रचना गौड़ भारती
मेरी आंखों के कुछ मोती
बिख़र गए हैं थोड़ा रूको
मैं इन्हें समेट लूं
तुम दर्पण हो तो मेरे भी
मन का अक्स ये शरीर है
आंखों की क़ोरें अभी गीली हैं
और पलके बोझल बोझल
धुंधली आंखों की कांपती ज्योति
तुम कुछ साफ़ नजर नहीं आते
ठहरो जरा इन आंखों को पोंछने दो
गम के बादल छंट जाएगें
मैं फिर से ताजा गुलाब हो जाऊंगीं
दो चार पल जो ठहरे से लगते हैं
इन पलों को आगे ख़िसकने दो
तुमसे फिर मुलाकात होगी
फिर दो बात होगी
पहले पिछला हिसाब तो होने दो
मेरे सभी ग़मों को सुनकर
कोई चाहे बेअसर हो
यह दर्पण ही अपना सा लगा
इसे ही थोड़ा चटकने दो
सह नहीं पाया मेरा ग़म
आख़िर चटक ही गया
कितना कहा मुझे अकेले रहने दो
आख़िर नहीं माना चटक ही गया ।
मेरी आंखों के कुछ मोती
बिख़र गए हैं थोड़ा रूको
मैं इन्हें समेट लूं
तुम दर्पण हो तो मेरे भी
मन का अक्स ये शरीर है
आंखों की क़ोरें अभी गीली हैं
और पलके बोझल बोझल
धुंधली आंखों की कांपती ज्योति
तुम कुछ साफ़ नजर नहीं आते
ठहरो जरा इन आंखों को पोंछने दो
गम के बादल छंट जाएगें
मैं फिर से ताजा गुलाब हो जाऊंगीं
दो चार पल जो ठहरे से लगते हैं
इन पलों को आगे ख़िसकने दो
तुमसे फिर मुलाकात होगी
फिर दो बात होगी
पहले पिछला हिसाब तो होने दो
मेरे सभी ग़मों को सुनकर
कोई चाहे बेअसर हो
यह दर्पण ही अपना सा लगा
इसे ही थोड़ा चटकने दो
सह नहीं पाया मेरा ग़म
आख़िर चटक ही गया
कितना कहा मुझे अकेले रहने दो
आख़िर नहीं माना चटक ही गया ।
Comments
बिख़र गए हैं थोड़ा रूको
मैं इन्हें समेट लूं
"very emotional poetry, loved reading it'