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Showing posts from October, 2008

सवाल उर्दू का -राही मासूम रज़ा

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सवालों के जंगल में अकेलेपन का अवसाद

नंद भारद्वाज 'असन्तोष के दिन' हिन्दी के विख्यात कथाकार राही मासूम रजा की बहुआयामी रचनाशीलता के आखिरी दौर का ऐसा उपन्यास है, जो इस देश के राजनीतिक- सामाजिक-आर्थिक ढांचे में व्याप्त विकृतियों पर करारी चोट करता है। यह उपन्यास मई 1984 के दौरान थाणे, कल्याण और मुंबई महानगर में घटित हुए साम्प्रदायिक दंगों का ऐसा मार्मिक दस्तावेज है, जिसे उपन्यास के रूप में पढ़ना एक पीड़ादायक अनुभव के बीच से गुजरने का-सा अहसास कराता है। इसके चरित्र किसी कथा-कृति के लिए गढ़े हुए चरित्र नहीं, बल्कि स्वयं रचनाकार की अपनी जिन्दगी, उनके घर-परिवार, परिवेश और कार्य-क्षेत्र में काम करनेवाले ऐसे जीवंत चरित्र हैं, जिन्होंने साम्प्रदायिकता के उस जहरीले दौर में अपने प्राण गंवाकर भी इनसानियत, मानवीय सद्भाव और भाईचारे को बचाए रखने के अनथक प्रयत्न किये। यह राही मासूम रजा का ही कमाल है कि 80 पृष्ठों की इस छोटी-सी औपन्यासिक कथा में उन्होंने 1984 के देशव्यापी दंगों के दौरान मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों और देश के बाकी नगरों में मारे गये हजारों निर्दोष लोगों - जिनमें हिन्दू थे, मुसलमान थे और सिक्ख-ईसाई भी, ऐसे तमाम लोगों ...

जवान लेखकों का कब्रिस्तान- नासिरा शर्मा

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जवान लेखकों का कब्रिस्तान- नासिरा शर्मा

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जवान लेखकों का कब्रिस्तान- नासिरा शर्मा

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हे राम

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सब डरते हैं, आज हवस के इस सहरा में बोले कौन

राही मासूम रजा सब डरते हैं, आज हवस के इस सहरा में बोले कौन इश्क तराजू तोहै, लेकिन, इस पे दिलों को तौले कौन सारा नगर तो ख्वाबों की मैयत लेकर श्मशान गया दिल की दुकानें बंद पडी है, पर ये दुकानें खोले कौन काली रात के मुंह से टपके जाने वाली सुबह का जूनून सच तो यही है, लेकिन यारों, यह कड़वा सच बोले कौन हमने दिल का सागर मथ कर कथा तो कुछ अमृत लेकिन आयी, जहर के प्यालों में यह अमृत घोले कौन लोग अपनों के खूं में नहा कर गीता और कुरान पढ़ें प्यार की बोली याद है किसको, प्यार की बोली बोले कौन

HAPPY DIWALI

गंगा और महादेव

राही मासूम रजा मेरा नाम मुसलमानों जैसा है मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी बयाने जाग रही हैं और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके कालीदास के मेघदूत से यह कहता हूँ मेरा भी एक संदेश है। मेरा नाम मुसलमानों जैसा है मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुँह पर फेंको और उस योगी से कह दो-महादेव अब इस गंगा को वापस ले लो यह जलील तुर्कों के बदन में गढा गया लहू बनकर दौड़ रही है।

जिनसे हम छूट गये

राही मासूम रज़ा जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं शाखे गुल कैसे हैं खुश्‍बू के मकां कैसे हैं ।। ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं ।। कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल आके देखो मेरी यादों के जहां कैसे हैं ।। मैं तो पत्‍थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया आज उस शहर में शीशे के मकां कैसे हैं ।। जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं ।। http://rahimasoomraza.blogspot.com/

क्या वो दिन भी दिन हैं

राही मासूम रज़ा क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए । हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए । इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन जाने क्‍या बातें करते हैं आपस में हमसाए । हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए । क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।।

हम तो हैं परदेस में

डा.राही मासूम रज़ा हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चांद जिन आँखों में काजल बनकर तैरी काली रात उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चांद रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चांद चांद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चांद

लेकिन मेरा लावारिस दिल

राही मासूम रज़ा http://rahimasoomraza।blogspot।com/ मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी मंदिर राम का निकला लेकिन मेरा लावारिस दिल अब जिस की जंबील में कोई ख़्वाब कोई ताबीर नहीं है मुस्तकबिल की रोशन रोशन एक भी तस्वीर नहीं है बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल आख़िर किसके नाम का निकला मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी मंदिर राम का निकला बन्दा किसके काम का निकला ये मेरा दिल है या मेरे ख़्वाबों का मकतल चारों तरफ बस ख़ून और आँसू, चीख़ें, शोले घायल गुड़िया खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाज़े ख़ून में लिथड़े कमसिन कुरते एक पाँव की ज़ख़्मी चप्पल जगह-जगह से मसकी साड़ी शर्मिन्दा नंगी शलवारें दीवारों से चिपकी बिंदी सहमी चूड़ी दरवाज़ों की ओट में आवेजों की कबरें ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम ये आपकी दौलत आप सम्हालें मैं बेबस हूँ आग और ख़ून के इस दलदल में मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।

मकान

कैफ़ी आज़मी आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी ये ज़मीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी पाँव जब टूटी शाख़ों से उतारे हम ने इन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हम ने हाथ ढलते गये साँचे में तो थकते कैसे नक़्श के बाद नये नक़्श निखारे हम ने की ये दीवार बुलन्द, और बुलन्द, और बुलन्द बाम-ओ-दर और ज़रा, और सँवारे हम ने आँधियाँ तोड़ लिया करती थीं शमों की लौएं जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिये अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ए-पैहम की थकन बंद आँखों में इसी क़स्र की तस्वीर लिये दिन पिघलता है इसी...

अलीगढ़ में वाड़्‌मय पत्रिका का राही मासूम रजा विशेषांक का लोकापर्ण-विमोचन एवं चर्चा [साहित्य समाचार]

धर्म ज्योति महाविद्यालय-ताहरपुर-अलीगढ़ में वाड़्‌मय पत्रिका का राही मासूम रजा विशेषांक का लोकापर्ण-विमोचन एवं चर्चा हुई। धर्म ज्योति महाविद्यालय के प्रबंधक डॉ० धर्मेन्द्र सिंह ने इस पत्रिका का विमोचन किया। डॉ० सिंह ने पत्रिका पर चर्चा करते हुए कहा कि मैंने राही मासूम रजा का काफ़ी साहित्य पढ़ा है और जहाँ तक मैंने-सुना और पढ़ा था कि आधा गाँव फ़ारसी लिपि में लिखा गया था बाद में उसका लिप्यांतरण किया गया। लेकिन इस पत्रिका को पढ़कर भ्रम दूर हुआ क्योंकि राही मासूम रजा ने अपने साक्षात्कार में यह जिक्र किया था कि आधा गाँव आधा देवनागरी और आधा उर्दू में लिखा गया था। यही बात उनकी पत्नी ने भी अपने साक्षात्कार में भी कहा है। डॉ० सर्वोत्तम दीक्षित प्राचार्य धर्म ज्योति महाविश्वद्यालय ने कहा-राही मासूम रजा अंक काफी महत्त्वपूर्ण है। राही पर शोध करने वाले शोर्धाथियों और विद्वानों का काफी मदद मिलेगी इसके साथ ही साथ सम्पादकीय पढ़ने से पता चला कि राही रजा पर काफी लोगों ने शोध किया, उसमें से कुछ लोगों ने भ्रम भी फैलाया था जिसका उल्लेख इस पत्रिका में दिया गया है। इस पत्रिका के सम्पादक-डॉ०एम०फ़ीरोज अहमद ने कह...

'सौगात'

सीमा गुप्ता थका थका हर दिन का लम्हा , काली अंधियारी रात मिली , तार तार कुछ टुकडों मे दामन, बिखर गया जो भी सौगात मिली हसने रोने मे फरक करें क्या दोनों संग आंसू की बरसात मिली कोई सखी ना संगी साथी किस्मत से तन्हाई की बारात मिली जीवन का मकसद तो समझ ना आया , और मौत से भी हमको मत मिली

मौत की रफ़्तार

SEEMA GUPTA आज कुछ गिर के टूट के चटक गया शायद .. एहसास की खामोशी ऐसे क्यूँ कम्पकपाने लगी .. ऑंखें बोजिल , रूह तन्हा , बेजान सा जिस्म .. वीरानो की दरारों से कैसी आवाजें लगी... दीवारों दर के जरोखे मे कोई दबिश हुई ... यूँ लगा मौत की रफ़्तार दबे पावँ आने लगी...

डॉ. राही मासूम रजा - जीवनवृत्त एवं कृतित्व

डॉ० फीरोज अहमद डॉ. राही मासूम रजा का जन्म १ अगस्त १९२७ को एक सम्पन्न एवं सुशिक्षित शिआ परिवार में हुआ। उनके पिता गाजीपुर की जिला कचहरी में वकालत करते थे। राही की प्रारम्भिक शिक्षा गाजीपुर में हुई और उच्च शिक्षा के लिये वे अलीगढ़ भेज दिये गए जहाँ उन्होंने १९६० में एम०ए० की उपाधि विशेष सम्मान के साथ प्राप्त की। १९६४ में उन्होंने अपने शोधप्रबन्ध “तिलिस्म-ए-होशरुबा” में चित्रित भारतीय जीवन का अध्ययन पर पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात्‌ उन्होंने चार वर्षों तक अलीगढ़ विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य भी किया। अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे। १९६८ से राही बम्बई में रहने लगे थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अ...

विरह का रंग

सीमा गुप्ता आँखों मे तपीश और रूह की जलन, बोजिल आहें , खामोशी की चुभन , सिमटी ख्वाईश , सांसों से घुटन , जिन्दा लाशों पे वक्त का कफ़न, कितना सुंदर ये विरह का रंग (विरह का क्या रंग होता है यह मैं नही जानती . लेकिन इतना ज़रूर है की यह रंग -हीन भी नही होता और यह रंग आँखें नही दिल देखता है)

हुई मुद्दत कि गालिब मर गया - 2(2) राही मासूम रजा

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हुई मुद्दत कि गालिब मर गया - 2 राही मासूम रजा

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प्यास की आग 1 - राही मासूम रजा

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प्यास की आग 2 - राही मासूम रजा

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राही मासूम रजा विशेषांक प्रकाशित

वाडमय पत्रिका सम्पादक- फीरोज अहमद मूल्य 75 रूपये india ,विदेशों में 600 रूपए( भारत में मनीआडर पहले भेजे,) बी-4 लिबर्टी होम्स अब्दुल्लाह कालेज रोड अलीगढ 202002 09412277331 सम्पादकीय कहानी प्रताप दीक्षित : राही मासूम रजा की कहानियाँ: मनुष्य के ख्वाबों की तावीर राही मासूम रजा : एक जंग हुई थी कर्बला में राही मासूम रजा : सिकहर पर दही निकाह भया सही राही मासूम रजा : खुशकी का टुकड़ा राही मासूम रजा : एम०एल०ए० साहब राही मासूम रजा : चम्मच भर चीनी राही मासूम रजा : खलीक अहमद बुआ राही मासूम रजा : सपनों की रोटी आलेख/लेख राही मासूम रजा : फूलों की महक पर लाशों की गंध राही मासूम रजा : रामायण हिन्दुस्तान के हिन्दुओं की धरोहर है? राही मासूम रजा : नेहरू एक प्रतिमा राही मासूम रजा : शाम से पहले डूब न जाये सूरज शिव कुमार मिश्र : राही मासूम रजा कुरबान अली : हिन्दोस्तानियत का सिपाही हसन जमाल : राही कभी मेरी राह में न थे सग़ीर अशरफ़ : राष्ट्रीय एकता के सम्वाहकः राही बाकर जैदी : राही और १८५७ मेराज अहमद : राही का रचनात्मक व्यक्तित्व मूलचन्द सोनकर : रही मासूम रजा की अश्लीलता? जोहरा अफ़जल : राही मासूम रजा और आधा गाँव आ...

आग का दरिया 2 - राही मासूम रजा

आग का दरिया 2 - राही मासूम रजा

आग का दरिया 1 - राही मासूम रजा

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धर्म का हव्वा और यूनिवर्सिटिया - राही मासूम रजा

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नासिरा शर्मा

बहुचर्चित रचनाकार राही मासूम रजा विशेषांक निकालने के बाद अब वाडमय पत्रिका का अगला विशेषांक चर्चित रचनाकार नासिरा शर्मा पर केन्द्रित अंक होगा.अब तक जिन विद्वानों से बात हो चुकी है उनके नाम प्रो रामकली सराफ,प्रो.जोहरा अफजल,प्रो.रमेश शर्मा, प्रो.ई.एम.जुबेरी मधुरेश,प्रेमकुमार,मूलचन्द सोनकर, इकरार अहमद, अनुरूद्ध सिंह, भरत सिंह, मेराज अहमद, प्रताप दीक्षित, अमरीक सिंह दीप ,जयप्रकाश धूमकेतू, संजय सिंह, सिद्धेश्वर सिंह,सुरेश पंडित,हनीफ मदार, आदित्य प्रचंडिया,महेश दर्पण आदि विद्वान नासिरा जी पर लिख रहे है . अगर आप भी लिखना चाहे तो अवगत कराने का कष्ट करे. 15 दिसम्बर2008 तक अपना आलेख भेज सकते है. जानकारी के लिए संपर्क करे . वाडमय पत्रिका , बी-4,लिबर्टी होम्स , अब्दुल्लाह कालेज रोड, अलीगढ. 9412277331

कृत्या 2008

अन्तर्राष्ट्रीय कवितोत्सव कृत्या2008 कृत्या की शुरुआत एक वेब पत्रिका के रूप में 2005 जून से हुई, इसके पश्चातल में कई विचार थे, एक तो उत्तर और दक्षिण के बीच की साहित्यिक खाई को पाटना, दूसरा भारतीय कविता को विश्व पटल में लाना। इस बीच मुझे अपने कुछ विदेशी कवि मित्रों से यह जानकारी मिल रही थी कि भारतीय प्रादेशिक भाषाओं की कविता उन तक तारतम्य या सहज भाव में नहीं पहुँच रहीं हैं। हमारी समृद्ध काव्य परम्परा का प्रचीनतम रूप भी उन तक नहीं पहुँच पा रहा है। कृत्या एक छोटी सी कोशीश थी।यह कोशिश काफी कुछ ऐसी थी जैसी कि मिथक के अनुसार राम पुल निर्माण में गिलहरी की कोशिश। जब कृत्या पहली बार नेट पर आई उन दिनों नेट पत्रिकाओं का भारत में प्रचलन नहीं के बराबर था। कृत्या को नेट पर देखते ही अय्यप्पा पणिक्कर ने कवितोत्सव मनाने का सुझाव रखा था, जिसमें कविता को अन्य कलाओं के साथ जोड़ा जाए। उनका कहना था कि कविता को अन्य कलाओं से जोड़ने पर ही हम आज के समाज से जोड़ सकते हैं। साथ ही उनका सुझाव था कि कृत्या को हर भाषा के करीब पहुँचना चाहिए, और विदेशी भाषाओं में भी अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य देशों की भाषाओं के साहित्य के...

तुलसी का रामचरित मानस

राही मासूम रज़ा आलोचना कोई तीर मारने का काम नहीं है, बल्कि साहित्य को समझने की कला है । और चुँकि हम मनुष्य की आत्मा को साहित्य की मदद के बिना नहीं समझ सकते, इसलिए आलोचना का महत्व बढ़ जाता है । आलोचना टिप्पणी या ‘फूटनोट’ नहीं है । आलोचक शब्दों की आत्मा में झाँकता है, क्योंकि साहित्य में शब्दों का प्रयोग नहीं होता, बल्कि शब्द प्रतीक बन जाते हैं । इसलिए साहित्य को समझने के लिए उसकी प्रतीक-भाषा से परिचित होना ज़रूरी है । इस भूमिका की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि मैं इस समय जिस रास्ते पर चलने का प्रयत्न कर रहा हूँ, वह तलवार से ज़्यादा तेज़ और बाल से ज़्यादा बारीक़ है । बात यह है कि मैं अगर किसी ‘मीर’ या ‘ग़ालिब’, किसी ‘जायसी’ या ‘टैगोर’ की बात करनेवाला होता, तो डर न लगता परंतु मैं बात करने जा रहा हूँ मीर, अनीस और तुलसीदास की । और इनके बारे में भी यह कह रहा हूँ कि इनके काव्य का सामाजिक आधार है । मैं यह कहने जा रहा हूँ कि अनीस के मरसियों और तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ का राजनीतिक आधार भी है । और यदि ये रचनाएँ सामाजिक व राजनीतिक आधारविहीन होतीं तो इतनी बड़ी न होतीं । डर इसलिए लग रहा है कि ये दोनों ही ...

उर्दू साहित्य की भारतीय आत्मा

राही मासूम रज़ा यह ग्यारवीं या बारहवीं सदी की बात है कि अमीर खुसरू ने लाहौरी से मिलती-जुलती एक भाषा को दिल्ली में पहचाना और उसे हिंदवी का नाम दिया। उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक यही हिंदवी देहलवी, हिंदी, उर्दू-ए-मु्अल्ला और उर्दू कहीं गई । अब लिपि का झगड़ा खड़ा नहीं हुआ था, क्योंकि यह तो वह ज़माना था कि जायसी अपनी अवधी फ़ारसी लिपि में लिखते थे और तुलसी अपनी अवधी नागरी लिपि में । लिपि का झगड़ा तो अँग्रेज़ी की देन है । मैं चूँकि लिपि को भाषा का अंग नहीं मानता हूँ, इसलिए की ऐसी बातें, जो आले अहमद सुरूर और उन्हीं की तरह के दूसरे पेशेवर उर्दूवालों को बुरी लगती हैं, मुझे बिल्कुल बुरी नहीं लगतीं। भाषा का नाम तो हिंदी ही है, जाहे वह किसी लिपि में लिखी जाए। इसलिए मेरा जी चाहता है कि कोई सिरफिरा उठे और सारे हिन्दी साहित्य को पढ़कर कोई राय कायम करे। अगर मुसहफी उर्दू के तमाम कवियों को हिंदी का कवि कहते हैं (उनकी किताब का नाम तजकरए-हिंदी का कवि कहते हुए शरमाएँ मैं उर्दू लिपि का प्रयोग करता हूँ, परंतु मैं हिन्दी कवि हूँ। और यदि मैं हिंदी का कवि हूँ तो मेरे काव्य की आत्मा सूर, तुलसी, जायसी के काव्य की आत्...

इन्टरनेट पर गम्भीर पाठकों की कमी

इन्टरनेट पर गम्भीर पाठकों की कमी विषय पर चर्चा के लिये आप सभी लोग आमंत्रित है . आप अपने विचार भेजें. इसको ब्लाग पर पोस्ट किया जायेगा.

अजनबी शहर के अजनबी रास्ते

राही मासूम रज़ा अजनबी शहर के/में अजनबी रास्ते , मेरी तन्हाईयों पे मुस्कुराते रहे । मैं बहुत देर तक यूं ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रहे ।। ज़ख्म मिलता रहा, ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे, जिंदगी भी हमें आज़माती रही, और हम भी उसे आज़माते रहे ।। ज़ख्म जब भी कोई ज़हनो दिल पे लगा, तो जिंदगी की तरफ़ एक दरीचा खुला हम भी किसी साज़ की तरह हैं, चोट खाते रहे और गुनगुनाते रहे ।। कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इसलिये सुन के भी अनसुनी कर गया, इतनी यादों के भटके हुए कारवां, दिल के जख्मों के दर खटखटाते रहे ।। सख्त हालात के तेज़ तूफानों, गिर गया था हमारा जुनूने वफ़ा हम चिराग़े-तमन्ना़ जलाते रहे, वो चिराग़े-तमन्ना बुझाते रहे ।।

हंगरी में संस्कृत कार्यशाला

कोजेग-हंगरी पाँचवे इंटरनेशनल इंटेंसिव समर रिट्रीट (एफ.आई.एस.एस.आर.) का आयोजन 21 जुलाई 2008 से 26 जुलाई 2008 तक कोज़ेग हंगरी में किया गया। इसका आयोजन इन्डोयूरोपियन स्टडीज़ भारोपीय अध्ययन विभाग, ओत्वोश लोरेन्ड विश्विद्यालय बुडापेस्ट (हंगरी) ने किया। कार्यक्रम के प्रमुख संयोजक ऐल्ते विश्विद्यालय के संस्कृत वरिष्ठ प्राध्यापक श्री चाबा और हिंदी की विभागाध्यक्ष सुश्री मारिया नैज्येशी थीं। इस रिट्रीट में भाग लेने के लिए यूरोप के विभिन्न देशों से लगभग 20 युवा संस्कृत विद्वान एवं विद्यार्थी आए। कार्यशाला में संस्कृत की तीन पुस्तकों का पठन-पाठन के लिए चयन किया गया, जिनका अध्ययन तीन अलग-अलग सत्रों में किया जाता था। प्रथम सत्र की पुस्तक थी कुट्टनीमतम् (दामोदर गुप्त)। सत्र के संचालक डेज्सो चाबा और डोमिनिक गुडौल। दूसरे सत्र की पुस्तक थी परमोक्षनिरासकारिका वृत्तिः (भट्ट रामकंठ)। सत्र के संचालक थे एलेक्स वाटसन और डोमिनिक गुडौल। तीसरे सत्र की पुस्तक थी वाराणसीमहात्म्य इस सत्र के संचालक थे पीटर बिशप। ऐल्ते विशविद्यालय ने सन् 2002 में पहले इंटरनेशनल इंटेंसिव समर रिट्रीट (आई.एस.एस.आर.) का आयोजन रोमानिया ...

मेरे दिल में तू ही तू है

कैफ़ी आज़मी मेरे दिल में तू ही तू है दिल की दवा क्या करूँ दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ ख़ुद को खोकर तुझको पा कर क्या क्या मिला क्या कहूँ तेरा होके जीने में क्या क्या आया मज़ा क्या कहूँ कैसे दिन हैं कैसी रातें कैसी फ़िज़ा क्या कहूँ मेरी होके तूने मुझको क्या क्या दिया क्या कहूँ मेरी पहलू में जब तू है फिर मैं दुआ क्या करूँ दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ है ये दुनिया दिल की दुनिया, मिलके रहेंगे यहाँ लूटेंगे हम ख़ुशियाँ हर पल, दुख न सहेंगे यहाँ अरमानों के चंचल धारे ऐसे बहेंगे यहाँ ये तो सपनों की जन्नत है सब ही कहेंगे यहाँ ये दुनिया मेरे दिल में बसी है दिल से जुदा क्या करूँ दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ

पीर मेरी, प्यार बन जा

गोपालदास "नीरज" पीर मेरी, प्यार बन जा ! लुट गया सर्वस्व, जीवन, है बना बस पाप- सा धन, रे हृदय, मधु-कोष अक्षय, अब अनल-अंगार बन जा ! पीर मेरी, प्यार बन जा ! अस्थि-पंजर से लिपट कर, क्यों तड़पता आह भर भर, चिरविधुर मेरे विकल उर, जल अरे जल, छार बन जा पीर मेरी, प्यार बन जा ! क्यों जलाती व्यर्थ मुझको क्यों रुलाती व्यर्थ मुझको क्यों चलाती व्यर्थ मुझको री अमर मरु-प्यास, मेरी मृत्यु ही साकार बन जा पीर मेरी, प्यार बन जा !

ख़्वाब का दर बंद है

शहरयार मेरे लिए रात ने आज फ़राहम किया एक नया मर्हला नींदों ने ख़ाली किया अश्कों से फ़िर भर दिया कासा मेरी आँख का और कहा कान में मैंने हर एक जुर्म से तुमको बरी कर दिया मैंने सदा के लिए तुमको रिहा कर दिया जाओ जिधर चाहो तुम जागो कि सो जाओ तुम ख़्वाब का दर बंद है

ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं

शहरयार ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को तेरा दामन तर करने अब आते हैं अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना हम को बुलावे दश्त से जब तब आते हैं जागती आँखों से भी देखो दुनिया को ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया देखो हम को क्या क्या करतब आते हैं

"इंतज़ार"

सीमा गुप्ता "तुझको है इंतज़ार लफ्जों का, हम तेरा इंतज़ार करते हैं दिल पे एक बोझ सा हमारे है, कह के कुछ अश्कबार करते हैं लफ्ज़ पूरे कहाँ हैं कहने को, हम तुझे इतना प्यार करते हैं अब तखय्युल मैं तुम ही बसते हो, हम जो बातें हज़ार करते हैं तेरे होटों को है सलाम उनका, हम तेरे लिए दुआ बेशुमार करते हैं एक "मुलाकात " ही तो है बाकी, हम बहुत इंतज़ार करते हैं "

"तेरी याद में"

SEEMA GUPTA तेरी ग़ज़लों को पढ़ रहा हूँ मैं , और तेरी याद में शिद्दत है बहुत जैसे तुझसे ही मिल रहा हूँ मैं, और तेरे प्यार में राहत है बहुत वो तेरे वस्ल का दिन याद आया, मुझ पे अल्लाह की रहमत है बहुत तुझसे मिलाने को तरसता हूँ मैं, मेरी जान तुझ से मुहब्बत है बहुत तेरे अंदाज़ में ख़ुद को देखा, हाँ तुझे मेरी ही चाहत है बहुत

'दो फूल'

Seema gupta मेरी कब्र पे दो फूल रोज आकर चढाते हैं वो, हाय , इस कदर क्यों मुझे तडपाते हैं वो. मेरे हाथों को छुना भी मुनासिब न समझा, आज मेरी मजार से लिपट के आंसू बहाते हैं वो. हाले यार समझ ना सके अब तलक जिनका, मेरे दिल पे सर रख कर हाले दिल सुनाते हैं वो. जिक्र चलता है जब जब मोहब्बत का जमाने मे, मेरा नाम अपने लब पर लाकर बुदबुदाते हैं वो. मुझसे मिलने मे बदनामी का डर था जिनको, छोड़ कर हया मेरी कब्र पे दौडे चले आतें हैं वो. उनके गम का सबब कोई जो पूछे उनसे , दुनिया को मुझे अपना आशिक बतातें हैं वो, कहे जो उनसे कोई पहने शादी का जोडा वो, मेरी मिट्टी से मांग अपनी सजाते है वो. मेरी कब्र पे दो फूल रोज आकर चढाते हैं वो, हाय , इस कदर क्यों मुझे तडपते हैं वो

"सवाल"

सीमा गुप्ता जवाब न बना , रहा एक उलझा सा सवाल बनके , बहता रहा मुझमे वो हर लम्हा दर्द-ऐ-ख्याल बनके, आने से पहले ही जो गुजर जाए बिन कुछ कहे, वो रहा ऐसे गुजरे वक्त की एक मिसाल बनके