साहित्य के स्वाद से साहित्य के मर्म तक
वीरेन्द्र जैन
मैं अपने छात्र जीवन में विज्ञान और अर्थशास्त्र का विद्यार्थी रहा। बैंक में नौकरी की तथ चर्चित लोकप्रिय साहित्य का पाठक रहा इसलिए साहित्य को उसके आलाचकों और आलोचना सिद्धांतों के आधार पर ग्रहण न करके उसे संवेदनात्मक ज्ञान की तरह ही ग्रहण किया। राजनीतिक सोच में वामपंथ विचारधारा से प्रभावित होने के कारण जो साहित्य अच्छा लगता था वह आम तौर पर लघु पत्रिकाओं में ही मिलता था जो साहित्य के साथ साथ आलोचना व साहित्य की बहसों को भी समुचित स्थान देती थीं। समय मिलने पर मैं इन आलोचनाओं और बहसों पर भी निगाह डाल लेता था तथा जो मेरे स्तर की भाषा और प्रतीकों के माध्यम से कही गयी होती थीं वे समझ में भी आने लगीं। कुछ दिनों बाद पसंद आने वाली रचनाओं पर समीक्षाएं पढ कर अपने आप को जॉचने का प्रयास करने लगा कि सन्दर्भित रचना को अकादामिक जगत कैसे देखता है व मेरी पसंदगी में कहॉं खामी खूबी रही। खॅांटी आलोचकों द्वारा चर्चित रचना में कई बार एक नई दृष्टि व नये कोण देखने को मिलते थे जो नव अनुभव स्फुरण की पुलक से भर देते थे।
साहित्य आलोचना के प्रति गैरव्यावसायिक स्वाभाविक रूझान के इस काल में मैं जिन आलाचकों से प्रभावित हुआ उनके बारे में जानने पर पता चला कि कोई उनके भी गुरू हैं जिनका नाम हजारी प्रसाद द्विवेदी है। ...होगा। बात आयी गयी हो गयी। मैं रंगजी की उन पंक्तियों का कायल रहा हूं-
हम तो अपने सनम के शैदा हैं, होंगे सुकरात क्या करे कोई।
१९७९-८० के दौरान मेरी पोस्टिंग गाजियाबाद में थी। एकदिन प्रातःकाल आकाशवाणी पर समाचार सुना कि हिन्दी के वरिष्ठ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी नहीं रहे। उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के निगमबोध घाट पर प्रातः दस बजे होगा। संयोगवंश उस दिन रविवार भी था। समाचार सुनकर मैं सीधा दिल्ली की बस में बैठ गया। आकाशवाणी से उनकी शव यात्रा के प्रारंभ होने के स्थल के बारे में कुछ नहीं बताया गया था इसलिए मैं एक पुष्पहार खरीद कर सीधा निगमबोध घाट पर ही पहुंच गया। मुझे वहॉं अकेले एक डेढ घन्टे तक प्रतीक्षा करनी पड़ी।
शवयात्रा वहॉं पहुंचने के बाद मैंने पहली बार हजारी प्रसाद द्विवेदी के दर्शन किये जिसे कहना चाहिये कि उनकी निर्जीव देह के प्रथम दर्शन किये जो उनके अंतिम दर्शन थे। भरीपूरी बलिष्ठ देह के साथ विषाल ललाट देख कर मैं दंग था। उस दिन मुझे लगा कि किसी की मृत देह भी प्रभाव डाल सकती है। उस दिन मुझे ये भी लगा कि ये निस्सन्देह मेरे प्रिय आलोचकों के गुरू होने का अधिकार रखते होंगें। र्दुसंयोग यह रहा के उनके अंतिम दर्शन के दिन मुझे उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में और अधिक जानने की जिज्ञासा हुयी। पर ना तो मैं साहित्य के शिक्षा जगत का सदस्य था और ना ही किसी शोध की दुनिया का शिल्पकार, इसलिए पूरी तैयारी के साथ कुछ जानने की जगह जब जो उपलब्ध होता गया तब तब वह पढता गया, जो स्मृति में अमिट छाप छोड़ता गया।
हिन्दी आलोचकों की दुनिया के गुरू हजारी प्रसाद द्विवेदी के सच्चे गुरू, गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर थे जिन्होंने उन्हें शांतिनिकेतन में स्थान दिया। वे पहले अध्यापक थे जिन्होंने शांतिनिकेतन में हिंदी विभाग का निर्माण किया। गुरूदेव के बाद द्विवेदीजी को आचार्य क्षितिमोहनसेन का सान्निध्य मिला जिन्हें आज हम नोबुल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमृत्यसेन के दादा के रूप में ज्यादा जानने लगे हैं। बंगला नवजागरण व उससे उत्पन्न नई व्यवस्था, नये सोच और उससे जनित नये मूल्यों से उनका प्रथम परिचय वहीं हुआ। यह जानना रोचक हो सकता है कि इससे पूर्व उनकी शिक्षादीक्षा संस्कृत पाठशालाओं में हुयी थी व वे ज्योतिषशास्त्र के प्रकांड पंडित होने की ओर अग्रसर थे। वे १९३० में शांतिनिकेतन पहुंचे थे व गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर को अपने संवाद से इतना प्रभावित किया कि उन्होंने उनसे कहा कि अब आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है। वे वहॉं दस वर्ष रहे। इन दस वर्षों में उन्होंने जितना पढाया उससे कहीं अधिक सीखा। बनारस के पंडितजी का शांतिनिकेतन में कायाकल्प हो गया था। आमतौर पर लोग पंडितजी हो जाने के बाद जड़ हो जाते हैं और कुछ भी नया सीखने में रूचि नहीं रखते पर द्विवेदीजी ने अपने पूर्व ज्ञान को आधार बनाकर उसे नये के साथ जोड़ा, उसे आगे बढाया व जो छोड़े जाने लायक था उसे छोड़ा।
बनारस लौटने के बाद उन्होंने अपने ज्ञान को बीज की तरह इस्तेमाल किया और ऐसी फसल तैयार की जिसने उनकी परम्परा में विकास करते हुये उसे पूरे देश में बोया। उनके शिष्यों में डा. नामवरसिंह, रमेशकुंतल मेघ, विश्वनाथ त्रिपाठी, काशीनाथसिंह ही नहीं डा. रामदरश मिश्र, मैथलीप्रसाद भारद्वाज और डा. रवीन्द्र भ्रमर भी थे। कालजयी उपन्यासकार डा. शिवप्रसादसिंह भी उनके शिष्य थे तो प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे चन्द्रशेखर भी उनके शिष्यों में थे।
हिन्दी आलोचना के प्रथम सोपान माने जाने वाले डा. रामचन्द्र शुक्ल द्वारा कबीर की उपेक्षा की जो भूल की गयी थी उसे उन्होंने न केवल सुधारा अपितु हिन्दी आलोचना को एक नई दृष्टि व दिशा दी जिस पर बाद में पूरा कारवॉं आगे बढा। डा. नामवरसिंह अपने अंदाज में कहते हैं कि शिष्टता पर स्पष्टता को तरजीह देना अक्षम्य नहीं माना जाना चाहिये। वे इतिहास दृष्टि के आकाश पर एक समाजविद् की तरह प्रकट होते हैं। उन्होंने उस दौर में लेखन प्रारम्भ किया जब देष के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के आधुनिकीकरण के लिए संघर्ष चल रहा था व प्रगतिशीलता के पक्षधर पुरातनपंथियों से टकरा रहे थे। उनमें अनंत जिज्ञासा थी और मनुष्य के प्रति वे वैज्ञानिक दृष्टि से सोचते थे। उनका प्रसिद्ध लेख मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है'' उनकी सोच को स्पष्ट करता है। वे कहते हैं मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हॅूं- जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता, परमुखापेक्षता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुःखकातर और संवेदनषील न बना सके उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।
उनके अनुसार साहित्य का प्रयोजन है- लोक कल्याण, और लिखने का लक्ष्य है - सामाजिक मनुष्य का मंगलविधान। उनका मनुष्य कुलीनों के मानव और मानवतावाद से भिन्न है। अपने एक ओर प्रसिद्ध लेख अशोक के फूल में वे लिखते हैं - जब हम देखते हैं कि ग्रन्थ पढने के कारण हमारे घरों के निकट जो चमार, धीवर, कोरी, कुम्हार आदि लोग रहते हैं, उनका पूरा परिचय पाने के लिए हमारे हृदय में जरा सी भी उत्सुकता उत्पन्न नहीं होती, तब अच्छी तरह से समझ में आ जाता है कि पुस्तकों के सम्बंध में कितना अंधविश्वास हो गया है। पुस्तकों को हम बड़ा समझते हैं और पुस्तकें जिनकी छाया हैं, उनको हम कितना तुच्छ समझते हैं।
उनके कृतित्व का जो भरापूरा भंडार है उसे पूरा जीवन लगाकर खंगालने वाले हिन्दी के विद्वान भी जीवन के कम होने की शिकायत करते मिलेंगे पर यदि मुझसे अपने सूक्ष्मतम अध्यन के बाद एक वाक्य में अपनी समझ को स्पष्ट करने को कहा जाये तो मैं कहना चाहॅूंगा कि उन्होंने साहित्य को रसास्वादन अर्थात साहित्य के स्वाद से निकाल कर साहित्य के मर्म तक पहुंचाया।
वीरेन्द्र जैन
मैं अपने छात्र जीवन में विज्ञान और अर्थशास्त्र का विद्यार्थी रहा। बैंक में नौकरी की तथ चर्चित लोकप्रिय साहित्य का पाठक रहा इसलिए साहित्य को उसके आलाचकों और आलोचना सिद्धांतों के आधार पर ग्रहण न करके उसे संवेदनात्मक ज्ञान की तरह ही ग्रहण किया। राजनीतिक सोच में वामपंथ विचारधारा से प्रभावित होने के कारण जो साहित्य अच्छा लगता था वह आम तौर पर लघु पत्रिकाओं में ही मिलता था जो साहित्य के साथ साथ आलोचना व साहित्य की बहसों को भी समुचित स्थान देती थीं। समय मिलने पर मैं इन आलोचनाओं और बहसों पर भी निगाह डाल लेता था तथा जो मेरे स्तर की भाषा और प्रतीकों के माध्यम से कही गयी होती थीं वे समझ में भी आने लगीं। कुछ दिनों बाद पसंद आने वाली रचनाओं पर समीक्षाएं पढ कर अपने आप को जॉचने का प्रयास करने लगा कि सन्दर्भित रचना को अकादामिक जगत कैसे देखता है व मेरी पसंदगी में कहॉं खामी खूबी रही। खॅांटी आलोचकों द्वारा चर्चित रचना में कई बार एक नई दृष्टि व नये कोण देखने को मिलते थे जो नव अनुभव स्फुरण की पुलक से भर देते थे।
साहित्य आलोचना के प्रति गैरव्यावसायिक स्वाभाविक रूझान के इस काल में मैं जिन आलाचकों से प्रभावित हुआ उनके बारे में जानने पर पता चला कि कोई उनके भी गुरू हैं जिनका नाम हजारी प्रसाद द्विवेदी है। ...होगा। बात आयी गयी हो गयी। मैं रंगजी की उन पंक्तियों का कायल रहा हूं-
हम तो अपने सनम के शैदा हैं, होंगे सुकरात क्या करे कोई।
१९७९-८० के दौरान मेरी पोस्टिंग गाजियाबाद में थी। एकदिन प्रातःकाल आकाशवाणी पर समाचार सुना कि हिन्दी के वरिष्ठ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी नहीं रहे। उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के निगमबोध घाट पर प्रातः दस बजे होगा। संयोगवंश उस दिन रविवार भी था। समाचार सुनकर मैं सीधा दिल्ली की बस में बैठ गया। आकाशवाणी से उनकी शव यात्रा के प्रारंभ होने के स्थल के बारे में कुछ नहीं बताया गया था इसलिए मैं एक पुष्पहार खरीद कर सीधा निगमबोध घाट पर ही पहुंच गया। मुझे वहॉं अकेले एक डेढ घन्टे तक प्रतीक्षा करनी पड़ी।
शवयात्रा वहॉं पहुंचने के बाद मैंने पहली बार हजारी प्रसाद द्विवेदी के दर्शन किये जिसे कहना चाहिये कि उनकी निर्जीव देह के प्रथम दर्शन किये जो उनके अंतिम दर्शन थे। भरीपूरी बलिष्ठ देह के साथ विषाल ललाट देख कर मैं दंग था। उस दिन मुझे लगा कि किसी की मृत देह भी प्रभाव डाल सकती है। उस दिन मुझे ये भी लगा कि ये निस्सन्देह मेरे प्रिय आलोचकों के गुरू होने का अधिकार रखते होंगें। र्दुसंयोग यह रहा के उनके अंतिम दर्शन के दिन मुझे उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में और अधिक जानने की जिज्ञासा हुयी। पर ना तो मैं साहित्य के शिक्षा जगत का सदस्य था और ना ही किसी शोध की दुनिया का शिल्पकार, इसलिए पूरी तैयारी के साथ कुछ जानने की जगह जब जो उपलब्ध होता गया तब तब वह पढता गया, जो स्मृति में अमिट छाप छोड़ता गया।
हिन्दी आलोचकों की दुनिया के गुरू हजारी प्रसाद द्विवेदी के सच्चे गुरू, गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर थे जिन्होंने उन्हें शांतिनिकेतन में स्थान दिया। वे पहले अध्यापक थे जिन्होंने शांतिनिकेतन में हिंदी विभाग का निर्माण किया। गुरूदेव के बाद द्विवेदीजी को आचार्य क्षितिमोहनसेन का सान्निध्य मिला जिन्हें आज हम नोबुल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमृत्यसेन के दादा के रूप में ज्यादा जानने लगे हैं। बंगला नवजागरण व उससे उत्पन्न नई व्यवस्था, नये सोच और उससे जनित नये मूल्यों से उनका प्रथम परिचय वहीं हुआ। यह जानना रोचक हो सकता है कि इससे पूर्व उनकी शिक्षादीक्षा संस्कृत पाठशालाओं में हुयी थी व वे ज्योतिषशास्त्र के प्रकांड पंडित होने की ओर अग्रसर थे। वे १९३० में शांतिनिकेतन पहुंचे थे व गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर को अपने संवाद से इतना प्रभावित किया कि उन्होंने उनसे कहा कि अब आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है। वे वहॉं दस वर्ष रहे। इन दस वर्षों में उन्होंने जितना पढाया उससे कहीं अधिक सीखा। बनारस के पंडितजी का शांतिनिकेतन में कायाकल्प हो गया था। आमतौर पर लोग पंडितजी हो जाने के बाद जड़ हो जाते हैं और कुछ भी नया सीखने में रूचि नहीं रखते पर द्विवेदीजी ने अपने पूर्व ज्ञान को आधार बनाकर उसे नये के साथ जोड़ा, उसे आगे बढाया व जो छोड़े जाने लायक था उसे छोड़ा।
बनारस लौटने के बाद उन्होंने अपने ज्ञान को बीज की तरह इस्तेमाल किया और ऐसी फसल तैयार की जिसने उनकी परम्परा में विकास करते हुये उसे पूरे देश में बोया। उनके शिष्यों में डा. नामवरसिंह, रमेशकुंतल मेघ, विश्वनाथ त्रिपाठी, काशीनाथसिंह ही नहीं डा. रामदरश मिश्र, मैथलीप्रसाद भारद्वाज और डा. रवीन्द्र भ्रमर भी थे। कालजयी उपन्यासकार डा. शिवप्रसादसिंह भी उनके शिष्य थे तो प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे चन्द्रशेखर भी उनके शिष्यों में थे।
हिन्दी आलोचना के प्रथम सोपान माने जाने वाले डा. रामचन्द्र शुक्ल द्वारा कबीर की उपेक्षा की जो भूल की गयी थी उसे उन्होंने न केवल सुधारा अपितु हिन्दी आलोचना को एक नई दृष्टि व दिशा दी जिस पर बाद में पूरा कारवॉं आगे बढा। डा. नामवरसिंह अपने अंदाज में कहते हैं कि शिष्टता पर स्पष्टता को तरजीह देना अक्षम्य नहीं माना जाना चाहिये। वे इतिहास दृष्टि के आकाश पर एक समाजविद् की तरह प्रकट होते हैं। उन्होंने उस दौर में लेखन प्रारम्भ किया जब देष के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के आधुनिकीकरण के लिए संघर्ष चल रहा था व प्रगतिशीलता के पक्षधर पुरातनपंथियों से टकरा रहे थे। उनमें अनंत जिज्ञासा थी और मनुष्य के प्रति वे वैज्ञानिक दृष्टि से सोचते थे। उनका प्रसिद्ध लेख मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है'' उनकी सोच को स्पष्ट करता है। वे कहते हैं मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हॅूं- जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता, परमुखापेक्षता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुःखकातर और संवेदनषील न बना सके उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।
उनके अनुसार साहित्य का प्रयोजन है- लोक कल्याण, और लिखने का लक्ष्य है - सामाजिक मनुष्य का मंगलविधान। उनका मनुष्य कुलीनों के मानव और मानवतावाद से भिन्न है। अपने एक ओर प्रसिद्ध लेख अशोक के फूल में वे लिखते हैं - जब हम देखते हैं कि ग्रन्थ पढने के कारण हमारे घरों के निकट जो चमार, धीवर, कोरी, कुम्हार आदि लोग रहते हैं, उनका पूरा परिचय पाने के लिए हमारे हृदय में जरा सी भी उत्सुकता उत्पन्न नहीं होती, तब अच्छी तरह से समझ में आ जाता है कि पुस्तकों के सम्बंध में कितना अंधविश्वास हो गया है। पुस्तकों को हम बड़ा समझते हैं और पुस्तकें जिनकी छाया हैं, उनको हम कितना तुच्छ समझते हैं।
उनके कृतित्व का जो भरापूरा भंडार है उसे पूरा जीवन लगाकर खंगालने वाले हिन्दी के विद्वान भी जीवन के कम होने की शिकायत करते मिलेंगे पर यदि मुझसे अपने सूक्ष्मतम अध्यन के बाद एक वाक्य में अपनी समझ को स्पष्ट करने को कहा जाये तो मैं कहना चाहॅूंगा कि उन्होंने साहित्य को रसास्वादन अर्थात साहित्य के स्वाद से निकाल कर साहित्य के मर्म तक पहुंचाया।
Comments
इस निबंध की चौंकानेवाली बात यह है कि इसमें डा. शर्मा ने सोदाहरण स्पष्ट किया है कि डा. हजारी प्रसाद की रचनाओं का काफी भाग आचार्य रामचंद्र शुक्ल की रचनाओं से या तो शब्दशः चुराया गया है अथवा उनका भाव वही है।
हममें अपने साहित्यकारों को पूजनीय प्रतिमाओं में बदलने की प्रवृत्ति है, आवश्यकता इस बात की है कि हम उनका और उनके साहित्य का अधिक वस्तुपरक रूप से समीक्षा करके स्वयं राय बनाएं।