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रामचरितमानस की काव्यभाषा में रस का स्वरूप

वंदना शर्मा



कविता भाषा की एक विधा है और यह एक विशिष्ट संरचना अर्थात् शब्दार्थ का विशिष्ट प्रयोग है। यह (काव्यभाषा) सर्जनात्मक एक सार्थक व्यवस्था होती है जिसके माध्यम से रचनाकार की संवदेना, अनुभव तथा भाव साहित्यिक स्वरूप निर्मित करने में कथ्य व रूप का विशिष्ट योग रहता है। अतः इन दोनों तत्त्वों का महत्त्व निर्विवाद है। कवि द्वारा गृहित, सारगर्भित, विचारोत्तेजक कथ्य की संरचना के लिए भाषा का तद्नुरूप पं्रसगानुकूल, प्रवाहानुकूल होना अनिवार्य है। भाषा की उत्कृष्ट व्यंजना शक्ति का कवि अभिज्ञाता व कुशल प्रयोक्ता होता है। रचनाकार अपनी अनुभूति को विशिष्ट भाषा के माध्यम से ही सम्प्रेषित करता है, यहीं सर्जनात्मक भाषा अथवा साहित्यिक भाषा ‘काव्यभाषा’ कहलाती है। काव्यभाषा के संदर्भ में रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रौढ़ और महान् कवि काव्यशास्त्रा के अन्य तत्त्वों की अपेक्षा रस से मुख्यतया अपने काव्य में रसयुक्त भाव की सृष्टि करता है।

व्युत्पत्ति की दृष्टि से रस् शब्द रस धातु से निर्मित है, जिसका अर्थ है स्वाद लेना। रस शब्द स्वाद, रुचि, प्रीती, आनन्द, सौंदर्य आदि के साथ ही तरल पदार्थ, जल, आसव आदि भौतिक अर्थांे में प्रयुक्त होता रहा है। रस का व्याकरण सम्मत अर्थ है- ‘रस्यते आस्वधते इति रसः’ अर्थात् जिसका स्वाद लिया जाय या जो आस्वादित हो, उसे रस कहते हैं।1 रस सिद्धांत के अनुसार काव्य की आत्मा रस है। इससे काव्यवस्तु की प्रधानता लक्षित होती है, विभिन्न रसों के अनुरूप काव्य रचना करने मंे काव्यभाषा की स्पष्ट झलक है। अनुभूति जब हृदय में मंडराती है, वह अरूप और मौन है पर इससे ही अभिव्यक्त होती है तो किसी न किसी भाषा में ही होती है। अभिनव गुप्त ने लिखा है कि शब्द -निष्पीड़न में काव्यानंद की प्राप्ति होती है। यह शब्द-निष्पीड़न काव्यभाषा का काम है । इन्हांेने (अभिनवगुप्त) अभिधा और व्यंजना को स्वीकारते हुए रसों की अभिव्यक्ति स्वीकार की है।2

भरत ने अपने नाट्यशास्त्रा में रस को परिभाषित करते हुए लिखा है-जिस प्रकार नाना प्रकार के व्यंजनों से सुसंस्कृत अन्न को ग्रहण कर पुरुष रसास्वादन करता हुआ प्रसन्नचित् होता है, उसी प्रकार प्रेषक या दर्शक भावों तथा अभिनयों द्वारा व्यंजित वाचिक, आंगिक एवं सात्विक भावों तथा अभिनयों द्वारा व्यंजित वाचिक, आंगिक एवं सात्त्विक भावों से युक्त स्थायी भाव का आस्वादन कर हर्षोत्फुल्ल हो जाता है।

आचार्य मम्मट के अनुसार लोक में रति आदि चित्तवृत्तियों के जो कारण, कार्य और सहकारी होते हैं, वे ही काव्य अथवा नाटक में विभाव, अनुभाव एवं संचारी या व्याभिचारी भाव कहे जाते हैं तथा उन विभावादि के द्वारा व्यक्त(व्यंजनागम्य) होकर स्थायी भाव रस कहा जाता है।3

आधुनिक रसवादी आलोचक डाॅ॰ नगेंद्र भी साधारणीकरण को भाषा का धर्म मानते हैं।4

रामचरितमानस में काव्य-स्वीकृत सभी रसों की सुंदर योजना की गईं हैं कवि तुलसीदास ने अपने भक्तयात्मक व्यक्तित्व के प्रभाव से भक्ति नामक भाव को ‘भक्तिरस’

शेष भाग पत्रिका में..............



Comments

Anonymous said…
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