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Showing posts from September, 2009

नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ महिला कथाकार

ममता कालिया समकालीन रचना जगत में अपने मौलिक और प्रखर लेखन से हिन्दी साहित्य की शीर्ष पंक्ति में अपनी जगह बनाती स्थापित और सम्भावनाशील महिला-कहानीकारों की रचनाओं का यह संकलन आपके हाथों में सौंपते, मुझे प्रसन्नता और संतोष की अनुभूति हो रही है। आधुनिक कहानी अपने सौ साल के सफ़र में जहाँ तक पहुँची है, उसमें महिला लेखन का सार्थक योगदान रहा है। हिन्दी कहानी का आविर्भाव सन् 1900 से 1907 के बीच समझा जाता है। किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी ‘इंदुमती’ 1900 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई। यह हिन्दी की पहली कहानी मानी गई। 1901 में माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिट्टी’; 1902 भगवानदास की ‘प्लेग की चुड़ैल’ 1903 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ और 1907 में बंग महिला उर्फ राजेन्द्र बाला घोष की ‘दुलाईवाली’ बीसवीं शताब्दी की आरंभिक महत्वपूर्ण कहानियाँ थीं। मीरजापुर निवासी राजेन्द्रबाला घोष ‘बंग महिला’ के नाम से लगातार लेखन करती रहीं। उनकी कहानी ‘दुलाईवाली’ में यथार्थचित्रण व्यंग्य विनोद, पात्र के अनुरूप भाषा शैली और स्थानीय रंग का इतना जीवन्त तालमेल था कि यह कहानी उस समय की ज...

नारी विमर्शः दशा और दिशा

पुस्तक प्रकाशित नारी विमर्शः दशा और दिशा स. फीरोज/शगुफ्ता अनुक्रम दो शब्द मधुरेश : नारीवादी की विचार-भूमि ०९ सुरेश पण्डित : बाजार में मुक्ति तलाशती औरतें २६ शिव कुमार मिश्र : स्त्री-विमर्श में मीरा ३२ कमल किशोर श्रमि:स्त्री मुक्ति का प्रश्न ४० मूलचन्द सोनकर : स्त्री-विमर्श के दर्पण में स्त्री का चेहरा ४५ शशि प्रभा पाण्डेय : नारीवादी लेखन : दशा और दिशा ७२ हरेराम पाठक : स्त्रीवादी लेखन : स्वरूप और सम्भावनाएँ ७९ जय प्रकाश यादव : आधुनिक समाज में नारी-मुक्ति का प्रश्न ८६ वी.के. अब्दुल जलील: स्त्री-विमर्श समकालीन हिन्दी कथा साहित्य के संदर्भ में' ९२ जगत सिंह बिष्ट : स्त्री-विमर्श और मृणाल पाण्डे का कथा साहित्य ९६ शोभारानी श्रीवास्तव : महादेवी वर्मा का नारी विषयक दृष्टिकोण १०८ रामकली सराफ : स्त्री जीवन का यथार्थ और अन्तर्विरोध ११३ ललित शुक्ल : संवेदना और पीड़ा की चित्राकार मुक्तिकामी रचनाकार : नासिरा शर्मा ११८ आदित्य प्रचण्डिया : हिन्दी कहानी में नारी १२५ शगुफ्ता नियाज : राजनीतिक पार्श्वभूमि और महिला उपन्यासकार १३२ उमा भट्ट : सुभद्रा कुम...

दलित विमर्श और हम

पुस्तक प्रकाशित दलित विमर्श और हम स. फीरोज/शगुफ्ता अनुक्रम दो शब्द शिव कुमार मिश्र - दलित साहित्यःअंतर्विरोध के बीच और उनके बावजूद ०९ माता प्रसाद - दलित साहित्य, सामाजिक समता का साहित्य है १८ शुकदेव सिंह - दलित-विमर्श, दलित-उत्कर्ष और दलित-संघर्ष २१ धर्मवीर - डॉ० शुकदेव सिंह : पालकी कहारों ने लूटी २९ रामदेव शुक्ल - कौन है दलितों का सगा? ३६ मूलचन्द सोनकर - रंगभूमि के आईने में सूरदास के नायकत्व की पड़ताल ४४ सुरेश पंडित - दलित साहित्य : सीमाएं और सम्भावनाएँ ६१ रामकली सराफ - दलित विमर्श से जुड़े कुछ मुद्दे ६७ कमल किशोर श्रमिक - अम्बेडकर की दलित चेतना एवं मार्क्स ७५ ईश कुमार गंगानिया- दलित आईने में मीडिया ८० सूरजपाल चौहान - दलित साहित्य का महत्त्व एवं उसकी उपयोगिता ८७ अनिता भारती - दलिताएँ खुद लिखेंगी अपना इतिहास ९० हरेराम पाठक - दलित लेखन : साहित्य में जातीय सम्प्रदायवाद का संक्रमण ९८ तारा परमार - दलित महिलाएं एवं उनका सशक्तिकरण १०४ तारिक असलम - दलित मुसलमानों की सामाजिक त्रासदी ११० मानवेन्द्र पाठक - साठोत्तरी हिन्दी कविता में द...

फेयरवेल

प्रताप दीक्षित अंततः रामसेवक अर्थात्‌ आर.एस. वर्मा, सहायक सुपरवाइजर की पोस्टिंग मुख्यालय में ही हो गई। ग्रामीण इलाकों से लेकर कस्बों और अनेक नगरों में फैली शाखाओं वाले इस अर्द्धसरकारी जनसेवी संस्था का मुख्यालय प्रदेश की राजधानी में स्थित था। नियुक्ति के पश्चात्‌ लगभग पन्द्रह-सोलह वर्षों के दौरान वह सदा ग्रामीण अथवा कस्बाई इलाकों में ही रहा था। नीति के अनुसार प्रत्येक तीन वर्ष बाद उसका स्थानान्तरण हो जाता। यद्यपि इसके कारण अभी तक उसे कुछ विशेष असुविधा तो नहीं हुई क्योंकि जिस छोटे-से नगर की गंदी-सी बस्ती में उसका बचपन बीता था, उसकी तुलना में इन जगहों में उसके रहन-सहन का स्तर पर्याप्त से अधिक ही था। परन्तु बढ़ती सुविधाएँ, जिनका वह आदी होता गया था, शीघ्र ही अपनी अर्थवत्ता खोने लगीं। मसलन रंगीन टी.वी. और फ्रिज खरीदा, तो बिजली न आती। पत्नी के लिए ब्यूटी सैलून न होता। कहीं-कहीं तो उसके नए विशाल सोफे और बोन-चाइना की क्रॉकरी के लिए उपयुक्त मेहमान तक उपलब्ध न होते। अतः क्षेत्राीय प्रबंधक से लेकर यूनियन के महासचिव तक दौड़ने और काफी जद्दोजहद के बाद उसके स्थानान्तरण के लिए आदेश हेड ऑफिस हेतु ...

उपनिवेश में स्त्री

प्रभा खेतान नव-उपनिवेश के बाद यह किताब जीवन के दो पक्षों के बारे में है। एक स्त्री का और दूसरा उपनिवेश का। न इस उपनिवेश को समझना आसान है और न स्त्री को। अगर यह उपनिवेश वही होता जिससे बीसवीं सदी के मध्य में कई देशों और सभ्यताओं ने मुक्ति पायी थी तो शायद हम इसे राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता की संरचना करार दे सकते थे। अगर यह उपनिवेश वही होता जिससे लड़ने के लिए राष्ट्रवादी क्रांतियाँ की गई थीं और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की अवधारणा पेश की गई थी तो शायद हम इसके खिलाफ उपनिवेशवाद के नाम से परिभाषित हो चुकी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी, पितृसत्ता इतरलिंगी यौन चुनाव और पुरुष-वर्चस्व की ज्ञानमीमांस का उपनिवेश है जिसकी सीमाएँ मनोजगत से व्यवहार-जगत तक और राजसत्ता से परिवार तक फैली हुई हैं। दूसरे पक्ष में होते हुए भी यह अनिवार्य नहीं है कि स्त्री इस उपनिवेश के खिलाफ ही खड़ी हो। वह लाजिमी तौर पर वहाँ नहीं है जहाँ उसे होना चाहिए था यानी वह पाले से दूसरी तरफ नहीं है। इस उपनिवेश की विरोधी शक्ति होते हुए भी वह इसके बीच में खड़ी है। उपनिवेश के खिलाफ संघर्ष उसका आत्म-संघर्ष भी है और यही स्थिति...

बृहस्पतिवार का व्रत

अमृता प्रीतम आज बृहस्पतिवार था, इसलिए पूजा को आज काम पर नहीं जाना था...बच्चे के जागने की आवाज़ से पूजा जल्दी से चारपाई से उठी और उसने बच्चे को पालने में से उठाकर अपनी अलसाई-सी छाती से लगा लिया, ‘‘मन्नू देवता ! आज रोना नहीं, आज हम दोनों सारा दिन बहुत-सी बातें करेंगे...सारा दिन....’’यह सारा दिन पूजा को हफ्ते में एक बार नसीब होता था। इस दिन वह मन्नू को अपने हाथों से नहलाती थी, सजाती थी, खिलाती थी और उसे कन्धे पर बिठाकर आसपास के बगीचे में ले जाती थी। यह दिन आया का नहीं, माँ का दिन होता था...आज भी पूजा ने बच्चे को नहला-धुलाकर और दूध पिलाकर जब चाबी वाले खिलौने उसके सामने रख दिए, तो बच्चे की किलकारियों से उसका रोम-रोम पुलकित हो गया.....चैत्र मास के प्रारम्भिक दिन थे। हवा में एक स्वाभाविक खुशबू थी, और आज पूजा की आत्मा में भी एक स्वाभाविक ममता छलक रही थी। बच्चा खेलते-खेलते थककर उसकी टाँगों पर सिर रखकर ऊँघने लगा, तो उसे उठाकर गोदी में डालते हुए वह लोरियों जैसी बातें करने लगी—‘मेरे मन्नू देवता को फिर नींद आ गई...मेरा नन्हा-सा देवता...बस थोड़ा-सा भोग लगाया, और फिर सो गया...’’पूजा ने ममता से विभोर ...

याद तो फिर भी आओगे

SEEMA GUPTA ह्दय के जल थल पर अंकित बस चित्र धूमिल कर जाओगे याद तो फिर भी आओगे हंसना रोना कोई गीत पुराना सुर सरगम का साज बजाना शब्द ताल ले जाओगे याद तो फिर भी आओगे सुनी राहे, दिल थाम के चलना साथ बिताये पलो का छलना सब खाली कर जाओगे याद तो फिर भी आओगे कांधे पर सर और स्पर्श का घेरा रात के मुख पर चाँद का सेहरा तुम विराना कर जाओगे याद तो फिर भी आओगे