डॉ० शुभिका सिंह
गोस्वामी तुलसीदास की लेखनी पावन गंगाजल के समान मोक्ष प्रदान करने वाली है। जिन्होने वैदिक व आध्यत्मिक धर्म दर्शन के गूढ विषय को ऐसे सहज लोकग्राह्य रूप मे प्रस्तुत किया कि आज सारा हिन्दू समाज उनके द्वारा स्थापित रामदर्शन को अपनी पहचान व आस्था का प्रतीक मानने लगा है।
‘सियाराम मय सब जग जानी' की अनुभूति करने वाले तुलसीदास ने जीवन और जगत की उपेक्षा न करके ‘भनिति' को ‘सुरसरि सम सब कर हित' करने वाला माना। भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले महाकवि तुलसी का आविर्भाव ऐसे विषम वातावरण में हुआ जब सारा समाज विच्छिन्न, विश्रृंखल, लक्ष्यहीन व आदर्श हीन हो रहा था। लोकदर्शी तुलसी ने तत्कालीन समाज की पीड़ा, प्रतारणा से तादात्म्य स्थापित कर उसका सच्चा प्रतिबिम्ब अपनी रचनाओं में उपस्थित किया। साधनहीन, अभावग्रस्त, दीन-हीन जाति का उद्धार असुर संहारक धर्मधुरिन कलि कलुष विभंजन राम का मर्यादित दिव्य लोकानुप्रेरक चरित्र ही कर सकता था इसीलिए उन्होंने तंद्राग्रस्त समाज के उद्बोधन के लिए लोकग्राह्य पद्धति को आधार बनाकर मर्यादा पुरूषोत्तम राम के लोकोपकारी व कल्याणकारी चरित्र का आदर्श प्रस्तुत कर अयात्म और धर्म को जीवन में उतारने का वन्दनीय कार्य किया। करूणायत, सुखमंदिर, गुणधाम श्री राम के ‘मंगलभवन अमंगलहारी ' रूप के सान्निध्य में सृष्टि के प्राणी मात्र, जड़ प्रकृति तथा अमगंलजनक असत् प्रवृत्तियाँ सात्विक व मंगलमयी बन जाती है। ऐसे ‘लोकमंगल के विधान श्री राम से जुड़कर सभी तत्व स्वतः ही मंगलमयी हो जाते है। अतः उनका स्मरण सर्वत्र ही शुभता की सृष्टि करने वाला है और उनकी लोक मंगल विधायिनी कथा भारतीय राष्ट्रीय परम्परा की परम भव्य और मंगलमय गाथा है।
युगदृष्टा कवि तुलसी ने बड़ी निर्भीकता से तत्कालीन शासकों की दुर्नीति, स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति, निरंकुश शासन एवं तज्जनित जनता की संत्रस्त दशा तथा आ आर्थिकहीनता का वर्णन कर आर्थिक वैषम्य की आड़ में पनप रहे सामाजिक विद्रोह की ओर संकेत कियाः-
‘ऊँचे नीचे करम धरम अधरम करि,
पेट ही को पचत बेचत बेटा बेटकी
तुलसी बुझाइ एक राम घनष्याम ही ते,
आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की॥'
तुलसी की उपरोक्त पंक्ति उस कटु सामाजिक सत्य को उद्घाटित करती है जिसकी भीषणता में आज सारा विष्व भुन रहा है। उनकी मंगलमयी दृष्टि का मूल था- भेदभाव से शून्य साम्यवादी समाज की स्थापना। भीषणता और सरसता, कोमलता और कठोरता, कटुता और मधुरता, प्रचण्डता और मृदुता का सामजस्य ही लोकधर्म का सौन्दर्य है। सौन्दर्य का यह उद्घाटन असौन्दर्य का आवरण हटाकर होता है।
तुलसी ने अपनी इसी लोकमांगलिक दृष्टि द्वारा जनमानस की नैसर्गिक जीवन की अभिव्यक्ति को लोक कल्याणार्थ सहज व आदर्श रूप में प्रस्तुत किया। जनता के गिरते नैतिक स्तर को उठाने के लिए उन्होनें श्री राम के दिव्य चरित्र व शील स्थापना के प्रति अपनी प्रतिबद्धता ज्ञापित की। समाज की आवश्य कतानुसार लोकाराधन के व्रती उपास्य के उपासक तुलसी ने ऐसी संतुलित लोकदृष्टि अपनायी, जिसने समाज में व्याप्त बुध और अबुध दोनों का सामीप्य प्राप्त कर लोकाराधन रूप की प्रतिष्ठा की। सत्य, धर्म, न्याय, मर्यादा, सुनीति, विवेक और आचरण जैसे मूल्यों की प्रतिस्थापना के प्रति तुलसी सदैव सचेत रहे। अपनी विषाल समन्वयकारी बुद्धि का सदुपयोग कर लोकदर्शी तुलसी ने मानस में समन्वय का जो आदर्श प्रस्तुत किया, वह अविस्मरणीय है। सगुण साकार राम में गुण और रूप का, शक्ति, शील और सौन्दर्य का अनुपम समन्वय उनकी लोक कल्याणकारी भावना का ही प्रमाण है। मध्यम मार्ग को अपनाते हुए तुलसी ने वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा को आवश्यक मान ‘केवट प्रसंग' द्वारा भक्ति के क्षेत्र में ब्राह्यण और शूद्र को समान स्थान दिया। भक्ति की रक्षा हेतु उन्होने ‘सरजू नाम सुमंगल मूला, लोकवेद मत मंजुल कूला' वाली सरिता द्वारा आत्मपक्ष और लोकपक्ष में एकात्मकता स्थापित कर समाज के उन्नयन का प्रयास किया। सगुण-निर्गुण, विद्या-अविद्या, माया-प्रकृति, शैव-वैष्णव, प्रवृति-निवृति, भोग और त्याग का समन्वित रूप राम के चरित्र में दिखाकर धर्म के अति सहज मार्ग की नींव रखी।
प्रतिभा शाली कवि तुलसी ने भारतीय संस्कृति एवं युग जीवन का विशद् प्रतिबिम्ब और सर्वोदय रामराज्य की स्थापना का महान संदेश अवधपति राम के माध्यम से प्रस्तुत किया। ‘नहि दरिद्र कोउ दुःखी न दीना' के माध्यम से तुलसी ने रामराज्य का लोक कल्याणकारी रूप वर्णित करके उसे युग-युग के लिए एक प्रेरणास्पद आदर्श बना दिया। ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, ते नर अवसि नरक अधिकारी' के प्रति वह सदैव सचेत रहे। इस प्रकार सरल स्वभाव वाले सात्विक गुणों के पूंजीभूत रूप श्री राम सृष्टि रूप में शुभ का प्रतीक बन गए।
‘जे चेतन कर जड़ करे, जड़हि करै चैतन्य।'
कृपालु श्री हरि विष्णु के रामावतार के पीछे उनका एकमात्र उद्देश्य जनमानस में भव्य भावों और विचारों की प्रतिष्ठा द्वारा आदर्श समाज की स्थापना था। ब्रह्नानन्द सहोदय श्री राम के प्रत्येक कार्य लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित हैं। वह उदात्त ज्ञानात्मक मूल्यों और आचरणगत व्यवहारिक क्रियाकलापों का मणिकांचन योग है। ‘जगमंगल गुनग्राम राम के' कहकर तुलसी ने सम्पूर्ण प्राणी मात्र चर, अचर, सज्जन, दुर्जन के कल्याण की कामना की है।
‘मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान कहुँ एक' कहकर उन्होने राजा के आदर्श तथा प्रजातन्त्रीय व्यवस्था के मूल तत्व को प्रस्तुत किया। लोकरंजन और लोकमंगल के सिद्धान्त पर आधारित उनके रामराज्य में दण्डनीति और भेदनीति का पूर्णतः अभाव था। उनका रामराज्य, सामुदायिक कल्याण का आदर्श रूप है। मन, वचन, कर्म से पवित्र भारतीय संस्कृति के साक्षात् स्वरूप श्रीराम ने समस्त भारतवर्ष को इस प्रकार सुश्रृखंलित कर दिया कि आज तक उनके आदर्श रामराज्य की गाथा गायी जाती है। जीवन रूपी संग्राम में सत्वृतियों के प्रतीक तुलसी के आराध्य जिस धर्म रथ पर आसीन है उसकी विजय निश्चित है-
‘सौरज धीरज तेहि रथ यात्रा, सत्य शील दृढ़ध्वजा पताका'।
तुलसी साहित्य में शिष्ट संस्कृति व लोक संस्कृति दोनों का श्रेष्ठ सम्मिलन है, जहाँ एक ओर उन्होने शिष्ट संस्कृति द्वारा आदर्श जीवन मूल्यों की स्थापना की, वही लोक संस्कृति द्वारा जीवन को गहराई से समझने का आधार दिया। विराट् भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हुए तुलसी ने मानवीय एकता, समता, विश्व-बन्धुत्व, आपसी भाईचारे की स्थापना कर अभिजात्य पात्रों को प्रकृत रूप में प्रस्तुत किया। मानव जीवन की गहन आस्थाओं व अनुभूतियों के प्रतीक रीतिरिवाजों व पावन संस्कारों के अतिरिक्त तुलसी साहित्य में समाविष्ट विविध देवी-देवताओं की मंगल पूजा, व्रत, उपासना, ज्ञान, कर्म, भाग्य, ज्योतिष आदि विषयों की गूढ चर्चा हमें अपनी भारतीय संस्कृति का बोध कराकर स्थिति शील व विकासशील बनाती है। ‘घाट मनोहर चारि' के माध्यम से उन्होने श्रेष्ठ संवाद रूपी चार घाटों का निर्माण करके राजाराम की अलौकिक कथा को अनुपम कलेवर में बाँधकर पावन गंगा के समान पूज्यनीय बना दिया। उन्होनें सारी समस्याओं का निदान भक्ति में माना है, जिसके सान्निध्य में सब कुछ सत्य शिव और सुन्दर हो जाता है।
नारी की शुचिता व पवित्रता की रक्षा करना उनकी मर्यादावाद का एक अभिन्न अंग है। सम्पूर्ण तुलसी साहित्य में प्रेम भाव के वर्णन में चाहे कितनी रसमयता, गहनता व श्रृंगारिकता क्यों न हो, नारी की गरिमा व रिश्तों की मर्यादा के प्रति पूर्ण सचेतता बरती गयी है।
तुलसी ने दरिद्रता, दुःख, पीड़ा, कष्ट से टूटते समाज की मंगलाशा व भक्ति को आधार बनाकर जीने का शुभ संकल्प दिया। तेजी से बदलते कालचक्र के परिणामस्वरूप अतिआधुनिकता के कारण जहां आज मानव का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है वही ऐसी स्थिति में तुलसी साहित्य जीवन रक्षक संजीवनी के समान निर्जीव प्राणियों में चेतना का संचार कर रहा है। उनके साहित्य में काव्य कौशल और लोकमंगल की चरम परिणति है जो मुक्तामणि के समान सुन्दर और मूल्यवान है। गोस्वामी जी के ईष्वरावतार राम हमारे बीच ईष्वरता दिखाने नही आए थे, मनुष्यता दिखाने आए थे, वह मनुष्यता जिसकी हमारे समाज को आवश्कता थी, है और हमेशा रहेगी।
निष्कर्षतः तुलसी ने लोक में व्याप्त अन्याय, अत्याचार, अनाचार, पाखण्ड की धज्जियाँ उड़ाकर जिस सियाराम के लोकपावन अमृतमयी यश का गान किया, वह मार्तण्ड के समान भटके हुए राहगीरों को राह दिखाने वाला है। भारतीय संस्कृति के संरक्षण तथा सामाजिक मर्यादा का आदर्श स्थापित करने में तुलसीदास का योगदान अप्रतिम है। राम काव्य के एक छत्र सम्राट गोस्वामी जी के काव्य में जो मार्मिकता, भाव प्रवणता, विशदता व्यवस्थापकता, गुरूत्व- गाम्भीर्यता व उदारता है वह अन्यत्र दुर्लभ है।
वाक्य-ज्ञान अत्यन्त निपुन भव पार न पावै कोई।
निसि गृह मध्य दीप की बातन तम निवृत्त नहिं होई॥
गोस्वामी तुलसीदास की लेखनी पावन गंगाजल के समान मोक्ष प्रदान करने वाली है। जिन्होने वैदिक व आध्यत्मिक धर्म दर्शन के गूढ विषय को ऐसे सहज लोकग्राह्य रूप मे प्रस्तुत किया कि आज सारा हिन्दू समाज उनके द्वारा स्थापित रामदर्शन को अपनी पहचान व आस्था का प्रतीक मानने लगा है।
‘सियाराम मय सब जग जानी' की अनुभूति करने वाले तुलसीदास ने जीवन और जगत की उपेक्षा न करके ‘भनिति' को ‘सुरसरि सम सब कर हित' करने वाला माना। भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले महाकवि तुलसी का आविर्भाव ऐसे विषम वातावरण में हुआ जब सारा समाज विच्छिन्न, विश्रृंखल, लक्ष्यहीन व आदर्श हीन हो रहा था। लोकदर्शी तुलसी ने तत्कालीन समाज की पीड़ा, प्रतारणा से तादात्म्य स्थापित कर उसका सच्चा प्रतिबिम्ब अपनी रचनाओं में उपस्थित किया। साधनहीन, अभावग्रस्त, दीन-हीन जाति का उद्धार असुर संहारक धर्मधुरिन कलि कलुष विभंजन राम का मर्यादित दिव्य लोकानुप्रेरक चरित्र ही कर सकता था इसीलिए उन्होंने तंद्राग्रस्त समाज के उद्बोधन के लिए लोकग्राह्य पद्धति को आधार बनाकर मर्यादा पुरूषोत्तम राम के लोकोपकारी व कल्याणकारी चरित्र का आदर्श प्रस्तुत कर अयात्म और धर्म को जीवन में उतारने का वन्दनीय कार्य किया। करूणायत, सुखमंदिर, गुणधाम श्री राम के ‘मंगलभवन अमंगलहारी ' रूप के सान्निध्य में सृष्टि के प्राणी मात्र, जड़ प्रकृति तथा अमगंलजनक असत् प्रवृत्तियाँ सात्विक व मंगलमयी बन जाती है। ऐसे ‘लोकमंगल के विधान श्री राम से जुड़कर सभी तत्व स्वतः ही मंगलमयी हो जाते है। अतः उनका स्मरण सर्वत्र ही शुभता की सृष्टि करने वाला है और उनकी लोक मंगल विधायिनी कथा भारतीय राष्ट्रीय परम्परा की परम भव्य और मंगलमय गाथा है।
युगदृष्टा कवि तुलसी ने बड़ी निर्भीकता से तत्कालीन शासकों की दुर्नीति, स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति, निरंकुश शासन एवं तज्जनित जनता की संत्रस्त दशा तथा आ आर्थिकहीनता का वर्णन कर आर्थिक वैषम्य की आड़ में पनप रहे सामाजिक विद्रोह की ओर संकेत कियाः-
‘ऊँचे नीचे करम धरम अधरम करि,
पेट ही को पचत बेचत बेटा बेटकी
तुलसी बुझाइ एक राम घनष्याम ही ते,
आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की॥'
तुलसी की उपरोक्त पंक्ति उस कटु सामाजिक सत्य को उद्घाटित करती है जिसकी भीषणता में आज सारा विष्व भुन रहा है। उनकी मंगलमयी दृष्टि का मूल था- भेदभाव से शून्य साम्यवादी समाज की स्थापना। भीषणता और सरसता, कोमलता और कठोरता, कटुता और मधुरता, प्रचण्डता और मृदुता का सामजस्य ही लोकधर्म का सौन्दर्य है। सौन्दर्य का यह उद्घाटन असौन्दर्य का आवरण हटाकर होता है।
तुलसी ने अपनी इसी लोकमांगलिक दृष्टि द्वारा जनमानस की नैसर्गिक जीवन की अभिव्यक्ति को लोक कल्याणार्थ सहज व आदर्श रूप में प्रस्तुत किया। जनता के गिरते नैतिक स्तर को उठाने के लिए उन्होनें श्री राम के दिव्य चरित्र व शील स्थापना के प्रति अपनी प्रतिबद्धता ज्ञापित की। समाज की आवश्य कतानुसार लोकाराधन के व्रती उपास्य के उपासक तुलसी ने ऐसी संतुलित लोकदृष्टि अपनायी, जिसने समाज में व्याप्त बुध और अबुध दोनों का सामीप्य प्राप्त कर लोकाराधन रूप की प्रतिष्ठा की। सत्य, धर्म, न्याय, मर्यादा, सुनीति, विवेक और आचरण जैसे मूल्यों की प्रतिस्थापना के प्रति तुलसी सदैव सचेत रहे। अपनी विषाल समन्वयकारी बुद्धि का सदुपयोग कर लोकदर्शी तुलसी ने मानस में समन्वय का जो आदर्श प्रस्तुत किया, वह अविस्मरणीय है। सगुण साकार राम में गुण और रूप का, शक्ति, शील और सौन्दर्य का अनुपम समन्वय उनकी लोक कल्याणकारी भावना का ही प्रमाण है। मध्यम मार्ग को अपनाते हुए तुलसी ने वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा को आवश्यक मान ‘केवट प्रसंग' द्वारा भक्ति के क्षेत्र में ब्राह्यण और शूद्र को समान स्थान दिया। भक्ति की रक्षा हेतु उन्होने ‘सरजू नाम सुमंगल मूला, लोकवेद मत मंजुल कूला' वाली सरिता द्वारा आत्मपक्ष और लोकपक्ष में एकात्मकता स्थापित कर समाज के उन्नयन का प्रयास किया। सगुण-निर्गुण, विद्या-अविद्या, माया-प्रकृति, शैव-वैष्णव, प्रवृति-निवृति, भोग और त्याग का समन्वित रूप राम के चरित्र में दिखाकर धर्म के अति सहज मार्ग की नींव रखी।
प्रतिभा शाली कवि तुलसी ने भारतीय संस्कृति एवं युग जीवन का विशद् प्रतिबिम्ब और सर्वोदय रामराज्य की स्थापना का महान संदेश अवधपति राम के माध्यम से प्रस्तुत किया। ‘नहि दरिद्र कोउ दुःखी न दीना' के माध्यम से तुलसी ने रामराज्य का लोक कल्याणकारी रूप वर्णित करके उसे युग-युग के लिए एक प्रेरणास्पद आदर्श बना दिया। ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, ते नर अवसि नरक अधिकारी' के प्रति वह सदैव सचेत रहे। इस प्रकार सरल स्वभाव वाले सात्विक गुणों के पूंजीभूत रूप श्री राम सृष्टि रूप में शुभ का प्रतीक बन गए।
‘जे चेतन कर जड़ करे, जड़हि करै चैतन्य।'
कृपालु श्री हरि विष्णु के रामावतार के पीछे उनका एकमात्र उद्देश्य जनमानस में भव्य भावों और विचारों की प्रतिष्ठा द्वारा आदर्श समाज की स्थापना था। ब्रह्नानन्द सहोदय श्री राम के प्रत्येक कार्य लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित हैं। वह उदात्त ज्ञानात्मक मूल्यों और आचरणगत व्यवहारिक क्रियाकलापों का मणिकांचन योग है। ‘जगमंगल गुनग्राम राम के' कहकर तुलसी ने सम्पूर्ण प्राणी मात्र चर, अचर, सज्जन, दुर्जन के कल्याण की कामना की है।
‘मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान कहुँ एक' कहकर उन्होने राजा के आदर्श तथा प्रजातन्त्रीय व्यवस्था के मूल तत्व को प्रस्तुत किया। लोकरंजन और लोकमंगल के सिद्धान्त पर आधारित उनके रामराज्य में दण्डनीति और भेदनीति का पूर्णतः अभाव था। उनका रामराज्य, सामुदायिक कल्याण का आदर्श रूप है। मन, वचन, कर्म से पवित्र भारतीय संस्कृति के साक्षात् स्वरूप श्रीराम ने समस्त भारतवर्ष को इस प्रकार सुश्रृखंलित कर दिया कि आज तक उनके आदर्श रामराज्य की गाथा गायी जाती है। जीवन रूपी संग्राम में सत्वृतियों के प्रतीक तुलसी के आराध्य जिस धर्म रथ पर आसीन है उसकी विजय निश्चित है-
‘सौरज धीरज तेहि रथ यात्रा, सत्य शील दृढ़ध्वजा पताका'।
तुलसी साहित्य में शिष्ट संस्कृति व लोक संस्कृति दोनों का श्रेष्ठ सम्मिलन है, जहाँ एक ओर उन्होने शिष्ट संस्कृति द्वारा आदर्श जीवन मूल्यों की स्थापना की, वही लोक संस्कृति द्वारा जीवन को गहराई से समझने का आधार दिया। विराट् भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हुए तुलसी ने मानवीय एकता, समता, विश्व-बन्धुत्व, आपसी भाईचारे की स्थापना कर अभिजात्य पात्रों को प्रकृत रूप में प्रस्तुत किया। मानव जीवन की गहन आस्थाओं व अनुभूतियों के प्रतीक रीतिरिवाजों व पावन संस्कारों के अतिरिक्त तुलसी साहित्य में समाविष्ट विविध देवी-देवताओं की मंगल पूजा, व्रत, उपासना, ज्ञान, कर्म, भाग्य, ज्योतिष आदि विषयों की गूढ चर्चा हमें अपनी भारतीय संस्कृति का बोध कराकर स्थिति शील व विकासशील बनाती है। ‘घाट मनोहर चारि' के माध्यम से उन्होने श्रेष्ठ संवाद रूपी चार घाटों का निर्माण करके राजाराम की अलौकिक कथा को अनुपम कलेवर में बाँधकर पावन गंगा के समान पूज्यनीय बना दिया। उन्होनें सारी समस्याओं का निदान भक्ति में माना है, जिसके सान्निध्य में सब कुछ सत्य शिव और सुन्दर हो जाता है।
नारी की शुचिता व पवित्रता की रक्षा करना उनकी मर्यादावाद का एक अभिन्न अंग है। सम्पूर्ण तुलसी साहित्य में प्रेम भाव के वर्णन में चाहे कितनी रसमयता, गहनता व श्रृंगारिकता क्यों न हो, नारी की गरिमा व रिश्तों की मर्यादा के प्रति पूर्ण सचेतता बरती गयी है।
तुलसी ने दरिद्रता, दुःख, पीड़ा, कष्ट से टूटते समाज की मंगलाशा व भक्ति को आधार बनाकर जीने का शुभ संकल्प दिया। तेजी से बदलते कालचक्र के परिणामस्वरूप अतिआधुनिकता के कारण जहां आज मानव का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है वही ऐसी स्थिति में तुलसी साहित्य जीवन रक्षक संजीवनी के समान निर्जीव प्राणियों में चेतना का संचार कर रहा है। उनके साहित्य में काव्य कौशल और लोकमंगल की चरम परिणति है जो मुक्तामणि के समान सुन्दर और मूल्यवान है। गोस्वामी जी के ईष्वरावतार राम हमारे बीच ईष्वरता दिखाने नही आए थे, मनुष्यता दिखाने आए थे, वह मनुष्यता जिसकी हमारे समाज को आवश्कता थी, है और हमेशा रहेगी।
निष्कर्षतः तुलसी ने लोक में व्याप्त अन्याय, अत्याचार, अनाचार, पाखण्ड की धज्जियाँ उड़ाकर जिस सियाराम के लोकपावन अमृतमयी यश का गान किया, वह मार्तण्ड के समान भटके हुए राहगीरों को राह दिखाने वाला है। भारतीय संस्कृति के संरक्षण तथा सामाजिक मर्यादा का आदर्श स्थापित करने में तुलसीदास का योगदान अप्रतिम है। राम काव्य के एक छत्र सम्राट गोस्वामी जी के काव्य में जो मार्मिकता, भाव प्रवणता, विशदता व्यवस्थापकता, गुरूत्व- गाम्भीर्यता व उदारता है वह अन्यत्र दुर्लभ है।
वाक्य-ज्ञान अत्यन्त निपुन भव पार न पावै कोई।
निसि गृह मध्य दीप की बातन तम निवृत्त नहिं होई॥
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