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ख्वाबों की तावीर

राही मासूम रजा पर आधारित अंक
वाडमय पत्रिका
मूल्य 70 रूपये india
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बी-4 लिबर्टी होम्स
अब्दुल्लाह कालेज रोड
अलीगढ 202002
09412277331
सम्पादकीय
कहानी
प्रताप दीक्षित : राही मासूम रजा की कहानियाँ: मनुष्य के ख्वाबों की तावीर
राही मासूम रजा : एक जंग हुई थी कर्बला में
राही मासूम रजा : सिकहर पर दही निकाह भया सही
राही मासूम रजा : खुशकी का टुकड़ा
राही मासूम रजा : एम०एल०ए० साहब
राही मासूम रजा : चम्मच भर चीनी
राही मासूम रजा : खलीक अहमद बुआ
राही मासूम रजा : सपनों की रोटी
आलेख/लेख

राही मासूम रजा : फूलों की महक पर लाशों की गंध
राही मासूम रजा : रामायण हिन्दुस्तान के हिन्दुओं की धरोहर है?
राही मासूम रजा : नेहरू एक प्रतिमा
राही मासूम रजा : शाम से पहले डूब न जाये सूरज
शिव कुमार मिश्र : राही मासूम रजा
कुरबान अली : हिन्दोस्तानियत का सिपाही
हसन जमाल : राही कभी मेरी राह में न थे
सग़ीर अशरफ़ : राष्ट्रीय एकता के सम्वाहकः राही
बाकर जैदी : राही और १८५७
मेराज अहमद : राही का रचनात्मक व्यक्तित्व
मूलचन्द सोनकर : रही मासूम रजा की अश्लीलता?
जोहरा अफ़जल : राही मासूम रजा और आधा गाँव
आदित्य प्रचण्डिया : मैं एक फेरी वाला
सन्दीप कुमार : आधा गाँव एवं टोपी शुक्ला में साम्प्रदायिकता
कनुप्रिया प्रचण्डिया : राही और आधा गाँव
साक्षात्कार/यादें

राही मासूम रजा से सुदीप की अंतरंग बातचीत
राही मासूम रजा के साथ विश्वनाथ की लम्बी बातचीत
नीरज, क़ाजी अब्दुस्सत्तार और शहरयार की यादों के राहीः प्रेम कुमार
मासूम से राही मासूम रजा तक : एम० हनीफ़ मदार
नैयर रजा से प्रेमकुमार की बातचीत
यादों के दायरे
सिनेमा

राही मासूम रजा : यथार्थ लेकिन सेंसर?
राही मासूम रजा : दिलीप कुमारः एक वह हैं जिन्हें तस्वीर बना आती है
राही मासूम रजा : फ़िल्मकार में सामाजिक चेतना नहीं है
राही मासूम रजा : फ़िल्म की भाषा
यूनुस ख्नान : जिन्दगी को संवारना होगाः राही का फ़िल्मी सफर
सिदेश्वर सिंह : आधा गाँव के लेखक का फ़िल्मी सफर
फ़ीरोज ख़ान : राही की कुछ महत्त्वपूर्ण फ़िल्में

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लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

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समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क