Skip to main content

'एक ख़ास तबक़ा डरता है...ये सोच आगे न जाए...' नासिरा



नासिरा शर्मा से अचला शर्मा की बातचीत


(हिंदी की जानी-मानी लेखिका नासिरा शर्मा के उपन्यास 'कुइयाँजान' को लंदन में इंदु शर्मा कथा सम्मान से नवाज़ा गया है.)
नासिरा जी सबसे पहले आपको इस सम्मान के लिए बहुत-बहुत बधाई. मैं आपसे बरसों से मिलना चाहती थी जबसे आपका पहला उपन्यास 'सात नदियाँ एक समंदर' पढ़ा था. बताइए कितने साल हो गए हैं इसे?
24 साल तो हो गए हैं.
चौबीस साल की मेरी हसरत आज पूरी हो रही है, 2008 में. मुझे जहाँ तक याद पड़ता है 'सात नदियाँ एक समंदर' ईरानी क्रांति की पृष्ठभूमि में सात लड़कियों के संघर्ष की कहानी थी. तब से लेकर 'कुइयाँजान' तक आपने कई पुस्तकें लिखी हैं लेकिन मेरा पहला प्रश्न सात नदियाँ के विषय में है. आप इलाहाबाद की रहने वाली हैं दिल्ली में आपने काम किया है. अपने उपन्यास के लिए जो पात्र, जो पृष्ठभूमि आपने चुनी उसके लिए क्या आपको ख़ास मेहनत, रिसर्च करनी पड़ी?
मैंने फ़ारसी में एमए किया जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से. पृष्ठभूमि तो थी ही लेकिन 1976 में जब ईरान गई तो वहाँ अनजाने में कुछ इंक़लाबी लोगों से दोस्ती हो गई. वहाँ लोगों ने भी हमारी काफ़ी मदद की ये सोचकर कि हमारे यहाँ प्रेस आज़ाद है और उनकी चीज़ें यहाँ छपेंगी. जब मैं दोबारा 1978 में गई और 1979 में लौटी तो शाह के ख़िलाफ़, व्यक्ति के ख़िलाफ़ नहीं, व्यवस्था के खिलाफ़, काफ़ी कुछ लिखा क्योंकि वहाँ सारा मूवमेंट जो था वह ज़बान की, क़लम की आज़ादी के लिए था. वहाँ पर पूरी क्रांति में औरतों का बड़ा रोल मैंने देखा. तो कहा जा सकता है कि जो कुछ मैंने देखा वही उपन्यासों में उतर कर आया.
और अब कुइयाँजान के लिए आपको इंदु शर्मा कथा सम्मान मिला है. इस बीच आपने इतनी पुस्तकें लिखी हैं. आप अपनी इस साहित्य यात्रा में और कौन सी अपनी पुस्तकें महत्वपूर्ण मानती हैं?
लेखक जब भी कुछ लिखता है तो उसे लगता है कि वह बड़ी ईमानदारी से काम कर रहा है. 'शालमली' बहुत चर्चित हुई, और उसे भी पुरस्कार मिला. इसी तरह 'संगसार' थी उसे भी पुरस्कार मिला. और भी कई क़िताबें हैं जिनके लिए मुझे सम्मान मिले लेकिन हाँ, 'कुइयाँजान' के लिए मुझे बड़ी हैरत हुई. 2005 में ये उपन्यास आया था. सबसे पहले मैंने सम्मान देने वालों से पूछा कि 'जजेज़' कौन थे? तो उन्होंने कहा कि हम ये ज़ाहिर नहीं करते. इस बात की मुझे खुशी है कि पानी जैसी अंतरराष्ट्रीय समस्या पर यह उपन्यास है. सबसे पहले 'बीबीसी हिंदी डॉट कॉम' ने ही अपनी पत्रिका में इसका अंश छापा था. मुझे बड़ी ख़ुशी हो रही है कि आज हम इसी उपन्यास पर फिर बात कर रहे हैं.
आप 'कुइयाँजान' के बारे में थोड़ा सा और बताएँगी....पानी की समस्या को आपने किस तरह से, किन पात्रों के माध्यम से, किस पृष्ठभूमि के ज़रिए उठाया है?
यह एक लंबा 'ऑबज़र्वेशन' है. मैं ये बात देख रही थी कि जब नल में पानी नहीं है तो घर में रिश्ते गड़बड़ा जाते हैं. सड़क पर मारपीट हो जाती है. फिर यह देखती रही मैं कि धीरे-धीरे रिश्ते शुष्क होते जा रहे हैं, संवेदनाएँ शुष्क होती जा रही हैं. इस उपन्यास में दोनों तरह की प्यास है. एक तो साफ़-सुथरे पीने के पानी की और दूसरी रिश्तों की. इसमें सारे मौसमों का मैंने ज़िक्र किया है और उसमें पानी की समस्या को लिया है.
और सबसे बड़ी बात यह कि मैं जब बीकानेर गई थी और मुझे पता चला कि गंदा पानी पीने से एक ख़ास क़िस्म के केंचुए जैसे कीड़े लोगों के पैरों से निकलते हैं तो मैं कांप गई. इस बात से भी मैं परेशान रहती थी कि नदियाँ कैसे जोड़ी जाएँगी. नदियों को जोड़ने का एक अनुभव हो चुका था. लखनऊ के एक नवाब ने यह किया था. गोमती और गंगा नदी को जोड़ने की कोशिश की गई थी जो नाकाम रही थी. इस सब को लेकर मेरी परेशानियाँ थी कि मैं ऐसी चीज़ लिखूँ जो लोगों को अंदर तक झिंझोड़ दे. शायद इसी वजह से इसे काफ़ी पसंद किया गया.
आप नहीं सोचतीं कि इतनी बड़ी अंतरराष्ट्रीय समस्या पर है यह उपन्यास है इसे अंग्रेज़ी में भी होना चाहिए?

जिस वक्त यह सम्मान मुझे मिला था तो लोगों ने मुझसे कहा कि इसका अनुवाद हो जाएगा. लेकिन मैंने कहा कि इसका कोई ताल्लुक़ अनुवाद से तो है नहीं. अब ये है कि कोई उठाए इस चीज़ को तो अलग बात है. लेखक इसमें क्या करेगा? क्योंकि कई ऐसे हिंदी के लेखक हैं जिनके उपन्यासों का अनुवाद हुआ लेकिन उन पर कोई 'फ़ोकस' नहीं हुआ. क्योंकि या तो प्रकाशक उन्हें उस तरह से 'लॉंच' करे जैसे बाहर की दुनिया में होता है और बहुत बड़ी रक़म लेखकों को दी जाती है.
जब तक वह सारा प्रोग्राम नहीं होगा तब तक हम ऐसे धीरे-धीरे चलते रहेंगे. क्योंकि हमारे यहाँ प्रकाशक ऐसा नहीं करते हैं. लेखक के भरोसे ही, उसके नाम के भरोसे, उसकी क़लम के भरोसे किताब बेचते हैं. और एक दूसरी तहज़ीब भी देखने में आ रही है कि नए लेखक, या वह लेखक जो जल्दबाज़ी में हैं, वे अपना पैसा लगा कर किताब छपवाते हैं, बड़ी-बड़ी गोष्ठियाँ करवाते हैं. इसकी भी एक टकराहट हिंदोस्तान में देखने को मिल रही है.
मूल समस्या आप क्या समझती हैं - पैसे की, या फिर यह कि प्रकाशक और ज़्यादा ज़िम्मेदारी ले और किताब को ढंग से 'प्रमोट' करे?
असल में हालत ये हो रही है कि जिस तरह से कोई भी पेशा आपको रोज़ी-रोटी देता है उसी तरह किताब लिखना भी एक पेशा मान लिया गया है. जैसा पहले था कि एक अच्छे लेखक, उसकी सच्ची निष्ठा को, एक अच्छी क़लम को, एक अच्छी सोच को आगे ले जाना है, वो अब नहीं रहा. आज समाज कुछ ऐसा हो गया है - एक ख़ास तबक़े को ऐसा डर लगता है कि यह सोच आगे तक ना जाए.

मतलब चर्चा नहीं होती...
चर्चा भी होती है लेकिन जिस तरह से क़िताबों को लोगों तक पहुँचाया जाना चाहिए वो नहीं किया जाता. लेखक तो लोगों तक अपनी क़िताब पहुँचाएगा नहीं. उसने तो अपना काम कर दिया.
तो एक लेखक के तौर पर जब आप उपन्यास लिखती हैं तो वह क्या मूड होता है, क्या मनःस्थिति होती है, क्या उसकी प्रक्रिया होती है, यानी कि रचना प्रक्रिया
देखो, कहानी लिखते वक़्त तो तुम्हें ख़ुद अंदाज़ा होगा, तुम ख़ुद इतनी प्यारी कहानियाँ लिखती हो...आप तो जानती हैं कि आदमी एक उबाल, एक बुख़ार, एक कैफ़ियत से गुज़रता है और बहुत जल्द ही चंद पन्ने रंग डालता है. लेकिन उपन्यास एक आपकी ही बसाई दुनिया होती है जिसमें आपको ख़ुद जीना पड़ता है. इतने ढेर सारे किरदार... मैंने एक लेख लिखा है कि मैंने कितने घर बनाए. ऐसा आर्किटेक्ट बनना पड़ता है. जब हम नॉवेल लिखते हैं तो घर भी चुनते हैं, मुहल्ला भी चुनते हैं, उसमें किरदार रखते हैं, उसकी सजावट भी देखते हैं.
जब मेरा अपना घर बन रहा था तो उसे देखकर मुझे ख़याल आया कि मकान बनाते वक्त दीवारें नीचे से ऊपर की तरफ़ बढ़ती हैं. लेकिन हम जब लिखते हैं तो लेखक से नीचे आते हैं. उपन्यास लिखना दरअसल अपने को चारों तरफ़ से काटना और ऐसी जगह बैठकर लिखना है जहाँ आपके चारों तरफ़ क़ाग़ज़ बिख़रे हुए हों, जिन्हें आपको रोज़ाना समेट कर न रखना हो. बहुत सारे ड्राफ़्ट बनाने पड़ते हैं. सामान्य नहीं रहता आदमी. वैसे भी हम लोग आसामान्य ही हैं.
उस दौरान जो आपका बाक़ी जीवन है, उससे क्या टकराहट होती है. खाना बनाना, बच्चों को संभालना?
बिल्कुल टकराहट होती है. इसलिए उपन्यास कोई जल्दी नहीं लिखता. उसके लिए परिवेश चाहिए, सुक़ून चाहिए. और अगर वह नहीं मिलता तो या तो आदमी कविताएँ लिखता है या कहानियाँ लिखता है. आपको एक किरदार को अंत तक ले जाना होता है. एक पूरी आबादी आपके साथ चल रही होती है. बच्चे हैं, सड़क है, जानवर हैं...सड़क है.
अनुशासन हैं आपमें?
लेखन को लेकर बिल्कुल अनुशासित हूँ मैं.
अब तक कितने उपन्यास हो गए हैं?

शालमली, ठीकरे की मंगनी, एक बँटवारे पर है- ज़िंदा मुहावरे. उसके बाद मैंने 12 साल तक नहीं लिखा. क्योंकि वह सुक़ून सा नहीं था. यह दौर वह था जब जेएनयू का स्टडीरूम मुझे छोड़ना पडा था. उससे हम उखड़े लेकिन लेखन तो नहीं छूटा पर उपन्यास नहीं आया. तो बारह साल बाद मेरा 'अक्षयवट' आया, इसके बाद एक और उपन्यास आया और अब 'कुइयाँजान'.
आपने देखा कि मैं आपसे वे सवाल बाद में कर रही हूँ जो बहुत से लोग शायद पहले करते हैं. अब यह बताइए कि आपने लिखना कब शुरू किया और क्यों शुरू किया?
हमारे घर का वातावरण ऐसा था कि सब लिखते-पढ़ते रहते थे. बच्चे नकल करते ही हैं. मैं भी लिखने लगी. स्कूल में लिखने पर एक-आध ईनाम भी मिल गए. लेकिन संजीदगी से अपने अंदर के उबाल को सहज बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई शादी के बाद.
आप मेरे सवाल ख़ुद मुझे सौंप रहीं हैं. तो शादी की बात करें. आप इलाहाबाद में एक मुस्लिम परिवार में पली-बढ़ीं. शादी आपने की जेएनयू के डॉक्टर शर्मा से. कुछ उस बारे में बताएँ?
डॉक्टर शर्मा हमारे भूगोल के प्रोफ़ेसर थे. और हम लोगों ने तय किया कि शादी करनी है. बाद में उनको स्कॉलरशिप मिल गई 'ब्रिटिश काउंसिल' से. थार पर 'पीएचडी' जमा करने के लिए ये एडिनबरा आ गए. 'स्कॉलरशिप' में परिवार के लिए भी भत्ता शामिल था. बस कोर्टशिप हुई. 1967 में हमारी शादी हुई. तीन साल हम एडिनबरा में ही रहे. वहीं दो बच्चे भी हुए.
जितनी सहजता से आपने इस यात्रा के बारे में बताया है, क्या आपकी ये यात्रा उतनी ही आसान रही?

मुझे उस तरह की कोई तकलीफ़ नहीं हुई. आपस में भी कोई उलझन नहीं रही क्योंकि हम दोनों ही मज़हबी नहीं थे. मुहब्बत करना तो सब जानते हैं लेकिन मुहब्बत के साथ एक-दूसरे का आदर करना बहुत कम लोग जानते हैं. मुहब्बत जब होती है तो एक खुलापन आ जाता है, आप दानी हो जाते हैं. और मेरी ज़िंदगी ने भी बहुत कुछ दिया. उस दौर में एडिनबरा जैसी ख़ूबसूरत जगह पर रहना और एक उम्दा ज़िंदगी जीना. उसके बाद जेएनयू में ज़िंदगी शुरू हुई, जो कि क्रीम कही जाती थी और वहाँ का माहौल, लगातार विदेश यात्राएँ. इन सबने हमारे व्यक्तित्व को बढ़ने में बहुत मदद की. और शायद पहले से जो ख़ूबियाँ थीं, वे उभरीं और जो बुराइयाँ थीं वे दबीं.
और घर-बाहर, समाज, रिश्तेदार-उन सबके लिए भी सहज था यह?
आज मैं कह सकती हूँ कि मेरी ज़िंदगी को देखकर बहुत से लोगों ने इस तरह से शादियाँ कीं. मेरा मानना है कि आप अपने को उतना नहीं जानते जितना लोग आपको ऑबज़र्व करते हैं.
अब आख़िरी सवाल की तरफ़ आती हूँ. कुईयाँजान लिखा गया, पुरस्कार भी मिल गया. अब आगला प्रोजेक्ट क्या है. प्रोजेक्ट शब्द का इस्तेमाल मैं इसलिए कर रही हूँ क्योंकि आपके उपन्यासों में, सिर्फ़ एक घर नहीं होता, जैसा आपने कहा, बल्कि एक पूरा मुल्क, समाज, उसके पीछे की राजनीति दिखाई देती है. ज़ाहिर है ऐसा उपन्यास लिखने से पहले बहुत काम करना पड़ता है.
मेरा जो तीसरा उपन्यास 'ज़ीरो रोड' है, वह ज्ञानपीठ से आ रहा है. इलाहाबाद की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है ये उपन्यास. कुछ इसके बारे में भी कहना चाहूँगी. जब मैं दुबई गई, दुबई परियों जैसा मुल्क है. लेकिन जिस चीज़ ने मुझे झिंझोड़ा, वह यह थी कि वहाँ 65 प्रतिशत लोग हिंदुस्तानी थे. और साहब, अरब भी उनसे हिंदुस्तानी में बात कर रहा है और वे भी. मुझे लगा ये क्या हो रहा है. धीरे-धीरे यह बात मेरे अंदर जमने लगी और एक उपन्यास आ गया- ज़ीरो रोड. जो इलाहाबाद के ज़ीरो रोड से शुरू होता है और दुबई जाता है और दुबई से इलाहाबाद के ज़ीरो रोड वापस आता है.
लेकिन इस बीच मैंने अफ़ग़ानिस्तान और ईरान के इनक़लाब देखे. ज़िंदगी देखी, बहुतों के तलाक़ देखे, और बहुत सारों की उम्मीदों को बिखरते देखा, सियासत को देखा, दुनिया की राजनीति को देखा, वो जा कहाँ रही है. बम की संस्कृति जन्म ले रही है. हम जा कहाँ रहे हैं. एक तरफ़ हम लोगों को बुरी से-बुरी बीमारी से निजात दिला कर आरामदेह ज़िंदगी दे रहे हैं और दूसरी तरफ़ मिनटों में उसे तबाह कर दे रहे हैं. इसी के मद्देनज़र 'ज़ीरो रोड' वजूद में आया.
वैसे मैं एक नए उपन्यास पर भी काम कर रही हूँ. उसमें मैंने 'हुसैनी ब्राह्मण' के किरदार को लिया है. बहुत कम लोगों को पता होगा कि करबला की लड़ाई में दत्त लोगों ने बड़े ज़ोर-शोर से हिस्सा लिया था जो अब तक हुसैनी ब्राह्मण कहलाते हैं. इस उपन्यास की पृष्ठभूमि लखनऊ की है. इस उपन्यास में मैंने 'मुता' का ज़िक्र भी किया है. जैसे गंधर्व विवाह होते हैं, वैसे ही शिया मुसलमानों में 'मुता' होता है.
जिस ज़माने में बड़ी जंगें हुआ करती थीं, उस समय जो विधवाएँ थीं और जो सिपाही थे, उनके ख़याल से यह चलन शुरू हुआ. 'मुता' उन विधवा स्त्रियों से, जो खुद भी शादी की ख्वाहिश रखती हों, उनसे एक 'कॉन्ट्रेक्ट मैरिज' की तरह है. निकाह का 'कॉन्ट्रेक्ट' ख़त्म होने पर तलाक़ ले लिया, महर दे दिया, बच्चा होने पर नाम-नुफ़का दे दिया. लेकिन कई बार ये शादी पूरी ज़िंदगी चल जाती थी. कुछ लोग हालांकि इसके ख़िलाफ़ हैं. लेकिन अगर मैं उसके लिए आज का शब्द 'स्त्री विमर्श' इस्तेमाल करूँ तो ये एक बहुत बड़ा इंकलाबी क़दम था.
कब तक ख़त्म होगा ये उपन्यास ?
करबला की ज़्यादा जानकारी न हो पाने की वजह से मैं अटक गई हूँ.
नासिरा जी इस बातचीत के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद.

साभारः बीबीसी हिंदी सेवा प्रमुख

Comments

कुइयांजान ने काफी प्रभावित किया , मैने पढ़ने के बाद अपने ब्लॉग में उसका जिक्र भी किया है।

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क