डा. महेंद्र भटनागर सदा.... सदा की तरह नव मेघों के उपहारों की लेकर बाढ़ आया आषाढ़ ; पर, तीव्र पिपासाकुल चातक ने कुछ न कहा, सूनी-सूनी आँखों से बस देखता रहा, आगत का स्वागत नहीं किया, जीवन-रस नहीं पिया ! . सदा....सदा की तरह झर-झर सावन बरसा, रतिकर कंपित वक्षस्थल ले उमड़ीं तड़पीं श्याम घटाएँ हरित सजल आँचल फैलाये, पर, नृत्य मयूरों ने नहीं किया, भादों बीत गया नीरस मौन गगन ने कजली गीतों का स्वर नहीं दिया। . सदा... सदा की तरह आयीं शारद-ज्योत्स्ना रातें शीतल। याद दिलाने मांसल विधु-वदनी की बातें ! पर, शुक्लाभिसारिका निज गृह से नहीं हिली, पथ — सुनसान बनाये प्रति निशि जागा, शान्त सरोवर में नहीं मोरपंखी कहीं चली ! . सदा...सदा की तरह लह-लह मधु-माधव आया, नव पल्लव रंग-बिरंगे पुष्पों के गजरे लाया पर, वासन्ती नहीं खिली, मधुकण्ठी की पीड़ा भी नहीं सुनी ! . बोझिल तिथियों का, धूमिल स्मृतियों का, एक बरस बी...त...ग...या...!