सग़ीर अशरफ़
भाषा के स्तर पर जब लोककथाओं के क़दम आगे बढ़े तो कहानी दिखाई देने लगी और आधुनिक रूप में स्थापित होने के साथ ही भौगोलिक सीमाओं को तोड़कर चारों ओर अपने छींटे बिखेरती नज़र आने लगी।... अपने तलुवों में धरती को छूती हुई कहानी, खेत-खलयानों से गुज़रती जागीदारों के शोषण, साहूकारों के अत्याचार, मज़दूरों के आंसुओं का अहसास दिलाती, गांव-नगर, महानगरों में विचरण करती हुई, पारंपरागत आंगन में टीस, कसक, कुण्ठा-शोषण आदि के धरातल पर सुख-दुख के हमसफ़र किरदारों को जीवंतता प्रदान करने लगी।
इस लंबी यात्रा के दौरान कहानी किसी भी रूप, भाषा-शैली या ‘क़िस्सागोई’ की शक्ल में ही क्यों न आई हो... विषय और विधा दोनों पहलुओं से विकसित होती रही। उसका शिल्प ‘कुछ नये’ के लिए व्याकुल होता रहा... और जीवन के उन महीन पलों को जो कविता, नाटक और उपन्यास के सांचे में ढलना संभव नहीं थे,... कहानी में स्थापित होते गये।
... कहानी ने पुरुष स्वभाव को ही स्वीकार नहीं किया बल्कि नारी के भी विभिन्न रूप-स्वरूप को अपनी ‘कहन’ में शामिल किया। आज शिक्षित और आधुनिक नारी किन परिवर्तनों से गुज़र रही है? उसका स्वभाव क्या है? उसकी मानसिकता किस रूप में करवट ले रही है? अनेक पहलुओं के दर्शन आज की कहानी में नज़र आते हैं।
उर्दू के मशहूर कहानीकार ‘हाजरा शकूर’ ने नारी की कुण्ठा को आधुनिक सोच के किस क़द्र महसूस किया है-‘‘हर साल नदी में सैलाब आता है..., हर साल उस पर बांध बंधता जाता है।... लेकिन कभी-कभी सैलाब इतना हो जाता है कि बांध को भी बहा ले जाता है।... मैंने तो बस यंू ही बात कही है, - मुझे किसी सैलाब का इन्तज़ार नहीं, - लेकिन बांध के ख़्याल के साथ मेरा ख़्याल क्यों जुड़ा हुआ है...?’’
उपरोक्त कहानी अंश के इस दर्पण में हमारा पूरा फोकस नासिरा शर्मा की कहानियों के इर्द-गिर्द केन्द्रित है। उनकी कहानियाँ मध्यवर्ग की उस नारी की कहानियाँ हैं, जो नारी त्रासदी एवं मनोवृत्तियों व मानसिकताओं के बीच से उभरी हैं -‘‘मेरी कहानियाँ मुहाजरत के दुख और मुजरों के सुख का मोहभंग करती हुई एक ऐसी गली की सैर कराती है जो ‘पत्थर गली’ है - इस पत्थर गली के रहने वाले अपने विकास के लिए जद्दोजहद के लिए छटपटाते नज़र आते हैं। अपनी पहचान के लिए जद्दोजहद के समुन्दर में गोते लगाते हैं। रूढ़िवादिता की बेड़ियों को तोड़कर खुले आसमान में उड़ना चाहते हैं...पंखों को पसार कर उसमें सूरज की गर्मी और रोशनी भरने के लिए तड़पते हैं...कशमकश में पत्थर से टकराकर लहूलुहान हो उठते हैं..।’’
‘पत्थरगली’ के माध्यम से उनकी जो भी कहानियां उपलब्ध हो सकी हैं उनमें नारी अस्मिता, उसके जीवन बिम्ब, रिश्तों की बेबसी, संबंधों का स्थायित्व, स्वार्थपरिता, आत्मीयता का आभाव, बाज़ार के से उतार-चढ़ाव की ज़िन्दगी, उदासियों का अंधेरापन, और कहीं कोई रोशनी की लकीर-सी निर्बाध बहती हंसी... जो नारी जीवन की लंबी-लंबी गलियों से गुज़रती, आंसू, दर्द, उत्पीड़न और शोषण की चिलमनों से सरकती हुई कागज़ के बदन को स्पर्श करती है।
रिश्तों के इन्हीं यथार्थ को उकेरती नासिरा शर्मा अपनी रचना-धर्मिता के बल पर पाठकों तक पहुंची है - ‘‘मैं अपने को हमेशा दूसरों में बांटती आई हँू। ठीक ‘बावली’ के पानी की तरह। जिस किसी को प्यास लगी, मेरे वजूद की सीढ़ियां उतरता
सीधे नीचे चला आया और अपना खाली बर्तन भरकर ले गया। मैं कुआं तो थी नहीं जो किसी को रस्सी और डोल डालने की ज़हमत उठानी पड़ती, मैं तो एक बावली थी,... पानी से भरी बावली, जिसके पानी को कोई भी अपने चुल्लुओं में भरकर अपने सूखे गले को तर कर सकता है।’’1
कहानी के विषय वस्तु अथवा घटनाओं का प्रस्तुतीकरण कैसे हो, शिल्प के स्तर पर कहानी का विकास कैसे हो? सीमाएं क्या हों? कहानी की आत्मा को, कला को, साहित्य विधा में क्या स्तर प्रदान किया जाय? इसकी प्रतिध्वनी नासिरा की कहानियों में सुनाई देती है - ‘‘मेरे वजूद की दीवारों पर बेशुमार ताक़ बने हुए थे उनमें विभिन्न कबूतरों ने बसेरा कर रखा था। ताक़ों पर बड़े-बड़े दरों में गर्मी में तपती दोपहर से थके परिन्दे मेरे ठंडे वजूद में आकर पनाह लेते थे... कभी ख़्याल ही नहीं आया कि मेरा अपना एकदम निजी भी कुछ हो सकता है।... मैं उनमें प्यार के रिश्ते के नाम पर बँटती रही।’’2.............................................शेष भाग पढ़ने के लिए पत्रिका देखिए
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