- डॉ. सुनीता गोपालकृष्णन
‘अनादि अनंत' उपन्यास का कलेवर छोटा है लेकिन इसमें एक भारतीय नारी के उत्पीड़ित से उत्पीड़क बनने की लंबी कथा कही गई है। ‘कालचक्र' और ‘ज्वार' के बाद मधु भादुड़ी का यह तीसरा उपन्यास है। मूल समस्या स्त्री की है जो उपन्यास में शुरू से अंत तक बनी हुई है। नारी-लेखन मुख्यतः नारी समस्या पर ही तो केन्द्रित है। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा शादी का रहा है जो प्रायः नारी जीवन की दुर्दशा का मेरुदण्ड बनता है। क्योंकि अक्सर शादी का अर्थ होता है ‘एक दासी लाकर घर में बिठाना और उस पर मनमानी हुकूमत करना। कमली के माध्यम से मधु भादुड़ी जिस स्त्री-दुख को अनावृत्त करती है वह नारी-विमर्श का बिल्कुल ही नया संदर्भ है। एक ओर नारी का वह पतिव्रता और आदर्श रूप सामने आता है जो शोषण की चक्की में पिसती और घुटती है। तो दूसरी ओर वही शिक्षा के बल पर और युग के बदलाव के अनुरूप प्रबल और सशक्त रूप धारण करती है। स्त्री-उत्थान की बात जब भी उठाई जाती है तब पुरुष वर्ग पर लांछन लगाई जाती है। लेकिन इस उपन्यास में युग-युग से प्रताड़ित नारी ही नारी व्यक्तित्व का बदला ले रही है। अतः नारी के संदर्भ में जिन साहित्यिक मान्यताओं को आज तक स्वीकृति मिली है उन पर यह उपन्यास बड़ा आघात पहुँचाने वाला साबित होता है।
कमली की शादी बहुत ही कच्ची उम्र में एक निकम्मे, कायर, कमजोर आदमी से होती है। घर पर उसके तीन भाई और बाप थे। सास की कमी को ससुर पूरा करते थे। घर में एक अकेली औरत थी। इसलिए घर का सारा भार उसे अकेला ढोना पड़ा। पड़ोस की स्त्रियों से घुलने मिलने की इजाजत भी नहीं थी। अकेली लड़की को चौधरी परिवार के ‘भूतों' और ‘भैंसों' के बीच गुजारा करना पड़ा। खूब काम करके रात को जब वह नींद के आलस्य में डूब जाती है तब चौधरी का खून उबलता है। वह तो मर्द था और भला अपनी शारीरिक भूख को क्यों रोकता। पुरुष नपुंसक और स्वयं सामर्थ्यहीन होते हुए भी स्त्री को उपभोग्या से बढ़कर नहीं समझता। वह उनकी भावनाओं का आदर नहीं करता और अपनी पत्नी को पीटकर या बलात्कार करके अपने पराजयबोध और हीनताग्रंथि को छिपाते है। चौधरी की क्रूरता को लेखिका इस प्रकार व्यक्त करती है - ‘भैंस पालते-पालते चौधरी परिवार न जाने कैसे बन गया था। यद्यपि भैंसे अपने साथी संगियों पर बेबात प्रहार नहीं करती लेकिन चौधरी कमला पर अक्सर प्रहार करता था।''१ पति के प्रताड़नाओं के बावजूद वह हमेशा अपने मान-सम्मान को पति के मान-सम्मान के साथ जोड़कर देखती थी। कमली की असहाय हरकतें चौधरी को अपनी ताकत का सुखद एहसास प्रदान करती थीं। लेखिका ने यशपाल चौधरी के माध्यम से पुरुष के अस्तित्वहीन चरित्र को दिखाया है तो दूसरी ओर उसकी सामंती मानसिकता को। समाज में स्त्री-पुरुष असंतुलन का मूल कारण एक वर्ग द्वारा दूसरे के विरुद्ध अपनायी जाती है। इस तरह लेखिका ने उन परिस्थितियों का विश्लेषण किया है जो स्त्री को अंतर्मुखी, अमूर्त और ऋतु बना देती है।
बेटियों के अवमूल्यन की शुरुआत मायके से होती है। वे खुद लड़कियों को अवांछित मानते हैं। तीन-चार जवान बेटियों को घर पर बिठा रखने से माँ-बाप के ऊपर बोझ होता है। इसलिए उसकी शादी तय हो जाती है। नतीजा यह कि अपनी पसंद या रुचि का जिक्र वह खुद से भी नहीं कर पाती और उसके लिए अपने जीवन की पूर्व निर्धारित दिशा को स्वीकारने के अलावा कोई सवाल ही नहीं उठता। कमली एक मामूली परिवार की छः या सात बेटियों में तीसरी या चौथी थी। वह पढ़ाई में अपने सहपाठियों में सबसे होशियार लड़की थी। यही नहीं उसे घर के कामकाज या रसोई में कोई लगाव न रहकर किताबों में ज्यादा रुचि थी। लेकिन विडम्बना यह कि सत्राह वर्ष की अवस्था में वह निरीह बालिका एक क्रूर और हीन मनोग्रंथि वाले पुरुष से जुड़कर भविष्यहीन भविष्य में बंध जाती है। इसके फलस्वरूप उसके जीवन में प्रेम, समर्पण, त्याग आदि भावनाएँ मौजूद नहीं रहतीं जो दाम्पत्य जीवन का आधार होती हैं। इसी कारणवश शादी के बाद कमली तीन बच्चों की माँ बनती है। लेकिन इस अन्याय से बेखबर रह जाती है। लेखिका के शब्दों में ‘जिसकी आँखों ने सावन की फुहार न देखी हो उसे अनायास उस फुहार से उठती महक की लहर ताजा कर जाती है या उसकी भीगी हवाओं का स्पर्श सहला जाता है। कमली उस लहर के अनोखे जादुओं से अपरिचित रही।'२ लेखिका की राय में कमली सम्पन्न कंगाली में जा पड़ी थी। लेकिन वह अपने भीतर की कसक को बाहर की सम्पन्नता के नीचे दबा लेती है। वह रोती हुई किसी ईश्र्वर के शरण में नहीं जाती। इस तरह मधु भादुड़ी यह स्पष्ट करती है कि स्त्रियों द्वारा अपनी अस्मिता की सही खोज शिक्षा और उसके द्वारा प्राप्त जीविकोपार्जन की क्षमता से ही संभव है।
जीवन की विपरीत परिस्थितियाँ कमली को सक्षम् बनाती हैं। वह अपने पति के भाइयों को ठिकाना लगाने के लिए डेरी खोलने का निश्चय करती है। समय निकालकर वह अखबार पढ़ने लगती है। कम पैसों पर घर चलाने की क्षमता हासिल करती है। घर के बाहर खुली हवा के झोंके उसे एक नया उत्साह और ताज+गी प्रदान करते हैं। कमली पुरुष वर्चस्व के दमन और शोषण से मुक्ति का आग्रह करने लगती है। स्वावलंबन के उच्च शिखर पर पहुँचकर जब कमली निर्णय लेती है तब पुरुष मानसिकता उस पर साजिश का आरोप लगाती है। लेकिन वह हार मानने को तैयार नहीं है। असंतोष और विद्रोह की भावना कमली को राजनीतिक रूप से भी सक्रिय बनाती है। वह एक सामान्य विवाहिता और माँ के स्तर से ऊपर उठकर बुनियादी मूल्यों और वसूलों वाली नारी बन जाती है। बेटे का फिजूलखर्च इतना बढ़ जाता है कि वह खुद कमाऊ बहू का एहसास करती है। वह चाहती है कि बहू ऊँचे कुल की हो ताकि नकद में ज्यादा पैसे मिले। इस तरह शोषित होते-होते स्वयं जब वह परिवार का पालनहार बनती है तो शोषक की भाषा बोलने लगती है। यहाँ से उपन्यास की कथा एक नया मोड़ लेती है।
कमली जब ससुराल आयी थी तब उसे अपना घर समझकर सारा बोझ ढोना शुरू कर दिया था जबकि उनकी बहुएँ रेनू और वीणा ससुराल को अपना घर नहीं समझ पाई। रेनू कामकाजी औरत थी और कमली उससे घर का सारा काम करवाती थी। उसे अपनी तनख्वाह सास को सौंप देना पड़ा। पति-पत्नी के बीच जब झगड़ा या मारपीट होती तो रेनू की चीख सुनाई देती। कमली को इससे और गुस्सा आती। ‘यह रोना कैसा? इन्हीं दीवारों ने घुट-घुटकर आँसू पिए थे। तो उस चुडैल को सिसककर रोने की छूट किसने दी।'३ यानि कि शोषण का सिलसिला कभी नहीं बदला। औरत-औरत के प्रति ईर्ष्या का कारण पुरुष-ईर्ष्या ही हो सकती है।
जब रेनू ने एक बच्ची को जन्म दिया तब पहले कमली उसे देखना नहीं चाहती थी। लेकिन धीरे-धीरे माँ की ममता और स्नेह उसमें कुछ बदलाव लाया। तब तक दोनों बहुएँ सास के व्यवहार के प्रति प्रतिक्रिया करने लगीं। पोती के प्रति कमली के अपार प्रेम को देखकर रेनू अपने गुस्से को उस पर उतारने लगी। जब कमली बीमार पड़ गई तब दोनों बहुएँ उसकी सेवा से विरत हो गईं। प्रदीप की नजर तकिए के आसपास मंडरा रही थीं जहाँ कमली की आलमारी की चाबियाँ होने की संभावना थी। उसे कुछ पैसों की जरूरत थी। जब अस्पताल ले जाने के लिए कमली को उठाया जाता है तब उसकी क्षीण आवाज सुनाई दी - ‘मुझे मत उठाओ, यहीं रहने दो। उसे पता नहीं कि मुझे भी भीष्म पितामह का वरदान मिला है।''४ इतना कहकर कमली के हाथ टाँग के प्लास्टर के अंदर रखी चाबियाँ धीरे से निकलकर मुट्ठी में बंद कर दी। यह कोई दुर्बल या असहाय वाणी प्रतीत नहीं होती, न ही वह कोई बेहोशी का बड़बड़ाना है। यह शोषण की अवचेतन धारा है जो सदियों बहती आ रही है और अनन्त तक बहती चली जाएगी। यह निश्चय ही किसी शोषक या सत्ताधारी का कथन है कि उसे स्वच्छंद मरण का वरदान मिला है। चाहे उसे ‘वरदान' कहे या ‘अभिशाप'। उसे प्रारब्ध के बहाव से कभी छुटकारा नहीं मिलता। शोषण का बहाव निरन्तर बना रहेगा चाहे वह पुरुष का नारी के प्रति हो या औरत का औरत के प्रति।
सम्पूर्ण उपन्यास कमली की शोषित से शोषक बनने की कथा पर केन्द्रित है। आरम्भ में कमली एक परम्परावादी स्त्री और पत्नी की हैसियत से अपने पति के कोप और ताड़ना को निःशब्द सहती है और उसके आत्मसम्मान और इज्जत को बचाती रहती है। लेकिन इस शोषण में वह घुट-घुटकर मरती नहीं बल्कि इससे मुक्ति चाहती है। वह अपनी कर्तव्यपरायणता, मानसिक वेग और प्रेरणा के प्राबल्य से अपने परिवार का पालनकर्ता बन जाती है। इस प्रकार जब स्त्री पुरुष के दबाव से ऊपर उठती है, तब उसके व्यक्तित्व का विकास हो पाता है और वह पारिवारिक और सामाजिक जीवन की धुरी बन जाती है।
उपन्यास में स्त्री-चरित्रऔर विश्लेषण नारी-मनोविज्ञान का सहारा लेकर किया गया है। घरेलू जिम्मेदारियाँ और निरन्तर उपेक्षा उसके लिए मानसिक तनाव का कारण बन जाती हैं। इसके फलस्वरूप वह अस्वाभाविक रूप से क्रूर, हृदयहीन और विद्रोहिणी बन जाती है। इसलिए कमली के जीवन का उत्तरार्द्ध उसके पूर्वार्द्ध की प्रतिक्रिया बनता है। पुरुष के कोप और प्रताड़ना को सहने के कारण उसके मन में पुरुष, ईर्ष्या जागृत होती है जिसके फलस्वरूप वह औरत के साथ अन्याय करती है।
भारतीय विदेश सेवा में कार्यरत और प्रायः विदेश में ही रहने वाली लेखिका ने तेजी से बदलती भारतीय परिवेश और संस्कृति के यथार्थ पर पैनी नजर रखी है। अपने रचनाकर्म से उसने यह साबित भी किया है। ‘अनादि अनंत' में लेखिका ने अनादि से अनंत तक बहती जाने वाली नारी शोषण पर प्रकाश डाला है और इस शोषण से मुक्ति की कामना भी की है। राजनीतिक, सामाजिक और पारिवारिक जीवन की विसंगतियाँ उपन्यास को समकालीनता से अंतर्ग्रन्थित करती हैं।
‘अनादि अनंत' उपन्यास का कलेवर छोटा है लेकिन इसमें एक भारतीय नारी के उत्पीड़ित से उत्पीड़क बनने की लंबी कथा कही गई है। ‘कालचक्र' और ‘ज्वार' के बाद मधु भादुड़ी का यह तीसरा उपन्यास है। मूल समस्या स्त्री की है जो उपन्यास में शुरू से अंत तक बनी हुई है। नारी-लेखन मुख्यतः नारी समस्या पर ही तो केन्द्रित है। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा शादी का रहा है जो प्रायः नारी जीवन की दुर्दशा का मेरुदण्ड बनता है। क्योंकि अक्सर शादी का अर्थ होता है ‘एक दासी लाकर घर में बिठाना और उस पर मनमानी हुकूमत करना। कमली के माध्यम से मधु भादुड़ी जिस स्त्री-दुख को अनावृत्त करती है वह नारी-विमर्श का बिल्कुल ही नया संदर्भ है। एक ओर नारी का वह पतिव्रता और आदर्श रूप सामने आता है जो शोषण की चक्की में पिसती और घुटती है। तो दूसरी ओर वही शिक्षा के बल पर और युग के बदलाव के अनुरूप प्रबल और सशक्त रूप धारण करती है। स्त्री-उत्थान की बात जब भी उठाई जाती है तब पुरुष वर्ग पर लांछन लगाई जाती है। लेकिन इस उपन्यास में युग-युग से प्रताड़ित नारी ही नारी व्यक्तित्व का बदला ले रही है। अतः नारी के संदर्भ में जिन साहित्यिक मान्यताओं को आज तक स्वीकृति मिली है उन पर यह उपन्यास बड़ा आघात पहुँचाने वाला साबित होता है।
कमली की शादी बहुत ही कच्ची उम्र में एक निकम्मे, कायर, कमजोर आदमी से होती है। घर पर उसके तीन भाई और बाप थे। सास की कमी को ससुर पूरा करते थे। घर में एक अकेली औरत थी। इसलिए घर का सारा भार उसे अकेला ढोना पड़ा। पड़ोस की स्त्रियों से घुलने मिलने की इजाजत भी नहीं थी। अकेली लड़की को चौधरी परिवार के ‘भूतों' और ‘भैंसों' के बीच गुजारा करना पड़ा। खूब काम करके रात को जब वह नींद के आलस्य में डूब जाती है तब चौधरी का खून उबलता है। वह तो मर्द था और भला अपनी शारीरिक भूख को क्यों रोकता। पुरुष नपुंसक और स्वयं सामर्थ्यहीन होते हुए भी स्त्री को उपभोग्या से बढ़कर नहीं समझता। वह उनकी भावनाओं का आदर नहीं करता और अपनी पत्नी को पीटकर या बलात्कार करके अपने पराजयबोध और हीनताग्रंथि को छिपाते है। चौधरी की क्रूरता को लेखिका इस प्रकार व्यक्त करती है - ‘भैंस पालते-पालते चौधरी परिवार न जाने कैसे बन गया था। यद्यपि भैंसे अपने साथी संगियों पर बेबात प्रहार नहीं करती लेकिन चौधरी कमला पर अक्सर प्रहार करता था।''१ पति के प्रताड़नाओं के बावजूद वह हमेशा अपने मान-सम्मान को पति के मान-सम्मान के साथ जोड़कर देखती थी। कमली की असहाय हरकतें चौधरी को अपनी ताकत का सुखद एहसास प्रदान करती थीं। लेखिका ने यशपाल चौधरी के माध्यम से पुरुष के अस्तित्वहीन चरित्र को दिखाया है तो दूसरी ओर उसकी सामंती मानसिकता को। समाज में स्त्री-पुरुष असंतुलन का मूल कारण एक वर्ग द्वारा दूसरे के विरुद्ध अपनायी जाती है। इस तरह लेखिका ने उन परिस्थितियों का विश्लेषण किया है जो स्त्री को अंतर्मुखी, अमूर्त और ऋतु बना देती है।
बेटियों के अवमूल्यन की शुरुआत मायके से होती है। वे खुद लड़कियों को अवांछित मानते हैं। तीन-चार जवान बेटियों को घर पर बिठा रखने से माँ-बाप के ऊपर बोझ होता है। इसलिए उसकी शादी तय हो जाती है। नतीजा यह कि अपनी पसंद या रुचि का जिक्र वह खुद से भी नहीं कर पाती और उसके लिए अपने जीवन की पूर्व निर्धारित दिशा को स्वीकारने के अलावा कोई सवाल ही नहीं उठता। कमली एक मामूली परिवार की छः या सात बेटियों में तीसरी या चौथी थी। वह पढ़ाई में अपने सहपाठियों में सबसे होशियार लड़की थी। यही नहीं उसे घर के कामकाज या रसोई में कोई लगाव न रहकर किताबों में ज्यादा रुचि थी। लेकिन विडम्बना यह कि सत्राह वर्ष की अवस्था में वह निरीह बालिका एक क्रूर और हीन मनोग्रंथि वाले पुरुष से जुड़कर भविष्यहीन भविष्य में बंध जाती है। इसके फलस्वरूप उसके जीवन में प्रेम, समर्पण, त्याग आदि भावनाएँ मौजूद नहीं रहतीं जो दाम्पत्य जीवन का आधार होती हैं। इसी कारणवश शादी के बाद कमली तीन बच्चों की माँ बनती है। लेकिन इस अन्याय से बेखबर रह जाती है। लेखिका के शब्दों में ‘जिसकी आँखों ने सावन की फुहार न देखी हो उसे अनायास उस फुहार से उठती महक की लहर ताजा कर जाती है या उसकी भीगी हवाओं का स्पर्श सहला जाता है। कमली उस लहर के अनोखे जादुओं से अपरिचित रही।'२ लेखिका की राय में कमली सम्पन्न कंगाली में जा पड़ी थी। लेकिन वह अपने भीतर की कसक को बाहर की सम्पन्नता के नीचे दबा लेती है। वह रोती हुई किसी ईश्र्वर के शरण में नहीं जाती। इस तरह मधु भादुड़ी यह स्पष्ट करती है कि स्त्रियों द्वारा अपनी अस्मिता की सही खोज शिक्षा और उसके द्वारा प्राप्त जीविकोपार्जन की क्षमता से ही संभव है।
जीवन की विपरीत परिस्थितियाँ कमली को सक्षम् बनाती हैं। वह अपने पति के भाइयों को ठिकाना लगाने के लिए डेरी खोलने का निश्चय करती है। समय निकालकर वह अखबार पढ़ने लगती है। कम पैसों पर घर चलाने की क्षमता हासिल करती है। घर के बाहर खुली हवा के झोंके उसे एक नया उत्साह और ताज+गी प्रदान करते हैं। कमली पुरुष वर्चस्व के दमन और शोषण से मुक्ति का आग्रह करने लगती है। स्वावलंबन के उच्च शिखर पर पहुँचकर जब कमली निर्णय लेती है तब पुरुष मानसिकता उस पर साजिश का आरोप लगाती है। लेकिन वह हार मानने को तैयार नहीं है। असंतोष और विद्रोह की भावना कमली को राजनीतिक रूप से भी सक्रिय बनाती है। वह एक सामान्य विवाहिता और माँ के स्तर से ऊपर उठकर बुनियादी मूल्यों और वसूलों वाली नारी बन जाती है। बेटे का फिजूलखर्च इतना बढ़ जाता है कि वह खुद कमाऊ बहू का एहसास करती है। वह चाहती है कि बहू ऊँचे कुल की हो ताकि नकद में ज्यादा पैसे मिले। इस तरह शोषित होते-होते स्वयं जब वह परिवार का पालनहार बनती है तो शोषक की भाषा बोलने लगती है। यहाँ से उपन्यास की कथा एक नया मोड़ लेती है।
कमली जब ससुराल आयी थी तब उसे अपना घर समझकर सारा बोझ ढोना शुरू कर दिया था जबकि उनकी बहुएँ रेनू और वीणा ससुराल को अपना घर नहीं समझ पाई। रेनू कामकाजी औरत थी और कमली उससे घर का सारा काम करवाती थी। उसे अपनी तनख्वाह सास को सौंप देना पड़ा। पति-पत्नी के बीच जब झगड़ा या मारपीट होती तो रेनू की चीख सुनाई देती। कमली को इससे और गुस्सा आती। ‘यह रोना कैसा? इन्हीं दीवारों ने घुट-घुटकर आँसू पिए थे। तो उस चुडैल को सिसककर रोने की छूट किसने दी।'३ यानि कि शोषण का सिलसिला कभी नहीं बदला। औरत-औरत के प्रति ईर्ष्या का कारण पुरुष-ईर्ष्या ही हो सकती है।
जब रेनू ने एक बच्ची को जन्म दिया तब पहले कमली उसे देखना नहीं चाहती थी। लेकिन धीरे-धीरे माँ की ममता और स्नेह उसमें कुछ बदलाव लाया। तब तक दोनों बहुएँ सास के व्यवहार के प्रति प्रतिक्रिया करने लगीं। पोती के प्रति कमली के अपार प्रेम को देखकर रेनू अपने गुस्से को उस पर उतारने लगी। जब कमली बीमार पड़ गई तब दोनों बहुएँ उसकी सेवा से विरत हो गईं। प्रदीप की नजर तकिए के आसपास मंडरा रही थीं जहाँ कमली की आलमारी की चाबियाँ होने की संभावना थी। उसे कुछ पैसों की जरूरत थी। जब अस्पताल ले जाने के लिए कमली को उठाया जाता है तब उसकी क्षीण आवाज सुनाई दी - ‘मुझे मत उठाओ, यहीं रहने दो। उसे पता नहीं कि मुझे भी भीष्म पितामह का वरदान मिला है।''४ इतना कहकर कमली के हाथ टाँग के प्लास्टर के अंदर रखी चाबियाँ धीरे से निकलकर मुट्ठी में बंद कर दी। यह कोई दुर्बल या असहाय वाणी प्रतीत नहीं होती, न ही वह कोई बेहोशी का बड़बड़ाना है। यह शोषण की अवचेतन धारा है जो सदियों बहती आ रही है और अनन्त तक बहती चली जाएगी। यह निश्चय ही किसी शोषक या सत्ताधारी का कथन है कि उसे स्वच्छंद मरण का वरदान मिला है। चाहे उसे ‘वरदान' कहे या ‘अभिशाप'। उसे प्रारब्ध के बहाव से कभी छुटकारा नहीं मिलता। शोषण का बहाव निरन्तर बना रहेगा चाहे वह पुरुष का नारी के प्रति हो या औरत का औरत के प्रति।
सम्पूर्ण उपन्यास कमली की शोषित से शोषक बनने की कथा पर केन्द्रित है। आरम्भ में कमली एक परम्परावादी स्त्री और पत्नी की हैसियत से अपने पति के कोप और ताड़ना को निःशब्द सहती है और उसके आत्मसम्मान और इज्जत को बचाती रहती है। लेकिन इस शोषण में वह घुट-घुटकर मरती नहीं बल्कि इससे मुक्ति चाहती है। वह अपनी कर्तव्यपरायणता, मानसिक वेग और प्रेरणा के प्राबल्य से अपने परिवार का पालनकर्ता बन जाती है। इस प्रकार जब स्त्री पुरुष के दबाव से ऊपर उठती है, तब उसके व्यक्तित्व का विकास हो पाता है और वह पारिवारिक और सामाजिक जीवन की धुरी बन जाती है।
उपन्यास में स्त्री-चरित्रऔर विश्लेषण नारी-मनोविज्ञान का सहारा लेकर किया गया है। घरेलू जिम्मेदारियाँ और निरन्तर उपेक्षा उसके लिए मानसिक तनाव का कारण बन जाती हैं। इसके फलस्वरूप वह अस्वाभाविक रूप से क्रूर, हृदयहीन और विद्रोहिणी बन जाती है। इसलिए कमली के जीवन का उत्तरार्द्ध उसके पूर्वार्द्ध की प्रतिक्रिया बनता है। पुरुष के कोप और प्रताड़ना को सहने के कारण उसके मन में पुरुष, ईर्ष्या जागृत होती है जिसके फलस्वरूप वह औरत के साथ अन्याय करती है।
भारतीय विदेश सेवा में कार्यरत और प्रायः विदेश में ही रहने वाली लेखिका ने तेजी से बदलती भारतीय परिवेश और संस्कृति के यथार्थ पर पैनी नजर रखी है। अपने रचनाकर्म से उसने यह साबित भी किया है। ‘अनादि अनंत' में लेखिका ने अनादि से अनंत तक बहती जाने वाली नारी शोषण पर प्रकाश डाला है और इस शोषण से मुक्ति की कामना भी की है। राजनीतिक, सामाजिक और पारिवारिक जीवन की विसंगतियाँ उपन्यास को समकालीनता से अंतर्ग्रन्थित करती हैं।
Comments
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bahut hi bariki se har sthiti ko samjh kar kahani likhi gayee hai..
lekhika ne sach mein sahi ruup mein manovagyanik tarike se vishleshan karte hue kamali aur renu ko samjha hai aur chitrit kiya hai..dhnywaad