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Showing posts from May, 2009

वैषम्य

महेंद्र भटनागर हर व्यक्ति का जीवन नहीं है राजपथ — उपवन सजा वृक्षों लदा विस्तृत अबाधित स्वच्छ समतल स्निग्ध ! . सम्भव नहीं हर व्यक्ति को उपलब्ध हो ऐसी सुगमता, इतनी सुकरता। सम दिशा सम भूमि पर आवास सबके हैं नहीं प्रस्थित, एक ही गन्तव्य सबका है नहीं जब अभिलषित। . कुछ को पार करनी ही पड़ेंगी तंग-सँकरी कण्ट-कँकरीली घुमावोंदार ऊँची और नीची जन-बहुल अंधारमय पगडण्डियाँ — गलियाँ पसीने-धूल से अभिषिक्त, प्रति पग पंक से लथपथ। . नहीं, हर व्यक्ति का जीवन सकल सुविधा सहित आलोक जगमग राजपथ ! . जब भूमि बदलेगी, मार्ग बदलेगा ! .  

जीवन-संदर्भ

महेंद्र भटनागर आओ जीवन की गीता को अभिनव संदर्भ प्रदान करें ! बदला जब परिवेश मनुज का आओ नयी ऋचाओं का निर्माण करें ! . नव मूल्यों को स्थापित कर जीवन-धर्मी कविता के अन्तर-बाह्य स्वरूपों को अभिनव रचना दे ! जीवन्त नये आदर्शों की आभा दें ! जगमग स्वर्णिम गहने पहना दें ! . जीवन की प्रतिमा को नयी गठन नव भाव-भंगिमा से सज्जित कर; मानव को चिर-इच्छित संबंधों की गरिमा से सम्पूरित कर युग को महिमावान करें ! आओ नव राहों के अन्वेषी बन नूतन क्षितिजों की ओर प्रवह प्रयाण करें ! .

ऊहापोह

महेंद्र भटनागर प्रश्न — अविकल स्थिर अपनी जगह पर। पंगु सारी तर्कना, विखण्डित कल्पना ! अनिश्चित की शिलाओं तले रोपित प्रश्न ! . सूत्राभाव पूर्व...उत्तर...सर्वत्र ठहराव ! . यह कश-म-कश और कब तक ? विवश मनःस्थिति और कब तक ? और कब तक ओढ़े रहोगे प्रश्न ? उलझी ऊबट सतह पर। . सब पूर्ववत् अपनी जगह पर।

वात्याचक्र

महेंद्र भटनागर अंधड़ आ रहा सम्मुख उमड़ता सनसनाता वेगवाही धूलि-धूसर ! . कुछ क्षणों में घेर लेगा बढ़ तुम्हारा भी गगन ! जागो उठो दृढ़ साहसिक मन हो सचेत-सतर्क ! थपेड़े झेलने का प्रण अभी तत्काल निश्चय आत्मगत कर। . अंधड़ों की शक्ति तुमको तौलनी है, संकटों पर आत्मबल सन्नद्ध हो जय बोलनी है, प्राण की सोयी हुई अज्ञात-मेधा को सचेतन कर ! . हिमालय-सम सुदृढ़ व्यक्तित्व के सम्मुख गरजता क्रूर अंधड़ राह बदलेगा ! मरण का तीव्र धावन तिमिर अंधड़ राह बदलेगा !

परिवेश के प्रति

महेंद्र भटनागर कितनी तीखी ऊमस से परिपूर्ण गगन, लहराती अग्नि-शिखाओं से कितना परितप्त भुवन ! कितना क्षोभ-युक्त भाराक्रांत दमित मानव-मन ! जीवन का वातावरण समस्त थका-हारा, काराबद्ध ! . आओ इसको बदलें, गतिमान करें, मल्लार-राग से भर दें जलवाह ! पवन-संघातों से निःशेष करें दिग्दाह !

नियति

महेंद्र भटनागर संदेहों का धूम भरा साँसें कैसे ली जायँ ! . अधरों में विष तीव्र घुला मधुरस कैसे पीया जाय ! . पछतावे का ज्वार उठा जब उर में कोमल शय्या पर कैसे सोया जाय ! . बंजर धरती की कँकरीली मिट्टी पर नूतन जीवन कैसे बोया जाय ! .  

हिन्दी इन्टरव्यू : उद्भव और विकास

पुस्तक उपलब्ध मूल्य 200(25प्रतिशत छूट के साथ) आलेख डॉ० मेराज अहमद- साक्षात्कार की भूमिका प्रो० रमेश जैन- साक्षात्कार डॉ० विष्णु पंकज- हिन्दी इन्टरव्यू : उद्भव और विकास डॉ० हरेराम पाठक- हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं सम्भावनाएं अशफ़ाक़ कादरी- साहित्य एवं मीडिया में साक्षात्कार - एक दृष्टि विज्ञान भूषण- प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अन्तर दिनेश श्रीनेत- हमारे समय में नचिकेता का साहस साक्षात्कार डॉ० शिवकुमार- मिश्र डॉ० सूर्यदीन यादव प्रो० मैनेजर पाण्डेय -देवेन्द्र चौबे, अभिषेक रोशन, रेखा पाण्डेय एवं उदय कुमार जाबिर हुसैन- रामधारी सिंह दिवाकर नासिरा शर्मा- डॉ० फीरोज अहमद काशीनाथ सिंह- रामकली सराफ मधुरेश- साधना अग्रवाल ओमप्रकाश वाल्मीकि- डॉ० शगुफ्ता नियाज कंवल भारती- अंशुमाली रस्तोगी डॉ० अर्जुनदास केसरी- डॉ० हरेराम पाठक चित्रा मुद्गल- श्याम सुशील मलखान सिंह सिसौदिया -डॉ० राजेश कुमार शहरयार- डॉ० जुल्फिकार प्रो० जमाल सिद्दीकी- डॉ० मेराज अहमद एवं डॉ० फीरोज अहमद एक साधारण होटल वाला- डॉ० मेराज अहमद

मुस्लिम कथाकार और उनकी हिन्दी कहानियाँ

पुस्तक उपलब्ध मूल्य 200(25प्रतिशत छूट के साथ) भूमिका डॉ० मेराज अहमद:सम्पूर्ण समाज की अभिव्यक्ति मुस्लिम कथाकार और उनकी हिन्दी कहानियाँ कहानियाँ हसन जमाल : चलते हैं तो कोर्ट चलिए मुशर्रफ आलम जौक़ी : सब साजिन्देएखलाक अहमद जई : इब्लीस की प्रार्थना सभा हबीब कैफी : खाये-पीये लोग तारिक असलम तस्नीम : बूढ़ा बरगद अब्दुल बिस्मिल्लाह : जीना तो पड़ेगा असगर वजाहत : सारी तालीमात मेहरून्निसा परवेज : पासंग नासिरा शर्मा : कुंइयांजान मेराज अहमद : वाजिद साँई अनवर सुहैल : दहशतगर्द आशिक बालौत : मौत-दर-मौत शकील : सुकून मौ० आरिफ : एक दोयम दर्जे का पत्र एम.हनीफ मदार : बंद कमरे की रोशनी

अनुदर्शन

महेंद्रभटनागर उड़ गये ज़िन्दगी के बरस रे कई, राग सूनी अभावों भरी ज़िन्दगी के बरस हाँ, कई उड़ गये ! . लौट कर आयगा अब नहीं वक़्‍त जो — धूल में, धूप में खो गया, स्याह में सो गया ! . शोर में चीखती ही रही ज़िन्दगी, हर क़दम पर विवश, कोशिशों में अधिक विवश ! . गा न पाया कभी एक भी गीत मैं हर्ष का, एक भी गीत मैं दर्द का ! . गूँजता रव रहा मात्र : संघर्ष....संघर्ष... संघर्ष ! विश्रान्ति के पथ सभी मुड़ गये ! ज़िन्दगी के बरस, रे कई देखते...देखते उड़ गये !

दिनान्त

. महेंद्रभटनागर आज का भी दिन हमेशा की तरह चुपचाप बीत गया ! . अनिच्छित असह ब्राह्ममुहूर्त का कर्कश अलार्म बजा, दिनागम की खुशी में एक पक्षी भी न चहका, भोर घर-घर बाँट आयी स्वर्ण, मेरे बन्द द्वारों पर किसी ने भी न दस्तक दी न धीरे से किसी ने भी पुकारा नाम ! . प्रौढ़ा दोपहर प्रत्येक की दैनन्दिनी में लिख गयी विश्रान्ति के क्षण ; मात्र मुझको ऊब केवल ऊब ! . अलसाया शिथिल अब देखता हूँ आ रही सन्ध्या अरुणिमा, तुम भला क्या दे सकोगी ? मौन उत्तर था — ‘अँधेरा.... घन अँधेरा !’ .

सुकर : दुष्कर

महेंद्रभटनागर महज़ दिन बिताना सरल है, जीना कठिन ! . ज़िन्दगी को काटना कितना सहज है, खण्डित व्यक्तित्व के धागों रेशों को सहेजना सँवारना सीना कठिन ! . केवल समय-असमय उगलने को गरल है पीना कठिन ! महज़ दिन बिताना सरल है जीना कठिन !