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Showing posts from January, 2009

अद्भुत

डा. महेंद्रभटनागर, . आदमी — अपने से पृथक धर्म वाले आदमी को प्रेम-भाव से — लगाव से क्यों नहीं देखता? उसे ग़ैर मानता है, अक्सर उससे वैर ठानता है! अवसर मिलते ही अरे, ज़रा भी नहीं झिझकता देने कष्ट, चाहता है देखना उसे जड-मूल-नष्ट! देख कर उसे तनाव में आ जाता है, सर्वत्र दुर्भाव प्रभाव घना छा जाता है! . ऐसा क्यों होता है? क्यों होता है ऐसा? . कैसा है यह आदमी? गज़ब का आदमी अरे, कैसा है यह? ख़ूब अजीबोगरीब मज़हब का कैसा है यह? सचमुच, डरावना बीभत्स काल जैसा! . जो - अपने से पृथक धर्म वाले को मानता-समझता केवल ऐसा-वैसा! .

बचाव

डा. महेंद्रभटनागर, कैसी चली हवा! . हर कोई केवल हित अपना सोचे, औरों का हिस्सा हड़पे, कोई चाहे कितना तड़पे! घर भरने अपना औरों की बोटी-बोटी काटे नोचे! . इस संक्रामक सामाजिक बीमारी की क्या कोई नहीं दवा? कैसी चली हवा!

बदलो!

डा. महेंद्रभटनागर, सड़ती लाशों की दुर्गन्ध लिए छूने गाँवों-नगरों के ओर-छोर जो हवा चली — उसका रुख़ बदलो! . ज़हरीली गैसों से अलकोहल से लदी-लदी गाँवों-नगरों के नभ-मंडल पर जो हवा चली उससे सँभलो! उसका रुख़ बदलो!

दृष्टि

डा. महेंद्रभटनागर, जीवन के कठिन संघर्ष में हारो हुओ! हर क़दम दुर्भाग्य के मारो हुओ! असहाय बन रोओ नहीं, गहरा अँधेरा है, चेतना खोओ नहीं! . पराजय को विजय की सूचिका समझो, अँधेरे को सूरज के उदय की भूमिका समझो! . विश्वास का यह बाँध फूटे नहीं! नये युग का सपन यह टूटे नहीं! भावना की डोर यह छूटे नहीं! .

सुखद

डा. महेंद्रभटनागर, सहधर्मी सहकर्मी खोज निकाले हैं दूर - दूर से आस - पास से और जुड़ गया है अंग - अंग सहज किन्तु रहस्यपूर्ण ढंग से अटूट तारों से, चारों छोरों से पक्के डोरों से! . अब कहाँ अकेला हूँ ? कितना विस्तृत हो गया अचानक परिवार आज मेरा यह! जाते - जाते कैसे बरस पड़ा झर - झर विशुद्ध प्यार घनेरा यह! नहलाता आत्मा को गहरे - गहरे! लहराता मन का रिक्त सरोवर ओर - छोर भरे - भरे!

युगान्तर

डा. महेंद्रभटनागर, अब तो धरती अपनी, अपना आकाश है! . सूर्य उगा लो फैला सर्वत्र प्रकाश है! . स्वधीन रहेंगे सदा-सदा पूरा विश्वास है! . मानव-विकास का चक्र न पीछे मुड़ता साक्षी इतिहास है! . यह प्रयोग-सिद्ध तत्व-ज्ञान हमारे पास है! .

परिवर्तन

डा. महेंद्रभटनागर, मौसम कितना बदल गया! सब ओर कि दिखता नया-नया! . सपना — जो देखा था साकार हुआ, अपने जीवन पर अपनी क़िस्मत पर अपना अधिकार हुआ! . समता का बोया था जो बीज-मंत्र पनपा, छतनार हुआ! सामाजिक-आर्थिक नयी व्यवस्था का आधार बना! . शोषित-पीड़ित जन-जन जागा, नवयुग का छविकार बना! साम्य-भाव के नारों से नभ-मंडल दहल गया! मौसम कितना बदल गया!

अपहर्ता

डा. महेंद्रभटनागर, धूर्त — सरल दुर्बल को ठगने धोखा देने बैठे हैं तैयार! . धूर्त — लगाये घात, छिपे इर्द-गिर्द करने गहरे वार! . धूर्त — फ़रेबी कपटी चैकन्ने करने छीना-झपटी, लूट-मार हाथ-सफ़ाई चतुराई या सीधे मुष्टि-प्रहार! . धूर्त — हड़पने धन-दौलत पुरखों की वैध विरासत हथियाने माल-टाल कर दूषित बुद्वि-प्रयोग! . धृष्ट, दुःसाहसी, निडर! . बना रहे छद्म लेख-प्रलेख! . चमत्कार! विचित्र चमत्कार! .

विजयोत्सव

डा. महेंद्रभटनागर, एरोड्रोम पर विशेष वायुयान में पार्टी का लड़ैता नेता आया है, . ‘शताब्दी’ से स्टेशन पर कांग्रेस का चहेता नेता आया है, . ‘ए-सी एम्बेसेडर’ से सड़क-सड़क, दल का जेता नेता आया है, . भरने जयकारा, पुरज़ोर बजाने सिंगा, डंका, डिंडिम, पहुँचा हुर्रा-हुर्रा करता सैकड़ों का हुजूम! . पालतू-फालतू बकरियों का, शॅल लपेटे सीधी मूर्खा भेड़ों का, संडमुसंड जंगली वराहों का, बुज़दिल भयभीत सियारों का! . में-में करता गुर्रा-गुर्रा हुंकृति करता करता हुआँ-हुआँ! . चिल्लाता — लूट-लूट, प्रतिपक्षी को .... शूट-शूट! जय का जश्न मनाता ‘गब्बर’ नेता का!

दो ध्रुव

डा. महेंद्र भटनागर, स्पष्ट विभाजित है जन-समुदाय — समर्थ असहाय। . हैं एक ओर — भ्रष्ट राजनीतिक दल उनके अनुयायी खल, सुख-सुविधा-साधन-सम्पन्न प्रसन्न। धन-स्वर्ण से लबालब आरामतलब साहब और मुसाहब! बँगले हैं चकले हैं, तलघर हैं बंकर हैं, भोग रहे हैं जीवन की तरह-तरह की नेमत, हैरत है, हैरत! . दूसरी — जन हैं भूखे-प्यासे दुर्बल, अभावग्रस्त ... त्रस्त, अनपढ़, दलित असंगठित, खेतों - गाँवों बाजा़रों - नगरों में श्रमरत, शोषित वंचित शंकित!

समता-स्वप्न

डा. महेंद्र भटनागर . विश्व का इतिहास साक्षी है — . अभावों की धधकती आग में जीवन हवन जिनने किया, अन्याय से लड़ते व्यवस्था को बदलते पीढ़ियों यौवन दहन जिनने किया, . वे ही छले जाते रहे प्रत्येक युग में, क्रूर शोषण-चक्र में अविरत दले जाते रहे प्रत्येक युग में! . विषमता और ... बढ़ती गयी, बढ़ता गया विस्तार अन्तर का! हुआ धनवान और साधनभूत, निर्धन - और निर्धन, अर्थ गौरव हीन, हतप्रभ दीन! . लेकिन; विश्व का इतिहास साक्षी है — . परस्पर साम्यवाही भावना इंसान की निष्क्रिय नहीं होगी, न मानेगी पराभव! . लक्ष्य तक पहुँचे बिना होगी नहीं विचलित, न भटकेगा हटेगा एक क्षण अवरुद्व हो लाचार समता-राह से मानव!

उद्देश्यपूर्ण पत्रिका

-[वाड्मय]- यूं तो राही मासूम रजा पर अनेक पत्रिकाओं ने विशेष अंक प्रकाशित किए हैं परन्तु राही की बहुमुखी रचनात्मक प्रतिभा के अनेक रंगों को उजागर करती हुई दुर्लभ सामग्री से भरपूर है त्रैमासिक पत्रिका वाड्मय का राही मासूम रजा अंक। प्रथम खंड में प्रताप दीक्षित के परिचयात्मक लेख के साथ राही की चुनी हुई 7 कहानियां हैं। दूसरे खंड में उनके लेखन की बहुकोणीय पडताल और मीमांसा है। साक्षात्कार खंड में प्रेम कुमार की उनकी संगिनी नैयर रजा से बेहद दिलचस्प और बेबाक बातचीत है जो इस आयोजन की उपलब्धि है। हिंदी सिनेमा को राही के योगदान पर प्रकाश डालते हुए चौथा खंड अपने में विशिष्ट और महत्वपूर्ण है। -[वाड्मय/ सं. डा.एम.फीरोज अहमद] http://in.jagran.yahoo.com/sahitya/?page=slideshow&articleid=1969&category=11#0

हैरानी

डा. महेंद्रभटनागर . कितना ख़ुदग़रज़ हो गया इंसान! बड़ा ख़ुश है पाकर तनिक-सा लाभ — बेच कर ईमान! . चंद सिक्कों के लिए कर आया शैतान को मतदान, नहीं मालूम ‘ख़ुददार’ का मतलब गट-गट पी रहा अपमान! . रिझाने मंत्रियों को उनके सामने कठपुतली बना निष्प्राण, अजनबी-सा दीखता — आदमी की खो चुका पहचान!

संवेदना

डा. महेंद्रभटनागर . काश, आँसुओं से मुँह धोया होता, बीज प्रेम का मन में बोया होता, दुर्भाग्यग्रस्त मानवता के हित में अपना सुख, अपना धन खोया होता!

राजधानी में गँवार

प्रेम जनमेजय ट्रेन प्लेटफार्म पर आकर रुकी तो लगा कि जैसे किसी ने कूड़ा बिखेर दिया हो। सारी भीड़ उस पर मक्खियों की तरह तरह बैठने का प्रयत्न कर रही थी। ट्रेन के डिब्बे अन्दर से भीड़ को उगल रहे थे जैसे कै कर रहे हों। निकलने वाली भीड़ के चेहरे पर घुटन थी, रेल विभाग के प्रति गालियों की सौगात थी। आत्मा ने बड़ी कठिनाई से अपना सामान और अपने-आपको बाहर निकाला। खड़े होकर उसने एक विश्रामसूचक लम्बी सांस ली और नथुनों को फैलाकर फिर उसे छोड़ दिया, जैसे इंजिन भाप छोड़ता है। चारों ओर चीखती-चिल्लाती भीड़ को देखकर उसे लगा कि परिवार-नियोजन वास्तव में एक समस्या है। ‘‘साहब ! सामान उठेगा !’’ कुली ने आत्मा की आँखों में प्यार से अपनी आँखें डालीं जैसे वह उसकी प्रेमिका हो। आत्मा ने आँखें मिचमिचाईं और उसे घूरते हुए बोला, ‘‘सामान बाहर ही ले चलोगे, कहीं भाग तो नहीं जाओगे ?’’ ‘‘साले ! हमें बेईमान कहता है !’’ कुली ने लगभग चीखती आवाज में कहा जिससे डरकर आत्मा के गालों पर दो आँसू रेंग गए। उसने रुँधे गले से कहा, ‘‘ले चलो।’’ पैसे पूछने का आत्मा को साहस नहीं हो रहा था। कुली की चीख का डर अब भी उसके हृदय में दही की तरह जमा ह...

"प्रेम"

SEEMA GUPTA भावों से भी व्यक्त ना हो, ना अक्षर में बांधा जाए खामोशी की व्याकरण बांची अर्थ नही कोई मिलपाये अश्रु से भी प्रकट ना हो ना अधरों से छलका जाए मौन आवरण मे सिमटा ये प्रेम प्रतिपल सकुचाये

चालान का गणित

ईशान महेश मैंने देखा मुख्य चोराहे पर लाल बत्ती थी लेकिन फिर भी सभी वाहन ऐसे भागे जा रहे थे जैसे मंदिर के बाहर कोई धनी भक्त डबल रोटी बाँट रहा हो और उसे प्राप्त करने के लिए याचक उमड़-घुमड़ कर पड़ रहे हों। मैंने सोचा हो सकता है रात को पुलिस विभाग के किसी अति बुद्धिमान परामर्शदाता ने यह सुझाया हो कि लोगों को लाल बत्ती का उल्लंघन करने में मजा आता है इसलिए उन्हें मजे लेने दो और नया कानून बना दो कि हरी बत्ती पर रुकना है और लाल बत्ती को कूदना है। लेकिन मेरी बुद्धि ने टोका, नहीं यह संभव नहीं है। हो सकता है कि जब बत्ती लाल हो तो संकेतों ने काम करना बंद कर दिया हो। ऐसे में वहाँ तैनात सिपाही ने वाहनों के संचालन का दायित्व ले लिया होगा और उसने ही इन सब वाहनों को लाल बत्ती को पार करने की अनुमति दी होगी। खैर कुछ भी रहा हो। मैं भी अन्य वाहनों की रेलम-पेल में लाल बत्ती कूद गया। जैसे ही चौराहा पार किया तो देखा कि दो- तीन यातायात पुलिस के सिपाही लाल बत्ती पार करने वाले वाहनों को रुकने का संकेत कर रहे थे लेकिन सभी वाहन अपनी लाइन में, उनकी उपेक्षा कर आगे बहते चले गए। सिपाही हाथ मलते रह गए और अपने मलते हाथो...

एक जनवरी मार्ग

ईशान महेश ‘‘हैप्पी न्यू ईयर।’’ उन्होंने एक चमचमाता सुनहरा कार्ड मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह आपके लिए इंविटेशन है।’’ ‘‘किस बात का न्योता है ?’’ मैंने अभिवादन स्वरूप मुस्कराकर पूछा। ‘‘कल से नया साल शुरू होने जा रहा है न, इसलिए हर साल की तरह इस साल भी हमारा क्लब क्नॉट प्लेस के किसी एक होटल में पार्टी दे रहा है।’’ उन्होंने अपनी छाती फुलाकर बताया, ‘‘इस साल इस क्लब का प्रेसिडेंट मैं हूँ। मैंने सोचा अब घर-घुरसु पड़ोसी को जरा दुनिया दिखवा दूँ।’’ वे जबरदस्ती हँसे, ‘‘मेरी बात का बुरा मत मानना। नए साल पर सब माफ होता है।’’ मन में आया, उनसे पूछूँ कि यह अंग्रेजी नव वर्ष क्या तुम्हारे पूर्वजों का बनाया हुआ है। क्या कभी अंग्रेजों ने दीपावली पर दीए जलाए हैं जो तुम इतने हर्षोल्लास से उनका नव वर्ष मना रहे हो।...किंतु शिष्टाचारवश मन की बात कह न सका और औपचारिकता में कार्ड खोलकर पढ़ने लगा। ‘‘अरे पार्टी रात के दस बजे से एक बजे तक क्यों है ?’’ मैं चौका। ‘‘तुम घर से बाहर निकलोगे तो दुनियादारी का कुछ पता चलेगा।’’ वे हँसे, ‘‘अरे भई, दस बजे तो लोग पीना शुरू करेंगे। सारी विदेशी दारु मँगवाई है। इधर लोग पीना शुरू क...

चंगु-मंगु इन बॉम्बे

-राजेन्द्र राज फिल्में देख-देख कर चंगु खुद को स्टार समझने लगा आईने के आगे खड़े होकर अपनी सूरत से प्यार करने लगा छितराए बाल, पिचके हुए गाल सिमटी हुई छाती, फैली हुई चाल झुक-झुकके है कि चलता है लहराके निकलता है रंगमंच की लघु-तारिकाएँ इस पर जान छिड़कती हैं ये ऐश्वर्या पर मरता है सल्लू से मगर डरता है चंगु को मिल गया मंगु दोनों फिल्मों के दीवाने मंगु के पास थे आठ सौ चंगु के पास आठ आने चंगु ने कहा मंगु से चल मुम्बई चलते हैं जूहू-बीच पर खड़े होकर फिल्म की शूटिंग करते हैं एक रोज़ दोनों भागकर घर से मुम्बई आ गए नीना गुप्ता की कमजोर कड़ी को एक नज़र में भा गए बोली नमस्ते ! आप आ सकते हैं मेरी सूनी सेज सजा सकते हैं बूढ़ी घोड़ी को हिनहिनाते देख चंगु-मंगु सकपका गए वहाँ से भागकर दोनों सुभाष घई के दफ़्तर आ गए मैनेजर ने कहा, आइए आपके आने से फिल्मों के भाग्य जाग गए सेल्यूलॉइड की दुनिया से दोनों का परिचय कराया चंगु को स्पॉट-ब्वॉय मंगु को मेकअप मैन बनाया झूठी दुनिया नकली लोग दोनों को होश आ गए बोले अपने शहर में जिएँगे दिन में सिनेमा देखेंगे, रात में पिएँगे चंगु-मंगु ट्रेन में बैठकर वापस जयपुर आ गए सत्तर एम.एम...

कभी किसी रोज

SEEMA GUPTA सुनना चाहता हूँ तुम्हे बैठ खुले आसमान के नीचे सारी रात चुनना चाहता हूँ रात भर तुम्हारे होठों से झरते मोतियों को अपनी पलकों से एक एक कर भरना चाहता हूँ अपनी हथेलियों में चाँदनी से धुले तुम्हारे चेहरे की स्निग्धता महसूस करना चाहता हू तुम्हारे बालों से ढके अपने चेहरे पर तुम्हारे साँसों की उष्णता सारी रात वह रात जो समय की सीमाओं से परे होगी और फिर किसी सूरज के निकलने का भय न होगा.

बड़े मियाँ दीवाने

-राजेन्द्र राज उम्र चौंसठ के पार हुई जिस्म से रूह बेज़ार हुई लड़खड़ा कर चलते हैं हर हसीन पर गिरते हैं बड़े मियाँ दीवाने पान चबाके होठों से लाल रस टपकाते हैं टूटी हुई ऐनक को आँखों पे चढ़ाते हैं बड़े मियाँ दीवाने इनके घर के सामने एक पड़ोसिन रहने आई मियाँ ने सूरत देखी और बालों में कंघी घुमाई बड़े मियाँ दीवाने पतली कमर तिरछी नज़र छत्तीस की उम्र में ऐसी फिगर बाल सुखाने खिड़की पे जो आई मियाँ ने इंग्लिश धुन बजाई बड़े मियाँ दीवाने रात सारी गुजर गई करवट बदल-बदल कर सुबह-सुबह मियाँ ने पड़ोसिन के घर की घंटी बजाई बड़े मियाँ दीवाने जाने कहाँ से कुत्ता एक लपका मियाँ की ओर मियाँ ने वहाँ से दौड़कर जान बचाई पतलून गंवाई बड़े मियाँ दीवाने हाँफते-हाँफते पहुँचे घर पे दो गिलास लस्सी चढ़ाई कफन में लिपटी देह में थोड़ी सी जान लौट आयी बड़े मियां दीवाने एक कंकड़ उठाके मियाँ ने खिड़की के शीशे पर दे मारा पड़ोसिन ने गन्दे पानी से मियाँ को धो डाला बड़े मियाँ दीवाने मियाँ ने सोचा यह प्यार है पहले तकरार फिर इज़हार है एक रुपये में टेलीफोन नम्बर घुमाया पड़ोसिन को पार्क में बुलाया बड़े मियाँ दीवाने बालों में लगाकर ख़िजाब ...

जियो मेरे लाल

-राजेन्द्र राज माँ ने कहा बेटे से दिखा कोई कमाल बेटे ने पड़ोसी की लड़की को मल दिया गुलाल जियो मेरे लाल बेटा बड़ा सयाना है हर हसीन का दीवाना है महफिलों और मैखानों में उसका आना-जाना है उसके मिथुन से बाल हैं जैसी जैसी चाल है कमर में गमछा है जीन्स में जमता है हल्के-हल्के धुएँ में हर रोज़ नहाता है नुक्कड़ के पनवाड़ी के यहाँ इसका चालू खाता है सिनेमा देखने की खातिर कितना पसीना बहाता है जीतता है जुए में जब चार शोर चलवाता है बेटा बड़ा प्यार है माँ का दुलारा है आशिक है थोड़ा-सा थोड़ा-सा आवारा है पढ़ता है उपन्यास सुबह शाम को जिम जाता है हाथ-पैरों को मरोड़कर सलमान खान हो जाता है बाइक पर निकलता है जब लड़कियों को लपकाता है हसीन कोई शॉर्ट्स में दिख जाए तो इसका शॉर्ट-सर्किट हो जाता है आधी गुजर गई जवानी खाने-पीने नाचने-गाने में बाकी रह गई है जो जाएगी अफ़साने बनाने में दो नम्बर की दौलत को दोनों हाथों से लुटाना कुछ कमी रह जाए तो गहने-जेवर बेच खाना माँ ने कहा बेटे से दिखा कोई कमाल बेटे ने पड़ोसी की लड़की को मल दिया गुलाल जियो मेरे लाल।

-राजेन्द्र राज

- राजेन्द्र राज गली के कुत्तों ने फिर मियाँ को पार्क पहुँचाया बूढ़े घोड़े की पीठ पर जैसे किसी ने चाबुक बरसाया

मिलन

-विजय अग्रवाल ‘‘उस दिन तुम आए नहीं। मैं प्रतीक्षा करती रही तुम्हारी।’’ प्रेमिका ने उलाहने के अंदाज में कहा।‘‘मैं आया तो था, लेकिन तुम्हारा दरवाजा बंद था, इसलिए वापस चला गया।’’ प्रेमी ने सफाई दी।‘‘अरे, भला यह भी कोई बात हुई !’’ प्रेमिका बोली। ‘‘क्यों, क्या तुम्हें अपना दरवाजा खुला नहीं रखना चाहिए था ?’’ प्रेमी थोड़े गुस्से में बोला।‘‘यदि दरवाजा बंद ही था तो तुम दस्तक तो दे सकते थे। मैं तुम्हारी दस्तक सुनने के लिए दरवाजे से कान लगाए हुए थी।’’ प्रेमिका ने रूठते हुए कहा। ‘‘क्यों, क्या मेरे आगमन की सूचना के लिए मेरे कदमों की आहट पर्याप्त नहीं थी ?’’ प्रेमी थोड़ी ऊँची आवाज में बोला। इसके बाद वे कभी मिल नहीं सके, क्योंकि न तो प्रेमिका ने अपना दरवाजा खुला रखा और न ही प्रेमी ने उस बंद दरवाजे पर दस्तक दी।

अनंत खोज

-विजय अग्रवाल ‘‘यह तुमने कैसा वेश बना रखा है ?’’ ‘‘तुम भी तो वैसी ही दिख रही हो !’’ ‘‘हाँ मैंने अब अपने आपको समाज को सौंप दिया है। उन्हीं के लिए रात-दिन सोचता-करता रहता हूँ।’’ ‘‘कुछ ऐसी ही स्थित मेरी भी है। एम.डी. करने के बाद अब मैं आदिवासी इलाकों में मुफ्त इलाज करती हूँ। बदले में वे ही लोग मेरी देखभाल करते हैं। खैर, लेकिन तुम तो आई.ए.एस. बनने की बात करते थे ?’’ ‘‘हाँ, करता था। बन भी जाता शायद, बशर्ते कि तुम्हें पाने की आशा रही होती। जब तुम नहीं मिलीं तो आई.ए.एस. का विचार भी छोड़ दिया !’’ ‘‘अच्छा !’’ उसके चेहरे पर अनायास ही दुःख की हलकी लकीरें उभर आईं। उसने धीमी आवाज में कहा, ‘‘कहाँ तो आई.ए.एस. के ठाट-बाट और कहाँ गली-गली की खाक छानने वाला ये धंधा ! इनमें तो कोई तालमेल दिखाई नहीं देता।’’ ‘‘क्या करता ? यदि तुमने एक बार अपने मन की बात बता दी होती तो आज जिंदगी ही कुछ और होती।’’ ‘‘लेकिन तुमने भी तो अपने मन की बात नहीं कही।’’ थोड़ी देर के लिए वातावरण में घुप्प चुप्पी छा गई। दोनों की आ...

प्रेमी की गली

फ़ैज़ अहमद फैज़ कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हात में तेरा हात नहीं सद-शुक्र कि अपनी रातों में, अब हिज्र1 की कोई रात नहीं मुश्किल हैं अगर हालात वहां, दिल बेच आएँ, जाँ दे आएँ दिल वालों कूचा-ए-जानाँ2 में क्या ऐसे भी हालात नहीं जिस धज से कोई मक़तल में गया, वो शान सलामत रहती है ये जान तो आनी-जानी है, इस जाँ की तो कोई बात नहीं मैदान-वफ़ा दरबार नहीं, याँ नामो नसब3 की पूछ कहाँ आशिक़ तो किसी का नाम नहीं, कुछ इश्क़ किसी की ज़ात नहीं गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है, जो चाहो लगा दो डर कैसा गर जीत गए तो क्या कहना, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं 1. वियोग2. प्रेमी की गली3. नाम व वंशावली