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दादूदयाल : एक परिचय

शगुफ्ता नियाज़



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दादू पंथी का स्वरूप
दादू के देहान्त के उपरान्त पंथ में काफी परिवर्तन हो गया था। उनके जीवनकाल में पंथ के अनुयायी अपने आपको किसी जाति, वर्ग, सम्प्रदाय या मत में नहीं मानते थे। सभी के साथ समानता का व्यवहार होता था समाज की भलाई करना वे अपना कर्तव्य समझते थे। इनकी मृत्यु के बाद इनके अनुयायियों में आपसी वैमनस्य बढ़ गया, उनकी मनोवृत्ति कल्याणकारी न होकर व्यक्तिगत स्वार्थ तक सीमित हो गयी थी। पंथ में धीरे-धीरे उदर-पोषण एवं इन्द्रिय दर्पण की समस्याएँ खड़ी हो गयी४९ और कई उपसम्प्रदाय बन गये।


हिन्दी विश्वकोश में दादू पंथी को तीन श्रेणियों में विभक्त किया है५० - १. विरक्त, २. नागा तथा ३. विस्तरधारी
विरक्त
जो विषय रागशून्य होकर परमार्थ साधन में समय बिताते हैं, वे लोग विरक्त कहलाते हैं। इन लोगों के शरीर पर केवल एक वस्त्र और हाथ में कमंडलु रहता है। उनके सिर पर कोई आवरण नहीं रहता।
नागा
ये लोग अस्त्रधारी होते हैं, रूपये पैसे मिल जाने पर युद्ध करने को भी तैयार हो जाते हैं। ये सब युद्धकार्य में बड़े दक्ष होते हैं। बहुत से राजा नागा सेना अपने यहाँ रखते हैं।
विस्तरधारी
ये लोग साधारण मनुष्यों की तरह भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यवसाय करते हैं।
उपयुर्क्त ये तीन शाखाएं फिर से विभक्त होकर कई एक प्रशाखाओं में बँट गयी हैं। जिनमें से ५२ प्रशाखा प्रधान है। गरीबदास, मस्कीनदास, रज्जबदास एवं सुन्दरदास के बाद तो उपसम्प्रदायों की भी शाखायें बन गयीं। उप सम्प्रदायों में पाँच को मुख्य स्थान मिला। यों तो दादू पंथियों में साधुओं के अतिरिक्त सद्गृहस्थों को भी उचित स्थान मिला था। इन्हें सेवक कहकर पुकारा जाता था लेकिन दादूपंथियों के उपसम्प्रदायों की ये कोटियाँ है -
दादू पंथ में अनेक उपसम्प्रदाय निर्मित हो गये हैं उनमें से पाँच को प्रमुख माना गया है। इन सबमें खालसा का स्थान महत्त्वपूर्ण हैं। इनका स्थान तथा प्रधान केन्द्र नरैणा में है। इनमें अनेक विद्वान भी हैं जो साधना एवं उपदेशों में रत रहना ही अपना कर्तव्य मानते हैं। वे अपने आपको शुद्ध और पवित्र दादूपंथी समझते हैं। खालसा के सदस्यों का विशेष ध्यान अध्ययन, अध्यापन तथा भजन-आराधना की ओर रहा करता था। इनमें कुछ लोग गृहस्थ भी हैं। दादू पंथियों की एक शिक्षा संस्था दादू महाविद्यालय के नाम से जयपुर में जेठ सुदी १० सम्वत्‌ १९७७ से स्थापित है।५१
खालसा सम्प्रदाय के बाद नागा सम्प्रदाय आता है। इसके प्रवर्तक सुन्दर दास जी हैं। ये साधक ब्रह्‌मचारी होने के साथ-साथ सैनिक के गुणों से भी युक्त थे। ये विरागी साधक होकर भी युद्धवीर थे। ये लोग अधिक नग्न रहते हैं वस्त्र धारण नहीं करते हैं। वस्त्रों की सादगी इनका मुख्य लक्षण है।५२ भारतीय इतिहास में सन्‌ १८५१ ई० में इन नागाओं ने समर्पित योगदान दिया था।
नागा सम्प्रदाय के उपरान्त उत्तरदायी उपसम्प्रदायों की स्थापना बनवारीदास ने पंजाब में की थी। पटियाला से ये धीरे-धीरे पूरे उत्तर भारत में अपना प्रभाव स्थापित करने लगे। इसमें इसके प्रवर्तक गुजरात, पंजाब, पटियाला में अधिक पाये जाते हैं। इसमें बड़े वैद्य और विद्वानों को पढ़ाने वालों की पर्याप्त संख्या थी। ये गृहस्थ भी थे इसलिए आजीविका सम्बन्धी उनको छूट भी मिली थी।५३
उत्तरादि उपसम्प्रदायों के बाद विरक्त तपस्वी उपसम्प्रदाय आता है। ये किसी आश्रम में बैठकर शिक्षा प्राप्त नहीं करते हैं। बल्कि घूम-घूमकर एकांकी मण्डली बनाकर दादू वाणी तथा उनके उपदेशों का प्रचार करते हैं। धन सम्पत्ति से उनका कोई सरोकार नहीं रहता भिक्षा पर ही इनका जीवन निर्भर रहता है। यह किसी प्रकार का व्यवसाय नहीं करते हैं। इनका मुख्य कार्य दादू पंथी अनुयायियों के घर-घर में जाकर उनके उपदेशों को सुनाते हैं।
आखिरी उपसम्प्रदाय खाकी उपसम्प्रदाय है। ये अधिकतर वस्त्र धारण नहीं करते थे तथा शरीर पर भस्म का लेपन करते थे और छोटी-छोटी मण्डली बनाकर घूमते हैं। ये अधिक वस्त्र नहीं धारण करते और लम्बी जटा धारण करके साधना करते हैं ये पवित्र तथा सात्विक जीवन व्यतीत करने के लिए किसी प्रवाहित नदी की भाँति निरन्तर भ्रमण करते रहते थे।





दादू का रचना संसार
सन्त दादू दयाल ने अपनी बानियों की रचना कब की इस बारे में निश्चित तिथि का उल्लेख नहीं मिलता है। अन्य सन्त कवियों की तरह दादू के रचनाकाल को सही तिथि का पता नहीं चलता है और न ही इनकी आवश्यकता दादू ने कभी महसूस की। विराट् लक्ष्य के लिए कार्य करने वाले साधक के लिये ये सब बातें कोई मायने नहीं रखती हैं। फिर भी दादू की वाणियों का संकलन एवं उनका वर्गीकरण उनके शिष्यों एवं विभिन्न विद्वानों द्वारा किया गया। इनकी वाणी की कितनी रचनाएँ उपलब्ध हैं इसके बारे में विद्वानों की अलग-अलग राय है।
जयपुर के महन्त जयराम दास जी ने स्वामी दादू दयाल जी की वाणी नाम से बड़ा ग्रन्थ छपवाया। जिसकी भूमिका दादू जी के शिष्य मंगलदास जी द्वारा लिखी गयी है। मंगलदास ने इनकी वाणी का आरम्भ सम्वत्‌ १६१९ से ही माना है।५४ इनके शिष्यों ने अपने गुरू की स्मृति में अनुभव वाणी का आरम्भ एवं संग्रह किया।५५ दादू की रचनाओं का पृथक्‌ संग्रह सन्‌ १९०४ में ज्ञान सागर प्रेस बम्बई से प्रकाशित हुआ था।५६
दादू की वाणी को संकलित करने का कार्य सर्वप्रथम इनके शिष्यों सन्तदास एवं जगन्नाथ ने किया, जिसका नाम इन्होंने ÷हरडे वाणी' दिया था। किन्तु यह वर्गीकरण सुव्यवस्थित नहीं था, न ही नियोजित था। इनकी वाणियों को भी अलग-अलग शीर्षकों में विभाजित नहीं किया गया था।५७ कुछ विद्वानों ने यह भी स्वीकार किया है कि मोहन दास दफ्तरी ने सर्वप्रथम दादू की साखियों का संग्रह किया।५८
इसी क्रम में रज्जब ने इनकी वाणी को क्रमबद्ध तथा अलग-अलग भागों में विभाजित करके अंगवधू के नाम से इनकी वाणियों का संकलन किया। अंगवधू में हरडे वाणी की सभी त्रुटियों को दूर करने का प्रयास परिलक्षित होता है। अंगवधू को ३७ भागों में विभाजित करने का प्रयास है। इसी के आधार पर ही अलग-अलग विद्वानों ने दादू वाणी को अपने-अपने ढंग से सम्पादित किया है।५९ दादू वाणी को कई लोगों ने सम्पादित किया है। जिनमें चन्द्रिका प्रसाद, बाबू बालेश्वरी प्रसाद, स्वामी नारायण दास, स्वामी जीवानंद, भारत भिक्षु आदि प्रमुख हैं। सन्‌ १९०७ में सुधाकर द्विवेदी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा से इनकी रचनाओं को दादूदयाल की बानी के नाम से प्रकाशित करवाया। इन्होंने इसको दो भागों में विभाजित किया है। पहले खण्ड में दोहे तथा दूसरे में पद है, जिन्हें राग-रागिनियों के सन्दर्भों में वर्गीकृत किया है।६०
दादूदयाल की वाणी अंगवधू सटीक आचार्य चन्द्रिका प्रसाद त्रिपाठी द्वारा सम्पादित है जो अजमेर से प्रकाशित हुई है। यह कई हस्तलिपियों के अनुकरण के आधार पर सम्पादित की गई है। साखियों को भावानुकूल वर्गीकृत किया गया है। राग-रागिनियों को नियोजित एवं व्यवस्थित तरीके से क्रमबद्ध किया है।६१ त्रिपाठी जी के संग्रह का आधार लेकर दादू वाणी का सम्पादन सरजन दल जग सिंह ने किया। इसका प्रकाशन काल १९१८ है।
वेलेडियर प्रेस इलाहाबाद से दादू वाणी का प्रकाशन हुआ जिसका सम्पादन बालेश्वरी प्रसाद ने सन्‌ १९२८ में किया। यह कृति साखी एवं पद, दो भागों में प्रकाशित है।६२
स्वामी नारायण दास जी दादू वाणी सटीक का सम्पादन किया। जो सम्वत्‌ २०१८ में प्रकाशित हुई।६३ इसके अतिरिक्त दादू सेवक प्रेस से स्वामी जीवानन्द भारत भिक्षु के सम्पादन में महर्षि श्री स्वामी दादूदयाल की अनभै वाणी प्रकाशित हुई। इनका लक्ष्य दादू की अनभै वाणी को जनसामान्य तक पहुँचाना था।६४
दादू पद संग्रह सन्‌ १९१७ में ब्रह्‌म विद्या कार्यालय लाहौर से प्रकाशित हुई। इसमें दादू के मूल पदों को किया गया है।६५
सन्‌ १९५६ में बलिया से सन्त दादू और उनकी वाणी का प्रकाशन हुआ। यह राजेन्द्र कुमार एण्ड ब्रदर्स बलिया द्वारा प्रकाशित हुई। इसका सम्पादक कोई अज्ञात सन्त हैं।६६
आधुनिक विद्वानों में परशुराम चतुर्वेदी की नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित ÷दादूदयाल ग्रन्थावली' सर्वाधिक प्रमाणिक मानी जाती है। यह ग्रन्थावली आकार ग्रन्थावली-१० के अन्तर्गत सम्वत्‌ २०२३ में प्रकाशित हुई। उन्होंने अपनी भूमिका में इन हस्तलिखित प्रतियों का भी उल्लेख किया है। जिनकी मदद से यह ग्रन्थावली सम्पादित की गयी है।
इनके उपरान्त काशीनाथ उपाध्याय द्वारा प्रकाशित संग्रह ÷÷सन्त दादू दयाल'' का प्रकाशन हुआ। इसका प्रकाशन काल १९८० है। इसमें दादू दयाल की साखियों एवं पदों को संकलित किया गया है।
इन सबके अतिरिक्त दादू की वाणी के अनेक संग्रहों को विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से सम्पादित कर विभिन्न प्रकाशक केन्द्रों से प्रकाशित करवाया है।
सन्दर्भ
१. (सं.) डॉ० बलदेव वंशी, दादू जीवन दर्शन, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, १९९८, पृ० ९
२. डॉ० रवीन्द्र कुमार सिंह, दादू काव्य की सामाजिक प्रासंगिकता, पृ० ३६
३. डॉ० पीताम्बर दत्त बडथ्वाल, हिन्दी काव्य की निर्गुण सम्प्रदाय, अवध पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ, सम्वत्‌ २००७, पृ० २२८
४. दादू जीवन दर्शन, पृ० ९
५. डॉ० किशनाराम बिशनोई, दादूदयाल सिद्धान्त और कविता, निर्मल पब्लिकेशन्स, शाहदरा, दिल्ली, पृ० ११५
६. वही, पृ० ११५-११६
७. वही, पृ० ११६
८. परशुराम चतुर्वेदी, उत्तर भारत की सन्त परम्परा, भारती भण्डार, प्रयाग, द्वितीय संस्करण, सम्वत्‌ २०२१, पृ० ४२१
९. दादूदयाल सिद्धान्त और कविता, पृ० ११७-११८
१०. डॉ० कृष्णदेव बल्लभ दवे, सन्त कवि दादू, पृ० ७३
११. डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर, बम्बई, १९६३, पृ० ९९
१२. वही, पृ० ११६-११७
१३. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० ८१
१४. डॉ० रामकुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० २७४
१५. (सं०) परशुराम चतुर्वेदी, दादू ग्रन्थावली, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, सम्वत्‌ २०२३, पृ० ४३६
१६. वही, पृ० २१४
१७. वही, उत्तरी भारत की सन्त परम्परा, पृ० ११०
१८. डॉ० सरनाम सिंह, कबीर एक विवेचन, हिन्दी साहित्य संसार, दिल्ली, १९६८, पृ० २८
१९. उत्तरी भारत की सन्त परम्परा, पृ० २८९ पर उद्धृत।
२०. डॉ० कृष्णदेव बल्लभ दवे, सन्त कवि दादू, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, १९८३, पृ० ३६
२१. स्वामी जनगोपाल, दादू जीवन लीला परची, स्वामी लक्ष्मीराम ट्रस्ट, जयपुर, सम्वत्‌ २००६, पृ० १३६
२२. राघव दास, भक्तमाल, पृ० १२४
२३. सन्त कवि दादू, पृ० ३७
२४. दादू जीवन दर्शन, पृ० १८-१९
२५. डॉ० निकोल मैकीकोल, ए सिक्सटीन्थ सेन्चुरी इंडियन मिस्टिक्स, पृ० २७
२६. डॉ० कृष्णदेव वल्लभ दवे, सन्त कवि दादू, पृ० ३८-३९
२७. डॉ० धीरेन्द्र वर्मा, हिन्दी साहित्य कोश, पृ० २४७
२८. दादूदयाल सिद्धान्त और कविता, पृ० ६९ पर उद्धृत
२९. स्वामी हरिनाम, दादू का जीवन चरित्र, पृ० २०
३०. ए सिक्सटीन्थ सेन्चुरी इंडियन मिस्टिक्स, पृ० २७
३१. दादूदयाल : सिद्धान्त और कविता, पृ० ६८
३२. सुन्दरदास नं० 1
३३. (सं.) स्वामी मंगलदास, दादू की वाणी, पृ० ३
३४. दादू काव्य की सामाजिक प्रासंगिकता, पृ० ४०
३५. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-२, पृ० २४८
३६. दादूदयाल सिद्धान्त और कविता, पृ० ६१
३७. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-२, पृ० २४८
३८. उत्तरी भारत की सन्त परम्परा, पृ० ४११
३९. डॉ० विद्योत्तमा मिश्र, दादू दास तुम्हारा, नरेश पब्लिशिंग हाउस, शाहदरा, दिल्ली, पृ० १८
४०. दादूदयाल सिद्धान्त और कविता, पृ० ६२ पर उद्धृत
४१. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-२, पृ० २४८
४२. उत्तरी भारत की सन्त परम्परा, पृ० ४९६
४३. वही, पृ० ४९६
४४. दादूदयाल सिद्धान्त और कविता, पृ० ७६
४५. उत्तरी भारत की सन्त परम्परा, पृ० ५०१
४६. परशुराम चतुर्वेदी, सन्त काव्यधारा, किताब महल, इलाहाबाद, १९५२, पृ० ३६२
४७. दादू जीवन दर्शन, पृ० ६३-६५ पर उद्धृत
४८. वही, पृ० ६७-६८ पर उद्धृत
४९. दादूदयाल सिद्धान्त और कविता, पृ० ८५
५०. (सं०) नगेन्द्र नाथ बसु, हिन्दी विश्वकोश, पृ० ३४०
५१. उत्तरी भारत की सन्त परम्परा, पृ० ५३४
५२. परशुराम चतुर्वेदी, दादूदयाल ग्रन्थावली, भूमिका भाग, पृ० ११
५३. दादू दास तुम्हारा, पृ० ३३
५४. स्वामी मंगलदास, श्री दादू सम्प्रदाय का संक्षिप्त परिचय, पृ० १८
५५. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-१, पृ० २८५
५६. दादू दास तुम्हारा, पृ० ४० पर उद्धृत
५७. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-१, पृ० २८५
५८. वासुदेव शर्मा, दादू और उनका पंथ, पृ० ११९
५९. सुधाकर द्विवेदी, दादू वाणी, भूमिका, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, १९०६, पृ० ५
६०. दादू और उनका पंथ, पृ० १३८
६१. वही, पृ० १३५
६२. वही, पृ० १३८
६३. वही, पृ० १३९
६४. वही, पृ० १३९
६५. वही, पृ० १३९
६६. दादू दास तुम्हारा, पृ० २५

Comments

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