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फिसलती रेत सा मेरा तन

राजश्री ख़त्री
चॉद बूंद-बूंद हो रहा,
मन अंधेरे में खो रहा।
रात बहुत बढ चली,
सामने इक अंधेरी गली।
व्यथा ने आहत किया मन,
फिसलती रेत सा मेरा मन।
डरावनी लगती परछाइया।
उम्र के ढेर की है ऊचॉईया।
दर्द! जीवन है ढो रह,
किन्तु मन स्वप्न संजो रहा।
अपनों से दूरी बढ़ गई,
नींद भी उड़न छू होई।
कैसे भूलू कि नारी हॅू
कभी जीती, कभी हारी हॅू।
वक्त की मार सहती रही,
लालसा मनकी मन में रही।
एफ-१८७०, राजाजी पुरम
लखनऊ
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