Skip to main content

मनीषा महंत (थर्ड जेंडर) से डॉ. फ़ीरोज़ और डॉ. शमीम की बातचीत

15 अप्रैल 2014 को माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में हिजड़ों को थर्डजेन्डर घोषित किया। ये निर्णय हिजड़ों के लिए ऐतिहासिक है। इस फैसले के साथ प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हिजड़ों से संबंधित एक नई बहस शुरू हो गई। इस फैसले के बाद हमारा भी ध्यान इस समुदाय की और खिंचा चला आया। मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि क्यों इनके बारे में विस्तृत जानकारी की जाए। इसके लिए हमने बहुत-सी किताबों के पन्ने पलटे और बहुत कुछ पत्र-पत्रिकाओं को एकत्रित किया। लेकिन इन सभी से बहुत भ्रान्तियाँ भी उत्पन्न हो गई। हमने सोंचा कि क्यों किसी थर्डजेन्डर का इन्टरव्यू लिया जाए। इस सन्दर्भ में हमने कई थर्डजेन्डरों से मुलाकात की लेकिन किसी से बात नहीं बन पाई। इसका मुख्य कारण ये था कि वह पढे़-लिखे बिल्कुल नहीं थे और इन्टरव्यू देने से घबरा रहे थे। लेकिन हम लगातार प्रयास करते रहे तो हमें इन्टरनेट से मन्नू महंत (मनीषा महंत किन्नर) को मोबाईल नम्बर मिल गया है। फोन से उनसे बातचीत हुई और वो इन्टरव्यू देने के लिए राजी हो गए और इन्टरव्यू के दौरान उन्होंने सभी प्रश्नों के उत्तर दिए। हम  आशा करते हैं कि इनके जवाबों से कुछ भ्रांतियां दूर होंगी और समाज उनको समझ सकेगा-

सबसे पहले आप अपने परिवार के बारे में विस्तार से बताइए?
मैं हरियाणा के करनाल शहर की रहने वाली हूँ! वैसे तो किन्नरों के लिए असल परिवार वो शहर या गाँव होता है जहाँ पर हम लोगों का डेरा होता है या जहाँ हम लोगों ने माँग खाकर और लोगों को दुआएँ देकर गुजर-बसर करना होता है। लेकिन आपके सवाल के कारण हम आपको अपने परिवार के बारे में बता रहे हैं। मेरे परिवार में तीन भाई और एक छोटी बहन है, जो कि अब शादी शुदा है। मम्मी-पापा दोनों का इतंकाल हो चुका है।
आपका जन्म कब हुआ?
मेरा जन्म 16.12.1991
आपकी शिक्षा?
10वीं
आपको कब लगा कि आप किन्नर हैं?
आपका ये प्रश्न बहुत अच्छा लगा कि मुझे कब पता लगा कि मैं किन्नर हूँ, जब तक बचपन था तो मैं तब तक सामान्य बच्चों की तरह ही थी, मैं लड़की या लड़का सभी के साथ खेल सकती थी, लेकिन जैसे ही मैं बड़ी होती गई तो ना तो लड़के मेरे साथ खेलना पसंद करते थे और ही लड़की। लड़कों में खड़ी होती तो लड़के मजाक उड़ाते और लड़कियों में खड़ी होती तो लड़कियां। तो थोड़ा अजीब लगता था और अकेलापन भी महसूस होता था और परिवार में भी मुझे तो लड़कों वाले अधिकार थे और ही लड़कियों वाले, मुझे मेकअप करना और तैयार होकर रहना पसंद था जबकि परिवार मुझे लड़का बनाने पर तुला हुआ था, तो मैं कई बार सोचती कि मेरी सोच तो लड़कियों वाली, हाव-भाव भी लड़कियों वाले हैं तो ये सब मुझे क्यों लड़कों की तरह रहने पर मजबूर करते हैं, जबकि मैं खुद को पूरी तरह लड़की समझती थी, मुझे लड़कों की तरह रहना बिलकुल पसंद नहीं था, जिसके कारण मेरी कई बार परिवार के सदस्यों द्वारा पिटाई भी की गई। जिसकी वजह से मैं बचपन से ही मानसिक तौर पर परेशान रहने लगी और मैं सोचती थी कि मुझ में कुछ तो अलग है दूसरे बच्चों से। कई बार बच्चे मेरा मजाक भी उड़ाते थे। तो बहुत कुछ हुआ छोटी-सी उम्र में ही जिसके कारण मुझे बहुत पहले ही एहसास हो गया था कि मैं दूसरे बच्चों से बहुत अलग हूँ।
क्या किन्नरों में एक ही समुदाय होता है? विस्तार से बताइए?
नहीं किन्नरो में भी अलग-अलग समुदाय होता है। जैसे कि जिसका हिन्दू के घर का जन्म है तो वो हिन्दू धर्म को मानता है, जिसका मुस्लिम के घर का जन्म है वो इस्लाम को मानता है और जिसका किसी सिख के घर का जन्म है तो वो सिक्ख धर्म को मानता है, और तो और किन्नरां में भी जात-पात को लेकर भेदभाव होता है और सच्चाई तो ये भी है कि तकरीबन 95 प्रतिशत किन्नर समाज का इस्लामीकरण हो चुका है, अगर कोई किन्नर इस्लाम धर्म नहीं अपनाता तो कुछ तथाकथित किन्नरों द्वारा उनको मानसिक तौर पर इतना परेशान किया जाता है कि उसको तंग आकर अपना धर्म परिवर्तन करना ही पड़ता है जो कि बहुत ही गलत है।
किन्नरों को मुस्लिम समाज अपनाने के लिए कौन लोग दबाव डाल रहे हैं।
अभी तक ये स्पष्ट नहीं हो पाया कि आखिर पूर्णतः हिन्दू धर्म का अंश कहे जाने वाले किन्नर समाज का लगातार इस्लामीकरण कैसे और क्यों हो रहा है, वैसा तो किन्नर समाज किसी भी जात-पात के चक्करों से बहुत ऊपर है और वो सभी धर्मों का सम्मान करते हैं, लेकिन फिर भी ऐसी क्या सोच है जिसके कारण किसी हिंदू या सिख के घर में पैदा हुए किन्नर भी इस्लाम अपना रहे हैं या कोई उन पर दबाव बना रहा है। ये बात अभी तक स्पष्ट नहीं हो पा रही है। हालाँकि धर्म सभी अच्छे है और वो इन्सान को अच्छी राह दिखाते हैं।
क्या किन्नरों को कई भागों में बाँटकर देखा जा सकता है?
जी बिलकुल! किन्नर समाज भी कई भागों में बंटा हुआ है। जैसे कि आपको पता है कि कुछ किन्नर अपने डेरों में रहते हैं, वो सिर्फ बधाई वगैरह माँगने के लिए ही बाहर निकलते हैं उनको महंत जी, माई जी या नायक जी कहा जाता है। क्योंकि डेरों में रहने वाले किन्नरों को बहुत ही साफ-सुथरी छवि के धनी होते हैं और उनको ही असली फकीर का दर्जा प्राप्त है और कुछ किन्नर रेलगाड़ी, बस स्टैंड या लाल बत्ती पर भी माँगते देखे जा सकते हैं, लेकिन आजकल किन्नरों का भेष बनाकर कुछ लड़के या पुरुष भी माँगते नजर जाते हैं, जैसे रेलगाड़ी में, बस स्टैंड वगैरह कई जगह पर। लेकिन डेरों में नकली किन्नर के घुसने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इसलिए डेरों में रहने वाले किन्नरों को बहुत ही पवित्रा माना जाता है। इसलिए हाँ हम किन्नरों को कई भागों में बाँट कर देख सकते हैं।
क्या किन्नरों को गोद लेने का अधिकार नहीं है। अगर नहीं है तो क्यों?
जी अभी पिछले 2-3 साल पहले ही माननीय सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को बच्चा गोद लेने का कानूनी अधिकार दिया है, लेकिन उसके बावजूद भी अनाथ आश्रमों या कुछ संस्थाओं द्वारा तरह-तरह के नियम बताकर किन्नरों को बच्चा गोद नहीं दिया जाता। जो कि बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है। आखिर एक किन्नर भी तो फकीर होने के बावजूद आत्मा या रूह से होती तो औरत ही होती  है। आखिर वो भी माँ या मम्मी होने का सुख भोगना चाहते हैं कुछ ऐसे ही मामलों के कारण कोई किन्नर अपने आप को दूसरों से अलग समझते हैं और मानसिक तौर पर परेशान रहने लग जाते है।
किसी ने कहा है कि केवल एक किन्नर ही किन्नर हो समझ सकता है। ऐसा क्यों?
नहीं ऐसा कुछ नहीं है, कोई भी अगर किन्नर से अपनेपन से पेश आए या उनको अपना समझकर उनके दिल को टटोले तो कोई भी किसी भी किन्नर की भावनाओं को समझ सकता है, लेकिन ये बेदर्द समाज उनकी भावनाओं को समझने का प्रयास ही नहीं करता और ही समझना चाहता है। रही बात कि एक किन्नर ही दूसरे किन्नर को समझ सकता है तो ये बात बिलकुल सही है क्योंकि वो सब भी उस दौर से गुजर चुके होते हैं, जिस दौर से आज युवा किन्नर गुजर रहा होता है।
जब एक किन्नर समुदाय पर होने वाली दुर्दशा का अध्ययन करेगा तो वो सम्पूर्ण शोध यानी शोध होगा। इससे समुदाय के अन्दर और समाज में क्या बदलाव आएगा।
कहीं कहीं मुझे ऐसा लगता है कि वाकई में किन्नर समाज पर एक शोध की जरूरत है ताकि उनकी असली दुर्दशा का पता चल सके कि उनको क्या -क्या कानूनी और मानसिक परेशानियाँ है, वैसे तो इस देश में किन्नरों के लिए कोई भी कानून बनाने से पहले उनकी स्थितियों को बारीकी से देखा तक नहीं जाता। रही बात बदलाव कि तो किसी व्यक्ति विशेष के करने से कुछ नहीं होगा, इसके लिए हमारे महिला-पुरुष के समाज और सरकार को मिलकर कुछ करना होगा, शायद तब किन्नर समाज के लिए बदलाव जाए, क्योंकि किन्नर तो इस समाज और देश में उस अनाथ बच्चे की तरह है जिसकी कोई माँ नहीं है वो कितना भी रोए या कुरलाए उसको कोई दूध पिलाने वाला नहीं, उसको तो खुद ही अपने लिए दूध माँगना होगा या रो-रो कर मर जाना होगा।
किसी किन्नर का कहना है कि एक किन्नर दूसरे किन्नर से अपनी बात कह सकता है जो महिलाओं और पुरुषों से अपनी बात नहीं बता सकते हैं। ऐसा क्यों?
8. ऐसा इसलिए क्योंकि हर किन्नर उस स्थिति से गुजर चुका होता है जिस स्थिति से आज कोई किन्नर गुजर रहा है, एक रोगी का दर्द तो दूसरा रोगी ही समझ सकता है। किसी महिला-पुरुष को अगर वो अपने दिल की बात बताए भी तो बताए कैसे? ये महिला-पुरुष प्रधान समाज किन्नरों को हेय या घृणा की दृष्टि से देखता है, उनको किन्नरों की उपस्थिति ही समाज में पसन्द नहीं तो वो क्या समझेगे। जबकि किन्नरों से बढ़कर हमारे समाज में कोई फकीर नहीं, क्योंकि किन्नर जन्म-जात का फकीर है।

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत...

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार...

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...