डॉ. लवलेश दत्त
हिन्दी कथासाहित्य में सर्वाधिक प्रभावशाली और सशक्त विधा है उपन्यास। उपन्यास सही अर्थों में कथा का विस्तार मात्रा नहीं है, बल्कि उसमें जीवन का सर्वांगपूर्ण दर्शन है। इसके साथ उपन्यास युगबोध, कालबोध, दैनिक जीवन की समस्याओं, घटनाक्रमों, मानवीय संवेदनाओं और पल-पल बदलते परिवेश का सूक्ष्म प्रस्तुतिकरण होता है। यह ऐसी विधा है जो जीवन को समग्रता के साथ अपने में समेट कर उसे पाठकों के समक्ष रखती है। उपन्यास समय के साथ यात्रा करने में पूर्णतः समर्थ है। इसीलिए प्रायः सभी कहानीकार उपन्यास अवश्य लिखते हैं। कुछ लेखक तो ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने लेखन का आरंभ उपन्यास से ही किया है। समय और परिस्थितियों को बदलने के साथ-साथ दृष्टि में भी परिवर्तन होता है तथा जैसे-जैसे दृष्टि व्यापक होती जाती है, लेखक की लेखनी का फलक भी बढ़ता जाता है। जब उसकी संवेदनशील दृष्टि समाज के ऐसे वर्ग पर पड़ती है जो सदा से उपेक्षित, शोषित और तिरस्कृत रहा है तो उसकी लेखनी से ‘अस्तित्व’ जैसी रचना का सृजन होना स्वाभाविक है।
‘अस्तित्व’ युवा लेखिका गिरिजा भारती का प्रथम उपन्यास है। प्रस्तुत उपन्यास एक किन्नर के जीवन की गाथा है। 128 पृष्ठीय उपन्यास का कथानक एक मध्यमवर्गीय परिवार के इर्द-गिर्द बुना गया है। विवाह के चार वर्ष बाद वर्मा जी एवं उनकी पत्नी सुधा को एक कन्यारत्न की प्राप्ति होती है। बेटी के जन्म की खुशी एवं उत्साह उस समय ठंडा हो जाता है जब सुधा, वर्मा जी को बताती हैं कि उनकी बेटी वास्तव में एक किन्नर है, ‘‘...जब बीवी ने बताया कि बेटी एक किन्नर है तो वर्मा जी को लगा मानों किसी ने उनके कानों में शीशा पिघलाकर डाल दिया हो और वह अभी यह खबर सुनकर बेहोश हो जाएँगे।’’(अस्तित्व, पृ. 8) सुधा को जीवनपर्यन्त अपनी किन्नर बेटी को किन्नरों के ले जाने का भय सताता है। अक्सर उसे ऐसे स्वप्न आते हैं जिनमें वह किन्नरों को अपनी बेटी को छीनकर ले जाते हुए देखती है, ‘‘...मैंने सपना देखा कि किन्नर मेरी बच्ची को मुझसे छीनकर ले जा रहे हैं।’’ इसलिए वह यह बात किसी को नहीं बताती की उसकी बेटी किन्नर है और उसका लालन-पालन अपने अलावा किसी को नहीं करने देती। यहाँ तक कि वह अपनी माँ से भी यह बात छुपाती है। एक दिन उसकी माँ को सच्चाई पता लगती है तो वह बहुत दुखी होती है तथा अपनी माँ से निवेदन करती है कि वह यह बात किसी को भी न बताएँ वरना किन्नर उसकी बेटी को उसके पास नहीं रहने देंगे और अपने साथ ले जाएँगे। उसे इस बात की चिन्ता होती है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था किस प्रकार की है जिसमें कुत्तों तक को लोग अपने साथ रखते हैं, उनकी एक संतान की तरह देख-रेख करते हैं किन्तु किन्नर का नाम सुनते ही उससे घृणा करते हैं तथा समाज से बहिष्कृत कर देते हैं। वह अपनी माँ से कहती है, ‘‘मुझे यह समझ नहीं आता माँ, लोग कुत्ते पालते हैं। उसको अच्छे-अच्छे साबुन, शैंपू से नहलाते हैं। उसके कितना प्यार और इज्जत देते हैं। कितने प्यार से उसको खाना खिलाते हैं, दूध पिलाते हैं, गाड़ियों में बिठाते हैं, उसको बिस्तर पर सुलाते हैं। वो तो एक कुत्ता है, जानवर है। जब आप उसे जीने का अधिकार देते हैं तो एक किन्नर को क्यों नहीं?’’ वह अपनी माँ से कहती है कि वह अपनी बेटी के अधिकार के लिए इस समाज से लड़ेगी, ‘‘मैं अपनी बेटी के हक के लिए इस पूरे समाज से लड़ लूँगी। पर माँ मुझ पर दया कर। किसी को मेरी बेटी का राज मत बताना।’’
कथा इसी प्रकार आगे बढ़ती है। सुधा अपनी किन्नर बेटी का नाम ‘प्रीत’ रखती है और उसके पालन-पोषण एवं पढ़ाई-लिखाई का दायित्व स्वयं सँभालती है। अपने पति से कहकर उनका तबादला दिल्ली करवा लेती है जिससे उसे अपनी किन्नर बेटी की परवरिश में कोई समस्या न आए। यद्यपि वर्मा जी की माँ को यह बात नागवार गुजरती कि सुधा अपनी बड़ी बेटी को किसी को भी हाथ नहीं लगाने देती और अक्सर वह उसे ताने देने लगती, ‘‘बेटी पैदा की हो तो हाथ नहीं लगाने देती। अगर बेटा पैदा करती तो चेहरा भी नहीं दिखाती। पर्दे में रखती।’’ दिल्ली आने के कुछ ही वर्षों में वह एक बेटे और एक बेटी को जन्म देती है और इस बात से निशि्ंचत हो जाती है कि अब वह प्रीत की देखभाल अच्छी तरह से कर सकती है क्योंकि उसकी सास उसके दोनों बच्चों की देख-रेख करती रहेंगी।
समय के साथ बच्चे बड़े होने लगते हैं। स्कूल जाने लगते हैं। प्रीत एक होनहार छात्रा के रूप में उभरती है। वह पढ़ी-लिखी व समझदार होने के साथ-साथ संवेदनशील भी है। बड़े होते हुए ही उसे इस बात का पता चल जाता है कि वह एक आम लड़की नहीं बल्कि एक किन्नर है, ‘‘...अब वह पूरी तरह समझ गयी थी कि वह एक आम लड़की नहीं है। वह एक किन्नर है। इसका प्रीत को बहुत बड़ा धक्का लगा। वह खोई-खोई-सी रहने लगी। कभी मन करता तो एकदम पढ़ने बैठ जाती तो कभी बाहर घूमने निकल जाती।’’ समाज को देखते समझते हुए वह हर परिस्थिति का सामना करने को तैयार हो जाती है। वह समाज के झूठे नियमों को समझ जाती है, ‘‘प्रीत समझ चुकी थी कि इस समाज में कोई नियम नहीं, समाज खुद नियम बनाता है और उसे जो भी खुद कमजोर लगता है। उसे समाज की बलि वेदी पर चढ़ा देता है।’’ वह गंभीर विचार विमर्श करती है और अपनी माँ से कहती है, ‘‘वह सोचती है, मैं इतनी कमजोर नहीं। मैं अपनी पहचान खुद बनाऊँगी।....उसने एक दिन अपनी माँ को अकेले देखकर कहा। माँ आप मेरे बारे में सोचकर चिन्ता मत किया करो। कोई कभी नहीं समझ पाएगा कि मुझमें क्या कमी है और अगर मुझमें कोई कमी है भी तो माँ लोगों को क्या फर्क पड़ता है।’’.....
पूरा आलेख थर्ड जेण्डर अतीत और वर्तमान पुस्तक में पढ़ा जा सकता है.----
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