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Showing posts from November, 2010

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साक्षात्कार

नासिरा शर्मा एक मूल्यांकन

नासिरा शर्मा एक मूल्यांकन अनुक्रम सम्पादकीय नासिरा शर्मा : मेरे जीवन पर किसी का हस्ताक्षर नहीं सुदेश बत्राा : नासिरा शर्मा - जितना मैंने जाना ललित मंडोरा : अद्भुत जीवट की महिला नासिरा शर्मा अशोक तिवारी : तनी हुई मुट्ठी में बेहतर दुनिया के सपने शीबा असलम फहमी : नासिरा शर्मा के बहाने अर्चना बंसल : अतीत और भविष्य का दस्तावेज : कुइयाँजान फज+ल इमाम मल्लिक : ज+ीरो रोड में दुनिया की छवियां मरगूब अली : ख़ाक के परदे अमरीक सिंह दीप : ईरान की खूनी क्रान्ति से सबक़ सुरेश पंडित : रास्ता इधर से भी जाता है वेद प्रकाश : स्त्री-मुक्ति का समावेशी रूप नगमा जावेद : जि+न्दा, जीते-जागते दर्द का एक दरिया हैः जि+न्दा मुहावरे आदित्य प्रचण्डिया : भारतीय संस्कृति का कथानक जीवंत अभिलेखः अक्षयवट एम. हनीफ़ मदार : जल की व्यथा-कथा कुइयांजान के सन्दर्भ में बन्धु कुशावर्ती : ज+ीरो रोड का सिद्धार्थ अली अहमद फातमी : एक नई कर्बला सगीर अशरफ : नासिरा शर्मा का कहानी संसार - एक दृष्टिकोण प्रत्यक्षा सिंहा : संवेदनायें मील का पत्थर हैं ज्योति सिंह : इब्ने मरियम : इ

स्त्री-विमर्श

मधुरेश : नारीवादी की विचार-भूमि सुरेश पण्डित : बाजार में मुक्ति तलाशती औरतें शिव कुमार मिश्र : स्त्री-विमर्श में मीरा कमल किशोर श्रमिक : स्त्री मुक्ति का प्रश्न मूलचन्द सोनकर : स्त्री-विमर्श के दर्पण में स्त्री का चेहरा शशि प्रभा पाण्डेय : नारीवादी लेखन : दशा और दिशा हरेराम पाठक : स्त्रीवादी लेखन : स्वरूप और सम्भावनाएँ जय प्रकाश यादव : आधुनिक समाज में नारी-मुक्ति का प्रश्न वी.के. अब्दुल जलील : स्त्री-विमर्श ÷समकालीन हिन्दी कथा साहित्य के संदर्भ में' जगत सिंह बिष्ट : स्त्री-विमर्श और मृणाल पाण्डे का कथा साहित्य शोभारानी श्रीवास्तव : महादेवी वर्मा का नारी विषयक दृष्टिकोण रामकली सराफ : स्त्री जीवन का यथार्थ और अन्तर्विरोध ललित शुक्ल : संवेदना और पीड़ा की चित्राकार मुक्तिकामी रचनाकार : नासिरा शर्मा आदित्य प्रचण्डिया : हिन्दी कहानी में नारी उमा भट्ट : सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानियों में स्त्री रमेश शर्मा : मध्यकालीन हिन्दी भक्तिकाव्य और नारी-विमर्श के आयाम सुनीता गोपालकृष्णन : नारी शोषण की अनंत कथा तारिक असलम : मुस्लिम स्त्रिय

दलित साहित्य

अनुक्रम आलेख शिव कुमार मिश्र - दलित साहित्य अंतर्विरोध के बीच और उनके बावजूद माता प्रसाद - दलित साहित्य, सामाजिक समता का साहित्य है शुकदेव सिंह - दलित-विमर्श, दलित-उत्कर्ष और दलित-संघर्ष धर्मवीर - डॉ० शुकदेव सिंह : पालकी कहारों ने लूटी रामदेव शुक्ल - कौन है दलितों का सगा? मूलचन्द सोनकर - रंगभूमि के आईने में सूरदास के नायकत्व की पड़ताल सुरेश पंडित - दलित साहित्य : सीमाएं और सम्भावनाएँ रामकली सराफ - दलित विमर्श से जुड़े कुछ मुद्दे कमल किशोर श्रमिक - अम्बेडकर की दलित चेतना एवं मार्क्स ईश कुमार गंगानिया - दलित आईने में मीडिया सूरजपाल चौहान - दलित साहित्य का महत्त्व एवं उसकी उपयोगिता अनिता भारती - दलिताएँ खुद लिखेंगी अपना इतिहास हरेराम पाठक - दलित लेखन : साहित्य में जातीय सम्प्रदायवाद का संक्रमण तारा परमार - दलित महिलाएं एवं उनका सशक्तिकरण तारिक असलम - दलित मुसलमानों की सामाजिक त्रासदी मानवेन्द्र पाठक - साठोत्तरी हिन्दी कविता में दलित-चेतना जगत सिंह बिष्ट - शैलेश मटियानी के कहानी साहित्

मुस्लिम साइकी

अनुक्रम दो शब्द साइकी का स्वरूप एव अवधारणा हिन्दी उपन्यास में व्यक्त मुस्लिम साइकी : अनुभूति पक्ष हिन्दी उपन्यास में व्यक्त मुस्लिम साइकी : व्यवहारिक पक्ष हिन्दी उपन्यास में व्यक्त मुस्लिम साइकी : विचारात्मक पक्ष मुस्लिम साइकी विषयक अवधारणात्मक का तुलनात्मक अध्ययन मूल्यांकन सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची

नासिरा शर्मा का कहानी संसार - एक दृष्टिकोण

सग़ीर अशरफ़ भाषा के स्तर पर जब लोककथाओं के क़दम आगे बढ़े तो कहानी दिखाई देने लगी और आधुनिक रूप में स्थापित होने के साथ ही भौगोलिक सीमाओं को तोड़कर चारों ओर अपने छींटे बिखेरती नज़र आने लगी।... अपने तलुवों में धरती को छूती हुई कहानी, खेत-खलयानों से गुज़रती जागीदारों के शोषण, साहूकारों के अत्याचार, मज़दूरों के आंसुओं का अहसास दिलाती, गांव-नगर, महानगरों में विचरण करती हुई, पारंपरागत आंगन में टीस, कसक, कुण्ठा-शोषण आदि के धरातल पर सुख-दुख के हमसफ़र किरदारों को जीवंतता प्रदान करने लगी। इस लंबी यात्रा के दौरान कहानी किसी भी रूप, भाषा-शैली या ‘क़िस्सागोई’ की शक्ल में ही क्यों न आई हो... विषय और विधा दोनों पहलुओं से विकसित होती रही। उसका शिल्प ‘कुछ नये’ के लिए व्याकुल होता रहा... और जीवन के उन महीन पलों को जो कविता, नाटक और उपन्यास के सांचे में ढलना संभव नहीं थे,... कहानी में स्थापित होते गये। ... कहानी ने पुरुष स्वभाव को ही स्वीकार नहीं किया बल्कि नारी के भी विभिन्न रूप-स्वरूप को अपनी ‘कहन’ में शामिल किया। आज शिक्षित और आधुनिक नारी किन परिवर्तनों से गुज़र रही है? उसका स्वभाव क्या है? उसकी मानसिकता किस

संवेदनायें मील का पत्थर हैं

प्रत्यक्षा सिंहा नासिरा शर्मा की ‘संगसार कहनी-संग्रह’, ईरान की पृष्ठभूमि में 1980 से 1992 के दरम्यान लिखी वो कहानियां हैं जिसके पात्रा और जिनकी स्थितियाँ किसी विदेशी ज़मीन के बावजूद हमारे ही इर्द- गिर्द से उपजी पनपी कहानियाँ लगती हैं। उनकी आकाँक्षायें, उनके सुख और उनके दुख -सब ऐसे हैं जो हमारे आसपास के देखे हुए महसूसे हुये हैं। इंसान की संवेदनाओं और इच्छाओं का ऐसा व्यापक फ़लक जो आसमान के फैलाव लिये होने के साथ ही फिर सिमटकर छाती के भारीपन और आँख के गर्म आंसू में सिमट जाये, ऐसी कहानियांँ है ‘‘संगसार’’ में। ये कहानियाँ जगह, समय, धर्म के परे उन जज़्बातों की कहानियाँ हैं जो सदियों से आजतक विभिन्न रूपों और शक्लों में बार-बार दोहराई जा रही है। प्रेम की, बलिदान की, बुनियादी इंसानी ज़रूरतों की, छोटे-छोटे सहज भोले आकाँक्षाओं की, खुली हवा में फेफड़ा भर सांस लेने की नैसर्गिक चाहत की पिरोयी मालायें है। उन सभी एहसासों का दस्तावेज़ है जिनके अक्षर पढ़ मानव सभ्यता का विकास हुआ। विदेशी सरोकारों वाली इन कहानियों के पीछे एक लेखक की तमाम वो संवेदनायें हैं जो देश काल के दायरे को तोड़ता हुआ उनको आमजन से जोड़ता ह

ज़ीरो रोड में दुनिया की छवियां

फ़ज़ल इमाम मल्लिक नासिरा शर्मा से पहली और अब तक की आखि़री मुलाक़ात क़रीब पंद्रह साल पहले कलकत्ता में हुई थी। दिल्ली में सात साल होने को आए पर उनसे मिलना अब तक हो नहीं पाया। दिल्ली के साहित्यिक समारोहों में उनका आना-जाना न के बराबर होता है और यही हाल कुछ-कुछ मेरा भी है। इस तरह के सभा-समारोहों में एक तरह के चेहरे और एक तरह की बातें सुनकर बेइंतहा कोफ़्त होती है इसलिए कुछ परिचितों और मित्रों के अलावा साहित्य के अधिकांश समारोहों में जाने से गुरेज़ ही करता हँू। कमलेश्वर जी जब थे तो ज़रूर इस तरह के सभा-समारोहों में आना-जाना होता था। उसकी वजह भी थी। उन्हें हमेशा मैंने अभिभावक का दर्जा दिया है और उन कार्यक्रमों में जिनमें वे शिरकत करते थे ज़रूर हिस्सा लेता ताकि उनके साथ कुछ देर बिताने का मौक़ा मिले। पर उनके जाने के बाद अब दिल्ली की साहित्यिक मंडी के समारोहों का हिस्सा बनने की इच्छा नहीं होती। नासिरा शर्मा भी दिल्ली की साहित्यिक नौटंकी में नहीं शामिल होतीं इसलिए अब तक उनसे मिलना नहीं हुआ। वे दिल्ली के एक सिरे पर रहती हैं, उनसे नहीं मिल पाने की वजह यह भी हो सकती है। हो सकता है कि कुछ लोग कहें कि यह सब

एक नई कर्बला

(नासिरा शर्मा की कहानियों में) प्रो. अली अहमद फातमी इंसान और इंसानियत के अनेक रूप होते हैं, लगभग यही सूरत होती है इंसानी रिश्तों की भी। रचना में वह कैसे दर्शन पायें उसका मामला उससे भी अजीब है। अंग्रेज़ी साहित्य में रोमानी शायर बर्डसवर्थ से किसी ने इंटरव्यू लेते हुए पूछा था कि आपने इतनी अच्छी रोमानी शायरी किस तरह की? जवाब मिला, अगर फ्राँस में इन्के़लाब न आया होता और अवामी ज़िन्दगी बर्बाद न हुई होती तो मैं एक नये और खुशहाल समाज का ख़्वाब न देख पाता। ज़रा बदली हुई भाषा में ‘फास्टर’ ने भी कहा था कि एक ऐसी दुनिया जो अदब (साहित्य) और आर्ट से ख़ाली हो मेरे लिये नाक़ाबिले क़ुबूल है। लेकिन यह बात ज़्यादा अहमियत रखती है जब वह यह भी कहता है कि इंसानी ताल्लुक़ात के एहसास और सरोकारों के बग़ैर आर्ट, अदब और ज़िन्दगी सभी बेमतलब व बेमानी होते हैं। आर्ट पैदा होता है अहसास से और अहसास देन है ज़िन्दगी की, लेकिन इन तीनों का तालमेल, समन्वय के मामलात अजीब-व-ग़रीब होते हैं, इसका कोई पक्का पैमाना नहीं, साँचा नहीं। यही तलाश करना आलोचना का काम हुआ करता है। हिन्दी कथा साहित्य की सुप्रसिद्ध और जानी मानी लेखिका ‘नासिरा शर

‘ज़ीरो रोड’ का सिद्धार्थ

बन्धु कुशावर्ती बीसवीं सदी के आखिरी दो तथा इक्कीसवीं सदी के इस पहले दशक तक पूरी दुनिया आधुनिकता, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, विचार आदि के स्तर पर न केवल बदली बल्कि बढ़ी और बेहद नयी हुई है। इसी कालखण्ड में दो-धु्रवीय दायरों वाला विश्व अन्ततः अनेकानेक तब्दीलियों के साथ ही कई खेमों से सिमट कर एकध्रुवीय हो गया है। देश से लेकर दुनिया तक में इस बीच होते परिवर्तनों, चुनौतियों, संघर्षों, तनावों, द्वन्द्वों आदि को दूर-नज़दीक देखने या उसमें धँसका जो कुछ लोग समानान्तर रूप से सृजनरत रहे हैं, नासिरा शर्मा उनमें एक अग्रणी नाम है। अपनी ज़मीन व जड़ों से भी उनका लगाव-जुड़ाव अत्यन्त सघन है। उनका लेखन वैश्विक-व्याप्ति लिये वैविध्यातापूर्ण है। नासिरा शर्मा की अनेकानेक कहानियाँ और शामी काग़ज़, पत्थरगली, सबीना के चालीस चोर, खुदा की वापसी, दूसरा ताजमहल, बुतखाना आदि कहानी संकलन तथा शाल्मली, ठीकरे की मँगनी, अक्षयवट आदि उपन्यास हिन्दी में यदि देशज और अन्तर्देशीय जीवन व समाज की अन्तरंगता से पहचान कराते हैं तो ‘ज़िन्दा मुहावरे’ उपन्यास भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी, साम्प्रदायिकता बनाम इंसानियत आदि की विडम्बनाओं को वाणी

जल की व्यथा-कथा ‘कुइयाँजान’ के संदर्भ में

एम. हनीफ़ मदार रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे मोती, मानुष, चून। बचपन में रहीम की इन पंक्तियों का कोई खास अर्थ समझ में नहीं आता था। लेकिन 2005 में एक अख़बार के लिए पानी को लेकर एक कवर स्टोरी लिखते समय रहीम की इन्हीं लाइनों ने दिमाग पर दस्तक दी। लगा कि इन दो लाइनों में रहीम ने इंसान को जीवन के मूलतत्त्व के प्रति सजग रहने का इशारा किया है, और वह भी तब जब न तो पानी की कहीं कमी थी और न ही ऐसी कोई चर्चा ही वजूद में थी। लेखक की यह चिन्ता निश्चित ही समाज के प्रति उसका उत्तरदायित्व थी। यह अलग बात है कि उनके पास दुनिया भर के तात्कालिक आंकड़े मौजूद नहीं थे और ऐसा होना इसलिए भी स्वाभाविक है कि तब मानव जीवन विकास पथ की अन्य प्राथमिकताओं की तरफ ज़्यादा चिंतित या अग्रसर रहा था। इसके बरअक्स 2005 में ही नासिरा शर्मा का उपन्यास ‘कुइयाँजान’ प्रकाश में आया जो केवल प्रदेश या देश ही नहीं अपितु दुनिया भर के जलीय आंकड़े खुद में समेटे एक विशाल दस्तावेज के रूप में नज़र आया। निःसंकोच उपन्यास को उस लेखिका का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास घोषित किया जाना साहित्य आलोचकों की मजबूरी बन गयी। नामवर सिंह ने कु