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Showing posts from March, 2009

अश्कों का दिया

SEEMA GUPTA रात गमगीन रही दिल वीरान रहा कितना खामोश ये आसमान रहा सिसकियों की सरगोशियाँ उफ़ "अश्कों का दिया " अंधेरों मे मेहरबान रहा

लोगों के बीच में राही मासूम रजा आज भी जिन्दा हैं

लोगों के बीच में राही मासूम रजा आज भी जिन्दा हैं राही मासूम रजा की १७वीं पुण्यतिथि के अवसर पर वाङ्मय पत्रिका, लिबर्टी होम्स में संगोष्ठी का आयोजन किया। इस संगोष्ठी की अध्यक्षता डॉ० प्रेमकुमार ने की। इस संगोष्ठी में राही मासूम रजा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला गया। मुख्य वक्ता डॉ० प्रेमकुमार ने कहा कि इस पुण्यतिथि पर राही मासूम पर चर्चा ही बता रहा है कि उनका काम कितना महत्त्वपूर्ण है। प्रेमकुमार ने उनके साहित्य में व्यक्त इंसानियत को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि आज का युग बौनों का युग है जब लोगों को साम्प्रदायिकता व विद्वेष से लड़ने का समय है। उस समय उनसे ही समझौता कर लिया जबकि राही का व्यक्तित्व उन समझौतावादी बौने लोगों का विरोध करता है। राही के एक संस्मरण की चर्चा करते हुए बताया कि अपने बेटे की शादी हिन्दू लड़की से इस शर्त पर की, कि वह अपना धर्म परिवर्तन नहीं करेगी। इस प्रकार के विचार आज के बड़े-बड़े हिन्दू व मुस्लिम सेकुलर कहे जाने वाले लोगों के यहाँ नहीं मिलेगी। उन्होंने बताया कि राही का जुड़ाव जमीन की गहराई से रहा है। राही ने साहित्य म

यथार्थ

महेंद्रभटनागर . राह का नहीं है अंत चलते रहेंगे हम! . दूर तक फैला अँधेरा नहीं होगा ज़रा भी कम! . टिमटिमाते दीप-से अहर्निश जलते रहेंगे हम! . साँसें मिली हैं मात्र गिनती की अचानक एक दिन धड़कन हृदय की जायगी थम! समझते-बूझते सब मृत्यु को छलते रहेंगे हम! . हर चरण पर मंज़िलें होती कहाँ हैं? ज़िन्दगी में कंकड़ों के ढेर हैं मोती कहाँ हैं?

लमहा

महेंद्रभटनागर . एक लमहा सिर्फ़ एक लमहा एकाएक छीन लेता है ज़िन्दगी! हाँ, फ़क़त एक लमहा। हर लमहा अपना गूढ़ अर्थ रखता है, अपना एक मुकम्मिल इतिहास सिरजता है, बार - बार बजता है। . इसलिए ज़रूरी है — हर लमहे को भरपूर जियो, जब-तक कर दे न तुम्हारी सत्ता को चूर - चूर वह। . हर लमहा ख़ामोश फिसलता है एक-सी नपी रफ़्तार से अनगिनत हादसों को अंकित करता हुआ, अपने महत्त्व को घोषित करता हुआ!

निरन्तरता

 महेंद्रभटनागर  . हो विरत ... एकान्त में, जब शान्त मन से भुक्त जीवन का सहज करने विचारण — झाँकता हूँ आत्मगत अपने विलुप्त अतीत में — . चित्रावली धुँधली उभरती है विशृंखल ... भंग-क्रम संगत-असंगत तारतम्य-विहीन! . औचक फिर स्वतः मुड़ लौट आता हूँ उपस्थित काल में! जीवन जगत जंजाल में!

नहीं

. महेंद्रभटनागर . लाखों लोगों के बीच अपरिचित अजनबी भला, कोई कैसे रहे! उमड़ती भीड़ में अकेलेपन का दंश भला, कोई कैसे सहे! . असंख्य आवाज़ों के शोर में किसी से अपनी बात भला, कोई कैसे कहे!

मिलन

शैफाली (अमृता के बहाने ) काया विज्ञान कहता है: यह काया पंचतत्वों से मिलकर बनी है- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश। लेकिन इन पाँचों तत्त्वों के बीच इतना गहन आकर्षण क्यों है कि इन्हें मिलना पड़ा? कितने तो भिन्न हैं ये...कितने विपरीत...... कहाँ ठहरा हुआ-सा पृथ्वी तत्व, तरंगित होता जल तत्त्व, प्रवाहमान वायु तत्व, और कहाँ अगोचर आकाश तत्त्व, कोई भी तो मेल नहीं दिखता आपस में.... ये कैसे मिल बैठे....? कौन-सा स्वर सध गया इनके मध्य....? निश्चित ही इन्हें इकट्ठा करनेवाला, जोड़नेवाला, मिलानेवाला कोई छठा तत्त्व भी होना चाहिए.... यह प्रश्न स्पन्दित हुआ ही था कि दशों दिशाएँ मिलकर गुनगुनाईं....”प्रेम”....वह छठा तत्त्व है, “प्रेम”। ये सभी तत्त्व प्रेम में हैं एक-दूसरे के साथ, इसलिए ही इनका मिलन होता है। यह छठा तत्त्व जिनके मध्य जन्म ले लेता है, वे मिलते ही हैं फिर, उन्हें मिलना ही होता है, “मिलन” उनकी “नियति” हो जाती है। “मिलन” घटता ही है,..... कहीं भी... किसी भी समय ....इस “मिलन” के लिए “स्थान” अर्थ खो देता है और “काल” भी। फिर किसी भी सृष्टि में चाहे किसी भी पृथ्वी पर, चाहे फिर पैरों के नीचे “कल्प” दू

अपेक्षा

 महेंद्रभटनागर  . कोई तो हमें चाहे गाहे-ब-गाहे! . निपट सूनी अकेली ज़िन्दगी में, गहरे कूप में बरबस ढकेली ज़िन्दगी में, निष्ठुर घात-वार-प्रहार झेली ज़िन्दगी में, कोई तो हमें चाहे, सराहे! किसी की तो मिले शुभकामना सद्भावना! अभिशाप झुलसे लोक में सर्वत्र छाये शोक में हमदर्द हो कोई कभी तो! . तीव्र विद्युन्मय दमित वातावरण में बेतहाशा गूँजती जब मर्मवेधी चीख-आह-कराह, अतिदाह में जलती विध्वंसित ज़िन्दगी आबद्व कारागाह! . ऐसे तबाही के क्षणों में चाह जगती है कि कोई तो हमें चाहे भले, गाहे-ब-गाहे!

चिर-वंचित

महेंद्रभटनागर . जीवन - भर रहा अकेला, अनदेखा - सतत उपेक्षित घोर तिरस्कृत! . जीवन - भर अपने बलबूते झंझावातों का रेला झेला ! जीवन - भर जस-का-तस ठहरा रहा झमेला ! जीवन - भर असह्य दुख - दर्द सहा, नहीं किसी से भूल शब्द एक कहा! अभिशापों तापों दहा - दहा! . रिसते घावों को सहलाने वाला कोई नहीं मिला - पल - भर नहीं थमी सर - सर वृष्टि - शिला! . एकाकी फाँकी धूल अभावों में - घर में : नगरों-गाँवों में! यहाँ - वहाँ जानें कहाँ - कहाँ!

अतिचार

महेंद्रभटनागर . अर्थहीन हो जाता है सहसा चिर-संबंधों का विश्वास - नहीं, जन्म-जन्मान्तर का विश्वास! अरे, क्षण-भर में मिट जाता है वर्षों-वर्षों का होता घनीभूत अपनेपन का अहसास! . ताश के पत्तों जैसा बाँध टूटता है जब मर्यादा का, स्वनिर्मित सीमाओं को आवेष्टित करते विद्युत-प्रवाह-युक्त तार तब बन जाते हैं निर्जीव अचानक! लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ, छलाँग भर-भर फाँद जाते हैं स्थिर पैर, डगमगाते काँपते हुए स्थिर पैर! भंग हो जाती है शुद्ध उपासना कठिन सिद्ध साधना! धर्म-विहित कर्म खोखले हो जाते हैं, तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ झुठलाती हैं। बेमानी हो जाते हैं वचन-वायदे! और — प्यार बन जाता है निपट स्वार्थ का समानार्थक! अभिप्राय बदल लेती हैं व्याख्याएँ पाप-पुण्य की, छल - आत्माओं के मिलाप का नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में उतर आता है! संयम के लौह-स्तम्भ टूट ढह जाते हैं, विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो तिनके की तरह डूब बह जाते हैं। जब भूकम्प वासना का ‘तीव्रानुराग’ का आमूल थरथरा देता है शरीर को, हिल जाती हैं मन की हर पुख़्ता-पुख़्ता चूल! आदमी अपने अतीत को, वर्तमान क

जीवन्त

महेंद्रभटनागर . दर्द समेटे बैठा हूँ! रे, कितना-कितना दुःख समेटे बैठा हूँ! बरसों-बरसों का दुख-दर्द समेटे बैठा हूँ! . रातों-रातों जागा, दिन-दिन भर जागा, सारे जीवन जागा! तन पर भूरी-भूरी गर्द लपेटे बैठा हूँ! . दलदल-दलदल पाँव धँसे हैं, गर्दन पर, टख़नों पर नाग कसे हैं, काले-काले ज़हरीले नाग कसे हैं! . शैया पर आग बिछाए बैठा हूँ! धायँ-धायँ! दहकाए बैठा हूँ!

अवधूत

महेंद्रभटनागर . लोग हैं — ऐसी हताशा में व्यग्र हो कर बैठते हैं आत्म-हत्या! या खो बैठते हैं संतुलन तन का / मन का! व हो विक्षिप्त रोते हैं - अकारण! हँसते हैं - अकारण! . किन्तु तुम हो स्थिर / स्व-सीमित / मौन / जीवित / संतुलित अभी तक . वस्तुतः जिसने जी लिया संन्यास मरना और जीना एक है उसके लिए! विष हो या अमृत पीना एक है उसके लिए!

पूर्वाभास

महेंद्रभटनागर बहुत पीछे छोड़ आये हैं प्रेम-संबंधों शत्रुताओं के अधजले शव! . खामोश है बरसों, बरसों से तड़पता / चीखता दम तोड़ता रव! इस समय तक - सूख कर अवशेष खो चुके होंगे हवा में! बह चुके होंगे अनगिनत बारिशों में! . जब से छोड़ आया लौटा नहीं; फिर, आज यह क्यों प्रेत छाया सामने मेरे? . शायद, हश्र अब होना यही है — मेरे समूचे अस्तित्व का! . हर ज्वालामुखी को एक दिन सुप्त होना है! सदा को लुप्त होना है!

सार-तत्त्व

महेंद्रभटनागर . सकते में क्यों हो, अरे! नहीं आ सकते जब काम किसी के तुम - कोई क्यों आये पास तुम्हारे? चुप रहो, सब सहो! पड़े रहो मन मारे, यहाँ-वहाँ! . कोई सुने तुम्हारे अनुभव, कोई सुने तुम्हारी गाथा, नहीं समय है पास किसी के! निष्फल - ऐसा करना आस किसी से! . अच्छा हो सूने कमरे की दीवारों पर शब्दांकित कर दो, नाना रंगों से चित्रांकित कर दो अपना मन! शायद, कोई कभी पढ़े / गुने! या किसी रिकॉर्डिंग-डेक में भर दो अपनी करुण कहानी बख़ुद ज़बानी! शायद, कोई कभी सुने! . लेकिन निश्चिन्त रहो — कहीं न फैले दुर्गन्ध इसलिए तुरन्त लोग तुम्हें गड्ढ़े में गाड़ / दफ़न या कर सम्पन्न दहन विधिवत् कर देंगे ख़ाक / भस्म ज़रूर! विधिवत् पूरी कर देंगे आख़िरी रस्म ज़रूर!

दरकते पल

विमला भंडारी धुंधला रही है अब याद तुम्हारी राख के नीचे दब गई चिंगारी पेड़ों के पत्ते हुए अब पीले झड़ने लगे है वो फूल जो कभी थे अधखिले तुमसे झुठला न पाउंगी इस सच्चाई को झेलनी होगी तुम्हें मौसम की इस रूसवाई को तुमसे ही शुरू होकर तुम ही पर खत्म होती थी उन कहकहों की गूंज अब धूमिल पड़ने लगी है तकती थी निगाहे सूनी राह को जिन पथों पर कभी पैर हमने धरा था चलते है आज भी, खुद-ब-खुद उघड़ आते है कदमों के निशां, कहो इसमें मेरी क्या खता गुनगुनाने को बहुत कुछ था बाकी अभी तो खाली जाम था साकी रोशन चिराग सब गुल हुए वज्र से सबके दिल हुए ऐसे गाफिल जिंदगी से हम हुए चंद इबादत मे कैद हम हुए किन्तु इनके बीच धड़कता है वो प्यार जो कभी हमारी रगों में तुमने रोपा था तुम बिन न जी पायेंगे ऐसा भी दौर कभी गुजरा था पर जी ली तमाम जिंदगी तुम्हारे बिना अब ये ना पूछो वो जीना कैसा था

निराशा और बुद्धिवाद के समानांतर एक रागमय संसार की रचना

कवि महेंद्रभटनागर-विरचित ‘राग-संवेदन’ निराशा और बुद्धिवाद के समानांतर एक रागमय संसार की रचना — डा. जगन्नाथ पंडित उत्तर-आधुनिक और भूमण्डलीकरण के इस युग में राग और संवेदना को दरकिनार कर बौद्धिक, अमानुषिक और स्वार्थ-प्रेरित नितान्त व्यावसायिक प्रवृत्तियाँ जन्म ले रही हैं तथा मनुष्य की भौगोलिक दूरी घटने के बावज़ूद उसकी आत्मिक और भावनागत दूरी बढ़ती जा रही है। आदमी संवेदना से कम, बुद्धि से अधिक काम लेता है; जिससे उसकी संवेदना छीजती जा रही है। जो एक वैश्विक संकट या संकट का वैश्वीकरण है। बुद्धि तो जीवन के लिए आवश्यक है, किन्तु बुद्धिवाद की भागाभाग में संवेदना का निर्ममता से कुचला जाना तथा मनुष्य का राग और संवेदना से सतत शून्य होते जाना शुभ संकेत नहीं है। यह अतिशय स्वार्थ और बौद्धिकता का ही प्रभाव है कि इतनी अमानवीयता बढ़ रही है तथा अनात्मीयता और दुष्प्रवृत्तियों का बाज़ार गर्म होता जा रहा है। बावज़ूद इसके, इन मानव-विरोधी तत्वों के विरोध में लोग सक्रिय नहीं हैं। इन्हीं भयानक और त्रासद स्थितियों को भाँपकर महेंद्रभटनागर ने अपनी काव्य-कृति ‘राग-संवेदन’ में राग और संवेदना का एक मधुर, कोमल और जीवन्त

लाडली बिटिया

विमला भंडारी तेरी सूरत.... जैसे मन में बसी कोई मोहनी मूरत बेटी! तू है जहां में, मेरे लिये - सबसे खूबसूरत ! तेरी आवाज... बज उठते है मानों सारे साज मेरे लिये - तू है सबसे खास ! तेरी आंखे... जैसे मेरी चाहतो की पांखे गुजरती है जिनसे मेरे ख्वाबों की राहें ! तेरे बाल... जैसे उड़ी हो बादलों से मस्त गुलाल, जिनकी खुशबू से सदा महके मेरे ख्याल ! तेरा चेहरा... जैसे सूरज हो मेरा जिससे हुआ मेरा जीवन सुनहरा ! मेरी सांस-सांस में है तेरी धड़कन, मेरी आस-आस में तेरा ही रूपरंग तेरा प्यार ही जीवन का सहारा, तुझे पाकर ही मिला मुझे किनारा अपना प्यार ... इसी तरह सजाए रखना, यूं ही सदा ... मुझकों अपना बनाए रखना। तुम्हारा जन्मदिन... आये बार-बार खुशिया लाये हजार सब मिलकर झूमे-नाचे गाये तुम्हार जन्मदिन मनाये.

आदमी की औकात

विमला भंडारी अपनों के घरौंदे और रेत के महल दोनों में साम्य देखो ढ़हना और फिर बनना आदमी की औकात देखो गुजरता है आदमी आपदाओं के बीच धूमिल होता है निस्तेज होता है फिर उठता है उठने और गिरने बनने और बिगड़ने का भूकम्पी दौर से गुजरने का यह अभ्यास देखो क्षुद्रताओ के बीच ÷मोती' चुगने का अनोखा प्रयास देखो तकदीर और तदबीर से जूंझते देखो हर लम्हें पर चस्पा, बाजुओं पर जमी फौलाद देखो आदमी की औकात देखो

वो लड़कियां

विमला भंडारी लड़कियां जायेगी अब स्कूल किन्तु वो लड़कियां जिन्हें जाना चाहिए था ÷स्कूल' आज भी हांकती है उसी तरह ढ़ोर डंगर काटती है जंगलों में लकड़ियां बीनती है सूखे कण्डे और टोपले में भर ईंधन का बोझा ढ़ोती है हर रोज वो लड़कियां ताकि सिक सके घर परिवार की ÷रोटियां' वो लड़कियां जिन्हें जाना चाहिये था स्कूल प्रतिदिन चमकाती है बर्तनों को भरती है पानी करती है झाडू पौंछा पौंछती है भाईयों की बहती नाक और/फोड़ती है पत्थरों को मजूरी देती रहे उन्हें रोटियां वो लड़कियां जिन्हें जाना चाहिये था स्कूल प्रतिवर्ष आखा तीज पर गणगौर सी सजाकर युवा होने से पूर्व ही ब्याह दी जाती है किशोरी कोख से किल्लोलती जनमती है/फिर वो लड़कियां जिन्हें जाना चाहिये था स्कूल किन्तु कभी नहीं जा पायेगी वो स्कूल

आदमी का अहसास

विमला भंडारी जिन्दगी की किताब पर रोज होते है हास परिहास नित नये रूप में छपते है संवाद चाय के पानी की तरह खौलते है गैस पर फ्र्रिज में रखे दूध का ठण्डापन जमने न देता डिब्बे में बंद चीनी की मिठास जागता है फिर गर्म अहसास मुंह के सामने लगी प्याली की तरह गर्म धुंए से लौटता है फिर आदमी का विश्वास