- डॉ. शशिप्रभा पाण्डेय
हिन्दी साहित्य में पिछले पचास वर्षों में अनेकानेक परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए। अनेक नए आन्दोलन नई धुरी के रूप में साहित्य की दुनिया में सम्मिलित हुए। नारीवादी विमर्श भी इन्हीं में से एक है। आज नारीवाद की नयी भाषा, नया दृष्टिकोण सर्वत्रा नज+र आ रहा है। हमारी जिस खामोशी ने हमें कैद कर रखा था वह अब तार्किकता और प्रश्नाकुलता की तरफ बढ़ रही है। सम्पूर्ण साहित्य में नारी लेखन सहजता, गंभीरता और बिना किसी अवरोध के अपनी तकलीफों, विषादों और व्यथाओं को व्यक्त कर रहा है। निश्चित ही यह बदलाव क्रांतिकारी बदलाव है।१
बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भावबोध से उत्प्रेरित साहित्य की रचना में सबसे महत्त्वपूर्ण हाथ नारी चेतना का रहा है। प्रश्न उठता है कि यह नारी चेतना आख़िर है क्या? चेतना का सम्बन्ध निजी जीवनदृष्टि से होता है जिसके द्वारा इतिहास, संस्कृति और मानवीय सम्बन्धों को पुनः विश्लेषित किया जाता है। कह सकते हैं कि जो दृष्टि नारी की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक दृष्टि के तिलिस्म को तोड़े वह नारी चेतना है। यह चेतना स्त्री पुरुष दोनों में हो सकती है। इसका संबंध वर्ग, वर्ण, धर्म या लिंग से नहीं, दृष्टि से है जो अनुभूति की ऐतिहासिक, सामाजिक और वैयक्तिक यात्रा में से विकसित होती है। मृदुला गर्ग के अनुसार अंग्रेजी के ‘फेमिनिज्म' शब्द का सार्थक अनुवाद नारी चेतना ही है। ‘‘हर वह स्त्री पुरुष फेमिनिस्ट माना जाना चाहिए जो नारी चेतना या दृष्टि से सम्पन्न हो। चूँकि हम दृष्टि या चेतना की बात कर रहे हैं, लिंग की नहीं इसलिए हमें यह मानने से कतई एतराज नहीं है कि नारी चेतना से सम्पन्न साहित्य स्त्री पुरुष दोनों रच सकते हैं।''२ ‘‘मैं तत्काल तीन ऐसी फेमिनिस्ट कहानियों का जिक्र कर सकती हूँ जो मर्दों की लिखी हुई हैं। अरसे से मैं रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ‘स्त्रीरेर पत्र' का उदाहरण देती आयी हूँ। यह हिन्दी की कहानी नहीं है पर भारतीय साहित्य की अमूल्य फेमिनिस्ट कहानी जरूर है और यह उस समय लिखी गई थी जब पश्चिम में भी कथा-साहित्य में नारी चेतना का प्रवेश नहीं हुआ था। वैसे भी ठाकुर की कहानियों के अनुवाद इस तरह हमारे मानस के अंग बन चुके हैं कि उनका प्रभाव हिन्दी की सम्पूर्ण साहित्यिक चेतना पर पड़ता रहा है। इस कहानी में एक जमींदार की पत्नी, पति से इसलिए दूर रहने चली जाती है क्योंकि घर में पलने वाली गरीब रिश्तेदार लड़की से उसका निर्मम आचरण उसे ग्राह्य नहीं है। उस लड़की को वह बेटी बनाकर साथ ले जाती है। निहायत गैर नुमाइशी ढंग से वह, यह सब, अपने पति को लिखे पत्रा में जतलाती है। यही कहानी का कथानक है। यह विद्रोह का उत्कर्ष है और नारी चेतना का ज्वलंत उदाहरण है।३
हिन्दी में राजेन्द्र यादव की ‘एक कटी हुई कहानी' तथा बृजेश्वर मदान की ‘जूही' फेमिनिस्ट कहानियों की बढ़िया मिसालें हैं। यही तो साहित्य सृजन का करिश्मा है कि मर्द से मर्द लेखक भी जाने-अनजाने शुद्ध नारीवादी कहानी लिख सकता है।
रचना अनुभूति और भावबोध की उर्वर भूमि से जन्म लेती है तर्क और विचार की बंजर धरती से नहीं। नारी लेखन को यदि हम विशेषण के रूप में ग्रहण करें तो निश्चय ही अस्तित्व में आने से पहले वह (लेखन) विचार में बंधा होगा और विचार चेतना से अनुस्य्त हुआ होगा। चेतना एक ऐसी मूल्यपरक इकाई है जो परिवेशगत् दबावों के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। चेतना मात्र ऐतिहासिक अथवा समाज शास्त्रीय खोज तक सीमित नहीं रहती वरन् मानव समूहों के साथ परस्पर संबंधों के स्वरूप और समीकरणों इतिहास और भविष्य की पहचान भी कराती है।
नारी लेखन के मूल में नारी चेतना का यही छोटा-सा बीज है इसलिए नारी लेखन एक सामाजिक प्राणी की हैसियत से स्त्री के मानवीय अधिकारों की संघर्षपूर्ण मांग करने वाला साहित्य है। मानवीय अधिकारों की संघर्षपूर्ण मांग करने वाला साहित्य है। लेखक कोई भी हो सकता है स्त्री अथवा पुरुष। महिला केन्द्रित कर रचना ‘नारी लेखन' हो यह आवश्यक नहीं है। नारी-लेखन चूँकि एक नई नजर से आपको पहचानने की चेतना का नाम है इसलिए वह किसी विशेष के पक्ष अथवा विपक्ष में खड़े होकर बयानबाजी से कतराता है। बेशक, चेतना आक्रोश को जन्म देती है लेकिन हर आक्रोश चेतना का वाहक नहीं होता है। हुक्मरानों द्वारा घोषित और प्रमाणित अधूरेपन के खिलाफ सार्थक लड़ाई लड़कर अपने को सम्पूर्णता में पाने का जज्बा केवल नारी-साहित्यकारों के पास ही है। सामाजिक सच्चाइयों और समाज शास्त्रीय आँकड़ों को जब वे निर्विकार दृष्टि से देखती हैं तो रचना अपने आप ही सृजनात्मक ऊँचाइयों पर पहुँच जाती है।
सदियों से उत्पीड़ित, अपराधी मानी जाने वाली जनजातियों के शोषण की अंतहीन कथा और राजनीति में सक्रिय भागीदारी की स्वाभाविक महत्त्वाकांक्षा का माइक्रोस्कोपिक ब्यौरा जानना हो तो मैत्रेयी पुष्पा की ‘अल्मा कबूतरी' पढ़ना पड़ेगा। बावरी मस्जिद विध्वंस की प्रतिक्रिया स्वरूप इस्लामी देशों में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर ढाये जाने वाले जुल्मों का अतिप्रमाणिक विवरण जानने के लिए तस्लीमा नसरीन का उपन्यास ‘लज्जा' से बेहतर विकल्प दूसरा नहीं हो सकता।
ऐसे सार्थक, बहुआयामी, सामाजिक सरोकारों से पूर्ण, ज्वलंत प्रश्नों से जुड़े ‘नारी लेखन' को जब हिन्दी आलोचना मुख्यधारा से अलग कर हाशिये पर डाल देती है तो दुख होना स्वाभाविक ही है। दुख तब भी होता है जब कोई पुरुष लेखक किसी महिला की मानवीय अस्मिता के लिए संवेदित, उद्वेलित अथवा आन्दोलित नहीं होता।
हिन्दी में ‘नारी लेखन' को लेकर दो अलग-अलग विचारधारायें परिलक्षित होती हैं। आलोचकों का एक वर्ग महिला लेखन से पूर्णतः असंतुष्ट है तो आलोचकों का दूसरा वर्ग नारी लेखन, उसके भविष्य, उसकी दशा और दिशा को लेकर आस्थावान भी है। बहुत से आलोचक आज भी नारी लेखन को ‘स्त्रौण लेखन' कहकर उसे अधिक महत्त्व नहीं देते हैं। बकौल डॉ. नामवर सिंह के ‘‘महिला लेखन में सम्पूर्ण समाज की अभिव्यक्ति नहीं होती। दरअसल ऐसा लेखन छोटे समुदायों के हितों में रखकर किया जाता है। ऐसा साहित्य अर्द्ध-साहित्य को प्रतिबिम्बित करता है। यह लेखन तात्कालिक प्रतिक्रिया का परिणाम है। जबकि साहित्य का मूल स्वरूप मानव मुक्ति प्रदान करने वाला है। खण्ड-खण्ड में मुक्ति साहित्य का लक्ष्य नहीं है।''४
बेशक खण्ड-खण्ड में मुक्ति साहित्य का लक्ष्य नहीं होता क्योंकि साहित्य का मूल स्वरूप मानव मुक्ति प्रदान करने वाला है लेकिन ऐसी गर्वोक्ति के बाद क्या हम एक भी ऐसी रचना का नाम गिना सकते हैं जहाँ परम्परागत् सवर्ण व्यवस्था की रहनुमाई में एकलव्यों के अंगूठे न काटे गये हों, द्रौपदियों का चीहरण न हुआ हो, शूर्पणखाओं को महज विवाह प्रस्ताव रख देने के संगीन जुर्म में नाकों से हाथ न धोना पड़ा हो। अगर अपने-अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले ये चारों नाम भी मानव ही हैं तो यकीनन आज खण्ड-खण्ड में मुक्ति ही साहित्य का लक्ष्य बन गया है क्योंकि सवर्ण मानव और अवर्ण मानव की मनुष्यता में आज भी गहरा अंतर विद्यमान है।
पिछले चार-पाँच दशकों के नारी लेखन ने कुछ तीखे, ज्वलंत प्रश्नों, अंतर्विरोधों और विरोधाभाषों का अपने लेखन
के माध्यम से प्रस्तुत किया है जिससे नारी लेखन की एक अलग पहचान बनने लगी है। मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, गगन गिल, महाश्वेता देवी की रचनाओं में नारी के अधिकारों के प्रति सजगता दिखाई देती है। इनका लेखन आक्रामक, तीखा और पितृक समाज की कड़ी आलोचना से परिपूर्ण है। यह बदलाव इसी दशक में सर्वाधिक दृष्टिगत् हुआ। पिछले दशकों का नारी लेखन ऐसा नहीं था। पूर्व में होने वाले नारी लेखन में स्त्री की परम्परागत् छवि ही उभरकर सामने आई। उस लेखन में मानवीय संबंधों का निरुपण तो था किन्तु उसके पीछे जो राजनीतिक दृष्टि, विचारधारा तथा पितृसत्तात्मक नैतिक मूल्य काम करते थे उस पर विचार नहीं होता था हालांकि स्त्रीत्ववादी लेखिकाओं का यह दृढ़ विश्वास था कि कोई भी साहित्यिक कृति इन पितृसत्तात्मक मूल्यों, धर्म, कानून एवं नैतिकताओं से मुक्त, निरपेक्ष एवं तटस्थ नहीं होती। उनमें निहित मानवीय संबंधों में पितृसत्तात्मक सामाजिक मर्यादायें ही काम करती हैं। यहीं से नारी लेखन का एक नया स्वरूप उभरकर सामने आता है।
चौथे दशक में महादेवी वर्मा ने ‘श्रृंखला की कड़ियाँ' लिखकर सिद्ध कर दिया कि वे नारी के संतप्त और अभिशप्त जीवन के प्रति कितनी चिंतित, प्रतिबद्ध और ईमानदार थीं। भारतीय नारी की समस्या को विवेचित करने वाले इस कार्य को आगे बढ़ाने की हिम्मत किसी भी नारी लेखिका ने नहीं की। गगन गिल स्वीकार करती हैं कि ‘‘आजादी के पहले और आज के महिला लेखन के तेवर में निश्चित ही बड़ा फर्क है। आजादी के पहले की सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, हर सामाजिक, रचनात्मक आन्दोलन में बराबरी के स्तर पर शामिल रहीं। अपने समय के सभी जोखिम उठाये। अपने समकालीन रचनाकारों के प्रति उनका सौहार्द जिसका विवरण हम उनके भावपूर्ण संस्मरणों में पढ़ते हैं, एक स्वस्थ परम्परा में ही सम्भव हो सका, जो दुर्भाग्य से आज नहीं है। आज हम दोमुँहे मापदण्डों वाले समाज में रहते हैं। चिड़ियों के साथ तो चिड़िया उड़ सकती है, लेकिन चिड़ीमारों के साथ?''५
इस प्रकार के दोहरे मापदण्डों वाले समाज में नारी लेखन की अपनी चुनौतियाँ हैं। क्या कारण है कि नारियाँ आज संस्मरण तथा आत्मकथाएँ नहीं लिखतीं? क्या आज नारी लेखिकाओं और पुरुष लेखकों के बीच उस प्रकार के सौहार्दपूर्ण, आत्मीयता पूर्ण संबंध हैं जो महादेवी वर्मा जी के ‘पथ के साथी' में मिलते हैं? जब तक ऐसे अन्तर्विरोध एवं विरोधाभास नहीं मिटते, लेखन में आत्मीयता एवं मानवीयता नहीं आ सकती। अधिकतर नारी लेखन में उस नारी दृष्टि का अभाव है जो आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। ‘‘दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि हमारे यहाँ महिला लेखिकाओं ने स्वयं भी बड़े जोखिम नहीं उठाये, न बीहड़ यात्रायें की, न अनजाने अनुभवों के समक्ष प्रस्तुत हुईं न अपनी विशाल साहित्यिक संपदा का ही ठीक से अध्ययन किया। क्या कारण है कि आजादी के बाद एक भी पुरुष या महिला महाश्वेता देवी जैसी नहीं हुई जो आदिवासियों की कथा लिख सके? इरावती कर्वे जैसी विदुषी नहीं हुई जो एक नया ऐतिहासिक, पौराणिक चिन्तन दे सके? हमारी अधिकांश महिलाएँ ‘काउच' लेखन करती रहीं।''६ जब तक महिलाएँ लेखन की दुनिया के लिए संघर्ष नहीं करेंगी तब तक साहित्य में स्त्री दृष्टि या स्त्री चेतना का विकास संभव नहीं है। उनके लेखन में धार चाहिए, तीखापन एवं प्रतिरोध करने का साहस चाहिए यदि नारी समाज की सुप्त चेतना को जागृत करना है।
प्रायः आलोचक कहा करते हैं कि स्त्री लेखन में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों अथवा परिवार के बिखराव की ही अभिव्यक्ति होती है वह भी अत्यन्त सीमित तथा सतही रूपों में। प्रश्न यह नहीं है कि स्त्री लेखन घर, परिवार, बच्चे, स्त्री-पुरुष
सम्बन्धों के सीमित दायरे में बंटा हुआ है, बल्कि प्रश्न तो यह है कि इन सम्बन्धों का निरुपण वहाँ किस रूप में हो रहा है? उसके पीछे कौन-सी नारी दृष्टि काम कर रही है? वह घर, परिवार, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के पीछे सदियों से काम कर रही पितृक अनुशासिकी, तानाशाही, अनुशासन को किस प्रकार देख रही है, किस प्रकार दिखा रही है? परिवार की स्त्री के लिए एक अपना ही तानाशाही अनुशासन है, पितृक व्यवस्था है। यदि नारी लेखन में ऐसा संघर्ष है तो वह उस लेखन की ताकत समझा जाना चाहिए, सीमित दायरा नहीं क्योंकि यही उसका अपना यथार्थ है जो किसी पुरुष का यथार्थ नहीं हो सकता। इस सम्बन्ध में महादेवी जी ने ठीक ही कहा है - ‘‘अधिकार के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी भी होना चाहिए अर्थात् यदि स्त्रियाँ अपने अधिकारों, अपने स्वामित्व के अधिकारों से वंचित हैं तो क्या उनमें अधिकारों के प्रति चेतना भी है कि वे अधिकार उन्हें कैसे मिलेंगे, क्यों मिलेंगे और यदि मिलेंगे भी तो क्या भिक्षावृत्ति से।''७ दुनिया के इतिहास में जहाँ कभी भी स्त्री के स्वामित्व के अधिकारों की बात उठी है तो वह एक प्रखर स्त्री चेतना के द्वारा ही। उन स्त्रियों में अपने अधिकारों के प्रति जबर्दस्त चेतना थी इसलिए उन्होंने उन तमाम बराबरी के अधिकारों को भिक्षावृत्ति से न प्राप्त कर संघर्ष करके ही अर्जित किया। इसके लिए उन्हें बहुत बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी। महादेवी जी ने ठीक ही कहा है - ‘‘हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुत्व चाहिए, न किसी पर प्रभुता। केवल अपना वह स्थान, वह स्वत्व चाहिए जिसका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकेंगी।''८
जब तक नारी-लेखन अन्याय, अत्याचार का प्रतिरोध नहीं करता, नारी की सुरक्षा के लिए संघर्ष नहीं करता तब तक वह यथास्थिति बाद का पक्षधर ही होगा। नारी लेखन का सबसे अहम् दायित्व है नारी पाठिकाओं को झकझोरना, उनके परम्परित जर्जरित संस्कारों को तोड़ना जिनमें वे बुरी तरह जकड़ी हुई है। इसके बिना स्त्री समाज की सोच को नहीं बदला जा सकता। मेहरुन्निसा परवेज स्वीकारती हैं कि नारी के मौन को शब्द नारी ही दे सकती है। उसके दुख को नारी ही समझ सकती है। ‘‘महिला लेखन से महिलाओं को पूर्ण रूप से ‘फीडबैक' मिलता है। नारी लेखन नारी मन की ही अभिव्यक्ति है। नारी ने नारी की गूँगी पीड़ा को लिखा, उजागर किया, उसके मौन को शब्द दिये। पुरुष लेखक के लिए नारी रूमानी ख्याल, यादों की मूरत थी। बेशक नारी लेखन ने पुरुष लेखकों के हाथ से उसकी सुन्दर, बेजबान गुड़िया छीन ली है और रोती, चीखती, बिलखती, कलपती नारी को सामने ला खड़ा किया है।''९
नारी लेखन यदि स्त्री समाज को सही दिशा दे रहा है, उसकी चेतना के विकास में सहायक सिद्ध हो रहा है तथा उसके अंदर स्वत्व के प्रति जागरूकता उत्पन्न कर रहा है तो बहुत अच्छा है क्योंकि अभी तक पुरुष लेखन ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। महिला लेखन को अधिकतर समीक्षक मुख्यधारा के लेखन का एक किंचित् दरिद्र बिरादर ही समझते हैं।१० इस वजह से इस क्षेत्र में वह बेवजह अपनी बुद्धि और साहित्यिक समझ का विस्तार करने की बजाए रचना को ही एक सीमित साँचे में फिट होने लायक आकार में बरतना बूझना चाहते हैं। ऐसी बात नहीं है कि नारी लेखिकाओं की रचनाओं में नये संदर्भ नई समस्यायें या युग की टकराहटों की ध्वनि नहीं है बल्कि असल त्रासदी यह है कि समीक्षा के पास रचना में ‘नये' को पकड़ पाने और समझाने योग्य भाषा का सही समाकलन अक्सर नहीं निकलता और नये संदर्भों को जाँचने के मानदंड भी उसके पास प्रायः नहीं है। मृणाल पाण्डे का मानना है कि हमारे ज्यादातर समीक्षकों में नारीवाद की जो ठलुआ, रसहीन, संकीर्ण और अधकचरी समझ व्याप्त हैं, वह पूर्ववर्ती श्रृंगारिक रूझान के सिक्के का ही दूसरा पहलू है। इसके चलते महिला लेखन की पड़ताल और स्थापित मानदण्ड इतने रूढ़िवादी ढंग से इस्तेमाल हो रहे हैं कि समीक्षा के अनुशासन को मानकर चलने की इच्छुक अधिकसंख्य लेखिकाओं की बौद्धिक बाढ़ मारी गई है, पुरस्कृत वे भले ही हुई हों।११
भारतीय स्त्रियों की आन्तरिक और बाहरी दुनिया में पिछले पचास वर्षों में जबरदस्त बदलाव आये हैं। अलका सरावगी या तेजी ग्रोवर, गगन गिल, कात्यायनी, गीतांजलि श्री की कृतियाँ स्त्री और उससे जुड़े संदर्भों को लेकर हमारी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष चेतना, हमारे सोच, हमारी कल्पना पर कई तरह से दबाव डालती हैं जिससे स्थूल शारीरिक सरोकार या चिन्ताएँ, व्यंग्य, सृजनात्मक असंतोष एवं विरोधाभास उतनी ही मात्रा में रहते हैं जितने कि हमारे जीवन में। खुद अपने आप और अपने युग से दोहरे संलाप की संभावना के चलते कई सशक्त महिला लेखन से एक प्रकार की अंतर्ध्वनि उठती हुई लगती है - ‘‘कोई नहीं जानता कि अंदर के पानियों में जो सपना कांपता है, कब असलियत का रूप लेगा।''१२ यह अंतर्ध्वनि लेखन की गहराई के साथ पाठक से भी धैर्यपूर्ण वयस्कता की मांग करती है।
आज स्त्रियाँ देख ही नहीं सप्रमाण लिख भी रही हैं कि उनकी राय में पुरुष क्या देख रहा है? वह यह भी देख और लिख रही हैं कि पुरुषों में वे खुद क्या-क्या देख रही हैं? या देखती रही हैं? फलतः रचना स्त्री की भाषा और उसके द्वारा जिया गया इतिहास एवं समय अपनी पारम्परिक चाल छोड़कर टेढ़ी एवं कठिन राह पकड़ेगी ही। आज का नारी लेखन पुरुषार्थवादी या पिटी पिटाई समीक्षा का निरीह अनुगामी नहीं रहा है वह हर नये और परती जमीन तोड़ने वाले लेखन जैसा आक्रामक और सतर्क है। क्या कृष्णा सोबती का ‘डार से बिछुड़ी', ‘ जिन्दगी नामा', ‘मित्रो मरजानी', ‘ए लड़की' मन्नू भंडारी के ‘महाभोज' जैसी नारीवादी लेखन ने नारी के दुख दर्द, उसके अभिशाप, संताप, द्वन्द्वों और तनावों, उसकी गूँगी पीड़ा के मौन को वाणी नहीं दी। ऐसे लेखन के केन्द्र में नारी की भयावह समस्यायें हैं, पितृ सत्तात्मक मर्यादाओं की तीखी आलोचना है जिसने स्त्री समाज का खुला दमन किया है। कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, चित्रा मुद्गल, महाश्वेता देवी, नासिरा शर्मा, मेहरुन्निसा परवेज जैसी लेखिकाओं के लेखन में नारी मुक्ति के लिए जिस चेतना का विकास हो रहा है वह नारी समाज के लिए रामबाण जैसा है। पत्रा-पत्रिाकाओं में प्रकाशित पाठिकाओं की प्रतिक्रिया पढ़ने से पता लगता है कि नारी की चेतना में अपने अधिकारों, स्वत्व, अस्तित्व तथा अस्मिता के बारे में तेजी से जागरूकता बढ़ी है। जैसे- जैसे नारी लेखन रचनात्मक और आलोचनात्मक स्तर पर नारियों के लिए जबर्दस्त चेतना लगाने का काम करेगा उसी अनुरूप स्त्री की दासता से मुक्ति हो सकेगी। नारी-लेखन यदि तीसरी दुनिया की शोषित, पीड़ित, दलित स्त्रियों के लिए सोचेगा उनका लेखन पुरुष लेखन से दो कदम आगे का लेखन सिद्ध होगा। जिस दिन पूर्वाग्रहों एवं दुराग्रहों से मुक्त होकर नारी लेखन स्वयं अपनी अस्मिता पर नाज करने लगेगा उस दिन कोई भी आलोचक अथवा आलोचना नारी-लेखन का बाल भी बाँका न कर सकेगा।
संदर्भ -
१. कोण्डेपुडी निर्मला, आपका जबाव क्या है?, पृ. ९९
२. आधुनिक हिन्दी कहानी : नारी चेतना, मर्द आलोचना - मृदुला गर्ग, पृ. ३४, हंस, मई १९९३।
३. वही, पृ. ३४
४. अमर उजाला, १२ दिसम्बर १९९९।
५. गगन गिल, इण्डिया टुडे, साहित्य वार्षिकी १९९६, पृ. २०
६. वही, पृ. २०
७. महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कडियाँ, अपनी बात, भूमिका से पृ. २३
८. वही, पृ. २३
९. मेहरुन्निसा परवेज, साहित्य वार्षिकी, पृ. २७
१०. अन्दर से पानियों का सपना, पृ. ६९, हंस, मार्च २००१, मृणाल पाण्डे
११. वही, पृ. ७०
१२. जया जादवानी का वक्तव्य : हंस
हिन्दी साहित्य में पिछले पचास वर्षों में अनेकानेक परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए। अनेक नए आन्दोलन नई धुरी के रूप में साहित्य की दुनिया में सम्मिलित हुए। नारीवादी विमर्श भी इन्हीं में से एक है। आज नारीवाद की नयी भाषा, नया दृष्टिकोण सर्वत्रा नज+र आ रहा है। हमारी जिस खामोशी ने हमें कैद कर रखा था वह अब तार्किकता और प्रश्नाकुलता की तरफ बढ़ रही है। सम्पूर्ण साहित्य में नारी लेखन सहजता, गंभीरता और बिना किसी अवरोध के अपनी तकलीफों, विषादों और व्यथाओं को व्यक्त कर रहा है। निश्चित ही यह बदलाव क्रांतिकारी बदलाव है।१
बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भावबोध से उत्प्रेरित साहित्य की रचना में सबसे महत्त्वपूर्ण हाथ नारी चेतना का रहा है। प्रश्न उठता है कि यह नारी चेतना आख़िर है क्या? चेतना का सम्बन्ध निजी जीवनदृष्टि से होता है जिसके द्वारा इतिहास, संस्कृति और मानवीय सम्बन्धों को पुनः विश्लेषित किया जाता है। कह सकते हैं कि जो दृष्टि नारी की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक दृष्टि के तिलिस्म को तोड़े वह नारी चेतना है। यह चेतना स्त्री पुरुष दोनों में हो सकती है। इसका संबंध वर्ग, वर्ण, धर्म या लिंग से नहीं, दृष्टि से है जो अनुभूति की ऐतिहासिक, सामाजिक और वैयक्तिक यात्रा में से विकसित होती है। मृदुला गर्ग के अनुसार अंग्रेजी के ‘फेमिनिज्म' शब्द का सार्थक अनुवाद नारी चेतना ही है। ‘‘हर वह स्त्री पुरुष फेमिनिस्ट माना जाना चाहिए जो नारी चेतना या दृष्टि से सम्पन्न हो। चूँकि हम दृष्टि या चेतना की बात कर रहे हैं, लिंग की नहीं इसलिए हमें यह मानने से कतई एतराज नहीं है कि नारी चेतना से सम्पन्न साहित्य स्त्री पुरुष दोनों रच सकते हैं।''२ ‘‘मैं तत्काल तीन ऐसी फेमिनिस्ट कहानियों का जिक्र कर सकती हूँ जो मर्दों की लिखी हुई हैं। अरसे से मैं रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ‘स्त्रीरेर पत्र' का उदाहरण देती आयी हूँ। यह हिन्दी की कहानी नहीं है पर भारतीय साहित्य की अमूल्य फेमिनिस्ट कहानी जरूर है और यह उस समय लिखी गई थी जब पश्चिम में भी कथा-साहित्य में नारी चेतना का प्रवेश नहीं हुआ था। वैसे भी ठाकुर की कहानियों के अनुवाद इस तरह हमारे मानस के अंग बन चुके हैं कि उनका प्रभाव हिन्दी की सम्पूर्ण साहित्यिक चेतना पर पड़ता रहा है। इस कहानी में एक जमींदार की पत्नी, पति से इसलिए दूर रहने चली जाती है क्योंकि घर में पलने वाली गरीब रिश्तेदार लड़की से उसका निर्मम आचरण उसे ग्राह्य नहीं है। उस लड़की को वह बेटी बनाकर साथ ले जाती है। निहायत गैर नुमाइशी ढंग से वह, यह सब, अपने पति को लिखे पत्रा में जतलाती है। यही कहानी का कथानक है। यह विद्रोह का उत्कर्ष है और नारी चेतना का ज्वलंत उदाहरण है।३
हिन्दी में राजेन्द्र यादव की ‘एक कटी हुई कहानी' तथा बृजेश्वर मदान की ‘जूही' फेमिनिस्ट कहानियों की बढ़िया मिसालें हैं। यही तो साहित्य सृजन का करिश्मा है कि मर्द से मर्द लेखक भी जाने-अनजाने शुद्ध नारीवादी कहानी लिख सकता है।
रचना अनुभूति और भावबोध की उर्वर भूमि से जन्म लेती है तर्क और विचार की बंजर धरती से नहीं। नारी लेखन को यदि हम विशेषण के रूप में ग्रहण करें तो निश्चय ही अस्तित्व में आने से पहले वह (लेखन) विचार में बंधा होगा और विचार चेतना से अनुस्य्त हुआ होगा। चेतना एक ऐसी मूल्यपरक इकाई है जो परिवेशगत् दबावों के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। चेतना मात्र ऐतिहासिक अथवा समाज शास्त्रीय खोज तक सीमित नहीं रहती वरन् मानव समूहों के साथ परस्पर संबंधों के स्वरूप और समीकरणों इतिहास और भविष्य की पहचान भी कराती है।
नारी लेखन के मूल में नारी चेतना का यही छोटा-सा बीज है इसलिए नारी लेखन एक सामाजिक प्राणी की हैसियत से स्त्री के मानवीय अधिकारों की संघर्षपूर्ण मांग करने वाला साहित्य है। मानवीय अधिकारों की संघर्षपूर्ण मांग करने वाला साहित्य है। लेखक कोई भी हो सकता है स्त्री अथवा पुरुष। महिला केन्द्रित कर रचना ‘नारी लेखन' हो यह आवश्यक नहीं है। नारी-लेखन चूँकि एक नई नजर से आपको पहचानने की चेतना का नाम है इसलिए वह किसी विशेष के पक्ष अथवा विपक्ष में खड़े होकर बयानबाजी से कतराता है। बेशक, चेतना आक्रोश को जन्म देती है लेकिन हर आक्रोश चेतना का वाहक नहीं होता है। हुक्मरानों द्वारा घोषित और प्रमाणित अधूरेपन के खिलाफ सार्थक लड़ाई लड़कर अपने को सम्पूर्णता में पाने का जज्बा केवल नारी-साहित्यकारों के पास ही है। सामाजिक सच्चाइयों और समाज शास्त्रीय आँकड़ों को जब वे निर्विकार दृष्टि से देखती हैं तो रचना अपने आप ही सृजनात्मक ऊँचाइयों पर पहुँच जाती है।
सदियों से उत्पीड़ित, अपराधी मानी जाने वाली जनजातियों के शोषण की अंतहीन कथा और राजनीति में सक्रिय भागीदारी की स्वाभाविक महत्त्वाकांक्षा का माइक्रोस्कोपिक ब्यौरा जानना हो तो मैत्रेयी पुष्पा की ‘अल्मा कबूतरी' पढ़ना पड़ेगा। बावरी मस्जिद विध्वंस की प्रतिक्रिया स्वरूप इस्लामी देशों में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर ढाये जाने वाले जुल्मों का अतिप्रमाणिक विवरण जानने के लिए तस्लीमा नसरीन का उपन्यास ‘लज्जा' से बेहतर विकल्प दूसरा नहीं हो सकता।
ऐसे सार्थक, बहुआयामी, सामाजिक सरोकारों से पूर्ण, ज्वलंत प्रश्नों से जुड़े ‘नारी लेखन' को जब हिन्दी आलोचना मुख्यधारा से अलग कर हाशिये पर डाल देती है तो दुख होना स्वाभाविक ही है। दुख तब भी होता है जब कोई पुरुष लेखक किसी महिला की मानवीय अस्मिता के लिए संवेदित, उद्वेलित अथवा आन्दोलित नहीं होता।
हिन्दी में ‘नारी लेखन' को लेकर दो अलग-अलग विचारधारायें परिलक्षित होती हैं। आलोचकों का एक वर्ग महिला लेखन से पूर्णतः असंतुष्ट है तो आलोचकों का दूसरा वर्ग नारी लेखन, उसके भविष्य, उसकी दशा और दिशा को लेकर आस्थावान भी है। बहुत से आलोचक आज भी नारी लेखन को ‘स्त्रौण लेखन' कहकर उसे अधिक महत्त्व नहीं देते हैं। बकौल डॉ. नामवर सिंह के ‘‘महिला लेखन में सम्पूर्ण समाज की अभिव्यक्ति नहीं होती। दरअसल ऐसा लेखन छोटे समुदायों के हितों में रखकर किया जाता है। ऐसा साहित्य अर्द्ध-साहित्य को प्रतिबिम्बित करता है। यह लेखन तात्कालिक प्रतिक्रिया का परिणाम है। जबकि साहित्य का मूल स्वरूप मानव मुक्ति प्रदान करने वाला है। खण्ड-खण्ड में मुक्ति साहित्य का लक्ष्य नहीं है।''४
बेशक खण्ड-खण्ड में मुक्ति साहित्य का लक्ष्य नहीं होता क्योंकि साहित्य का मूल स्वरूप मानव मुक्ति प्रदान करने वाला है लेकिन ऐसी गर्वोक्ति के बाद क्या हम एक भी ऐसी रचना का नाम गिना सकते हैं जहाँ परम्परागत् सवर्ण व्यवस्था की रहनुमाई में एकलव्यों के अंगूठे न काटे गये हों, द्रौपदियों का चीहरण न हुआ हो, शूर्पणखाओं को महज विवाह प्रस्ताव रख देने के संगीन जुर्म में नाकों से हाथ न धोना पड़ा हो। अगर अपने-अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले ये चारों नाम भी मानव ही हैं तो यकीनन आज खण्ड-खण्ड में मुक्ति ही साहित्य का लक्ष्य बन गया है क्योंकि सवर्ण मानव और अवर्ण मानव की मनुष्यता में आज भी गहरा अंतर विद्यमान है।
पिछले चार-पाँच दशकों के नारी लेखन ने कुछ तीखे, ज्वलंत प्रश्नों, अंतर्विरोधों और विरोधाभाषों का अपने लेखन
के माध्यम से प्रस्तुत किया है जिससे नारी लेखन की एक अलग पहचान बनने लगी है। मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, गगन गिल, महाश्वेता देवी की रचनाओं में नारी के अधिकारों के प्रति सजगता दिखाई देती है। इनका लेखन आक्रामक, तीखा और पितृक समाज की कड़ी आलोचना से परिपूर्ण है। यह बदलाव इसी दशक में सर्वाधिक दृष्टिगत् हुआ। पिछले दशकों का नारी लेखन ऐसा नहीं था। पूर्व में होने वाले नारी लेखन में स्त्री की परम्परागत् छवि ही उभरकर सामने आई। उस लेखन में मानवीय संबंधों का निरुपण तो था किन्तु उसके पीछे जो राजनीतिक दृष्टि, विचारधारा तथा पितृसत्तात्मक नैतिक मूल्य काम करते थे उस पर विचार नहीं होता था हालांकि स्त्रीत्ववादी लेखिकाओं का यह दृढ़ विश्वास था कि कोई भी साहित्यिक कृति इन पितृसत्तात्मक मूल्यों, धर्म, कानून एवं नैतिकताओं से मुक्त, निरपेक्ष एवं तटस्थ नहीं होती। उनमें निहित मानवीय संबंधों में पितृसत्तात्मक सामाजिक मर्यादायें ही काम करती हैं। यहीं से नारी लेखन का एक नया स्वरूप उभरकर सामने आता है।
चौथे दशक में महादेवी वर्मा ने ‘श्रृंखला की कड़ियाँ' लिखकर सिद्ध कर दिया कि वे नारी के संतप्त और अभिशप्त जीवन के प्रति कितनी चिंतित, प्रतिबद्ध और ईमानदार थीं। भारतीय नारी की समस्या को विवेचित करने वाले इस कार्य को आगे बढ़ाने की हिम्मत किसी भी नारी लेखिका ने नहीं की। गगन गिल स्वीकार करती हैं कि ‘‘आजादी के पहले और आज के महिला लेखन के तेवर में निश्चित ही बड़ा फर्क है। आजादी के पहले की सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, हर सामाजिक, रचनात्मक आन्दोलन में बराबरी के स्तर पर शामिल रहीं। अपने समय के सभी जोखिम उठाये। अपने समकालीन रचनाकारों के प्रति उनका सौहार्द जिसका विवरण हम उनके भावपूर्ण संस्मरणों में पढ़ते हैं, एक स्वस्थ परम्परा में ही सम्भव हो सका, जो दुर्भाग्य से आज नहीं है। आज हम दोमुँहे मापदण्डों वाले समाज में रहते हैं। चिड़ियों के साथ तो चिड़िया उड़ सकती है, लेकिन चिड़ीमारों के साथ?''५
इस प्रकार के दोहरे मापदण्डों वाले समाज में नारी लेखन की अपनी चुनौतियाँ हैं। क्या कारण है कि नारियाँ आज संस्मरण तथा आत्मकथाएँ नहीं लिखतीं? क्या आज नारी लेखिकाओं और पुरुष लेखकों के बीच उस प्रकार के सौहार्दपूर्ण, आत्मीयता पूर्ण संबंध हैं जो महादेवी वर्मा जी के ‘पथ के साथी' में मिलते हैं? जब तक ऐसे अन्तर्विरोध एवं विरोधाभास नहीं मिटते, लेखन में आत्मीयता एवं मानवीयता नहीं आ सकती। अधिकतर नारी लेखन में उस नारी दृष्टि का अभाव है जो आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। ‘‘दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि हमारे यहाँ महिला लेखिकाओं ने स्वयं भी बड़े जोखिम नहीं उठाये, न बीहड़ यात्रायें की, न अनजाने अनुभवों के समक्ष प्रस्तुत हुईं न अपनी विशाल साहित्यिक संपदा का ही ठीक से अध्ययन किया। क्या कारण है कि आजादी के बाद एक भी पुरुष या महिला महाश्वेता देवी जैसी नहीं हुई जो आदिवासियों की कथा लिख सके? इरावती कर्वे जैसी विदुषी नहीं हुई जो एक नया ऐतिहासिक, पौराणिक चिन्तन दे सके? हमारी अधिकांश महिलाएँ ‘काउच' लेखन करती रहीं।''६ जब तक महिलाएँ लेखन की दुनिया के लिए संघर्ष नहीं करेंगी तब तक साहित्य में स्त्री दृष्टि या स्त्री चेतना का विकास संभव नहीं है। उनके लेखन में धार चाहिए, तीखापन एवं प्रतिरोध करने का साहस चाहिए यदि नारी समाज की सुप्त चेतना को जागृत करना है।
प्रायः आलोचक कहा करते हैं कि स्त्री लेखन में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों अथवा परिवार के बिखराव की ही अभिव्यक्ति होती है वह भी अत्यन्त सीमित तथा सतही रूपों में। प्रश्न यह नहीं है कि स्त्री लेखन घर, परिवार, बच्चे, स्त्री-पुरुष
सम्बन्धों के सीमित दायरे में बंटा हुआ है, बल्कि प्रश्न तो यह है कि इन सम्बन्धों का निरुपण वहाँ किस रूप में हो रहा है? उसके पीछे कौन-सी नारी दृष्टि काम कर रही है? वह घर, परिवार, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के पीछे सदियों से काम कर रही पितृक अनुशासिकी, तानाशाही, अनुशासन को किस प्रकार देख रही है, किस प्रकार दिखा रही है? परिवार की स्त्री के लिए एक अपना ही तानाशाही अनुशासन है, पितृक व्यवस्था है। यदि नारी लेखन में ऐसा संघर्ष है तो वह उस लेखन की ताकत समझा जाना चाहिए, सीमित दायरा नहीं क्योंकि यही उसका अपना यथार्थ है जो किसी पुरुष का यथार्थ नहीं हो सकता। इस सम्बन्ध में महादेवी जी ने ठीक ही कहा है - ‘‘अधिकार के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी भी होना चाहिए अर्थात् यदि स्त्रियाँ अपने अधिकारों, अपने स्वामित्व के अधिकारों से वंचित हैं तो क्या उनमें अधिकारों के प्रति चेतना भी है कि वे अधिकार उन्हें कैसे मिलेंगे, क्यों मिलेंगे और यदि मिलेंगे भी तो क्या भिक्षावृत्ति से।''७ दुनिया के इतिहास में जहाँ कभी भी स्त्री के स्वामित्व के अधिकारों की बात उठी है तो वह एक प्रखर स्त्री चेतना के द्वारा ही। उन स्त्रियों में अपने अधिकारों के प्रति जबर्दस्त चेतना थी इसलिए उन्होंने उन तमाम बराबरी के अधिकारों को भिक्षावृत्ति से न प्राप्त कर संघर्ष करके ही अर्जित किया। इसके लिए उन्हें बहुत बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी। महादेवी जी ने ठीक ही कहा है - ‘‘हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुत्व चाहिए, न किसी पर प्रभुता। केवल अपना वह स्थान, वह स्वत्व चाहिए जिसका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकेंगी।''८
जब तक नारी-लेखन अन्याय, अत्याचार का प्रतिरोध नहीं करता, नारी की सुरक्षा के लिए संघर्ष नहीं करता तब तक वह यथास्थिति बाद का पक्षधर ही होगा। नारी लेखन का सबसे अहम् दायित्व है नारी पाठिकाओं को झकझोरना, उनके परम्परित जर्जरित संस्कारों को तोड़ना जिनमें वे बुरी तरह जकड़ी हुई है। इसके बिना स्त्री समाज की सोच को नहीं बदला जा सकता। मेहरुन्निसा परवेज स्वीकारती हैं कि नारी के मौन को शब्द नारी ही दे सकती है। उसके दुख को नारी ही समझ सकती है। ‘‘महिला लेखन से महिलाओं को पूर्ण रूप से ‘फीडबैक' मिलता है। नारी लेखन नारी मन की ही अभिव्यक्ति है। नारी ने नारी की गूँगी पीड़ा को लिखा, उजागर किया, उसके मौन को शब्द दिये। पुरुष लेखक के लिए नारी रूमानी ख्याल, यादों की मूरत थी। बेशक नारी लेखन ने पुरुष लेखकों के हाथ से उसकी सुन्दर, बेजबान गुड़िया छीन ली है और रोती, चीखती, बिलखती, कलपती नारी को सामने ला खड़ा किया है।''९
नारी लेखन यदि स्त्री समाज को सही दिशा दे रहा है, उसकी चेतना के विकास में सहायक सिद्ध हो रहा है तथा उसके अंदर स्वत्व के प्रति जागरूकता उत्पन्न कर रहा है तो बहुत अच्छा है क्योंकि अभी तक पुरुष लेखन ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। महिला लेखन को अधिकतर समीक्षक मुख्यधारा के लेखन का एक किंचित् दरिद्र बिरादर ही समझते हैं।१० इस वजह से इस क्षेत्र में वह बेवजह अपनी बुद्धि और साहित्यिक समझ का विस्तार करने की बजाए रचना को ही एक सीमित साँचे में फिट होने लायक आकार में बरतना बूझना चाहते हैं। ऐसी बात नहीं है कि नारी लेखिकाओं की रचनाओं में नये संदर्भ नई समस्यायें या युग की टकराहटों की ध्वनि नहीं है बल्कि असल त्रासदी यह है कि समीक्षा के पास रचना में ‘नये' को पकड़ पाने और समझाने योग्य भाषा का सही समाकलन अक्सर नहीं निकलता और नये संदर्भों को जाँचने के मानदंड भी उसके पास प्रायः नहीं है। मृणाल पाण्डे का मानना है कि हमारे ज्यादातर समीक्षकों में नारीवाद की जो ठलुआ, रसहीन, संकीर्ण और अधकचरी समझ व्याप्त हैं, वह पूर्ववर्ती श्रृंगारिक रूझान के सिक्के का ही दूसरा पहलू है। इसके चलते महिला लेखन की पड़ताल और स्थापित मानदण्ड इतने रूढ़िवादी ढंग से इस्तेमाल हो रहे हैं कि समीक्षा के अनुशासन को मानकर चलने की इच्छुक अधिकसंख्य लेखिकाओं की बौद्धिक बाढ़ मारी गई है, पुरस्कृत वे भले ही हुई हों।११
भारतीय स्त्रियों की आन्तरिक और बाहरी दुनिया में पिछले पचास वर्षों में जबरदस्त बदलाव आये हैं। अलका सरावगी या तेजी ग्रोवर, गगन गिल, कात्यायनी, गीतांजलि श्री की कृतियाँ स्त्री और उससे जुड़े संदर्भों को लेकर हमारी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष चेतना, हमारे सोच, हमारी कल्पना पर कई तरह से दबाव डालती हैं जिससे स्थूल शारीरिक सरोकार या चिन्ताएँ, व्यंग्य, सृजनात्मक असंतोष एवं विरोधाभास उतनी ही मात्रा में रहते हैं जितने कि हमारे जीवन में। खुद अपने आप और अपने युग से दोहरे संलाप की संभावना के चलते कई सशक्त महिला लेखन से एक प्रकार की अंतर्ध्वनि उठती हुई लगती है - ‘‘कोई नहीं जानता कि अंदर के पानियों में जो सपना कांपता है, कब असलियत का रूप लेगा।''१२ यह अंतर्ध्वनि लेखन की गहराई के साथ पाठक से भी धैर्यपूर्ण वयस्कता की मांग करती है।
आज स्त्रियाँ देख ही नहीं सप्रमाण लिख भी रही हैं कि उनकी राय में पुरुष क्या देख रहा है? वह यह भी देख और लिख रही हैं कि पुरुषों में वे खुद क्या-क्या देख रही हैं? या देखती रही हैं? फलतः रचना स्त्री की भाषा और उसके द्वारा जिया गया इतिहास एवं समय अपनी पारम्परिक चाल छोड़कर टेढ़ी एवं कठिन राह पकड़ेगी ही। आज का नारी लेखन पुरुषार्थवादी या पिटी पिटाई समीक्षा का निरीह अनुगामी नहीं रहा है वह हर नये और परती जमीन तोड़ने वाले लेखन जैसा आक्रामक और सतर्क है। क्या कृष्णा सोबती का ‘डार से बिछुड़ी', ‘ जिन्दगी नामा', ‘मित्रो मरजानी', ‘ए लड़की' मन्नू भंडारी के ‘महाभोज' जैसी नारीवादी लेखन ने नारी के दुख दर्द, उसके अभिशाप, संताप, द्वन्द्वों और तनावों, उसकी गूँगी पीड़ा के मौन को वाणी नहीं दी। ऐसे लेखन के केन्द्र में नारी की भयावह समस्यायें हैं, पितृ सत्तात्मक मर्यादाओं की तीखी आलोचना है जिसने स्त्री समाज का खुला दमन किया है। कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, चित्रा मुद्गल, महाश्वेता देवी, नासिरा शर्मा, मेहरुन्निसा परवेज जैसी लेखिकाओं के लेखन में नारी मुक्ति के लिए जिस चेतना का विकास हो रहा है वह नारी समाज के लिए रामबाण जैसा है। पत्रा-पत्रिाकाओं में प्रकाशित पाठिकाओं की प्रतिक्रिया पढ़ने से पता लगता है कि नारी की चेतना में अपने अधिकारों, स्वत्व, अस्तित्व तथा अस्मिता के बारे में तेजी से जागरूकता बढ़ी है। जैसे- जैसे नारी लेखन रचनात्मक और आलोचनात्मक स्तर पर नारियों के लिए जबर्दस्त चेतना लगाने का काम करेगा उसी अनुरूप स्त्री की दासता से मुक्ति हो सकेगी। नारी-लेखन यदि तीसरी दुनिया की शोषित, पीड़ित, दलित स्त्रियों के लिए सोचेगा उनका लेखन पुरुष लेखन से दो कदम आगे का लेखन सिद्ध होगा। जिस दिन पूर्वाग्रहों एवं दुराग्रहों से मुक्त होकर नारी लेखन स्वयं अपनी अस्मिता पर नाज करने लगेगा उस दिन कोई भी आलोचक अथवा आलोचना नारी-लेखन का बाल भी बाँका न कर सकेगा।
संदर्भ -
१. कोण्डेपुडी निर्मला, आपका जबाव क्या है?, पृ. ९९
२. आधुनिक हिन्दी कहानी : नारी चेतना, मर्द आलोचना - मृदुला गर्ग, पृ. ३४, हंस, मई १९९३।
३. वही, पृ. ३४
४. अमर उजाला, १२ दिसम्बर १९९९।
५. गगन गिल, इण्डिया टुडे, साहित्य वार्षिकी १९९६, पृ. २०
६. वही, पृ. २०
७. महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कडियाँ, अपनी बात, भूमिका से पृ. २३
८. वही, पृ. २३
९. मेहरुन्निसा परवेज, साहित्य वार्षिकी, पृ. २७
१०. अन्दर से पानियों का सपना, पृ. ६९, हंस, मार्च २००१, मृणाल पाण्डे
११. वही, पृ. ७०
१२. जया जादवानी का वक्तव्य : हंस
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