शगुफ्ता नियाज़
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माता-पिता
दादू के माता-पिता कौन थे, इस सन्दर्भ में विद्वानों में अनेक मत हैं किवदन्तियों के अनुसार दादू कबीर की भांति ही किसी कुंवारी ब्राह्मणी की अवैध सन्तान थे। विधवा ब्राह्मणी के परित्यक्त पुत्र के रूप में दादू को जिस तिरस्कार का सामना करना पड़ा होगा, उसकी कल्पना हम आज के सामाजिक सन्दर्भों में भी कर सकते हैं। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में दादू जैसी सन्तान को समाज किस रूप में ग्रहण करता होगा इससे हम सभी परिचित हैं।
अतः यह मानने में हमें कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि दादू की जन्म की स्थितियों (माता-पिता) ने दादू को जिस समाज से जोड़ा उसने उनकी काव्य चेतना को एक ऐसी काव्य परम्परा से जोड़ा जो आध्यात्मिक चेतना को लोक चेतना से जोड़कर चल रही थी। इस काव्य चेतना ने दादू के काव्य की रूपक चेतना के निर्माण में एक सार्थक योगदान किया होगा।
गुरू एवं शिक्षा-दीक्षा
अन्य अधिकांश सन्त कवियों की भांति ही दादू की शिक्षा भी व्यवस्थित रूप से किसी संस्था में नहीं हुई थी। अक्षर ज्ञान के आधार पर प्राप्त शिक्षा से दादू भी वंचित ही रहे थे। श्रुत परम्परा से इन्होंने अवष्य ज्ञान प्राप्त किया जो इनके काव्य के स्वरूप निर्माण में सहायक सिद्ध हुआ। श्रुत परम्परा से प्राप्त ज्ञान का इन्होंने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर विस्तार किया। परिणामस्वरूप इनके काव्य का वाह्य कलेवर जिसमें रूपक भी सम्मिलित है किसी काव्य परम्परा का अनुपालन नहीं बल्कि जीवन व्यवहार की अनुभूतियों के आधार पर बना।
दीक्षा का सम्बन्ध गुरू से होता है। दादू के गुरू के संबध में विद्वानों ने अपनी धारणा स्पष्ट करते हुए बुडढन को दादू का गुरू माना है - विल्सन बुडढन कबीर की वंश परम्परा में दादू को स्वीकार करते हुए इन्हें भी कबीर का ही वंशज मानते हैं। सुधाकर द्विवेदी इन्हें कबीर के पुत्र कमाल का शिष्य बताते हैं। पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल विल्सन से सहमत हैं। परशुराम चतुर्वेदी सन् १५६२ के आस-पास बुडढन नाम धारी किसी ऐतिहासिक व्यक्ति की स्थिति न मानते हुए विल्सन के मत को निराधार व्यक्त करते हैं। दादू पन्थी बुडढन से साक्षात् भगवान का अर्थ लेते हैं और ११ वर्ष की अवस्था में भगवान ने बुद्ध महात्मा के रूप में बालक दादू को दिया ऐसा मानते है।२७
डॉ० ताराचन्द गैरोल ने किसी बुराहानुद्दीन नामक व्यक्ति को दादू के गुरू के रूप में चर्चा की है किन्तु अन्य विद्वानों ने इस विषय में तत्सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं की और न ही इस सम्बन्ध में कोई प्रमाण ही उपलब्ध होता है।२८
स्वामी हरिराम ने भी ऐसा मत उद्धद्यत किया है- ७ वर्ष की अवस्था में एक दिन बालकों के साथ कांकरिया तालाब (नगीना बाड़ी) में क्रीड़ा करते समय भगवान ने एक बुद्ध ऋषि के रूप में प्रकट कर दर्शन दिए और दादू को प्रसाद, शुभाशीर्वाद तथा दीक्षा रूप निर्गुण भक्ति का उपदेश देकर अन्तर्ध्यान हो गये। पुनः एकादश वर्ष की अवस्था में वृद्ध भगवान ने कांकीरमा तालाब के उस स्थान पर दर्शन दिए जहां कि आज शिव मंदिर बना हुआ है और निर्गुण का प्रचार करने की आज्ञा देकर अंतर्ध्यान हो गए। बुद्ध भगवान के दर्शन से महाराज को पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो गई और गुरू आज्ञा मानकर देश एवं ग्रह का त्याग कर दिया और भक्ति का प्रचार करने हेतु अहमदाबाद से प्रस्थान किया।''२९
डॉ० नाइकल मैक्निकल ३० ने भी इसी सन्दर्भ का उल्लेख अपनी पुस्तक में किया है।
गार्सा द तासी ने दादू को रामानन्द की शिष्य परम्परा में स्वीकार कर उन्हें इस परंपरा में उनका छठा शिष्य माना है। इन शिष्यों का क्रम रामानन्द, कबीर, जमाल, विमल, बुडढन और दादू। एच.एच. विल्सन ने भी इसी को स्वीकार किया है। आर.वी. रसाल ने भी इसी को मान्य किया है।३१
दादू के शिष्य छोटे सुन्दरदास ने उनके गुरू का नाम ब्रह्मानन्द बताया है और दादू की अपने गुरू से भेंट का विवरण भी निम्न प्रकार प्रस्तुत किया है -
दादू जी कौ गुरू अब सुनिये, बहुत भांति तिनके गुन गुनिये।
दादू जी को दरसन दीन्हों, अस्मात् काहूं चीन्हों,
ब्रह्मानन्द नाम है जाको, ठौर ठिकाना काहूं न ताको
सहज रूप विचरै भू मांही, इच्छा परै तहांसो जाही,
ब्रह्मानन्द दया तब कीन्हीं, काहूं पै गनि जाह न चीन्ही।
दादू जी तनि निकट बुलायौ, मुदित होय करि कंठ लगायौ,
मस्तक हाथ धरी है जब ही, दिव्य दृष्टि उभरी है तब ही,
यू करि क्रिया बड़ौ हुत दीन्हौ, ब्रह्मानन्द पयानौ कीन्हो।३२
उन्होंने ब्रह्मानन्द नाम का उल्लेख किया है किन्तु स्वयं दादू ने कहीं भी अपने गुरू का नाम नहीं बताया है। उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा -
दादू गैब मांहि गुरूदेव मिल्या, पाया हम परसाद।
मस्तक मेरे कर धर्या, देच्च्यां अगम अगाध॥३३
डॉ० पीताम्बर दत्त बडथ्वाल ने यहाँ तक कह दिया कि यदि कमाल नहीं तो कमाल की शिष्य परम्परा में ये किसी के शिष्य अवश्य रहे होंगे।
परन्तु दादू के गुरू के सन्दर्भ में अभी तक निर्णयात्मक ढंग से कुछ कहा नहीं गया है। दादू ने अपनी वाणी में गुरू की महिमा का गान तो बहुत किया है परन्तु उनका नाम कहीं नहीं लिखा है।३४ दादू ने किसी व्यक्ति से नियम पूर्वक दीक्षा लेकर शिष्यत्व ग्रहण किया हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता इससे यही संभावना व्यक्त की जा सकती है कि दादू के कोई निश्चित गुरू नहीं थे।
इसका परिणाम यह हुआ कि दादू का काव्य चिन्तन किसी सीमित संकीर्ण धारा में बंधने से बच गया। दादू का जिस गुरू परम्परा से सम्बन्ध जोड़ा जाता है उसके आधार पर दादू अपने जीवन बिम्बों के निर्माण के लिए कृषक व शिल्पी जीवन के निकट ही अधिक पाए जाते हैं। सन्त परम्परा के ये सभी सन्त अपने मूल रूप में कृषक व शिल्पी जीवन से जुड़े रहे हैं।
अतः यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि दादू के काव्य प्रतिमान उनकी आध्यात्मिक साधना परम्परा के सामाजिक परिवेश की भी अभिव्यक्ति करते हैं । यदि कबीर की भांति दादू के लिए भी आलौकिक गुरू की मान्यता को स्वीकार किया जाए तो वह भी काव्य-रूपकों को सषक्त आधार प्रदान करती हैं। रूपकों की आन्तरिक चेतना उनकी आलौकिक अनुभूति की ही देन है जो उनके गुरू साक्षात्कार की ही देन कही जा सकती है।
व्यवसाय व जाति
सभी संत कवियों की भांति दादू भी श्रमण संस्कृति के पोषक नहीं है, वे केवल खंजूरी, तंबूरा अथवा झोली लेकर न तो केवल कहानी व उपाख्यान ही कहते थे और न केवल भक्तों और अनुयायियों की भक्ति भावना और गुरू श्रद्वा के ही भरोसे बैठकर गुलछर्रा ही उड़ाते थे। अन्य सन्तों की तरह दादू भी अपने पैतृक व्यवसाय को अपनी जीविका का साधन बनाते हुए अपनी आध्यात्मिक साधना में रत रहते है। उन्होंने आध्यात्म मार्ग अपनाया परन्तु अपने पैतृक कार्य को भी नहीं छोड़ा अपने पैतृक कार्य को करते हुए भी वे भजन उपासना अथवा पारलौकिक चिन्तन करते थे। अपने व्यवसाय में रत रहते हुए उनका आसपास के कृषक एवं शिल्पी जीवन सम्बन्धी जीवन से जुड़ा होना स्वाभाविक था। अतः उनके व्यवसाय ने उनके काव्य प्रतिमानों के लिए आपेक्षित सामग्री जुटाने में एक बड़ी भूमिका अदा ही होगी।
दादू की जाति के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार मुहसन फनी ने इनको धुनिया कहा और विल्सन ने भी इन्हें धुनिया ही माना है। तारादत्त गैरोला रज्जब की सर्वांगी के एक पद के साक्ष्य पर इन्हें धुनिया मानते हैं। जैसे - धुनी गर्भेउत्पन्नों देवेन्द्रा महामुनि।३५ स्वामी दयानन्द अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में इन्हें तेली का कार्य करने वाला कहा है। पं० सुधाकर द्विवेदी ने मोची बताया है।३६ क्षिति मोहन सेन वाडलो के एक वन्दना वाक्य - श्रीयुत दाऊद वन्दि दादू यारं नाम के आधार पर इनका वास्तविक नाम दारूद मानकर इन्हें मुसलमान स्वीकार करते हैं।३७ परशुराम चतुर्वेदी और डॉ० पीताम्बरदत्त बडथ्वाल दादू को धुनिया मानते हैं।३८ गार्सा द तासी ने हिन्दी हिन्दोस्तान में इन्हें निम्न जाति का माना है।३९
रज्जब की वाणी में दादू को धुनिया जाति का बताया है। कुल, विल्कस, रसाल, रामकुमार वर्मा, ग्रियर्सन आदि भी दादू को धुनिया ही मानते हैं।४०
उपर्युक्त इन सभी विद्वानों के मतों से दादू की जाति स्पष्ट नहीं हो पाती। इसका कारण यह भी है कि दादू पंथ के कुछ लोग लोदीराम नागर ब्राह्मण का औरस पुत्र मानते हैं और कुछ लोग इनके द्वारा केवल पालित पोषित स्वीकार करते हैं।४१
ऐसी स्थिति में दादू की जाति व पेशे को लेकर यह कहा जा सकता है कि कबीर की भांति दादू भी समाज के निचले स्तर से आऐ थे। दादू का यह जातिगत परिवेश भी उनकी काव्य चेतना को कृषक व शिल्पी जीवन से ही जोड़ता है। अतः यह मानकर चला जा सकता है कि दादू के काव्य में कृषक एवं शिल्पी जीवन सम्बन्धी रूपक चेतना को सहज व्यावहारिक आधार मिला है जो दादू के वैयक्तिक परिवेश से जुड़कर व्यवसाय से सम्बन्ध रखता है। उपरोक्त तथ्यों के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि कबीर की भांति दादू ने भी निम्न वर्गीय परिवार में आँखें खोली जो आजीविका के लिए कृषक व शिल्प पर निर्भर था। कबीर की ही भांति निश्चित रूप से दादू को भी उनके जन्म, माता-पिता और संस्कारों से वह परिवेश प्राप्त हुआ जिसने दादू के रूपकों को सामग्री प्रदान
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माता-पिता
दादू के माता-पिता कौन थे, इस सन्दर्भ में विद्वानों में अनेक मत हैं किवदन्तियों के अनुसार दादू कबीर की भांति ही किसी कुंवारी ब्राह्मणी की अवैध सन्तान थे। विधवा ब्राह्मणी के परित्यक्त पुत्र के रूप में दादू को जिस तिरस्कार का सामना करना पड़ा होगा, उसकी कल्पना हम आज के सामाजिक सन्दर्भों में भी कर सकते हैं। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में दादू जैसी सन्तान को समाज किस रूप में ग्रहण करता होगा इससे हम सभी परिचित हैं।
अतः यह मानने में हमें कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि दादू की जन्म की स्थितियों (माता-पिता) ने दादू को जिस समाज से जोड़ा उसने उनकी काव्य चेतना को एक ऐसी काव्य परम्परा से जोड़ा जो आध्यात्मिक चेतना को लोक चेतना से जोड़कर चल रही थी। इस काव्य चेतना ने दादू के काव्य की रूपक चेतना के निर्माण में एक सार्थक योगदान किया होगा।
गुरू एवं शिक्षा-दीक्षा
अन्य अधिकांश सन्त कवियों की भांति ही दादू की शिक्षा भी व्यवस्थित रूप से किसी संस्था में नहीं हुई थी। अक्षर ज्ञान के आधार पर प्राप्त शिक्षा से दादू भी वंचित ही रहे थे। श्रुत परम्परा से इन्होंने अवष्य ज्ञान प्राप्त किया जो इनके काव्य के स्वरूप निर्माण में सहायक सिद्ध हुआ। श्रुत परम्परा से प्राप्त ज्ञान का इन्होंने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर विस्तार किया। परिणामस्वरूप इनके काव्य का वाह्य कलेवर जिसमें रूपक भी सम्मिलित है किसी काव्य परम्परा का अनुपालन नहीं बल्कि जीवन व्यवहार की अनुभूतियों के आधार पर बना।
दीक्षा का सम्बन्ध गुरू से होता है। दादू के गुरू के संबध में विद्वानों ने अपनी धारणा स्पष्ट करते हुए बुडढन को दादू का गुरू माना है - विल्सन बुडढन कबीर की वंश परम्परा में दादू को स्वीकार करते हुए इन्हें भी कबीर का ही वंशज मानते हैं। सुधाकर द्विवेदी इन्हें कबीर के पुत्र कमाल का शिष्य बताते हैं। पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल विल्सन से सहमत हैं। परशुराम चतुर्वेदी सन् १५६२ के आस-पास बुडढन नाम धारी किसी ऐतिहासिक व्यक्ति की स्थिति न मानते हुए विल्सन के मत को निराधार व्यक्त करते हैं। दादू पन्थी बुडढन से साक्षात् भगवान का अर्थ लेते हैं और ११ वर्ष की अवस्था में भगवान ने बुद्ध महात्मा के रूप में बालक दादू को दिया ऐसा मानते है।२७
डॉ० ताराचन्द गैरोल ने किसी बुराहानुद्दीन नामक व्यक्ति को दादू के गुरू के रूप में चर्चा की है किन्तु अन्य विद्वानों ने इस विषय में तत्सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं की और न ही इस सम्बन्ध में कोई प्रमाण ही उपलब्ध होता है।२८
स्वामी हरिराम ने भी ऐसा मत उद्धद्यत किया है- ७ वर्ष की अवस्था में एक दिन बालकों के साथ कांकरिया तालाब (नगीना बाड़ी) में क्रीड़ा करते समय भगवान ने एक बुद्ध ऋषि के रूप में प्रकट कर दर्शन दिए और दादू को प्रसाद, शुभाशीर्वाद तथा दीक्षा रूप निर्गुण भक्ति का उपदेश देकर अन्तर्ध्यान हो गये। पुनः एकादश वर्ष की अवस्था में वृद्ध भगवान ने कांकीरमा तालाब के उस स्थान पर दर्शन दिए जहां कि आज शिव मंदिर बना हुआ है और निर्गुण का प्रचार करने की आज्ञा देकर अंतर्ध्यान हो गए। बुद्ध भगवान के दर्शन से महाराज को पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो गई और गुरू आज्ञा मानकर देश एवं ग्रह का त्याग कर दिया और भक्ति का प्रचार करने हेतु अहमदाबाद से प्रस्थान किया।''२९
डॉ० नाइकल मैक्निकल ३० ने भी इसी सन्दर्भ का उल्लेख अपनी पुस्तक में किया है।
गार्सा द तासी ने दादू को रामानन्द की शिष्य परम्परा में स्वीकार कर उन्हें इस परंपरा में उनका छठा शिष्य माना है। इन शिष्यों का क्रम रामानन्द, कबीर, जमाल, विमल, बुडढन और दादू। एच.एच. विल्सन ने भी इसी को स्वीकार किया है। आर.वी. रसाल ने भी इसी को मान्य किया है।३१
दादू के शिष्य छोटे सुन्दरदास ने उनके गुरू का नाम ब्रह्मानन्द बताया है और दादू की अपने गुरू से भेंट का विवरण भी निम्न प्रकार प्रस्तुत किया है -
दादू जी कौ गुरू अब सुनिये, बहुत भांति तिनके गुन गुनिये।
दादू जी को दरसन दीन्हों, अस्मात् काहूं चीन्हों,
ब्रह्मानन्द नाम है जाको, ठौर ठिकाना काहूं न ताको
सहज रूप विचरै भू मांही, इच्छा परै तहांसो जाही,
ब्रह्मानन्द दया तब कीन्हीं, काहूं पै गनि जाह न चीन्ही।
दादू जी तनि निकट बुलायौ, मुदित होय करि कंठ लगायौ,
मस्तक हाथ धरी है जब ही, दिव्य दृष्टि उभरी है तब ही,
यू करि क्रिया बड़ौ हुत दीन्हौ, ब्रह्मानन्द पयानौ कीन्हो।३२
उन्होंने ब्रह्मानन्द नाम का उल्लेख किया है किन्तु स्वयं दादू ने कहीं भी अपने गुरू का नाम नहीं बताया है। उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा -
दादू गैब मांहि गुरूदेव मिल्या, पाया हम परसाद।
मस्तक मेरे कर धर्या, देच्च्यां अगम अगाध॥३३
डॉ० पीताम्बर दत्त बडथ्वाल ने यहाँ तक कह दिया कि यदि कमाल नहीं तो कमाल की शिष्य परम्परा में ये किसी के शिष्य अवश्य रहे होंगे।
परन्तु दादू के गुरू के सन्दर्भ में अभी तक निर्णयात्मक ढंग से कुछ कहा नहीं गया है। दादू ने अपनी वाणी में गुरू की महिमा का गान तो बहुत किया है परन्तु उनका नाम कहीं नहीं लिखा है।३४ दादू ने किसी व्यक्ति से नियम पूर्वक दीक्षा लेकर शिष्यत्व ग्रहण किया हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता इससे यही संभावना व्यक्त की जा सकती है कि दादू के कोई निश्चित गुरू नहीं थे।
इसका परिणाम यह हुआ कि दादू का काव्य चिन्तन किसी सीमित संकीर्ण धारा में बंधने से बच गया। दादू का जिस गुरू परम्परा से सम्बन्ध जोड़ा जाता है उसके आधार पर दादू अपने जीवन बिम्बों के निर्माण के लिए कृषक व शिल्पी जीवन के निकट ही अधिक पाए जाते हैं। सन्त परम्परा के ये सभी सन्त अपने मूल रूप में कृषक व शिल्पी जीवन से जुड़े रहे हैं।
अतः यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि दादू के काव्य प्रतिमान उनकी आध्यात्मिक साधना परम्परा के सामाजिक परिवेश की भी अभिव्यक्ति करते हैं । यदि कबीर की भांति दादू के लिए भी आलौकिक गुरू की मान्यता को स्वीकार किया जाए तो वह भी काव्य-रूपकों को सषक्त आधार प्रदान करती हैं। रूपकों की आन्तरिक चेतना उनकी आलौकिक अनुभूति की ही देन है जो उनके गुरू साक्षात्कार की ही देन कही जा सकती है।
व्यवसाय व जाति
सभी संत कवियों की भांति दादू भी श्रमण संस्कृति के पोषक नहीं है, वे केवल खंजूरी, तंबूरा अथवा झोली लेकर न तो केवल कहानी व उपाख्यान ही कहते थे और न केवल भक्तों और अनुयायियों की भक्ति भावना और गुरू श्रद्वा के ही भरोसे बैठकर गुलछर्रा ही उड़ाते थे। अन्य सन्तों की तरह दादू भी अपने पैतृक व्यवसाय को अपनी जीविका का साधन बनाते हुए अपनी आध्यात्मिक साधना में रत रहते है। उन्होंने आध्यात्म मार्ग अपनाया परन्तु अपने पैतृक कार्य को भी नहीं छोड़ा अपने पैतृक कार्य को करते हुए भी वे भजन उपासना अथवा पारलौकिक चिन्तन करते थे। अपने व्यवसाय में रत रहते हुए उनका आसपास के कृषक एवं शिल्पी जीवन सम्बन्धी जीवन से जुड़ा होना स्वाभाविक था। अतः उनके व्यवसाय ने उनके काव्य प्रतिमानों के लिए आपेक्षित सामग्री जुटाने में एक बड़ी भूमिका अदा ही होगी।
दादू की जाति के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार मुहसन फनी ने इनको धुनिया कहा और विल्सन ने भी इन्हें धुनिया ही माना है। तारादत्त गैरोला रज्जब की सर्वांगी के एक पद के साक्ष्य पर इन्हें धुनिया मानते हैं। जैसे - धुनी गर्भेउत्पन्नों देवेन्द्रा महामुनि।३५ स्वामी दयानन्द अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में इन्हें तेली का कार्य करने वाला कहा है। पं० सुधाकर द्विवेदी ने मोची बताया है।३६ क्षिति मोहन सेन वाडलो के एक वन्दना वाक्य - श्रीयुत दाऊद वन्दि दादू यारं नाम के आधार पर इनका वास्तविक नाम दारूद मानकर इन्हें मुसलमान स्वीकार करते हैं।३७ परशुराम चतुर्वेदी और डॉ० पीताम्बरदत्त बडथ्वाल दादू को धुनिया मानते हैं।३८ गार्सा द तासी ने हिन्दी हिन्दोस्तान में इन्हें निम्न जाति का माना है।३९
रज्जब की वाणी में दादू को धुनिया जाति का बताया है। कुल, विल्कस, रसाल, रामकुमार वर्मा, ग्रियर्सन आदि भी दादू को धुनिया ही मानते हैं।४०
उपर्युक्त इन सभी विद्वानों के मतों से दादू की जाति स्पष्ट नहीं हो पाती। इसका कारण यह भी है कि दादू पंथ के कुछ लोग लोदीराम नागर ब्राह्मण का औरस पुत्र मानते हैं और कुछ लोग इनके द्वारा केवल पालित पोषित स्वीकार करते हैं।४१
ऐसी स्थिति में दादू की जाति व पेशे को लेकर यह कहा जा सकता है कि कबीर की भांति दादू भी समाज के निचले स्तर से आऐ थे। दादू का यह जातिगत परिवेश भी उनकी काव्य चेतना को कृषक व शिल्पी जीवन से ही जोड़ता है। अतः यह मानकर चला जा सकता है कि दादू के काव्य में कृषक एवं शिल्पी जीवन सम्बन्धी रूपक चेतना को सहज व्यावहारिक आधार मिला है जो दादू के वैयक्तिक परिवेश से जुड़कर व्यवसाय से सम्बन्ध रखता है। उपरोक्त तथ्यों के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि कबीर की भांति दादू ने भी निम्न वर्गीय परिवार में आँखें खोली जो आजीविका के लिए कृषक व शिल्प पर निर्भर था। कबीर की ही भांति निश्चित रूप से दादू को भी उनके जन्म, माता-पिता और संस्कारों से वह परिवेश प्राप्त हुआ जिसने दादू के रूपकों को सामग्री प्रदान
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