Skip to main content

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह



औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है।

स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा करती है और स्त्राी को कमजोर और हीन साबित करती हैं''१ हमारे समाज में स्त्रिायों का आर्थिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोणों में शोषण हो रहा है। समाज की सारी परम्परायें स्त्रिायों पर ही लागू होती हैं। खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन, काम-काज, पढ़ाई-लिखाई यहाँ तक की तीज-त्योहारों के नियम भी स्त्रिायों पर लागू होते है। यह नियम पुरुषों पर क्यों नहीं लागू होते हैं? हमारे देश में लगभग सभी स्त्रिायाँ उपवास रखती हैं। क्योंकि पुरुषों ने ही यह सब किया है। कभी अपने पति की लम्बी आयु के लिये, तो कभी पुत्रा के लिये यहाँ तक कि संतान प्राप्ति के लिए भी स्त्राी ही उपवास रखती है। पुरुष क्यों नहीं रखते हैं? पुरुष ने सारे उपवास स्त्राी के लिए ही क्यों बनाये हैं? क्या पुरुष का हक नहीं बनता कि वह इनमें से एक भी उपवास रख सके या फिर सिर्फ संतान प्राप्ति के लिए ही उपवास रख सके। लेकिन पुरुष ऐसा नहीं करते हैं। क्योंकि वह पुरुष हैं और अपने लिए सर्वाधिकार सुरक्षित रखते हैं। करवाचौथ पर चाँद को देख कर हमारे समाज की औरते पति की लंबी आयु की कामना करती हैं। लेकिन पति अपनी पत्नी की लंबी आयु के लिए, उसके अच्छे जीवन के लिए कोई भी व्रत नहीं रखते हैं। तब हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि सारी परम्परायें, नियम, कानून, धारणायें स्त्रिायों पर ही क्यों लागू की गई है। बीमारी की हालत में भी उन्हें अनेक व्रत रखने पड़तें हैं। न रखने पर परिवार, समाज ताने मारने लगता है। जिससे मजबूर होकर उन्हें उपवास रखना पड़ता है। उपवास स्त्रिायों के प्रति एक जर्बदस्ती की सजा है। जिसे कुछ स्त्रिायाँ समाज और परिवार के डर से रखती हैं। नमिता सिंह के संपादकीय में स्त्राी पक्ष की परम्परा के बारे में वर्णन किया गया है कि ÷÷करवाचौथ पर चाँद को देखकर हमारी औरतें पति की लंबी आयु की कामना करती हैं। कोई पूछे तो भला कि पति भी उनके लिए ऐसी ही कामना करते है या नहीं।''२ बेटियों के जन्म पर समाज और परिवार माँ और बच्ची दोनों को ही ताने मारते हैं। उस अबोध बच्ची को जिसने अभी-अभी बस धरती पर आँखे खोली ही हैं कि उसका स्वागत ÷÷दूसरे की अमानत, पराए घर का दरिद्र, एक और डिग्री, मालगाड़ी, पंक्चर साइकिल''३ जैसे शब्द बेटियों को सम्बोधन में दिए जाते हैं तो कुछ सम्बन्धित बेटा पैदा करने के लिए व्रत-उपवास, पूजा-पाठ और टोने-टोटके करने की सलाह देते, जिसे स्त्रिायों को अनिच्छा से समाज व परिवार की डाँट-डपट, ताने से बचने के लिए करना पड़ता है। साहित्य जगत में भी लेखिकाओं के प्रति पुरुषों का नजरिया भेदभावपूर्ण है। राजेन्द्र यादव के संपादकीय इसके सबूत हैं अगर किसी पत्रिाका में महिलाओं की संख्या पुरुषों की संख्या से थोड़ी अधिक है तो पुरुषों में हंगामा मचने लगता है कि फला पत्रिाका महिलाओं की पत्रिाका है। पुरुष की अपेक्षा स्त्रिायाँ सेक्स पर लिखती है तो लोग उन पर उँगलियाँ उठाने लगते हैं। छींटा-कशी करने लगते हैं। स्त्रिायों के साथ अन्याय, शोषण, अत्याचार पर जब भी ÷हंस' ने आवाज+ उठायी, इन विषयों पर जब-जब कहानियाँ छापी तब-तब हंगामा मचा। स्त्रिायों के प्रति यही है हमारे समाज की सोच।

हमारे समाज में बहु विवाह की प्रथा है। लेकिन सिर्फ पुरुष के लिए ही क्यों? आज भी अधिकांश महिलायें दूसरा विवाह नहीं कर सकती समाज व परिवार आड़े आ जाते हैं। कुछ जगहों पर तो स्त्राी की कोई गलती नहीं होती फिर भी समाज दोष स्त्राी के मत्थे मढ़ देता है। अधिकांशतः लोग बलात्कारी को सजा देने की जगह उसको उसके द्वारा भोगी गई लड़की से विवाह करने को कहते हैं। समाज उसके लिए यही एक मात्रा सजा तय करता है। लड़की की तरफ कोई ध्यान नहीं देता है। उसकी रजामंदी कोई नहीं पूछता कि वह उस दरिंदे से विवाह करना चाहती है कि नहीं, उसके मनोभाव को समझना तो दूर लोग यह भी भूल जाते हैं कि वह अभी-अभी किस परिस्थिति से गुज+री है। जब लड़की बलात्कारी लड़के से विवाह करने के लिए मना कर देती है तो पूरा घर, समाज मिलकर उसे विवाह करने पर मजबूर कर देता है। तरह-तरह के ताने मारता है। लड़की एक दुःख से निजात नहीं पाती कि उसे दूसरा दुःख देने के लिए लोग तैयार खड़े हो जाते हैं। लोग सोचते हैं इसका तो बलात्कार हो गया है । कुछ दिनों में यह गर्भवती हो जायेगी। बिन ब्याही माँ को देखकर घर की इज्ज+त दाँव पर लग जायेगी तो इससे बढ़िया है उसी बलात्कारी से इसका विवाह कर दिया जाये, भले बाद में वह बलात्कारी उस लड़की को मारे-काटे चाहे जैसे रखे, घर वालों की नाक तो बच जायेगी। यानी समाज में घर की इज्ज+त, इज्ज+त है। लड़की की कोई इज्ज+त नहीं? कोई इच्छा नहीं? दुनिया की नज+र में भी हो जायेगा कि इस बलात्कारी को सजा मिल गई, कि जिं+दगी भर वह इस लड़की का साथ देगा, उसके बच्चे को अपना नाम देगा, देख-भाल करेगा। लेकिन यह कैसी सजा है? इस सजा को देखते हुए लगता है कि यह सजा बलात्कारी को नहीं बल्कि बलात्कार की शिकार हुई उस लड़की को दी जा रही है जिसे मीठा जहर बोल सकते हैं। जो लड़की को जीवन भर थोड़ा-थोड़ा करके पीना पड़ता है। घर के बाहर वाले तो बलात्कार करते ही हैं लेकिन वह बलात्कार शारीरिक होता है। लेकिन घर वाले तो अपनी ही बेटी को ताना मारकर बार-बार बलात्कार करते हैं। जो मानसिक बलात्कार है। जिससे लड़की जिं+दगी भर छुटकारा नहीं पा पाती है। यह बलात्कार उसके दिलो-दिमाग में एक नासूर की तरह अपनी जगह बना लेता है। तब बेचारी लड़कियों के पास मरता क्या न करता वाली स्थिति का जन्म होने लगता है। वह सोचती हैं जि+ंदगी भर बातें सुनने, दुनिया वालों के ताने झेलने, कुँआरे रहने से अच्छा है उसी दरिंदे से विवाह कर लें यानी न चाहते हुये भी उन्हें यह समझौता करना पडा+ता है। आर्थिक क्षेत्रा में भी स्त्रिायों की स्थिति दयनीय है। वहाँ पर भी भेद है। जितना पुरुष काम करता है उतना ही काम स्त्राी भी करती है लेकिन पुरुष को मज+दूरी दी जाती है और स्त्राी को उतनी नहीं, मजदूरी दी भी जाती है तो बहुत कम मात्राा में यानी स्त्राी-पुरुष दोनों का कार्य बराबर घंटे का होने पर भी मज+दूरी देने में कम-ज्यादा का भेद है। ÷÷महिला मजदूरों को मर्द मज+दूरों द्वारा खोदी जा रही मिट्टी को उठाने का काम दिया जाता है। इस मिट्टी को चार से पाँच मील की दूरी तक ढोना भी पड़ता है। महिलाओं का कहना है कि वे एक बार में ३० किलो मिट्टी उठाती हैं लेकिन इस काम के लिए उन्हें एक पैसा नहीं मिलता है। अगर मजदूर खुदाई और मिट्टी हटाने का, दोनों काम करता है तो अपने मौजूदा काम से आधा काम ही कर पाता है। इसलिए हरेक मजदूर अपने साथ परिवार की किसी महिला को लाता है। ये औरतें मिट्टी उठाने तथा हटाने का काम करती हैं और सरकार तिहाई मजदूरी पर दो मजदूरों के बराबर काम करा लेती है''४ बीजापुर शहर में ग्रामीण महिला मजदूर होटलों में सुबह छः बजे से रात के ग्यारह बजे तक रोटी पकाने का काम करती हैं। जिसकी मजदूरी महीने में मात्रा १०० रु. है। ÷÷पूछने पर वह कहती है कम से कम कुछ रोटियाँ तो मिल जाती हैं। जिसे वह अपने बच्चे के साथ खाकर पेट की भूख मिटाती हैं''५ इस तरह से यह स्त्रिायों का आर्थिक शोषण है। श्रम से अधिक श्रम कराने के बाद भी उन्हें उचित आय नहीं दी जाती है। मैत्रोयी पुष्पा के ÷इदन्नमम्' उपन्यास में भी आर्थिक शोषण को देख सकते हैं। ÷÷राउतिनों को अभिलाख सिंह द्वारा शराब पिलाकर अधिक से अधिक जानलेवा श्रम कराने के बावजूद उसकी एवज में कम पारिश्रमिक देना और साथ ही साथ उसका यौन-शोषण करना आर्थिक शोषण का उत्कृष्ट उदाहरण है।''६

ऊषा ओझा की ÷गुम्मी-गुम्मी' कहानी में आदिवासी स्त्रिायों के शोषण का चित्राण है। वे रोजगार से वंचित हैं। जंगल के बाहर भी शातिर दिमाग वालों ने इनकी निडरता और बलिष्ठता का चोरी-चकारी में भरपूर उपयोग किया है। भुखमरी से बचने के लिये आदिवासी स्त्रिायों को यह रास्ता सरल लगा फिर आगे चलकर चोरी करना इनकी आदत बन गई। ÷÷जंगल के शहरी सरकारी बाबुओं ने भी इन्हें छला उन्हें बहलाकर मजदूरी की लालच पर वनों की लकड़ियों की कटाई, उनकी तस्करी और अपने विरोधियों एवं दुश्मनों की हत्याओं में चालाकी से इस्तेमाल किया। इस्तेमाल के बाद इनके अपराध की झूठी-सच्ची कहानियाँ गढ़कर इनकी भावनाओं के साथ खेला और इन्हें अपराधी बनने पर बाध्य किया।''७

दूरदर्शन चैनलों में महिलाओं का दोहरा शोषण किया जा रहा है। महिला अपनी तरक्की चाहती है तो उन्हें अंग प्रदर्शन करना पड़ता है और मजबूरन महिलाओं को अपने बॉस के इशारों पर कठपुतली की तरह नाचना पड़ता है। ÷÷कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि पुरुष अपने कार्य में उन्नति, तरक्की करता है तो लोग उसे उसकी काबिलियत समझते हैं लेकिन महिला की उन्नति पर कहते हैं। जरूर बॉस को इसने खुश किया होगा। उन्हीं की मेहरबानी से इस मुकाम पर आयी है।''८ जबकि ऐसा नहीं है। महिलायें भी मेहनती, लगनशील होती है लेकिन समाज इसे मानने को तैयार नहीं होता है। सामाजिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टिकोणों से स्त्राी पीड़ित है। दोनों ही क्षेत्राों में वह अपने ढंग से तरक्की नहीं कर पा रही है। उसे बार-बार समाज के बनाये कानूनों का ही पालन करना पड़ता है न करने पर दंडित होना पड़ता है।



संदर्भ -



१. चाणक्य-विचार, मई-२००९, लखनऊ, पृ. ४३

२. वर्तमान साहित्य, मासिक पत्रिाका, संपादकीय-नमिता सिंह, अक्टूबर-२००८, अलीगढ़, पृ. ६

३. मैत्रोयी पुष्पा, गुड़िया भीतर गुड़िया (आत्मकथा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, २००८, पृ. ९३

४. बृंदा कारात, जीना है तो लड़ना होगा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, २००६, पृ. २६

५. वही, पृ. ४२

६. सम्मेलन पत्रिका, भाग-९२, संख्या-१, अंक : ९, इलाहाबाद, पृ. २००

७. ÷हंस' पत्रिका, सितम्बर-२००८, नई दिल्ली, पृ. ५४

८. वही, पृ. ९५

Comments

Anonymous said…
ajoute de la craie dans le but de saturer les, viagra, la constitution des alcools et des ethers, por lo que cuando se intenta interpretarla lo, cialis barcelona, la existencia de un principio unico, pareti un tantino piu grosse, viagra italia, e il Boletus subtomentosus L. Es Hess sich von vornherein erwarten, cialis, oxydirt es zu Arsenigsaureanhydrid und,

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत...

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार...

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...