के बने रहने का आश्वासन देकर छलपूर्वक जाति के आधार पर वोट बटोरने का काम किया। उन्हें ब्राह्मणों के साथ एका कायम करने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। इस प्रकार जातिगत परतों-सतहों को भेदने की बजाय बनाये रखने का सत्तासीनों के इस अंदाज ने इस आन्दोलन को विरूपति और अमूर्त्तित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दलित लेखकों को देखना होगा कि सामाजिक वैषम्यों से मुक्ति क्या राजनीतिक स्वार्थपरता और अवसरवादिता से हासिल होगी? जिसके निकट बैठने का अवसर वे खोना नहीं चाहते? वे स्वयं बड़े सत्ता प्रतिष्ठानों में बेझिझक जाते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय यात्रायें करते हैं, मंत्रियों के साथ मंच पर विराजमान होते हैं, फिर आरक्षण की बदौलत अपने पीछे छूटे बड़े दलित तबके को खुशफहम रोमानी स्वप्नों की दुनियाँ में ले जाने का स्वांग रचते हैं।इस प्रकार बड़ी चालाकी से सत्तासीन और उनके पिट्ठूओं द्वारा जातिगत चेतना को तीखा करने के अंदाज साथ ही दलितों के बड़े तबके की अशिक्षा, पिछड़ेपन और धार्मिक अन्ध-आस्थाओं का अपने हक़ में इस्तेमाल कर नवसाम्राज्यवादी-पूँजीवादी ताकतों को मजबूत करने की साजिश को समझकर दलित लेखकों को उसके विरुद्ध संघर्ष करना होगा। इसलिए सिर्फ वर्णव्यवस्था के उन्मूलन से दलितों की समस्याओं का निदान नहीं होगा। उनके आर्थिक जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने का सवाल अहम् है। यह सही है कि वर्णगत द्वन्द्व का स्वरूप आर्थिक और राजनीतिक द्वन्द्व के मुकाबले अधिक जटिल और पेचीदा है। लेकिन मौजूदा समय में समाज और सत्ता में ब्राह्मण वर्चस्व के बजाय एक ध्रुवीय वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था और उसकी साठ-गाँठ से फलता-फूलता राजनीतिक महकमा शीर्ष पर है। इसलिए जातिगत-वर्णगत व्यवस्था के विरोध के बावजूद यह गौण मुद्दा है। मुख्य है आर्थिक वैषम्य जिसके निष्क्रिय प्रतिबिम्बों के निकट खड़े मौजूदा दलित विमर्श में इसकी धमक नहीं मिलती है और ना ही राजनीति के भीतर दलितों की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने का कोई चिन्तन या पुख्ता कार्यक्रम मिलता है। निःसंदेह वर्णव्यवस्था के विरोध के कारण दलितों को घृणा और उत्पीड़न से कमोबेश मुक्ति जरूर मिली है, लेकिन मात्र इसी से आर्थिक वैषम्यपूर्ण स्थितियों से छुटकारा मिल जायेगा, यह समझना निरा भ्रम है। जबकि समूचे दलित लेखन में इसी भ्रम की गूंज है। इस सीमा से बाहर आकर उन्हें समाज में मौजूद अन्याय अहम् समस्याओं गरीबी, भ्रष्टाचार भूख, बेकारी आदि से कतराने की बजाय उससे रूबरू होना चाहिए। क्योंकि ये सिर्फ गरीब सवर्णों की समस्यायें ही नहीं है, दलितों की भी है। इस दृष्टि से देखें तो गैरदलित गरीब ब्राह्मण या अन्य जातियों के अभावग्रस्त लोगों की स्थिति दलित जैसी ही हैं। ऐसे लोग पूँजीवादी प्रतिष्ठानों या प्रशासनिक हल्कों में जाने पर अवमानना और प्रताड़ना के ही शिकार होते हैं। शरण कुमार लिम्बाले ने बहुत सही लिखा कि ''दलित शब्द की व्याख्या केवल अछूत जाति का उल्लेख करने से नहीं होती, इसमें आर्थिक तौर से पिछड़े हुए लोगों का समावेश होना चाहिए।'' (हंस, जनवरी १९९७, पृ० १३) मराठी दलित साहित्य में आयी इस प्रकार की व्यापक संचेतना ही वहाँ दलित जनान्दोलनों के उभार के लिए उर्वर जमीन साबित हुई। इसलिए सवर्ण विरोध का जो 'प्लेग' दलित लेखकों में घुसा हुआ है, उससे बाहर आकर दृष्टि को व्यापक बनाने की जरूरत है। स्वयं अम्बेडकर ने १९४३ में 'मजदूर और संसदीय लोकतन्त्र' नामक भाषण में स्पष्ट कहा कि गरीब मजदूर और दलित वर्ग ने अपने जीवन के निर्माण में आर्थिक पक्ष के प्रभाव की अनदेखी की। प्रेमचन्द ने इस सच्चाई को महसूस कर उनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने की बार-बार बात की।दरअसल दलितों की मुख्य समस्या उनकी शिक्षा-दीक्षा, भूमि पर मालिकाना हक की रोजी-रोटी की है। आरक्षण का लाभ भी उन मुट्ठी भर लोगों को मिला जो जागरूक हैं, प्रताड़ना और बदहाल स्थिति से ऊपर उठ चुके हैं। अम्बेडकर ने जब आरक्षण की बात की थी तो निश्चित ही उसके मूल में योग्यता हासिल कर शिक्षा-नौकरी पाने और जीवनस्थिति को बेहतर बनाने का सपना था। आज निजी संस्थानों में आरक्षण की बदौलत दलितों की जीवन स्थितियों की बेहतरी का सपना परोसने वाले श्योराज सिंह 'बेचैन' को देखना चाहिए कि सर्वत्रा नव साम्राज्यवादी पूंजी का अमानुषिक-मानवद्रोही रूप प्रकट हो चुका है।ऐसे विषम के माहौल में आरक्षण न मिलने पर 'विद्रोह' की बात भी की। लेकिन ऐसे विद्रोह से दलितों को कोई लाभ मिलने वाला नहीं है, न ही आरक्षण से, क्योंकि यह विद्रोह कैसा होगा? कौन करेगा? क्या आकाशीय होगा? इसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा उनके पास नहीं है। इसे अमर्त्य सेन के माध्यम से रेखांकित कर सकते हैं, 'विषमता एक ठोस सच्चाई है, प्रश्न यह है कि उसे कैसे बदला जाय? और उसके लिए जरूरी है कि उन ठोस सामाजिक उत्पादक शक्तियों, उनके अन्तर्विरोधों और उन प्रक्रियाओं को उद्घाटित करना, जिनके कारण असमानता पैदा होती है।' (विषमता : एक पुनर्विवेचन) ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों को जो हिकारत भरी नारकीय जिन्दगी दी तो नव उदारीकृत व्यवस्था उन्हें उदारतावश कोई ठाठ-बाट की जिन्दगी नहीं देने जा रही है। इसलिए मिथ्या कल्पनालोक में भ्रमण न कर आर्थिक विषमता के कारकों की तह में उतरना होगा। जब तक राष्ट्रीय पूंजी और विश्व पूंजी का सामंजस्य अपना उत्स दिखाता रहेगा, दलित ही क्या, अन्य उत्पीड़ित शेषित तबके की स्थिति में कोई बड़ा बदलाव संभव नहीं होगा।दरअसल प्रतिरोध भाव के बीच निहित व्यापक संघर्ष प्रक्रिया की पहचान के साथ 'विद्रोह' की आवश्यकता है। दरअसल आरक्षण नहीं दलित जीवन से जुड़े अनेक ज्वलन्त मुद्दों के प्रति संजीदा होने और लेखन में आये घटना और प्रसंगों के तमाम अन्तर्विरोधों को अतिक्रमित करके ही लक्ष्यभेदन संभव है। दलित साहित्य में सबसे महत्त्वपूर्ण आत्मकथा का साहित्य है। महाराष्ट्र से लेकर हिन्दी प्रदेश तक दलित रचनाकारों की आत्मकथाएं प्रकाशित हुई हैं। उनमें सच्चाई से सीधा संवाद है। वे समाज में उनकी दुःखद स्थिति की सूचनाएं देती है। सवर्ण समाज द्वारा मिली घृणा और प्रवंचना का तीखा प्रतिकार है। ईमानदारी और तटस्थता के साथ नग्न सत्य का अघड़कर आना रोंगटे खड़े कर जाता है। सही है सहानुभूति के तहत लिखे लेखन में ये घाव नहीं उभर पाये हैं।अनेक आत्मकथाओं जैसे 'अपने-अपने पिंजरे' (मोहनदास नैमिशराय) 'जूठन' (ओम प्रकाश वाल्मीकि), 'तिरस्कृत' (सूरज पाल चौहान) ने गहरा प्रभाव डाला, जिनमें जीवनानुभवों की सच्चाई है, अनुभवगत ऊर्जा है। भोगा हुआ संताप है। निश्चित ही पाकर, समझकर लिखे हुए की तुलना में भोगा हुआ सच अधिक प्रमाणित होता है। लेकिन तमाम क्रूरताओं की वास्तविकता के बावजूद क्या एक 'ट्रेंड' नहीं निर्मित हो रहा है, दलित आत्मकथा-लेखन का? इन लेखकों के सामने विपणन और बाजार तो नहीं है? इन लेखकों द्वारा बार-बार आत्मकथा लेखन की ओर स्वयं को मोड़ लेना क्या 'नेम एण्ड फेम' पाने की जल्दीबाजी नहीं दर्शाती? प्रायः सभी लेखकों की आत्मकथाओं में एक सी बातों की रूढ़ि बन गयी है। एक ऐसी चीख-पुकार, जो सुनने वाले को आमंत्रिात करती है, पर बदलाव का माद्दा नहीं भर पाती। अनेकशः ये लेखक दुहराव के शिकार हो और बहुत उर्जास्वित नया रच पाने में असमर्थ से दिखने लगते हैं। दलित लेखकों ने अपने स्वानुभूत सत्य के भिन्न-भिन्न रूपों और तहों की उलट-पलट के दौरान कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि अन्य क्षेत्रों में पहल की, जो स्वानुभूति के बल पर ही टिकी हैं। एक घेरे में कैद इस लेखन ने दलितों की स्थिति और मानसिकता के बदलाव को कहाँ तक अंजाम दिया है? आज यह सच्चाई किसी से छिपी नहीं है। जाहिर है कि लेखन जब तक इकहरे यथार्थ तक सिमटा रहेगा पुनरावृत्ति की संभावनाएं बढ़ती जायेंगी, नये विकल्प की तलाश भी क्षीण पड़ेगी। अतः अपनी संकुचित दुनियां में भ्रमित होने की बजाय, समग्र रचनाशीलता हेतु अपने सीमित अनुभवों को 'एक्सटेंड' करके, दुनियां और समाज की बहुरंगी सच्चाईयों से समग्रता में सम्बद्धता ही दलित लेखन को और मजबूती प्रदान करेगी।गैर दलित लेखकों ने सहानुभूति के तहत दलित जीवन के प्रति गहरे 'इन्वाल्वमेंट' के साथ दलितों के पक्ष में जो लिखा, उसकी अहमियत परखनी पड़ेगी। चाहे वे प्रेमचन्द हों, निराला या नागार्जुन यदि कहीं दलित द्वारा लिखा गया कुछ व्यवस्था के पक्ष में खड़ा है और उसे भी तवज्जो इसलिए मिले कि दलित ने लिखा है, तो स्थितियाँ उलटवार ही बनेंगी। गुणवत्ता के आधार पर मूल्यांकन होना चाहिए। साहित्य जाति-धर्म के दायरों को निर्मित नहीं करता इन्हें तोड़ता है। सवाल खड़ा होता है कि क्या दलित साहित्य सिर्फ दलितों की ओर से लिखा जायेगा और दलितों द्वारा ही पढ़ा जायेगा? अनुभूत सत्य की अभिव्यक्ति के साथ निर्णायक स्वयं बनना, दूसरे क्या कहेंगे या लिखेंगे इसकी परवाह न करने की बात कहना अविवेकपूर्ण अहमन्यता हैं, क्या गैरदलित जो पाठक समुदाय है, उनकी प्रतिक्रियायें हैं, उन्हें पीछे ढकेलकर वे अपने लिये नयी ठोस, उर्वर जमीन निर्मित करने में समर्थ होंगे? ऐसा साहित्य जो दलितों के जीवन के प्रति आस्था जगाता है, व्यक्ति को पशु स्तर से ऊँचा उठाता है, उन्हें सही मायने में आदमियत प्रदान करने की कवायद करता है। दलित साहित्य का यह सच जब अन्य सवर्णों में प्रसारित होगा तो दलित पक्ष में उनकी संवेदनशीलता बढ़ेगी और संघर्ष की भूमि व्यापक होगी। साहित्य में बंटवारे की पहल चिंतन के बचकानेपन के सिवाय कुछ नहीं है? बांटना और अपना हितसाधन करना यह राजनीतिक जीवन का सच अवश्य रहा। मराठी दलित चिंतन बहुतायत में दलितों द्वारा लिखा गया है, पर ऐसा दुराग्रही नजरिया वहाँ देखने को नहीं मिलता, शायद इसीलिए वहाँ का दलित लेखन ज्यादा समृद्ध, वैविध्यपूर्ण है।भारतीय समाज में स्त्रियाँ तो दलितों में दलित हैं। वह औरत और दलित दोनों के दर्द को गहरे तक झेलती हैं। लेकिन स्त्रियों का यह दुःख-दर्द अभी दलित बौद्धिक जगत में प्रविष्ट नहीं हो पाया है। वहाँ भी इनसे जुड़े सवाल और जवाब उनका वजूद उपेक्षित है। दलित स्त्रियों की पीड़ा दलित लेखकों की आत्मकथाओं से भी गायब है। यहाँ पुरुषवादी शिकंजा दलित स्त्रियों पर वैसा ही कसा है, जैसे कि सवर्ण स्त्रियों पर। वही सड़ांध, वहीं पुरुष वर्चस्ववाद, वही सामंती चौधराहट, वैसी ही संकीर्णतायें। अन्तर यही है कि दलित स्त्री-पुरुषों की तरह श्रम में जुटी हुई है। निश्चित ही हमें न केवल दलित वरन् हर क्षेत्र में नये मानवीय क्षितिज का उद्घाटन करना होगा, जहाँ व्यापक मानवता के गौरव और गरिमा का छीजन संभव न हो।मुश्किलें तब और बढ़ जाती है जब दलित लेखन में पसरा सर्जनात्मक भावबोध सवर्णों के विरोध के बावजूद उनसे दो कदम आगे बढ़कर ब्राह्मणवादी समझ की जकड़न में ही श्रेष्ठतादंभ को जीने लगता है। ये तथाकथित दलित ब्राह्मण बने लेखक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक दस्तक देने की जल्दीबाजी में सत्ता से सटने और अभिजन समाज तक स्वयं को संकुचित बनाने में कोई परहेज नहीं करते। निःसंदेह चन्द्रभान प्रसाद ऐसे ही लेखक हैं। उन्हें दलित मुक्ति का आन्दोलन तब तक सफल होता नहीं दीखता, ''जब तक दलितों में अभिजात वर्ग का उदय न हो, यह तब तक नहीं होगा, जब तक दलित भारत की सम्पदा में बड़े भागीदार नहीं बन जाते। हमें यह परिस्थितियाँ पैदा करनी होगी, जहाँ भारत के हर प्रमुख शहर में ऐसे सैकड़ों दलित परिवार उभर आयें, जिनके घर के गेट पर एक दरबान खड़ा हो, जिनके पास टोयटा रेंज की कारें हों, कुछ एक के पास मर्क भी हो। ऐसे दलित पति जिनकी पत्नियां आउटगोइंग के लिए आजाद हों, पति को जानलेवा मानसिक परेशानी न हो, जो स्वयं ऐसे दलित माहौल में हो जहां मेहमान दलित महिलाएं लूज ब्लाउज पहनने में स्वयं सहज महसूस कर सके।'' (हंस, अगस्त २००४) जैसा कि उनका स्वयं कहना है कि यह उनकी नवअभ्युदित मध्यमवर्गीय मानसिकता का 'शैशवकाल' ही है। स्पष्ट है कि जब पूंजी का प्रेत सिर पर चढ़कर बोलने लगता है तो भूमि से पैर ऊपर उठते जाते हैं और नीचे की जमीन बंजर होती जाती है। चन्द्रभान प्रसाद उसी बंजर भूमि को उर्वर भूमि में तब्दील करने की चालाकी भरी चाल चल रहे हैं, उनका यह नजरिया रोमानियत भरा ध्वंसात्मक है। लेखक की मानसिकता अभिजात्यता के चकाचौंध से चकराई उसी में धंसने लगी है। समूचे दलित समाज को उपभोक्तावादी भंवर में फंसाने का यह भोला पर कुटिल अंदाज लेखक की नवउदारीकृत जीवन शैली के उत्स में छिपी आत्मघाती व्यक्तिवादिता, अमानुषिकता, सम्बन्धहीनता के प्रवाह में बहने जैसी ट्रेजडी से बढ़कर क्या होगी? विपरीत प्रवाह से जद्दोजहद, संघर्ष एक अस्मिताधर्मी वर्ग की रचनात्मक उपलब्धि हो सकती है न कि उस प्रवाह का अंग बन अपनी उभरती अस्मिता का डूबो देना। श्रम की बजाय पूंजी को 'सफलता की कुंजी' के रूप में देखने का जो दर्शन इधर तीव्रता से 'डेवलप' हुआ है, उससे समझदारी का क्षरण हुआ है। उसी का परिणाम इस प्रकार का अनियन्त्रित चिंतन है, लेखक एक ही दाँव में सब कुछ हासिल कर लेने का दुस्साहस बरतता है। साहित्य में इस तरह का उपभोक्तावाद दलित आंदोलन को पीछे ढकेलेगा, न कि आगे ले जायेगा।जरूरत है दलित लेखक या उनका संगठन कोई दबाव न बनाये, उनकी रचना ही इस तरह का दबाव बनाये कि उन्हें लगे दलित लेखन, लेखन भी है और सृजन भी। कबीर, रैदास आदि अनेक संतों ने पाठकों पर गहरा दबाव बनाया। 'जाति और धर्म को अन्यायियों का छल' कहा। समाज ने उनकी रचनाओं को अक्षय मानकर पढ़ा और सहेजकर रखा। रचना अगर प्रमाणिक होगी तो इसी तरह बचेगी, यह इतिहास का सच है। इस प्रकार दलितों को अपनी संघर्षशील परम्परा के साथ सम्बद्ध हो, जातिगत संकीर्णता के कड़े विरोध के साथ समानता हासिल करनी है, लेकिन आर्थिक-सामाजिक स्वातंत्रय बोध के साथ ही अन्य शोषित-उत्पीड़ित तबके के साथ एका करके। वर्ण और वर्ग दोनों के खिलाफ संघर्ष का टोन ही उनके संघर्ष को दीर्घजीवी बना सकता है। अम्बेडकर और मार्क्सवाद की परस्पर सम्बद्धता आवश्यक है, जिसे आज अनेक दलित लेखक स्वीकार कर रहे हैं। अतः मात्र दूसरों पर दोषारोपण करके उग्र हुआ जा सकता है, सर्जनात्मक नहीं। केवल सवर्ण विरोध, उन तक सिमटा गुस्सा, आक्रोश प्रतिक्रियावादी साबित होगा। उस प्रतिरोध भाव के साथ संघर्षशील विकल्प-भाव को बनाये रखना होगा, तभी दलित लेखन का यह जीवन्त उभार अपने महत्त्व को अक्षुण बनाये रखने में समर्थ होगा।
दलित विमर्श जैसे विषय पर बातचीत का ऐसा समय आ गया है, जिसे हम पुनर्पाठ, सिंहावलोकन या आत्मावलोकन की कोटि में रख सकते हैं। वजह यह कि इधर घुमा-फिराकर जो बातें हो रही हैं, लगभग एक जैसी कोल्हू के बैल सरीखे एक ही घेरे में चक्कर लगाती घूम रही है। इस स्थिति से भिन्न दलित विमर्श को आत्मलोचन के जरिये विस्तार और गहराई देने के प्रति संजीदा होने का समय है, क्योंकि आत्मालोचना ही उन्हें आबद्ध घेरे से बाहर निकाल आगे बढ़ने का साहस दे सकती है। यह निरंतर चलने वाली ऐसी बौद्धिक-प्रक्रिया है, जो सामाजिक-आर्थिक विकास के दर्शन को विस्तृत सामाजिक विकास-प्रक्रिया के भीतर से जानने का माद्दा भरती है। कई दलित लेखकों को अपनी आत्मसंतुष्ट जड़ता पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि सृजनशीलता कभी भी अपने तईं सिमटी नहीं रहती, उसमें जन्मा फैलाव गहराई ही उसे स्थायी महत्त्व दिलवाता है। निश्चित ही उन्हें व्यापक मेहनतकश दलित समूह के हितों की चिंता करनी होगी, अन्यथा भविष्य के विकास की संभावनायें भी क्षीण होगी। यही वजह है, सदियों से चली आ रही अन्यायकारी व्यवस्था के खिलाफ चिनगारियाँ उठी जरूर, लेकिन जलती हुई स्थिति में नहीं रह सकी, उन पद पर राख पड़नी शुरू हो गयी है। दरअसल अंधेरे में उठी चिंगारी को धधकती आग में तब्दील करने का संघर्ष बरकरार रखना होगा।मौजूदा दलित विमर्श के विकासमान स्वरूप के लिए यह आवश्यक है कि वह जमींनी संघर्ष से सम्बद्ध हो। प्रारम्भिक दौर के भटकावों के बावजूद बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में तीव्रता से जन्में इस दलित लेखन ने अपनी भिन्न और स्पष्ट पहचान कायम की। निश्चित ही इस कालखंड की यह ऐतिहासिक उपलब्धि है। लेकिन आज भी दलित लेखन और दलित लेखक वैचारिक स्तर पर कई तरह के अन्तर्निहित अन्तर्विरोधों के शिकार हैं। हालांकि दलितों में आई जागृति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी मौजूद है। चार्वाक दर्शन, बुद्ध, कबीर, रैदास के साथ इधर महात्मा फूले, डॉ० अम्बेडकर और गाँधीजी की ऐतिहासिक भूमिका रही। गाँधी जी की बनिस्पत अम्बेडकर ने दलितों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाकर उनमें स्वत्व - स्थापना हेतु संघर्ष का माद्दा पैदा किया। वे यथास्थिति को बदल डालना चाहते थे, गाँधी जी उसे बरकरार रखते हुए उसी में सुधार के हामी थे। उनके हरिजनोद्धार के एजेन्डे में सवर्ण जातियों का साथ छोड़ने की बात कहीं नहीं थी।आज यह विडम्बना ही है कि दलित लेखन में वही लोग ज्यादा मुखर नजर आ रहे हैं, जो सरकारी नौकरियों या आरक्षित सुविधाओं से लैस हैं। सद्यः प्रस्फुटित यह नवघनाढ्य वर्ग अपने ही जातीय भाइयों से दूरी का रिश्ता कायम करने लगा है। स्वयं उच्च बना यह अपने से निम्न जातियों के दलितों को हिकारत की नजर से देखता है। यहाँ भी जाति-पाँति, ऊँच-नीच का भेदभाव तेजी से पनपा है। ऐसे में ऊँचाई पर पहुँचे अधिकार प्राप्त दलित और ब्राह्मण में भेद कहाँ रह जाता है? एक-सा बाना धारण किये दोनों वर्ग-सहयोगी हो जाते हैं। फलतः जातिहित पिछड़ता जाता है और वर्गहित सर्वोपरि हो जाता है। बाकी नीचे के दलितों को एक बड़ा तबका कहीं सफाईकर्मी बना, कहीं बंधुआ बना, कहीं दिहाड़ी मजदूरी पर काम करता दारिद्रय के दलदल से ऊपर नहीं उठ पाता। ये लोग अम्बेडकर मेले, उत्सवों में तमगा, मूर्तियाँ, चित्र, खिलौने, बिल्ला आदि खरीदते भकुआये हुए से महज वोटर की पांत में खड़े रह जाते हैं। दलित संज्ञान के भीतर से जन्मा दलित आन्दोलन का ऐसा जनाधार उसे कितना आगे बढ़ायेगा यह स्पष्ट है।सवर्ण बने इन दलित बुद्धिजीवियों को दलित समाज के बीच उठना-बैठना, खाना-पीना सम्मानजनक नहीं लगता। ये राजनीतिक या सांगठनिक हलकों का प्रयोग दलित हित में करें ऐसा नहीं हो पाता। आम दलितों पर अत्याचार हो और वे चिल्लाएं बोलें, लड़ें, ऐसी उनकी फितरत नहीं हैं, वरन् अपनी उपाधियों को निगलकर, जाति-समर्थक शब्दों को हटाकर यह साबित करना हम दलित नहीं हैं, आज एक बड़ी सच्चाई बन गयी है। रहन-सहन, खान-पान, अतिप्रदर्शन की प्रवृत्ति उन्हें सवर्णों के निकट ले जाती है। जहाँ वे पॉश कॉलोनी में रहते हुए ऊँची जातियों में उठना-बैठना, शादी-करना, रिश्ते-सम्बन्धों को जीने जैसे अघोषित कार्यक्रमों से जुड़ जाते हैं। इस प्रकार उनकी जाति पर परदा डालने की ग्रंथिग्रस्तता अपने कछुआधर्मी रुख से उन्हें कैसे मुक्ति मिलेगी? यह एक गंभीर सवाल है। उनकी सवर्ण मानसिकता और सत्ता-व्यवस्था के साथ समझौता उन्हें व्यापक संघर्ष-चेतना से दूर कर देता है। निश्चित ही निरन्तर सवर्ण होते दलित और निरन्तर विवर्ण होते दलित की दूरी बढ़ी है। यदि अति विवर्ण होते हुए अति दलितों, पिछड़ों, घुमन्तू जातियों की समस्याओं, उनके गीतों, कथाओं, वार्ताओं और रोज की जिन्दगी को सामने लाया जाय, तो दलित साहित्य प्रमाणिक हो सकता है।जाति में विश्वास न करना और फिर आवश्यकतानुरूप जाति के बल-दल के साथ खड़ा होना उनका मुख्य अन्तर्विरोध बनता जा रहा है। क्या कहीं ऐसा हुआ है कि किसी कामगार औरत, किसी दस्तकार दलित ने अपना अनुभव लिखा? शायद नहीं। ब्राह्मण बने दलित लेखकों का अनुभव परकाया प्रवेश की तरह है। उनका झरोखा अलग बना हुआ है। जबकि बराबर तक पहुँचने का नहीं, बराबर तक उतारने का साहित्य रचना होगा सवर्ण नहीं होना है, सवर्ण मानसिकता का विखंडन करना है। अपनी मलीनता को, गरीबी को, जातिगत दंश को जीवनीशक्ति के रूप में विकसित कर सवर्ण समाज के लिए चुनौती बनना है, जैसा कि सिद्धों, अघोरियों, आजीविकों और लोकायतों ने किया। दलित लेखन में एक बड़े अन्तराल 'गैप' के पैदा होने का परिणाम है कि रैदास और कबीर जैसी विश्वसनीयता या यहाँ तक कि हीराडोम जैसी प्रामाणिकता उनके साहित्य में खोजने पर मिलती है।भूमंडलीकरण के दौर में जहाँ बाजार तंत्र पूरे माहौल पर तारी है। बाजार की सज-धज विशुद्ध ढंग से इस मुखर बौद्धिक समुदाय और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न लोगों की छीना झपटी का मामला है। दिल्ली के अन्डरग्राउण्ड गोलघर मार्केट में प्रायः सत्तर प्रतिशत जगह दलित नवधनाढ्यों की हैं, जिसे पैसे और आरक्षण कला के भीतर से प्राप्त किया गया है। इस नवउदारीकृत व्यवस्था ने असमानता और गरीबी में बेतहाशा वृद्धि की है। लेकिन ब्राह्मणवादी-सामन्तवादी व्यवस्था का जो भीषण जाति का शिकंजा कसा हुआ था, उसकी जकड़न अवश्य ढीली पड़ी है। बाजार के लिए जातिवाद-दलितवाद का कोई मायने नहीं है। उसका एक ही ध्येय है, 'धनी बनो-सुखी होओ।' आज आर्थिक नैतिकता का जबरदस्त द्द्वास हुआ है। इस कैरेक्टर को कैसे बचाये रक्खें, यह बड़ी चुनौती है। इस दतिल मुक्ति का संघर्ष इस प्रवृत्ति की वजह से भी कमजोर हुआ है। यह सच्चाई है कि आज भी एक बड़ा समूह विरासत में मिली अभिशप्त जिन्दगी के इर्द-गिर्द है। मैला ढोने, मरे पशुओं को उठाने, खाल उतारने, गोबरहा खाने, सुलभ शौचालयों में बैठे दलित ही दिखते हैं। उन्हें वैसी घृणा और अपमान की जिन्दगी नहीं जीनी पड़ती, पर वे इससे मुक्त हो गये यह कहना भी ज्यादती होगी। इतना जरूर हुआ है कि यह उनके प्रति बरती जाने वाली निर्ममता और जुर्म के प्रति प्रतिक्रियायें दलितों की तरफ से ही नहीं वरन् समूचे समाज-राष्ट्र के भीतर से, हर तरफ से उठती है। भौतिक उपलब्धियाँ जरूरी हैं, पिछड़ों-दलितों के लिए तो और भी ज्यादा जरूरी है। लेकिन वैश्वीकृत व्यवस्था के भीतर पैठे अलगावाद और उसके साथ सत्तातंत्रा की सहमति को अपनी मौजूदा यथास्थिति को बनाए रखने के कारक के रूप में देखने से दलित लेखन परहेज करता है। लेकिन दलित मुक्ति के साथ जुड़ी सत्तासीनों की विरोधी भूमिका को नजरअन्दाज करना मुश्किल है। इधर राजनीति में दलितों की हितचिंता की बजाय जातिचिंता बढ़ी है।इसके कारण इस 'करप्ट' राजनीति में अभी जाति नहीं टूटी है। जातिवाद की ठोस जमीन पर वोट की राजनीति खेली जा रही है। पिछले दिनों दलित राजनेताओं और भगवाधारकों का 'एलायंस' दलित हितों को मुँह चिढ़ाता नजर आया। दलित राजनीति की जो भड़ैंती उभरकर आयी, दलित राजनेताओं ने राजनीति के एजेन्डे पर दलित समस्याओं के बने रहने का आश्वासन देकर छलपूर्वक जाति के आधार पर वोट बटोरने का काम किया। उन्हें ब्राह्मणों के साथ एका कायम करने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। इस प्रकार जातिगत परतों-सतहों को भेदने की बजाय बनाये रखने का सत्तासीनों के इस अंदाज ने इस आन्दोलन को विरूपति और अमूर्त्तित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दलित लेखकों को देखना होगा कि सामाजिक वैषम्यों से मुक्ति क्या राजनीतिक स्वार्थपरता और अवसरवादिता से हासिल होगी? जिसके निकट बैठने का अवसर वे खोना नहीं चाहते? वे स्वयं बड़े सत्ता प्रतिष्ठानों में बेझिझक जाते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय यात्रायें करते हैं, मंत्रियों के साथ मंच पर विराजमान होते हैं, फिर आरक्षण की बदौलत अपने पीछे छूटे बड़े दलित तबके को खुशफहम रोमानी स्वप्नों की दुनियाँ में ले जाने का स्वांग रचते हैं।इस प्रकार बड़ी चालाकी से सत्तासीन और उनके पिट्ठूओं द्वारा जातिगत चेतना को तीखा करने के अंदाज साथ ही दलितों के बड़े तबके की अशिक्षा, पिछड़ेपन और धार्मिक अन्ध-आस्थाओं का अपने हक़ में इस्तेमाल कर नवसाम्राज्यवादी-पूँजीवादी ताकतों को मजबूत करने की साजिश को समझकर दलित लेखकों को उसके विरुद्ध संघर्ष करना होगा। इसलिए सिर्फ वर्णव्यवस्था के उन्मूलन से दलितों की समस्याओं का निदान नहीं होगा। उनके आर्थिक जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने का सवाल अहम् है। यह सही है कि वर्णगत द्वन्द्व का स्वरूप आर्थिक और राजनीतिक द्वन्द्व के मुकाबले अधिक जटिल और पेचीदा है। लेकिन मौजूदा समय में समाज और सत्ता में ब्राह्मण वर्चस्व के बजाय एक ध्रुवीय वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था और उसकी साठ-गाँठ से फलता-फूलता राजनीतिक महकमा शीर्ष पर है। इसलिए जातिगत-वर्णगत व्यवस्था के विरोध के बावजूद यह गौण मुद्दा है। मुख्य है आर्थिक वैषम्य जिसके निष्क्रिय प्रतिबिम्बों के निकट खड़े मौजूदा दलित विमर्श में इसकी धमक नहीं मिलती है और ना ही राजनीति के भीतर दलितों की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने का कोई चिन्तन या पुख्ता कार्यक्रम मिलता है। निःसंदेह वर्णव्यवस्था के विरोध के कारण दलितों को घृणा और उत्पीड़न से कमोबेश मुक्ति जरूर मिली है, लेकिन मात्र इसी से आर्थिक वैषम्यपूर्ण स्थितियों से छुटकारा मिल जायेगा, यह समझना निरा भ्रम है। जबकि समूचे दलित लेखन में इसी भ्रम की गूंज है। इस सीमा से बाहर आकर उन्हें समाज में मौजूद अन्याय अहम् समस्याओं गरीबी, भ्रष्टाचार भूख, बेकारी आदि से कतराने की बजाय उससे रूबरू होना चाहिए। क्योंकि ये सिर्फ गरीब सवर्णों की समस्यायें ही नहीं है, दलितों की भी है। इस दृष्टि से देखें तो गैरदलित गरीब ब्राह्मण या अन्य जातियों के अभावग्रस्त लोगों की स्थिति दलित जैसी ही हैं। ऐसे लोग पूँजीवादी प्रतिष्ठानों या प्रशासनिक हल्कों में जाने पर अवमानना और प्रताड़ना के ही शिकार होते हैं। शरण कुमार लिम्बाले ने बहुत सही लिखा कि ''दलित शब्द की व्याख्या केवल अछूत जाति का उल्लेख करने से नहीं होती, इसमें आर्थिक तौर से पिछड़े हुए लोगों का समावेश होना चाहिए।'' (हंस, जनवरी १९९७, पृ० १३) मराठी दलित साहित्य में आयी इस प्रकार की व्यापक संचेतना ही वहाँ दलित जनान्दोलनों के उभार के लिए उर्वर जमीन साबित हुई। इसलिए सवर्ण विरोध का जो 'प्लेग' दलित लेखकों में घुसा हुआ है, उससे बाहर आकर दृष्टि को व्यापक बनाने की जरूरत है। स्वयं अम्बेडकर ने १९४३ में 'मजदूर और संसदीय लोकतन्त्र' नामक भाषण में स्पष्ट कहा कि गरीब मजदूर और दलित वर्ग ने अपने जीवन के निर्माण में आर्थिक पक्ष के प्रभाव की अनदेखी की। प्रेमचन्द ने इस सच्चाई को महसूस कर उनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने की बार-बार बात की।दरअसल दलितों की मुख्य समस्या उनकी शिक्षा-दीक्षा, भूमि पर मालिकाना हक की रोजी-रोटी की है। आरक्षण का लाभ भी उन मुट्ठी भर लोगों को मिला जो जागरूक हैं, प्रताड़ना और बदहाल स्थिति से ऊपर उठ चुके हैं। अम्बेडकर ने जब आरक्षण की बात की थी तो निश्चित ही उसके मूल में योग्यता हासिल कर शिक्षा-नौकरी पाने और जीवनस्थिति को बेहतर बनाने का सपना था। आज निजी संस्थानों में आरक्षण की बदौलत दलितों की जीवन स्थितियों की बेहतरी का सपना परोसने वाले श्योराज सिंह 'बेचैन' को देखना चाहिए कि सर्वत्रा नव साम्राज्यवादी पूंजी का अमानुषिक-मानवद्रोही रूप प्रकट हो चुका है।ऐसे विषम के माहौल में आरक्षण न मिलने पर 'विद्रोह' की बात भी की। लेकिन ऐसे विद्रोह से दलितों को कोई लाभ मिलने वाला नहीं है, न ही आरक्षण से, क्योंकि यह विद्रोह कैसा होगा? कौन करेगा? क्या आकाशीय होगा? इसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा उनके पास नहीं है। इसे अमर्त्य सेन के माध्यम से रेखांकित कर सकते हैं, 'विषमता एक ठोस सच्चाई है, प्रश्न यह है कि उसे कैसे बदला जाय? और उसके लिए जरूरी है कि उन ठोस सामाजिक उत्पादक शक्तियों, उनके अन्तर्विरोधों और उन प्रक्रियाओं को उद्घाटित करना, जिनके कारण असमानता पैदा होती है।' (विषमता : एक पुनर्विवेचन) ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों को जो हिकारत भरी नारकीय जिन्दगी दी तो नव उदारीकृत व्यवस्था उन्हें उदारतावश कोई ठाठ-बाट की जिन्दगी नहीं देने जा रही है। इसलिए मिथ्या कल्पनालोक में भ्रमण न कर आर्थिक विषमता के कारकों की तह में उतरना होगा। जब तक राष्ट्रीय पूंजी और विश्व पूंजी का सामंजस्य अपना उत्स दिखाता रहेगा, दलित ही क्या, अन्य उत्पीड़ित शेषित तबके की स्थिति में कोई बड़ा बदलाव संभव नहीं होगा।दरअसल प्रतिरोध भाव के बीच निहित व्यापक संघर्ष प्रक्रिया की पहचान के साथ 'विद्रोह' की आवश्यकता है। दरअसल आरक्षण नहीं दलित जीवन से जुड़े अनेक ज्वलन्त मुद्दों के प्रति संजीदा होने और लेखन में आये घटना और प्रसंगों के तमाम अन्तर्विरोधों को अतिक्रमित करके ही लक्ष्यभेदन संभव है। दलित साहित्य में सबसे महत्त्वपूर्ण आत्मकथा का साहित्य है। महाराष्ट्र से लेकर हिन्दी प्रदेश तक दलित रचनाकारों की आत्मकथाएं प्रकाशित हुई हैं। उनमें सच्चाई से सीधा संवाद है। वे समाज में उनकी दुःखद स्थिति की सूचनाएं देती है। सवर्ण समाज द्वारा मिली घृणा और प्रवंचना का तीखा प्रतिकार है। ईमानदारी और तटस्थता के साथ नग्न सत्य का अघड़कर आना रोंगटे खड़े कर जाता है। सही है सहानुभूति के तहत लिखे लेखन में ये घाव नहीं उभर पाये हैं।अनेक आत्मकथाओं जैसे 'अपने-अपने पिंजरे' (मोहनदास नैमिशराय) 'जूठन' (ओम प्रकाश वाल्मीकि), 'तिरस्कृत' (सूरज पाल चौहान) ने गहरा प्रभाव डाला, जिनमें जीवनानुभवों की सच्चाई है, अनुभवगत ऊर्जा है। भोगा हुआ संताप है। निश्चित ही पाकर, समझकर लिखे हुए की तुलना में भोगा हुआ सच अधिक प्रमाणित होता है। लेकिन तमाम क्रूरताओं की वास्तविकता के बावजूद क्या एक 'ट्रेंड' नहीं निर्मित हो रहा है, दलित आत्मकथा-लेखन का? इन लेखकों के सामने विपणन और बाजार तो नहीं है? इन लेखकों द्वारा बार-बार आत्मकथा लेखन की ओर स्वयं को मोड़ लेना क्या 'नेम एण्ड फेम' पाने की जल्दीबाजी नहीं दर्शाती? प्रायः सभी लेखकों की आत्मकथाओं में एक सी बातों की रूढ़ि बन गयी है। एक ऐसी चीख-पुकार, जो सुनने वाले को आमंत्रिात करती है, पर बदलाव का माद्दा नहीं भर पाती। अनेकशः ये लेखक दुहराव के शिकार हो और बहुत उर्जास्वित नया रच पाने में असमर्थ से दिखने लगते हैं। दलित लेखकों ने अपने स्वानुभूत सत्य के भिन्न-भिन्न रूपों और तहों की उलट-पलट के दौरान कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि अन्य क्षेत्रों में पहल की, जो स्वानुभूति के बल पर ही टिकी हैं। एक घेरे में कैद इस लेखन ने दलितों की स्थिति और मानसिकता के बदलाव को कहाँ तक अंजाम दिया है? आज यह सच्चाई किसी से छिपी नहीं है। जाहिर है कि लेखन जब तक इकहरे यथार्थ तक सिमटा रहेगा पुनरावृत्ति की संभावनाएं बढ़ती जायेंगी, नये विकल्प की तलाश भी क्षीण पड़ेगी। अतः अपनी संकुचित दुनियां में भ्रमित होने की बजाय, समग्र रचनाशीलता हेतु अपने सीमित अनुभवों को 'एक्सटेंड' करके, दुनियां और समाज की बहुरंगी सच्चाईयों से समग्रता में सम्बद्धता ही दलित लेखन को और मजबूती प्रदान करेगी।गैर दलित लेखकों ने सहानुभूति के तहत दलित जीवन के प्रति गहरे 'इन्वाल्वमेंट' के साथ दलितों के पक्ष में जो लिखा, उसकी अहमियत परखनी पड़ेगी। चाहे वे प्रेमचन्द हों, निराला या नागार्जुन यदि कहीं दलित द्वारा लिखा गया कुछ व्यवस्था के पक्ष में खड़ा है और उसे भी तवज्जो इसलिए मिले कि दलित ने लिखा है, तो स्थितियाँ उलटवार ही बनेंगी। गुणवत्ता के आधार पर मूल्यांकन होना चाहिए। साहित्य जाति-धर्म के दायरों को निर्मित नहीं करता इन्हें तोड़ता है। सवाल खड़ा होता है कि क्या दलित साहित्य सिर्फ दलितों की ओर से लिखा जायेगा और दलितों द्वारा ही पढ़ा जायेगा? अनुभूत सत्य की अभिव्यक्ति के साथ निर्णायक स्वयं बनना, दूसरे क्या कहेंगे या लिखेंगे इसकी परवाह न करने की बात कहना अविवेकपूर्ण अहमन्यता हैं, क्या गैरदलित जो पाठक समुदाय है, उनकी प्रतिक्रियायें हैं, उन्हें पीछे ढकेलकर वे अपने लिये नयी ठोस, उर्वर जमीन निर्मित करने में समर्थ होंगे? ऐसा साहित्य जो दलितों के जीवन के प्रति आस्था जगाता है, व्यक्ति को पशु स्तर से ऊँचा उठाता है, उन्हें सही मायने में आदमियत प्रदान करने की कवायद करता है। दलित साहित्य का यह सच जब अन्य सवर्णों में प्रसारित होगा तो दलित पक्ष में उनकी संवेदनशीलता बढ़ेगी और संघर्ष की भूमि व्यापक होगी। साहित्य में बंटवारे की पहल चिंतन के बचकानेपन के सिवाय कुछ नहीं है? बांटना और अपना हितसाधन करना यह राजनीतिक जीवन का सच अवश्य रहा। मराठी दलित चिंतन बहुतायत में दलितों द्वारा लिखा गया है, पर ऐसा दुराग्रही नजरिया वहाँ देखने को नहीं मिलता, शायद इसीलिए वहाँ का दलित लेखन ज्यादा समृद्ध, वैविध्यपूर्ण है।भारतीय समाज में स्त्रियाँ तो दलितों में दलित हैं। वह औरत और दलित दोनों के दर्द को गहरे तक झेलती हैं। लेकिन स्त्रियों का यह दुःख-दर्द अभी दलित बौद्धिक जगत में प्रविष्ट नहीं हो पाया है। वहाँ भी इनसे जुड़े सवाल और जवाब उनका वजूद उपेक्षित है। दलित स्त्रियों की पीड़ा दलित लेखकों की आत्मकथाओं से भी गायब है। यहाँ पुरुषवादी शिकंजा दलित स्त्रियों पर वैसा ही कसा है, जैसे कि सवर्ण स्त्रियों पर। वही सड़ांध, वहीं पुरुष वर्चस्ववाद, वही सामंती चौधराहट, वैसी ही संकीर्णतायें। अन्तर यही है कि दलित स्त्री-पुरुषों की तरह श्रम में जुटी हुई है। निश्चित ही हमें न केवल दलित वरन् हर क्षेत्र में नये मानवीय क्षितिज का उद्घाटन करना होगा, जहाँ व्यापक मानवता के गौरव और गरिमा का छीजन संभव न हो।मुश्किलें तब और बढ़ जाती है जब दलित लेखन में पसरा सर्जनात्मक भावबोध सवर्णों के विरोध के बावजूद उनसे दो कदम आगे बढ़कर ब्राह्मणवादी समझ की जकड़न में ही श्रेष्ठतादंभ को जीने लगता है। ये तथाकथित दलित ब्राह्मण बने लेखक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक दस्तक देने की जल्दीबाजी में सत्ता से सटने और अभिजन समाज तक स्वयं को संकुचित बनाने में कोई परहेज नहीं करते। निःसंदेह चन्द्रभान प्रसाद ऐसे ही लेखक हैं। उन्हें दलित मुक्ति का आन्दोलन तब तक सफल होता नहीं दीखता, ''जब तक दलितों में अभिजात वर्ग का उदय न हो, यह तब तक नहीं होगा, जब तक दलित भारत की सम्पदा में बड़े भागीदार नहीं बन जाते। हमें यह परिस्थितियाँ पैदा करनी होगी, जहाँ भारत के हर प्रमुख शहर में ऐसे सैकड़ों दलित परिवार उभर आयें, जिनके घर के गेट पर एक दरबान खड़ा हो, जिनके पास टोयटा रेंज की कारें हों, कुछ एक के पास मर्क भी हो। ऐसे दलित पति जिनकी पत्नियां आउटगोइंग के लिए आजाद हों, पति को जानलेवा मानसिक परेशानी न हो, जो स्वयं ऐसे दलित माहौल में हो जहां मेहमान दलित महिलाएं लूज ब्लाउज पहनने में स्वयं सहज महसूस कर सके।'' (हंस, अगस्त २००४) जैसा कि उनका स्वयं कहना है कि यह उनकी नवअभ्युदित मध्यमवर्गीय मानसिकता का 'शैशवकाल' ही है। स्पष्ट है कि जब पूंजी का प्रेत सिर पर चढ़कर बोलने लगता है तो भूमि से पैर ऊपर उठते जाते हैं और नीचे की जमीन बंजर होती जाती है। चन्द्रभान प्रसाद उसी बंजर भूमि को उर्वर भूमि में तब्दील करने की चालाकी भरी चाल चल रहे हैं, उनका यह नजरिया रोमानियत भरा ध्वंसात्मक है। लेखक की मानसिकता अभिजात्यता के चकाचौंध से चकराई उसी में धंसने लगी है। समूचे दलित समाज को उपभोक्तावादी भंवर में फंसाने का यह भोला पर कुटिल अंदाज लेखक की नवउदारीकृत जीवन शैली के उत्स में छिपी आत्मघाती व्यक्तिवादिता, अमानुषिकता, सम्बन्धहीनता के प्रवाह में बहने जैसी ट्रेजडी से बढ़कर क्या होगी? विपरीत प्रवाह से जद्दोजहद, संघर्ष एक अस्मिताधर्मी वर्ग की रचनात्मक उपलब्धि हो सकती है न कि उस प्रवाह का अंग बन अपनी उभरती अस्मिता का डूबो देना। श्रम की बजाय पूंजी को 'सफलता की कुंजी' के रूप में देखने का जो दर्शन इधर तीव्रता से 'डेवलप' हुआ है, उससे समझदारी का क्षरण हुआ है। उसी का परिणाम इस प्रकार का अनियन्त्रित चिंतन है, लेखक एक ही दाँव में सब कुछ हासिल कर लेने का दुस्साहस बरतता है। साहित्य में इस तरह का उपभोक्तावाद दलित आंदोलन को पीछे ढकेलेगा, न कि आगे ले जायेगा।जरूरत है दलित लेखक या उनका संगठन कोई दबाव न बनाये, उनकी रचना ही इस तरह का दबाव बनाये कि उन्हें लगे दलित लेखन, लेखन भी है और सृजन भी। कबीर, रैदास आदि अनेक संतों ने पाठकों पर गहरा दबाव बनाया। 'जाति और धर्म को अन्यायियों का छल' कहा। समाज ने उनकी रचनाओं को अक्षय मानकर पढ़ा और सहेजकर रखा। रचना अगर प्रमाणिक होगी तो इसी तरह बचेगी, यह इतिहास का सच है। इस प्रकार दलितों को अपनी संघर्षशील परम्परा के साथ सम्बद्ध हो, जातिगत संकीर्णता के कड़े विरोध के साथ समानता हासिल करनी है, लेकिन आर्थिक-सामाजिक स्वातंत्रय बोध के साथ ही अन्य शोषित-उत्पीड़ित तबके के साथ एका करके। वर्ण और वर्ग दोनों के खिलाफ संघर्ष का टोन ही उनके संघर्ष को दीर्घजीवी बना सकता है। अम्बेडकर और मार्क्सवाद की परस्पर सम्बद्धता आवश्यक है, जिसे आज अनेक दलित लेखक स्वीकार कर रहे हैं। अतः मात्र दूसरों पर दोषारोपण करके उग्र हुआ जा सकता है, सर्जनात्मक नहीं। केवल सवर्ण विरोध, उन तक सिमटा गुस्सा, आक्रोश प्रतिक्रियावादी साबित होगा। उस प्रतिरोध भाव के साथ संघर्षशील विकल्प-भाव को बनाये रखना होगा, तभी दलित लेखन का यह जीवन्त उभार अपने महत्त्व को अक्षुण बनाये रखने में समर्थ होगा।
Comments
I remember you.You are my teacher in past(before eleven year).At that time you have good knoeledge but at this time you are better than .........intellectual of Dalit Vimarsh.I am very glad,accept you as a social thinker.This article is guideline for those writer who called dalit lekha and for those who is interested in side.K.N.Amit,New Delhi
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