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थर्ड जेण्डर विमर्श


इसी पुस्तक से...
मानव अपने जीवन के हरेक मोड़ पर यह चाहता है कि अपने लिए कोई ऐसा हो जो सामाजिक सहयोग दे सके। सुख-दुख बाँटने के लिए कोई हमसफर हो, दोस्त हो, परिवार हो, समाज हो। मनु मानव को मानवता के नज़रिये से देखने की सिफारिश करते हैं। मानव अपने अधिकारों को हासिल करने के साथ-साथ ऊँचाई का रास्ता चुनता है, उस रास्ते का सही राही बनकर सपनों में घुल जाता है। प्रगतिवादी और वैज्ञानिक विचारधारा से प्रभावित समाज सपनों की पूर्ति की गति बढ़ाते रहे। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि प्रगतिवादी व वैज्ञानिक विचारधारा से प्रभावित समाज में किन्नर मूलभूत अधिकार और हक को पाने का सपना लेकर अत्यंत पीड़ादायी जीवन जी रहे हैं। महाभारत काल से लेकर वर्तमान तक किन्नर हमारे समाज का अभिन्न अंग है। विकास और बुद्धिजीवियों की दुनिया ने मानवता का तिरस्कार कर दिया है। आज हमारे देश में मानवता हाथी के दाँत के सामान हो चुकी है। आज मनुष्य की कथनी और करनी में बहुत अंतर आ चुका है। आज मानव संवेदनात्मक जीवन से यांत्रिक जीवन की ओर अग्रसर है। अमानुषिक भावना से कलुषित समाज में रहकर किन्नर अथवा ट्रांसजेंडर अपने हक और अधिकार के लिए लड़ रहे हैं। समाज और जन-मानस में उनका आदर न के बराबर है .....

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लोकतन्त्र के आयाम

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प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

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हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...