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कुछ लोगों का मानना है कि पुलिस से तगड़ा है नेटवर्क आप लोगों का। कहीं भी बच्चा पैदा होता है, तो आप लोगों को फौरन पता चल जाता है। ये कौन लोग हैं जो बताते हैं या कोई एजेंसी काम करती है?
नहीं-नहीं। ही कोई एजेंसी काम करती है और ही कोई नेटवर्क है बल्कि सच तो ये कि हमें पता होता कि इस घर से हमने शादी कि बधाई ली है तो हम तब से ही इस आस में रहते है कि भगवान इनको कोई तो खुशी देगा जैसे कि लड़का या लड़की का पैदा होना। तो हम किसी किसी से पूछ ही लेते है कि भैया हमने उस घर से शादी की बधाई ली थी, क्या उनके घर में मालिक ने कोई और भी खुशी दी क्या! मतलब लड़का-लड़की क्या हुआ उनके घर में, और शादी के बारे में हमें ये पता होता कि हम उस इलाके में हर रोज बधाई लेने जाते हैं तो किनके घर में शादी होने वाली है। इस से ज्यादा कुछ नहीं। अब अगर हम खबर नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा, हमें रोटी ही दूसरों की खुशियों के सहारे मिलती हैं! जैसे एक किसान को पता होता है कि मेरी फसल कब पकेगी उसी प्रकार किन्नर को भी पता होता कि किस घर में खुशी आने वाली है और भला पता भी क्यों हो। हमारी तो खेती-बाड़ी भी यही है।
अभी तक मैंने जो पढ़ा और सुना है कि किन्नरों के चार वर्गों में बांटा गया है- बुचरा, नीलिमा, मनसा और हंसा। इन चारों में बुचरा ही वास्तविक किन्नर होते हैं। क्या आपको इसकी कोई जानकारी है।
जी बिल्कुल बहुचरा किन्नर उन किन्नरों को कहा जाता है जो डेरों में रहते है या गद्दीनशीन होते हैं और बहुचरा किन्नर ही वास्तविक किन्नर होते है ये बात बिल्कुल सत्य है  और मुझे लगता है बाकि और के बारे में कोई चर्चा करने का मुझे कोई अधिकार नहीं।
कुछ लोगों का आरोप है कि जब किसी परिवार में किन्नर बच्चा पैदा होता है तो आप लोग उसको जबरदस्ती लेने के लिए घर पहुँच जाते हैं और उसे लेकर ही आते हैं। क्या ये बात सही है?
नहीं-नहीं ऐसा कुछ नहीं है। अगर हम किसी बच्चे किन्नर को उसके घर से लाते है तो उसमें उसके परिवार की रजामंदी होती है और बाकायदा हम कानूनी तरीके से ही उसको उसके घर से लाते है।
किसी उपन्यास का नायक (किन्नर) कहता है कि हमें आरक्षण की जरूरत नहीं है। मुझे लगता है कि इसके लिए माँ-बाप को ही कटघरे में लाने की जरूरत है। इस कथन से आप कहाँ तक सहमत है।
जिनका ये बयान है। हो सकता है कि उनकी अपनी सोच और अपने कुछ विचार हो और मुझे ऐसा लगता है कि अपनी और विचार प्रकट करना, हर इंसान का अपना मौलिक अधिकार है। लेकिन आप मात्रा एक इन्सान की सोच को सर्वोच्च मानकर 50 लाख लोगों की सोच को नजरअंदाज नहीं कर सकते और जहाँ तक मुझे पता है ये बयान शायद किसी ऐसे किन्नर का हो सकता है जो धन्य-धान्य और दौलत-शोहरत से परिपूर्ण होगा। लेकिन सभी किन्नरों की किस्मत इतनी अच्छी नहीं है। अब जो किन्नर अपने -अपने इलाके में बधाई वगैरह माँग रहे है(हालांकि मैं खुद भी इलाका माँगती हूँ ) या जो किन्नर राजनीति या फिल्म जगत में हो या जो किन्नर अपनी कुछ संस्थाएं चला रहे है तो जाहिर-सी बात है, उन्हें क्या जरूरत है आरक्षण की! आरक्षण की जरूरत तो उन्हें है जो किसी किन्नर समाज की प्रताड़ना से तंग आकर कोई और काम करना चाहते हों जैसे सरकारी नौकरी वगैरह। क्योंकि प्राइवेट वाले तो इनको कभी भी हटा सकते हैं, फिर कहाँ जाएँगी बेचारी। या जो एक सम्मान कि जिन्दगी जीना चाहते हैं और योग्यता होने के बाद भी सिर्फ इसलिए कोई नौकरी वगैरह नहीं कर सकते क्योंकि वो किन्नर हैं और उन्हें किसी भी तरह की कोई छूट नहीं है।
क्या आपको नहीं लगता है कि जिनके माँ-बाप अपने किन्नर बच्चे को घर से निकाल देते हैं या उसके साथ बुरा सलूक करते हैं। उनको दण्डित करना चाहिए? आपकी क्या राय है?
डॉ. साहब कोई भी अपने बच्चे को घर से निकालना नहीं चाहता, लेकिन ये समाज उनको अपनाता ही नहीं तो शायद ये समाज की एक घृणित सोच का परिणाम है कि माँ-बाप को खुद ही अपने बच्चे को अपने से दूर करना पड़ता है और जहाँ तक मुझे लगता है कि वो आपकी दुनिया से उस दुनिया में ज्यादा सुकून से रह सकता है जो कि सिर्फ उसके जैसे लोगों कि दुनिया है, क्योंकि वहाँ कोई उसका मजाक बनाने वाला नहीं होता, वहाँ कोई उसको बात-बात पर ताने मारने वाला नहीं होता, वहाँ कोई उसको ये एहसास करवाने वाला नहीं होता कि तुम दूसरों से अलग हो ! आखिर अगर माँ-बाप रख भी लेंगे तो कब तक? सिर्फ तब तक जब तक कि वो जीवित हैं और फिर माँ-बाप के मरने के बाद उसको रोटी कौन देगा? क्योंकि किन्नर शारीरिक रूप से भी इतना सक्षम नहीं होता कि वो मेहनत करके अपना पेट भर सके! क्योंकि अच्छे खासे शरीर से तन्दरूस्त दिखने वाली हर किन्नर आन्तरिक रूप से कमजोर होती है और वो कोई भी भारी भरकम काम नहीं कर सकती, क्योंकि उनका शरीर जन्म से ही अन्दर से बिल्कुल खोखला होता है। तो इस समाज में तो जो भाई-बहन दिन-रात कमा कर लाता है उसको समय पर रोटी नहीं देते तो भला किसी किन्नर को कोई क्या रोटी देगा जो कि कुछ काम भी नहीं कर सकता। क्योंकि भगवान ने उसको उस लायक बनाया ही नहीं। अगर वो किसी किन्नर पंथ में जाती है तो पहले तो वो अपने गुरु के लिए माँग कर उसकी सेवा करेगी, फिर उसके चेले उसके लिए माँग कर उसकी सेवा करेंगे और फिर उसके चेले के चेले उसकी सेवा करेंगे। गुरु-चेला परंपरा के नाते ही सही, कम से कम उसको सुकून की दो रोटी तो मिलेगी। ऊपर कोई ताने देने वाला कोई तंज कसने वाला! ताने देगा भी कौन? सभी लोग तो वहाँ उसके जैसे होते है वो उस दर्द से गुजर चुके होते है तो उनको उस दर्द का एहसास होता है! लेकिन इस बाहरी दुनिया में उनका दर्द समझने वाला कोई नहीं। अगर किसी ने कहा कि क्या तुम्हारा भाई या बहन किन्नर है क्या? तो गुस्सा उतरेगा उस बेचारी किन्नर पर! मुझे लगता है कि कहीं कहीं ये परंपरा बिल्कुल सही है। क्योंकि मैं खुद इस सब से गुजर चुकी हूँ।
क्या कानून बनाने से आपके समुदाय को उसका लाभ मिलेगा। अगर मिलेगा तो कैसे?
लाभ मिलना मिलना बाद की बात है, पहले कानून तो बनाइये किन्नरों के हित के लिए! लेकिन कानून बनाने से पहले हम लोगों से पूछा जाना चाहिए कि आखिर हमें चाहिए क्या है? ये नहीं कि आप अपनी मर्जी से ही हमारे कोई भी कानून पारित कर दें! हम जानवर नहीं है कि हमसे बिना पूछे, बिना हमारा पक्ष जाने, बिना ये कि आखिर हमें चाहिए क्या है? आप कोई कानून बना दें। वो जानवर हैं वो नहीं बता सकते कि उनको चाहिए क्या है, लेकिन हम तो इन्सान है, हम तो बोल सकते हैं, हम लोगों से पूछिये तो सही! आप किसी एक किन्नर का पक्ष जानकर कोई कानून नहीं बना सकतेक्योंकि भारत में किन्नरों की संख्या 45 से 50 लाख के करीब है और सबका पेट भरने का जरिया अलग अलग है तो आपको हर वर्ग के हित को ध्यान में रखना होगा। लाभ मिलना मिलना बाद की बात है
क्या आपका समुदाय अपने अधिकारों के लिए सचेत है?
कौन से अधिकारों की बात कर रहे है आप डॉ. साहब? वो अधिकार जिसमें हमें कोई भी जातिसूचक गाली दे देता है जैसे किहिजड़ाकहकर बोलना या फिर वो अधिकार जिसमें कोई भी हमसे भद्दे से भद्दा मजाक कर सकता है, या फिर  वो अधिकार जिसमें हमें एक इन्सान ही नहीं समझा जाता? कौन से अधिकार की बात कर रहे है आप सर! कहीं आप उस अधिकार की बात नहीं कर रहे जिसमें हमारे हितों की तरफ सिर्फ इसलिए ध्यान नहीं दिया जाता क्योंकि हम वोटों कि गिनती में कम है या वो अधिकार जिसमें भारत सरकार द्वारा हमें सिर्फ इसलिए नजरअंदाज किया जाता है, क्योंकि हम संख्या में भी कम है  या वो अधिकार जिसमें की कोई भी हमें सरेबाजार बेइज्जत कर दे, बावजूद उसके खिलाफ विरोध या कानूनी कार्रवाई करने की बजाय उल्टा हमारा ही मजाक बनाया जाता है ! आखिर कौन-सा अधिकार है हमारे पास जिसके प्रति हम सचेत रहें! अधिकार तो हमें किसी ने दिए ही नहीं। इस समाज ने, हमारी सरकार ने।
आपके समुदाय के कुछ लोग अपना जीवन बहुत अच्छा व्यतीत कर रहे हैं। क्या ये आम किन्नर के बारे में कुछ सोचते हैं?
बेशक कुछ किन्नर अपना जीवन बेहतर तरीके से व्यतीत कर रहे है, लेकिन उनका क्या जो बेचारे दर बदर भटकने पर मजबूर हैं, कुछ पूंजीपति किन्नर पूरा का पूरा जिला अकेले माँगते हैं और किसी दूसरे बेचारे गरीब किन्नर को वहाँ फटकने भी नहीं देते और अगर कोई बेचारा गरीब किन्नर अपने हक के लिए आवाज उठाता है तो इन पूंजीपति किन्नरों द्वारा या तो उसको कत्ल करवा दिया जाता है या पुलिसकर्मियों को पैसे खिलाकर उल्टा उसके ही खिलाफ तरह-तरह के मुकदमें दर्ज करवा कर उसको ही फँसा दिया जाता है या फिर पुलिसकर्मियों द्वारा उसकी पिटाई करवा कर उसको शहर से ही तड़ी पार करवा दिया जाता है। सबको एक ही नजरिये से मत देखिए जनाब। कुछ किन्नर ऐसे भी हैं जिनके पास इलाका इतना कम है कि 15-15 दिन कोई बधाई नसीब नहीं होती तो वो बेचारे अपना गुजारा कैसे करते हैं ये आप क्या जानो!
आपके समुदाय के जितने भी एन.जी.है। क्या उससे आप लोगों को कुछ लाभ होता है?
बेशक, कुछ एन.जी.. या संस्थाएं किन्नरों के हकों के लिए लड़ रही हैं, लेकिन वो अभी तक ऐसा कोई काम नहीं कर पायी जिससे कि मुझे कोई संतुष्टि हो। सिर्फ अपने आपको तीसरा दर्जे का साबित करवा लेना ही कोई पूर्ण अधिकार नहीं है।
शारीरिक कमजोरी सपनों को पूरा करने में बाधा नहीं बन सकती है अगर हमारे अन्दर लगन और जतन हो तो सभी मुश्किलें आसान हो जाती हैं। क्या इससे आप सहमत हैं?
जी बिल्कुल शारीरिक कमजोरी हौसले के आगे बाधा नहीं बन सकती। लेकिन अगर हौसला होने के बावजूद उसे उसकी योग्यता साबित करने का मौका ही मिले तो अकेला हौसला भी कुछ नहीं कर सकता। अगर मौका देना ही है तो सबसे पहले उन्हें दो जो हमारी युवा पीढ़ी योग्यता और सक्षमता होने के बाद भी बेरोजगार घूम रही है, योग्यता होने के बाद भी जाने कितनी परीक्षा और फीजिकल पास करके भी नौकरी नहीं लग पाती और फिर वो चाहकर भी या तो आत्महत्या कर लेते है या फिर जुर्म की दुनिया का रास्ता इख्तियार करते हैं। किन्नर तो फिर भी खुश हैं कि चलो किसी को रोजगार मिले और हमें बधाई मिले। किन्नर नाम है आत्मसमर्पण का, किन्नर नाम है उस फकीर का जो दूसरों कि खुशियों में खुश है। मुझे लगता है सबसे पहले हमारी युवा पीढ़ी को मौका देना चाहिए ताकि उनके हौसले टूटे।
क्या किन्नरों को पूजा-पाठ करने का अधिकार है। किसी मन्दिर या गुरुद्वारा में जाकर?
बिल्कुल किन्नरों को हर मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों या किसी भी धार्मिक जगह पर अपने-अपने धर्म के अनुसार पूजा पाठ या इबादत का करने का पूर्ण अधिकार है और हो भी क्यों आखिर सबसे पहला और जन्म जात के फकीर जो हैं।
कुछ समय पहले किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को महामंडेश्वर की पदवी मिली है। इसे आप किस तरह से देखती हैं और उससे आपके समाज का क्या फायदा होगा?
देखिए लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी जी ने अपने हक-हकूक के लिए बहुत मेहनत की है और मुझे नहीं लगता कि मुझे किसी के बारे में कोई टिप्पणी करने का अधिकार है। रही बात महामंडलेश्वर बनने की तो हो सकता है कि हमें उसका कोई सकारात्मक लाभ भी मिल सकता है।
जब आप किसी परिवार में पैदा होती हैं तो आपका कुछ और नाम होता है लेकिन जब आप घर से बाहर निकल आती है तो दूसरा नाम रख दिया जाता है। ये नाम आपको कौन देता है? क्यों नहीं आप अपने पुराने नाम पर ही जानी जाती है। क्या इसमें भी कोई कारण है?
नहीं सभी के साथ ऐसा नहीं होता कि सबका नामकरण किया जाता हो। अब मुझसे ही लगा लो मेरा नाम मन्नू मेरा घर का नाम है और सब मुझे प्यार से मन्नू ही बुलाते थे, लेकिन मेरे गुरु जी ने मेरा नाम मनीषा रखा। लेकिन आज भी ज्यादातर लोग मुझे मन्नू महंत के नाम से ही जानते हैं। नाम बदलना इस बात का सूचक है कि अब हमें बीते दिनों में हुए हमारे परिवार या हमारे समाज के लोगों द्वारा हुए तिरस्कार को भुलाकर एक नई शुरुआत करनी होगी।

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