सूरज प्रकाश
हिमाचल की कुल्लू घाटी में मलाना नदी से सटी खूबसूरत पहाडियों पर लगभग 8500 फुट की ऊंचाई पर बसा मलाना गांव शहरी सभ्यता और आधुनिकता से कोसों दूर है। इदस गांव तक पहुंचने के लिए कम सये कम 15 किमी का ट्रैक करना पड़ता है।
इस गांव के बारे में कई किम्वदंतियां हैं। कहते हैं जब सिकंदर भारत पर हमला करने आया था तो उसके कुछ सैनिक उसकी सेना छोड़ कर भाग गए थे। इन्हीं भगोड़े सैनिकों ने मलाना नाम के गांव को बसाया था। उनके ग्रीक होने के कुछ पुष्ट प्रमाण भी हैं। लकड़ी के बने उनके अत्यन्त लेकिन कलात्मक मंदिरों में जो उकेरी हुई आकृतियां हैं, उनमें घुड़सवार सैनिक, हाथी, शराब पीते हुए सैनिक हैं, जिन्होंने फ्राकनुमा एक वस्त्र पहन रखा है। यह मूलतः उस युग के ग्रीक सैनिकों की पोशाक हुआ करती थी। साथ ही गांव वासियों के शरीर की बनावट, चेहरे-मोहरों में और गतिविधियों में भारतीयता का अभाव है। इसके अलावा कई लोगों और बच्चों की आंखे नीली हैं। कहा जाता है कि इन सैनिकों ने आसपास के गांवों की लड़कियों से शादी - विवाह किये और वे भेड़ें चराकर और गेहूं की खेती करके गुजर-बसर करने लगे। शुरू-शुरू में इन भगोड़े सैनिकों ने पहचान लिए जाने के डर से अपने आपको पूरी दुनिया से अलग रखा था। बाद में यही अलगाव उनका जीवन-दर्शन बन गया। एक किस्सा सम्राट अकबर के बारे में भी है। सुनते हैं कि किसी रोग से निजात पाने के लिए एक फकीर के कहने पर खुद अकबर पैदल चलकर मलाना के मंदिर गया और वहां अपनी तस्वीर वाली स्वर्ण मुद्राएं चढ़ाई। जब मैं वहांपहली बार गया था तो बातचीत के दौरान कई लोगों ने मुझे बताया कि वे मुद्राएं अभी भी मंदिर में सुरक्षित हैं। कहा तो यह भी जाता है कि सिकंदर के भगोड़े सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र भी एक शस्त्रागार में सुरक्षित हैं, लेकिन अभी तक किसी ने देखा नहीं।दिलों में देवता का डर मलानावासी परशुराम के पिता जमदग्नि (जमलू) की पूजा करते हैं और उसके कोप से बहुत डरते हैं। मलाना मंदिर में गूर, पुजारी और कारदार के अलावा किसी भी गांव-वासी को प्रवेश की अनुमति नहीं है। बाहरी व्यक्ति तो मंदिर की दीवारों और पत्थरों तक को छू नहीं सकता। मंदिर में प्रवेश के लिए गूर बनना जरूरी है। कहा जाता है कि पूरे हिमाचल प्रदेश में जिस किसी भी व्यक्ति को सपने में जमलू देवता का आदेश मिले तो वह मलाना आकर वहां की पंचायत को बताए। यदि वह पंचायत के गूढ़ प्रश्नों का जवाब देकर पंचायत को संतुष्ट कर दे, तभी वह गूर बन सकता है। संसार का प्राचीनतम गणतंत्रमलानावासियों का अपना शासनतंत्र है, जो संसार के प्राचीनतम गणतंत्र के रूप में माना जाता है। उसमें हमारी लोकसभा और राज्यसभा की तरह चुनी हुई पंचायतें काम करती हैं। उनके ऊपर देवता का फैसला होता है, जिसमें कोई भी परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होती। यदि किसी अपराध के पीछे दो आदमी शक के दायरे में हैं तो दोनों को नहलाकर देवदार के दो विशाल वृक्षों के नीचे चेहरा ढक कर खड़ा कर देते हैं। दोनों के सामने बंधी दो भेड़ों की जांघों को चीरकर उसमें जहर भरकर सिल दिया जाता है। जिस व्यक्ति के सामने वाली भेड़ पहले मर जाए, वही दोषी करार दिया जाता है। दोनों भेड़ों के मर जाने पर उनका मांस निकालकर पूरे गांव में बांट दिया जाता है। किसी भी सजा के फैसले के लिए पंचायत विशेष रूप से बनाए गए चबूतरे का ही इस्तेमाल करती है। इन्हें भी कोई छू नहीं सकता। अजीबोगरीब आदतेंमलाना गांव के लोग अनपढ़, काफी हद तक जाहिल होने के बावजूद श्रेष्ठता की भावना के इतने पीडित हैं कि पूरी दुनिया को अछूत और अपने से हीन समझते हैं। पिछले कुछ समय से वहां के पोर्टर भेड़ें चराने के सिलसिले में कुल्लू, मंडी और बिलासपुर तक हो आएं हैं। इसलिए वे दूसरों का छुआ-पकाया खा लेते हैं। वरना आम तौर पर आलम यह है कि उन्हें पैसे देते समय उनके हाथों में पैसे गिराने पड़ते हैं, और वे तो जमीन पर फेंककर पैसे देते हैं। वे इस बात के प्रति बहुत सतर्क रहते हैं कि कोई बाहरी व्यक्ति उनसे छू न जाए। इसी वजह से सरकार द्वारा गांव में बनाये गये आयुर्वेदिक दवाखाने में भी नहीं जाते क्योंकि वहां कार्यरत डॉक्टर बाहर का है। इसी मनोवृति के चलते वहां सरकार अब तक बिजली के कनेक्शन नहीं करवा पाई। अलबत्ता आपको गांव भर में सोलर लाइट के लिए लगाये गये खम्बे जहां तहां नजर आ जायेंगे। यहीं नहीं, लाखों रुपये के पाइप पानी के कनेक्शन के इन्तजार में पड़े हैं।प्रीत की रीत निरालीमलाना गांव मंदिर के दोनों ओर बसा हुआ है। मंदिर के दांई ओर के निवासी बांई ओर के निवासियों से ही विवाह कर सकते हैं। यदि किसी लड़के को लडकी पसंद आ जाए तो वह लडकी के मां-बाप से सीधे प्रस्ताव कर सकता है और लड़का जंच जाने पर अपनी हैसियत के अनुसार पांच-सात सौ रुपये देकर लड़की ले जा सकता है। वहां की महिलाएं बहुत मेहनती और सुंदर होती हैं। उनके चेहरों पर एक अजीब-सी चमक होती है। महिलाओं की तुलना में आदमी अधिक आलसी और कामचोर होते हैं। वे बैठकर ताश खेलते हैं, जो उनका प्रिय शगल है। अमूमन वे एक-दूसरे की बीवी को फुसलाकर अपने घर ले आते हैं। वह औरत भी बिना किसी औपचारिकता के अपने बच्चों को पहले वाले पति के जिम्मे छोड़ आती हैं। यह बात इतनी सहज और साधारण मानी जाती है कि लोग दस-पंद्रह पत्नियां तक बदल लेते हैं।शिक्षा में सिफरगांव में नाम रखने की परम्परा बड़ी अजीब है। सोमवार को पैदा होने वाला सोमू, मंगलवार को मंगलू और शुक्र को शुक्रू के नाम से जाना जाता है। पढ़ने-लिखने के नाम पर सब कुछ शून्य है। हिमाचल के हर गांव में स्कूल और बिजली है। बेशक गांव में सरकारी स्कूल है और अब बच्चे मिल जुल कर पढ़ने भी लगे हैं। गांव में तब 400 बच्चे तो रहे ही होंगे लेकिन पहली से पांचवी तक की एक साथ चल रही कक्षा में मुश्किल से तीव बच्चे पढ़ते दिखायी दिये। मैं जब वहां गया था तो गांव के इकलौते हाइस्कूल पास युवक से मिला था। पूछने पर मास्टर तुलसीराम जी ने बताया कि देवता के डर से कोई अपने बच्चों को यहां पढ़ने नहीं भेजता। बड़ी मुश्किल से इन बच्चों को ही जुटा पाते हैं मास्टर जी। सरकार ने इस दौरान काफी कोशिश की है कि मलाना के लोग अपने खोल से बाहर आएं और जीवन की मुख्य धारा से जुड़ें मगर अभी तक कोई खास असर नहीं नजर आ रहा। उनके स्वर में निराशा थी। लेकिन गांव के अकेले बाहरी व्यक्ति चौकीदार संगतराम ने बरसों पहले गांव में बहुत प्रयास किये थे। वही इस गांव को देश विदेश के र्टैकिंग रूट पर लाया था और उसी के घर देशी-विदेशी सैलानी और ट्रैकर ठहरा करते थे। वक्त की रफ्तार में पीछेआधुनिकता ने भी मलाना को प्रभावित अवश्य किया है। हमें कुछ मकानों के छज्जों पर सिलाई मशीन रखी दिखाई दी थीं। एक घर में प्रेशर कूकर की सीटी की आवाज भी सुनाई दे रही थी। तीन-चार मंगलुओं और सोमुओं के हाथ पर घड़ी तो थी, परन्तु उन्हें वक्त देखना नहीं आता था। औसत मलानी के पास 200 से 500 भेड़ें होती हैं। कई मलानियों ने जरी गांव स्थित बैंक में अपने रिश्तेदारों के जरिए अच्छी-खासी रकम जमा कर रखी है। पता चला है कि इनके पास सोना भी बहुत है, मगर पहनावा उनका अपना कता-बुना मोटा कपड़ा ही है।
मलाना वासी शराब नहीं पीते लेकिन मलाना के आस पास बीसियां मीलों दूर तक अफीम के और भांग के पौधे देखे जा सकते हैं। कुछ अधिक ऊचांई पर बेशकीमती जड़ी बूटियां भी मिलती हैं। दुनिया भी के नशेड़ी गंजेड़ी अपने नशे की लत पूरी करने के लिए मलाना आते हैं और कई कई दिन तक अपने टेंट लगाये गांव के बाहर टिके रहते हैं। कई मलानावासी इस धंधे में लगे हैं। वैसे लगभग सभी गावंवासियों के खेत भी हैं जो बहुत दूर दूर हैं और हर परिवार में से एकाध सदस्य खेत पर ही टिका होता है।
जैसे कि मैंने बताया मलाना हिमाचल प्रदेश की ट्रैकिंग के रूट पर है और वहां से तीन दिन के ट्रैक के बाद चंद्रखैनी ग्लेशियर आता है। यूथ हॉस्टल द्वारा हर साल गर्मियों में आयोजित ट्रैकिंग अभियान में हर बरस सैकड़ों ट्रैकर एक दिन के लिए इस गांव के बाहर बनाये गये कैम्प में ठहरते हैं और इन गांव वालों को नजदीक से देखने का मौका पाते हैं। इन्हीं कैम्पों की वजह से कई गांव वासियों को पोर्टर के रूप में काम करने के लिए अतिरिक्त आमदनी भी हो जाती है। इसी लालच में गांव में एक दुकान भी खुल गयी है जहां आप चाय, काफी से ले कर तेल और टूथपेस्ट तक खरीद सकते हैं।
पहली बार मैं वहां एक ट्रैकर की हैसियत से गया था लेकिन अगली बार मैं वहां यूथ हास्टल के कैम्प में कैम्प लीडर बन कर गया था और एक महीने तक गांव वासियों के बीच गांव वाला ही बन कर रहा था।
चूंकि मुझे एक महीने तक वहीं रहना था और कैम्प लीडर की हैसियत से इस बात की तैयारी करके चला था कि किसी भी चोट या बीमारी की स्थिति में छोटा मोटा इलाज किया जा सके। अभी गांव के भीतर से अपने कैम्प की तरफ जा ही रहा था कि मुझे गांव वालों ने रोका और बताया कि एक आदमी के पैर का घाव बहुत खराब हो गया है। जब मैंने चबूतरे पर उसके पास जा कर देखा तो वाकई उसके जख्म की हालत खराब थी। सरकारी कम्पाउंडर के पास तो दवा तक नहीं थी, उससे इलाज कैसे कराते। मेरे पास जो भी बेसिक दवाइयां और क्रीम थी, उसके सहारे मैंने उसकी मरहम पट्टी की और कुछ गोलियां खाने के लिए दीं। दो तीन दिन तक मैं उसकी मरहम पट्टी करता रहा और चौथे दिन मेरी हैरानी की सीमा न रही जब मैंने उसे लंगड़ाते हुए अपने कैम्प तक आते देखा। वह काफी बेहतर महसूस कर रहा था। तब से मैं गांव वालों के लिए डाक्टर बन गया और लोग बाग अपनी तकलीफों के लिए मेरे पास दवा के लिए आने लगे। मेरे पास दवाएं इतनी नहीं थीं। जो थीं भी वे छोटी मोटी तकलीफों के लिए थीं। मैंने मजबूरन ट्रैकरों से उनकी निजी दवाओं में से कुछ दवाएं मांगनी शुरू कीं। डर भी था कि कहीं कम जानकारी के कारण दी गयी कोई दवा रिएक्शन न कर जाये और लेने के देने पड़ जायें।
लेकिन उनका विश्वास इतना बढ़ गया था मुझ पर कि वे मुझे अपना समझने लगे थे क्योंकि मेरी दी गयी दवा से संयोग से कई लोग ठीक हो गये थे। ऐसा भी हुआ कि कई बार मुझे लोग अपने घर भी ले गये ताकि मैं उनकी बीमार बीवी को देख सकूं या उसकी पीठ दर्द के लिए खुद उसकी पीठ पर मरहम का लेप कर सकूं। एक बार तो यहां तक हुआ कि एक मंगलू अपनी जवान बेटी को लेकर मेरे कैम्प में आया और बोला कि ये पेड़ से गिर गयी है और इसकी छाती में बहुत दर्द है। भला मैं इस मर्ज का क्या इलाज करता। लेकिन वह तो मेरे पीछे ही पड़ गया कि इलाज तो मुझे ही करना है। गोली लेने से उसने मना कर दिया और कहा कि मैं खुद मुआइना करके कोई क्रीम लगाऊं। मंगलू टैंट के बाहर बैठ गया और भीतर लड़की ने अपना कुर्ता उतार दिया और अपनी बोली में बताने की कोशिश की की कहां दर्द है। मेरी हालत खराब। एक जवान लड़की कुर्ता उतारे अधनंगी बैठी है मेरे सामने। उसने कुर्ते के चीने कुछ भी नहीं पहना था। मैंने किसी तरह उसे दर्द निवारक क्रीम दी कि अपने आप लेप कर ले लेकिन उसने मना कर दिया कि आप ही लगाओ। मरता क्या न करता।
गांव वालों का मुझा पर भरोसा इतना बढ़ गया था कि वे अक्सर मेरे कैम्प में आते और मेरे पास फुर्सत होती तो ढेर सारी बातें करते। मुझे अपनी बोली की गिनती सिखाते, अपनी बोली के शब्दों के मतलब बताते। कितनी बार ऐसा हुआ कि वे मेरे लिए अपने घर से कुछ खाने का सामान ले कर आये।
जब वहां से मेरे जाने का वक्त आया तो बीसियों मलानावासी मुझे गांव के बाहर तक छोड़ने आये थे। मेरी आंखें तब नम हो आयीं जब गांव के उप प्रधान ने खुद अपने हाथों से बनायी गयी कुल्लू टोपी मुझे उपहार के तौर पर दी थी। ये मेरे लिए अमूल्य भेंट थी।
हिमाचल की कुल्लू घाटी में मलाना नदी से सटी खूबसूरत पहाडियों पर लगभग 8500 फुट की ऊंचाई पर बसा मलाना गांव शहरी सभ्यता और आधुनिकता से कोसों दूर है। इदस गांव तक पहुंचने के लिए कम सये कम 15 किमी का ट्रैक करना पड़ता है।
इस गांव के बारे में कई किम्वदंतियां हैं। कहते हैं जब सिकंदर भारत पर हमला करने आया था तो उसके कुछ सैनिक उसकी सेना छोड़ कर भाग गए थे। इन्हीं भगोड़े सैनिकों ने मलाना नाम के गांव को बसाया था। उनके ग्रीक होने के कुछ पुष्ट प्रमाण भी हैं। लकड़ी के बने उनके अत्यन्त लेकिन कलात्मक मंदिरों में जो उकेरी हुई आकृतियां हैं, उनमें घुड़सवार सैनिक, हाथी, शराब पीते हुए सैनिक हैं, जिन्होंने फ्राकनुमा एक वस्त्र पहन रखा है। यह मूलतः उस युग के ग्रीक सैनिकों की पोशाक हुआ करती थी। साथ ही गांव वासियों के शरीर की बनावट, चेहरे-मोहरों में और गतिविधियों में भारतीयता का अभाव है। इसके अलावा कई लोगों और बच्चों की आंखे नीली हैं। कहा जाता है कि इन सैनिकों ने आसपास के गांवों की लड़कियों से शादी - विवाह किये और वे भेड़ें चराकर और गेहूं की खेती करके गुजर-बसर करने लगे। शुरू-शुरू में इन भगोड़े सैनिकों ने पहचान लिए जाने के डर से अपने आपको पूरी दुनिया से अलग रखा था। बाद में यही अलगाव उनका जीवन-दर्शन बन गया। एक किस्सा सम्राट अकबर के बारे में भी है। सुनते हैं कि किसी रोग से निजात पाने के लिए एक फकीर के कहने पर खुद अकबर पैदल चलकर मलाना के मंदिर गया और वहां अपनी तस्वीर वाली स्वर्ण मुद्राएं चढ़ाई। जब मैं वहांपहली बार गया था तो बातचीत के दौरान कई लोगों ने मुझे बताया कि वे मुद्राएं अभी भी मंदिर में सुरक्षित हैं। कहा तो यह भी जाता है कि सिकंदर के भगोड़े सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र भी एक शस्त्रागार में सुरक्षित हैं, लेकिन अभी तक किसी ने देखा नहीं।दिलों में देवता का डर मलानावासी परशुराम के पिता जमदग्नि (जमलू) की पूजा करते हैं और उसके कोप से बहुत डरते हैं। मलाना मंदिर में गूर, पुजारी और कारदार के अलावा किसी भी गांव-वासी को प्रवेश की अनुमति नहीं है। बाहरी व्यक्ति तो मंदिर की दीवारों और पत्थरों तक को छू नहीं सकता। मंदिर में प्रवेश के लिए गूर बनना जरूरी है। कहा जाता है कि पूरे हिमाचल प्रदेश में जिस किसी भी व्यक्ति को सपने में जमलू देवता का आदेश मिले तो वह मलाना आकर वहां की पंचायत को बताए। यदि वह पंचायत के गूढ़ प्रश्नों का जवाब देकर पंचायत को संतुष्ट कर दे, तभी वह गूर बन सकता है। संसार का प्राचीनतम गणतंत्रमलानावासियों का अपना शासनतंत्र है, जो संसार के प्राचीनतम गणतंत्र के रूप में माना जाता है। उसमें हमारी लोकसभा और राज्यसभा की तरह चुनी हुई पंचायतें काम करती हैं। उनके ऊपर देवता का फैसला होता है, जिसमें कोई भी परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होती। यदि किसी अपराध के पीछे दो आदमी शक के दायरे में हैं तो दोनों को नहलाकर देवदार के दो विशाल वृक्षों के नीचे चेहरा ढक कर खड़ा कर देते हैं। दोनों के सामने बंधी दो भेड़ों की जांघों को चीरकर उसमें जहर भरकर सिल दिया जाता है। जिस व्यक्ति के सामने वाली भेड़ पहले मर जाए, वही दोषी करार दिया जाता है। दोनों भेड़ों के मर जाने पर उनका मांस निकालकर पूरे गांव में बांट दिया जाता है। किसी भी सजा के फैसले के लिए पंचायत विशेष रूप से बनाए गए चबूतरे का ही इस्तेमाल करती है। इन्हें भी कोई छू नहीं सकता। अजीबोगरीब आदतेंमलाना गांव के लोग अनपढ़, काफी हद तक जाहिल होने के बावजूद श्रेष्ठता की भावना के इतने पीडित हैं कि पूरी दुनिया को अछूत और अपने से हीन समझते हैं। पिछले कुछ समय से वहां के पोर्टर भेड़ें चराने के सिलसिले में कुल्लू, मंडी और बिलासपुर तक हो आएं हैं। इसलिए वे दूसरों का छुआ-पकाया खा लेते हैं। वरना आम तौर पर आलम यह है कि उन्हें पैसे देते समय उनके हाथों में पैसे गिराने पड़ते हैं, और वे तो जमीन पर फेंककर पैसे देते हैं। वे इस बात के प्रति बहुत सतर्क रहते हैं कि कोई बाहरी व्यक्ति उनसे छू न जाए। इसी वजह से सरकार द्वारा गांव में बनाये गये आयुर्वेदिक दवाखाने में भी नहीं जाते क्योंकि वहां कार्यरत डॉक्टर बाहर का है। इसी मनोवृति के चलते वहां सरकार अब तक बिजली के कनेक्शन नहीं करवा पाई। अलबत्ता आपको गांव भर में सोलर लाइट के लिए लगाये गये खम्बे जहां तहां नजर आ जायेंगे। यहीं नहीं, लाखों रुपये के पाइप पानी के कनेक्शन के इन्तजार में पड़े हैं।प्रीत की रीत निरालीमलाना गांव मंदिर के दोनों ओर बसा हुआ है। मंदिर के दांई ओर के निवासी बांई ओर के निवासियों से ही विवाह कर सकते हैं। यदि किसी लड़के को लडकी पसंद आ जाए तो वह लडकी के मां-बाप से सीधे प्रस्ताव कर सकता है और लड़का जंच जाने पर अपनी हैसियत के अनुसार पांच-सात सौ रुपये देकर लड़की ले जा सकता है। वहां की महिलाएं बहुत मेहनती और सुंदर होती हैं। उनके चेहरों पर एक अजीब-सी चमक होती है। महिलाओं की तुलना में आदमी अधिक आलसी और कामचोर होते हैं। वे बैठकर ताश खेलते हैं, जो उनका प्रिय शगल है। अमूमन वे एक-दूसरे की बीवी को फुसलाकर अपने घर ले आते हैं। वह औरत भी बिना किसी औपचारिकता के अपने बच्चों को पहले वाले पति के जिम्मे छोड़ आती हैं। यह बात इतनी सहज और साधारण मानी जाती है कि लोग दस-पंद्रह पत्नियां तक बदल लेते हैं।शिक्षा में सिफरगांव में नाम रखने की परम्परा बड़ी अजीब है। सोमवार को पैदा होने वाला सोमू, मंगलवार को मंगलू और शुक्र को शुक्रू के नाम से जाना जाता है। पढ़ने-लिखने के नाम पर सब कुछ शून्य है। हिमाचल के हर गांव में स्कूल और बिजली है। बेशक गांव में सरकारी स्कूल है और अब बच्चे मिल जुल कर पढ़ने भी लगे हैं। गांव में तब 400 बच्चे तो रहे ही होंगे लेकिन पहली से पांचवी तक की एक साथ चल रही कक्षा में मुश्किल से तीव बच्चे पढ़ते दिखायी दिये। मैं जब वहां गया था तो गांव के इकलौते हाइस्कूल पास युवक से मिला था। पूछने पर मास्टर तुलसीराम जी ने बताया कि देवता के डर से कोई अपने बच्चों को यहां पढ़ने नहीं भेजता। बड़ी मुश्किल से इन बच्चों को ही जुटा पाते हैं मास्टर जी। सरकार ने इस दौरान काफी कोशिश की है कि मलाना के लोग अपने खोल से बाहर आएं और जीवन की मुख्य धारा से जुड़ें मगर अभी तक कोई खास असर नहीं नजर आ रहा। उनके स्वर में निराशा थी। लेकिन गांव के अकेले बाहरी व्यक्ति चौकीदार संगतराम ने बरसों पहले गांव में बहुत प्रयास किये थे। वही इस गांव को देश विदेश के र्टैकिंग रूट पर लाया था और उसी के घर देशी-विदेशी सैलानी और ट्रैकर ठहरा करते थे। वक्त की रफ्तार में पीछेआधुनिकता ने भी मलाना को प्रभावित अवश्य किया है। हमें कुछ मकानों के छज्जों पर सिलाई मशीन रखी दिखाई दी थीं। एक घर में प्रेशर कूकर की सीटी की आवाज भी सुनाई दे रही थी। तीन-चार मंगलुओं और सोमुओं के हाथ पर घड़ी तो थी, परन्तु उन्हें वक्त देखना नहीं आता था। औसत मलानी के पास 200 से 500 भेड़ें होती हैं। कई मलानियों ने जरी गांव स्थित बैंक में अपने रिश्तेदारों के जरिए अच्छी-खासी रकम जमा कर रखी है। पता चला है कि इनके पास सोना भी बहुत है, मगर पहनावा उनका अपना कता-बुना मोटा कपड़ा ही है।
मलाना वासी शराब नहीं पीते लेकिन मलाना के आस पास बीसियां मीलों दूर तक अफीम के और भांग के पौधे देखे जा सकते हैं। कुछ अधिक ऊचांई पर बेशकीमती जड़ी बूटियां भी मिलती हैं। दुनिया भी के नशेड़ी गंजेड़ी अपने नशे की लत पूरी करने के लिए मलाना आते हैं और कई कई दिन तक अपने टेंट लगाये गांव के बाहर टिके रहते हैं। कई मलानावासी इस धंधे में लगे हैं। वैसे लगभग सभी गावंवासियों के खेत भी हैं जो बहुत दूर दूर हैं और हर परिवार में से एकाध सदस्य खेत पर ही टिका होता है।
जैसे कि मैंने बताया मलाना हिमाचल प्रदेश की ट्रैकिंग के रूट पर है और वहां से तीन दिन के ट्रैक के बाद चंद्रखैनी ग्लेशियर आता है। यूथ हॉस्टल द्वारा हर साल गर्मियों में आयोजित ट्रैकिंग अभियान में हर बरस सैकड़ों ट्रैकर एक दिन के लिए इस गांव के बाहर बनाये गये कैम्प में ठहरते हैं और इन गांव वालों को नजदीक से देखने का मौका पाते हैं। इन्हीं कैम्पों की वजह से कई गांव वासियों को पोर्टर के रूप में काम करने के लिए अतिरिक्त आमदनी भी हो जाती है। इसी लालच में गांव में एक दुकान भी खुल गयी है जहां आप चाय, काफी से ले कर तेल और टूथपेस्ट तक खरीद सकते हैं।
पहली बार मैं वहां एक ट्रैकर की हैसियत से गया था लेकिन अगली बार मैं वहां यूथ हास्टल के कैम्प में कैम्प लीडर बन कर गया था और एक महीने तक गांव वासियों के बीच गांव वाला ही बन कर रहा था।
चूंकि मुझे एक महीने तक वहीं रहना था और कैम्प लीडर की हैसियत से इस बात की तैयारी करके चला था कि किसी भी चोट या बीमारी की स्थिति में छोटा मोटा इलाज किया जा सके। अभी गांव के भीतर से अपने कैम्प की तरफ जा ही रहा था कि मुझे गांव वालों ने रोका और बताया कि एक आदमी के पैर का घाव बहुत खराब हो गया है। जब मैंने चबूतरे पर उसके पास जा कर देखा तो वाकई उसके जख्म की हालत खराब थी। सरकारी कम्पाउंडर के पास तो दवा तक नहीं थी, उससे इलाज कैसे कराते। मेरे पास जो भी बेसिक दवाइयां और क्रीम थी, उसके सहारे मैंने उसकी मरहम पट्टी की और कुछ गोलियां खाने के लिए दीं। दो तीन दिन तक मैं उसकी मरहम पट्टी करता रहा और चौथे दिन मेरी हैरानी की सीमा न रही जब मैंने उसे लंगड़ाते हुए अपने कैम्प तक आते देखा। वह काफी बेहतर महसूस कर रहा था। तब से मैं गांव वालों के लिए डाक्टर बन गया और लोग बाग अपनी तकलीफों के लिए मेरे पास दवा के लिए आने लगे। मेरे पास दवाएं इतनी नहीं थीं। जो थीं भी वे छोटी मोटी तकलीफों के लिए थीं। मैंने मजबूरन ट्रैकरों से उनकी निजी दवाओं में से कुछ दवाएं मांगनी शुरू कीं। डर भी था कि कहीं कम जानकारी के कारण दी गयी कोई दवा रिएक्शन न कर जाये और लेने के देने पड़ जायें।
लेकिन उनका विश्वास इतना बढ़ गया था मुझ पर कि वे मुझे अपना समझने लगे थे क्योंकि मेरी दी गयी दवा से संयोग से कई लोग ठीक हो गये थे। ऐसा भी हुआ कि कई बार मुझे लोग अपने घर भी ले गये ताकि मैं उनकी बीमार बीवी को देख सकूं या उसकी पीठ दर्द के लिए खुद उसकी पीठ पर मरहम का लेप कर सकूं। एक बार तो यहां तक हुआ कि एक मंगलू अपनी जवान बेटी को लेकर मेरे कैम्प में आया और बोला कि ये पेड़ से गिर गयी है और इसकी छाती में बहुत दर्द है। भला मैं इस मर्ज का क्या इलाज करता। लेकिन वह तो मेरे पीछे ही पड़ गया कि इलाज तो मुझे ही करना है। गोली लेने से उसने मना कर दिया और कहा कि मैं खुद मुआइना करके कोई क्रीम लगाऊं। मंगलू टैंट के बाहर बैठ गया और भीतर लड़की ने अपना कुर्ता उतार दिया और अपनी बोली में बताने की कोशिश की की कहां दर्द है। मेरी हालत खराब। एक जवान लड़की कुर्ता उतारे अधनंगी बैठी है मेरे सामने। उसने कुर्ते के चीने कुछ भी नहीं पहना था। मैंने किसी तरह उसे दर्द निवारक क्रीम दी कि अपने आप लेप कर ले लेकिन उसने मना कर दिया कि आप ही लगाओ। मरता क्या न करता।
गांव वालों का मुझा पर भरोसा इतना बढ़ गया था कि वे अक्सर मेरे कैम्प में आते और मेरे पास फुर्सत होती तो ढेर सारी बातें करते। मुझे अपनी बोली की गिनती सिखाते, अपनी बोली के शब्दों के मतलब बताते। कितनी बार ऐसा हुआ कि वे मेरे लिए अपने घर से कुछ खाने का सामान ले कर आये।
जब वहां से मेरे जाने का वक्त आया तो बीसियों मलानावासी मुझे गांव के बाहर तक छोड़ने आये थे। मेरी आंखें तब नम हो आयीं जब गांव के उप प्रधान ने खुद अपने हाथों से बनायी गयी कुल्लू टोपी मुझे उपहार के तौर पर दी थी। ये मेरे लिए अमूल्य भेंट थी।
Comments
Tell us more about their social system, which seems to be similar to some Polynesian islands.
best
M
mera irada bhi malana jane ka hai.
kripaya mujhe batayen ki kya wahan par kewal treking karke hi jaya ja sakta hai.
mujhe itni jankari to mili hai ki wahan jane ke liye suwidhajanak jagah jari hai. kya jari se ek din me yaani subah ko jaakar sham ko waapas aa sakte hain? ya wahan koi rukne kee bhi koi jagah hai?