Skip to main content

मिलन




शैफाली

(अमृता के बहाने )
काया विज्ञान कहता है: यह काया पंचतत्वों से मिलकर बनी है- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश।
लेकिन इन पाँचों तत्त्वों के बीच इतना गहन आकर्षण क्यों है कि इन्हें मिलना पड़ा?
कितने तो भिन्न हैं ये...कितने विपरीत......
कहाँ ठहरा हुआ-सा पृथ्वी तत्व, तरंगित होता जल तत्त्व,
प्रवाहमान वायु तत्व,
और कहाँ अगोचर आकाश तत्त्व,
कोई भी तो मेल नहीं दिखता आपस में....
ये कैसे मिल बैठे....? कौन-सा स्वर सध गया इनके मध्य....? निश्चित ही इन्हें इकट्ठा करनेवाला, जोड़नेवाला, मिलानेवाला कोई छठा तत्त्व भी होना चाहिए....
यह प्रश्न स्पन्दित हुआ ही था कि दशों दिशाएँ मिलकर गुनगुनाईं....”प्रेम”....वह छठा तत्त्व है, “प्रेम”।
ये सभी तत्त्व प्रेम में हैं एक-दूसरे के साथ, इसलिए ही इनका मिलन होता है।
यह छठा तत्त्व जिनके मध्य जन्म ले लेता है, वे मिलते ही हैं फिर, उन्हें मिलना ही होता है, “मिलन” उनकी “नियति” हो जाती है।

“मिलन” घटता ही है,..... कहीं भी... किसी भी समय ....इस “मिलन” के लिए “स्थान” अर्थ खो देता है और “काल” भी।
फिर किसी भी सृष्टि में चाहे किसी भी पृथ्वी पर, चाहे फिर पैरों के नीचे “कल्प” दूरी बनकर बिछे हों, निकट आना ही होता है उन्हें......

ये उस किताब के पहले पन्ने पर लिखी कुछ पंक्तियाँ है, जो हमारी इस कहानी की नायिका के हाथों में कई बरसों से है....जी हाँ हमारी कहानी शुरू होती है नायिका के परिचय से जो एक लेखिका है.....

और कहानी चाहे किसी किताब में लिखी हो या किसी फिल्म की हो, नायिका है तो उसका एक नायक भी होता है...............
तो हमारी इस कहानी में भी एक नायक है ....यहाँ नाम मायने नहीं रखते क्योंकि हर जन्म में उनके नाम बदलते रहे, काया बदलती रही लेकिन आत्मा हर जन्म में एक-सी रही...बिलकुल पवित्र और निर्मल...............
क्रूर कह लो या मजबूर कोई रहा तो वो है नियती.......

उस किताब की शुरुआती पंक्तियों के बाद नायिका की आँखें सीधे अंतिम पंक्तियों पर ही आकर ठहर जाती......
जो कुछ यूँ थी....
......और नियति भी मौन खड़ी थी लेकिन अपराधी की तरह....जैसे कोई पाप हो गया हो उससे।
किसी मासूम रिश्ते को उसकी जगह न रख ग़लत जगह रख देना पाप ही तो है..........


नायिका को लगता जैसे नियति के किसी पाप की सज़ा ही उसे मिल रही है.....तभी उसके जीवन में एक तड़प है एक प्यास है और कहते हैं...
प्यास और तलाश का रिश्ता बड़ा गहरा होता है। जहाँ प्यास होती है वहाँ तलाश अपने आप साथ हो लेती है। यह तलाश कभी चेतन तौर पर होती है कभी अचेतन तौर पर। कभी-कभी व्यक्ति को पता ही नहीं होता कि उसकी प्यास क्या है लेकिन वह तलाश रहा होता है। और यही प्यास और यही तलाश जो नायिका के अचेतन मन से गुज़र रही थी वो कब उसके चेतन मन से उसके व्यवहार में आने लगी उसे ख़ुद भी पता न चला.............


कई सालों तक उस किताब में लिखी पंक्तियाँ नायिका की आँखों से गुज़रती रही....कई बार तो रातों को उठ उठकर वो उस किताब को हाथ में लिए बैठी रहती या अपने सिरहाने रखकर सो जाती............फिर अचानक यूँ हड़बड़ाकर उठ जाती जैसे कोई उसे बहुत शिद्दत से पुकार रहा हो.....



कई बरस यूँ ही निकल गए.................फिर एक दिन एक पत्र आया.......... मैं अकसर आपकी कविताओं और कहानियों की पुस्तक खरीदकर पढ़ता रहता हूँ, सोचा आपको एक बार बता दूँ कि आपके कई पाठकों में से एक पाठक ऐसा भी है जिसे आपकी पुस्तक पढ़े बिना नींद नहीं आती.....आपका एक मुरीद....

नायिका के हाथ में पाठकों के कई पत्र थे.........सारे टेबल पर बिखरे हुए थे बिलकुल उसी तरह जैसे इस समय नायिका के चेहरे पर उसकी ज़ुल्फें...सारे पत्रों में से नायक के पत्र पर आकर आँखें पथरा गई...ना....नायक के लिखे शब्दों से नहीं, नींद से....नींद इतनी आ रही थी कि उस पत्र को हाथ में लेकर एक सरसरी निगाह तो डाली लेकिन ठीक से पढ़ा नहीं .....और उस पत्र को अपनी उसी किताब में रख दिया जिसे रोज़ सिरहाने लेकर सोती थी...............
रोज़ रात को हड़बड़ाकर उठ जाने वाली नायिका आज न जाने कौन-सी सुकून भरी नींद की बाहों में सोई थी कि जब सुबह फिर चिड़िया की चहचहाहट कानों में और सुबह सुबह की नर्म धूप चेहरे पर पड़ी तभी आँख खुली....

नियति ने उस किताब की पंक्तियों और नायक के ख़त को तो मिलवा दिया था लेकिन नायक अब भी साथ समन्दर पार बैठा है........

नायिका ने दोबारा जब उस पत्र को पढ़ा तो लगा जैसे बहुत ही जाना पहचाना सा नाम है लेकिन न्यूजर्सी के इस पते पर रह रहे इस पाठक को तो वो नहीं जानती है ये भी उसे यकीन था...............

खैर पत्र आया था तो जवाब भी गया..........कौन है कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं जैसे शुरुआती औपचारिक परिचय के बाद सात समन्दर पार बैठा नायक पत्र नुमा कागज़ की नाव पर बैठ कर नायिका के देश और शहर का सफर शुरू कर चुका था..............

क्योंकि .... छठा तत्त्व जिनके मध्य जन्म ले लेता है, वे मिलते ही हैं फिर, उन्हें मिलना ही होता है, “मिलन” उनकी “नियति” हो जाती है।



ना एक दूसरे को देखा है अभी तक ना एक दूसरे की आवाज़ ही सुनी है फिर भी लगता था जैसे जन्मों से साथ है...........

रोज़ की तरह नायिका पाठको और नायक के खतों के बीच बैठी थी..........अपने पिछले खत में नायिका ने उत्सुकता जताई थी कि कहाँ आप सात समन्दर पार बैठे हैं और कहाँ मैं...न आपको देखा है, न सुना है फिर भी लगता है जैसे जन्मों से साथ है, ऐसा क्यूँ?

नायक का जवाब कुछ यूँ आता है.............
काया विज्ञान कहता है: यह काया पंचतत्वों से मिलकर बनी है- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश।
लेकिन इन पाँचों तत्त्वों के बीच इतना गहन आकर्षण क्यों है कि इन्हें मिलना पड़ा?
कितने तो भिन्न हैं ये...कितने विपरीत......
कहाँ ठहरा हुआ-सा पृथ्वी तत्व, तरंगित होता जल तत्त्व,
प्रवाहमान वायु तत्व,
और कहाँ अगोचर आकाश तत्त्व,
कोई भी तो मेल नहीं दिखता आपस में....
ये कैसे मिल बैठे....? कौन-सा स्वर सध गया इनके मध्य....? निश्चित ही इन्हें इकट्ठा करनेवाला, जोड़नेवाला, मिलानेवाला कोई छठा तत्त्व भी होना चाहिए....
यह प्रश्न स्पन्दित हुआ ही था कि दशों दिशाएँ मिलकर गुनगुनाईं....”प्रेम”....वह छठा तत्त्व है, “प्रेम”।
ये सभी तत्त्व प्रेम में हैं एक-दूसरे के साथ, इसलिए ही इनका मिलन होता है।
यह छठा तत्त्व जिनके मध्य जन्म ले लेता है, वे मिलते ही हैं फिर, उन्हें मिलना ही होता है, “मिलन” उनकी “नियति” हो जाती है।

“मिलन” घटता ही है,..... कहीं भी... किसी भी समय ....इस “मिलन” के लिए “स्थान” अर्थ खो देता है और “काल” भी।
फिर किसी भी सृष्टि में चाहे किसी भी पृथ्वी पर, चाहे फिर पैरों के नीचे “कल्प” दूरी बनकर बिछे हों, निकट आना ही होता है उन्हें......



नायिका की आँखें आज भी पथरा गई थी....निश्चित ही नायक के इस खत से...जिसमें हूबहू वही पंक्तियाँ थी जो उस किताब के पहले पन्ने पर ही नहीं नायिका की आत्मा पर लिखी थी.............

फोन नंबर बहुत पहले ही दिया जा चुका था जिसे नायिका ने कभी उपयोग नहीं किया ये सोचकर कि सात समन्दर पार कोई रिश्ता जोड़कर क्या करना है जब पता है कि रूह से उठती वो हूक और पुकार किसी से भी रिश्ता जोड़ने की अनुमति नहीं दे रही.......लेकिन आज कारण बहुत बड़ा था और जिज्ञासा भी अपना नियंत्रण खो चुकी थी..........जब नायिका ने पहली बार फोन लगाया तो वहाँ से कोई आवाज़ नहीं आई.....नायिका ने कहा अपनी आवाज़ नहीं सुनाओगे? तो दूसरी ओर से नायक ने कहा कई जन्मों से तो पुकार रहा हूँ ................

अचम्भित होने के कई कारण थे...कैसे वो पंक्तियाँ नायक की ज़ुबां पर आई, क्या वो भी उसी पुस्तक को पढ़ता आया है? नायिका ने किसी भी ख़त में उस किताब का या उन पंक्तियों का ज़िक्र नहीं किया है ऐसा नायिका को पूरा यकीन है।

नायिका से पूरी बात सुनने के बाद नायक की ओर से सिर्फ़ एक ही जवाब था मैं नहीं जानता ये पंक्तियाँ क्यूँ और कैसे उसकी ज़ुबाँ पर आई है वो तो बस यूँ ही कह गया।

एक गहरे मौन के बाद नायिका के सामने उस किताब की अंतिम पंक्तियाँ थी........
......और नियति भी मौन खड़ी थी लेकिन अपराधी की तरह....जैसे कोई पाप हो गया हो उससे।
किसी मासूम रिश्ते को उसकी जगह न रख ग़लत जगह रख देना पाप ही तो है..........


दोनों जानते थे कि दोनों इस दुनियावी और सामाजिक रिश्तों के भँवर में फँसे हुए-से है...जिससे बाहर निकलना एक भीषण युद्ध-सा है क्योंकि इंसान दूसरों से तो लड़ ले लेकिन ये लड़ाई तो उनकी ख़ुद से थी और अपनी लड़ाइयाँ हमें ख़ुद ही लड़ना होती है, वहाँ ये दुनियावी या सामाजिक रिश्ते या उस स्तर पर बनी कोई भी व्यवस्था हमारी कोई मदद नहीं कर सकती।

सात समन्दर पार बैठा कोई व्यक्ति जिससे कभी मिली नहीं जिसको देखा नहीं वो कैसे आज पूरी तरह से उसकी कायनात बन गया, और जो ये कायनाती रिश्ता है जो समाज के तथाकथित नियमों से कहीं उपर है वो कैसे खुद को लाचार और मजबूर महसूस कर रहा है........... क्या ये वही प्रेम है जो एक इंसान से दूसरे इंसान का होता है? क्या ये वही बंधन है ? नहीं...........
जब प्रेम इंसान और इंसान के बीच जन्मता है तो बाँध लेता है। और जब इंसान और कायनात के बीच फैलता है तो मुक्त कर देता है......प्रेम ही बन्धन......प्रेम ही मुक्ति......

नायक और नायिका दोनों उस दोराहे पर खड़े हैं जहाँ प्रेम ही बंधन है और प्रेम ही मुक्ति....

उन दोनों को लग रहा था जैसे नियती ने धीरे से फिज़ा के कान में उन दोनों की जुदाई की कहानी कह दी थी ........और विज्ञान के नियमानुसार ऊर्जा न कभी खत्म होती है न बनाई जा सकती है, वो तो बस एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती रहती है। नियति क्या जाने विज्ञान के इस नियम को उसने कहते समय सोचा भी न होगा कि उसके मुँह से निकली ध्वनि ऊर्जा पूरे ब्रह्माण्ड में घूमकर नायिका की तड़प में परिवर्तित हो जाएगी और वो तड़प और प्यास की ऊर्जा... नायक की तलाश में..............

नियति ने दोनों को मिलवाकर अपना पल्ला झाड़ लिया था, लेकिन तलाश खत्म होने के बाद की जो पीड़ा उन दोनों को भोगनी थी उसका ज़िक्र उस किताब के किसी भी पन्ने पर नहीं था। कहा ना इंसान को अपनी लड़ाइयाँ खुद लड़नी होती है नियती तो बस एक झलक दिखला जाती है कभी किसी किताब पर लिखी पंक्तियों के रूप में, कभी किसी घटना के रूप में तो कभी आधी रात को अर्धनिन्द्रा में देखे किसी स्वप्न के रूप में.......
एक स्वप्न नायिका ने भी देखा............ उस अनदेखे नायक का हाथ थामे घने जंगलों में भाग रही है....और कुछ साये हाथों में मोटी-सी किताबें लिए उनके पीछे भाग रहे हैं........नायिका एक बार पलटकर देखती है ....शायद कानून की कोई मोटी-सी किताब किसी के हाथ में दिखाई देती है.............पीछे देखने की कोशिश में उसका पल्लू चेहरे पर आ जाता है और उसे आगे वो ईंटें दिखाई नहीं देती जो इस तरह पड़ी हुई होती है जैसे कोई विवाह की वेदी बनाई गई हो...........नायिका का पैर उससे टकरा जाता है, नायक का हाथ उससे छूट जाता है, जो साये उनका पीछा कर रहे थे अब वो उनके करीब आ चुके हैं, और सब लोग मिलकर कानून की मोटी-मोटी किताबों से नायक के सिर पर वार कर रहे हैं, नायक की वहीं मृत्यु हो जाती है...
नायिका अचानक हड़बड़ाकर उठती है.....ऐसा अजीब सपना उसने पहली बार देखा था.....सुबह होने तक सिर भारी हो चुका था, तबीयत भी खराब-सी होने लगती है........
सुबह हाथ में अखबार लेते से ही पहली नज़र जाती है उस विमान दुर्घटना पर जाती है... न्यूजर्सी से आ रहा एक प्लेन क्रेश, सभी यात्रियों की मौत................यात्रियों के नाम दिए गए हैं जिसमें एक नाम नायक का भी है..............नायिका खबर पढ़ते से ही बेसुध होकर गिर जाती है....जब आँख खुलती है तो ख़ुद को अस्पताल में पाती है और चारो ओर रिश्तेदार चेहरे पर मोहक मुस्कान के साथ खड़े हैं और बधाई दे रहे हैं.... नायिका शादी के पूरे 10 साल बाद माँ बननेवाली है.......

नायिका की आँखों में तलाश खत्म होने का और नायक को पुत्र के रूप में पा लेने का सुकून था.................. एक जीवन गुज़ार लेने के लिए काफी था....................
लेकिन उन्हीं आँखों में नियती से अगले जन्म में यही गलती न दोहराने की विनंती भी थी.......

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क