- मेरा जन्म हरियाणा के काला पानी कहे जाने वाले मेवात क्षेत्र के छोटे-से क़स्बा नगीना के एक अति पिछड़े मज़दूर और इस धरती के आदि कलाकार कुम्हार जाति के बेहद निम्न परिवार में हुआ l अपने मेरे घर-परिवार और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पूछा है l अभी हाल में मैं अपने क़स्बे में गया हुआ था, तो संयोग से कुम्हार जाति की वंशावली का लेखा-जोखा रखने वाले हमारे जागा अर्थात जग्गा आ पहुँचे l मैंने जब इनसे अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पूछा, तब इन्होंने कुछ ऐसी जानकारी दी जो मेरे लिए लगभग अविश्वसनीय थीं l जैसे इन्होंने बताया की हमारे मोरवाल गोत्र के पूर्वज उत्तर प्रदेश के काशी के मूल निवासी थे l काशी से वे पलायन कर बनारस आये l इसके बाद बनारस से पलायन कर सैंकड़ों मील दूर दक्षिण हरियाणा के बावल क़स्बे, जो रेवाड़ी के पास है, यहाँ आये l बावल से चलकर ये दक्षिण दिल्ली के महरोली, महरोली से पलायन कर सोहना (गुडगाँव) के समीप इंडरी गाँव और अंत में यहाँ से चलकर दक्षिण हरियाणा के ही मेवात के इस क़स्बे में जाकर पनाह ली l अपने आप को ऋषि भारद्वाज के वंशज कहलाने वाले इन जागाओं की बेताल नागरी में लिखी इन पोथियों में यह भी दर्ज़ है कि मेरे सड़ दादा गंगा राम के पाँच बेटे थे l इनमें से तीसरे नंबर के पल्टू राम के बेटे सुग्गन राम और सुग्गन राम के चार बेटों में से दूसरे नंबर के बेटे मंगतू राम के तीन बेटों में से दूसरे नंबर का बेटा भगवानदास l मुझ समेत हम तीन भाई और दो बहनें हैं l मैं यहाँ एक बात बता दूं कि हमारा पुश्तैनी काम मिटटी के बर्तन बनाना था, जो 1985 तक रहा l
मेव (मुसलमान) बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण मेरे क़स्बे और मेरे क़स्बे का वह चौधरी मोहल्ला भी मेव बाहुल्य मोहल्ला है l यहाँ एक रोचक जानकारी दे दूँ कि मेरे इस चौधरी मोहल्ले का नामकरण हिन्दुओं के चौधरियों के नाम पर नहीं है बल्कि मेव चौधरियों के नाम पर है l मेरे घर के सामने अगर ऐसा ही मेव चौधरी का घर है, तो बाएं तरफ भी ऐसा ही घर है l जबकि हमारे घर का पिछवाड़ा मुसलमान लुहारों से आबाद है l अपने परिवार में उस समय के हिसाब से मैं एकमात्र शिक्षित व्यक्ति था l हालाँकि अपनी क्षमता के अनुसार मैंने अपने दोनों बच्चों अर्थात बेटा प्रवेश पुष्प जिसकी शिक्षा एमसीए है, तो बेटी नैया ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिंदी में पीएच.डी किया हुआ है l वैसे मैंने अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में अपनी स्मृति-कथा पकी जेठ का गुलमोहर में भी विस्तार से लिखा हुआ है l
2. आप की शिक्षा-दीक्षा कहां से हुई और कहां तक...?
- मेरी प्रारंभिक शिक्षा अपने कस्बे में हुई l हाँ, स्नातक मैंने मेवात के जिले और प्रमुख शहर नूहं से की है l बाकी की शिक्षा जिसे 'शिक्षा' कहना उचित नहीं होगा, ऐसे ही चलते-चलाते पूरी की l स्नातक के बाद पहले राजस्थान विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा किया l इसके बाद यहीं से हिंदी में एम.ए. किया l बस, मेरठ विश्वविद्यालय से 'हिंदी पत्रकारिता में दिल्ली का योगदान' विषय में पीएच.डी. होती-होती रह गयी l
3. आपकी प्रिय विधा कौन सी है और क्यों....
- जहां तक मेरी प्रिय विधा का प्रश्न है तो इस समय निसंदेह मेरी प्रिय विधा उपन्यास है l इसका एक कारण यह है कि एक लेखक द्वारा जिस तरह एक विधा साधनी चाहिए, शायद वह मुझसे साध गयी है l इसका प्रमाण पिछले कुछ सालों में एक के बाद तीन उपन्यासों के रूप में देखा जा सकता है l जबकि आगामी उपन्यास पर धीरे-धीरे काम हो रहा है l मुझे लगता है एक लेखक के रूप में मैं जितना सहज अपने आपको उपन्यास में पाता हूँ उतना शायद दूसरी विधा में नहीं l इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि जीवन-जगत को प्रस्तुत करने के लिए जिस आख्यान की ज़रुरत होती है, उपन्यास उसे बखूबी अपना विस्तार प्रदान करता है l दूसरे शब्दों में कहूं तो मेरी जैसी सामाजिक पृष्ठभूमि है उसके दुखों, संतापों और आक्रोश को मैं उपन्यास के माध्यम से ही व्यक्त कर सकता हूँ l इसीलिए मैं जितना अपने व्यक्तिगत जीवन में निर्मम हूँ, उतना ही अपनी रचनाओं में हूँ l प्रपंच या नकलीपन न मेरे असली जीवन में है, न मेरी रचनाओं में आपको नज़र आएगा l सच कहूं अब मैं उपन्यास को नहीं जीता हूँ बल्कि उपन्यास मुझे जीता है l मेरी रचनाओं और उनके पात्रों में आपको वह दुविधा या दुचित्तापन दिखाई नहीं देगा जो एक लेखक को कमज़ोर बनाता है l
4. हलाला उपन्यास लिखने का उद्देश्य किया था...?
- आपने हलाला के लिखने के उद्धेश्य के बारे में पूछा है l मेरा माना है कि किसी भी लेखक से उसके लिखने के उद्धेश्य के बारे में नहीं पूछना चाहिए ल लेखक या रचनाकार किसी उद्धेश्य को ध्यान में रख कर नहीं लिखता है l क्या प्रेमचन्द ने गोदान, रेणु ने मैला आँचल, राही मासूम रज़ा ने आधा गाँव, अब्दुल बिस्मिल्लाह ने बीनी-बीनी झीनी चदरिया, भीष्म साहनी ने तमस, श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी, अज्ञेय ने नदी के द्वीप किसी उद्धेश्य के तहत लिखे होंगे - नहीं l दरअसल, रचना किसी उद्धेश्य का प्रतिपाद नहीं बल्कि एक लेखक के अंदर अपने समाज में देखी गयी विसंगतियों से पनपे द्वन्द्वों का सत्य होता है l यह वह सत्य होता है जिसे एक व्यक्ति महसूस तो करता मगर उसे व्यक्त नहीं कर पाता l एक लेखक वास्तव में उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व या कहिए ऐसा प्रतिरूप होता है जो एक पाठक को अलग-अलग पात्रों के रूप में नज़र आता है l उसके लिए धर्म-संप्रदाय या स्त्री-पुरुष मायने नहीं रखते हैं बल्कि उसके लिए उनके दुःख-दर्द और सरोकार कहीं ज़्यादा मायने रखते हैं l एक बेहतर कल्पना उसके लिए कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है l इसलिए यह कहना की हलाला लिखने मेरा क्या उद्धेश्य रहा होगा, इसे आपने उसे पढ़ कर जान और समझ लिया होगा l
5. क्या यह सब लिखने के लिए आप किसी मुस्लिम महिला से मुलाकात की थी?
-आपने पूछा कि इसे लिखने के लिए मैंने किसी मुस्लिम महिला से मुलाक़ात की थी ? ‘हलाला’ की पृष्ठभूमि मेवात की होने के कारण पाठक को ऐसा लगता है मानो हलाला की रस्म मेवात में प्रचलित है l सच तो यह है कि मेवात में यह रस्म बिलकुल भी चलन में नहीं है l मैंने आज तक हलाला से संबंधित एक भी मामला न देखा न हीं सुना l अब आप पूछेंगे कि फिर आपने इसे मेवात की कहानी क्यों बनाया ? इस पर मैं पलट कर आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या ऐसी समस्याएँ सिर्फ़ मेवात की हो सकती हैं l मेवात से बाहर का मुस्लिम समाज ऐसी समस्याओं से नहीं जूझ रहा होगा ? इस उपन्यास की पृष्ठभूमि मेवात देने का कारण मात्र इतना है ही कि मैं उस समाज को गहरे तक जानता हूँ l अपने लेखकीय कौशल का इस्तेमाल कर मैं पानी बात को अपने चिर-परिचित पात्रों के माध्यम से कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से कह सकता हूँ l सच तो यह कि तलाक़ या हलाला जैसी समस्याएँ सामाजिक समस्याएँ हैं जिन्हें हमने धार्मिकता का वारन ओढा कर और विकराल बना दिया l इस विकरालता को और भयानक हमारे उन मर्दों ने बना दिया जो औरत को महज एक उपभोग की वस्तु और अपनी जागीर मान बैठा है l
लेखक का पाने पात्रों में ढालना या कहिए परकाया में प्रवेश करना ही उसकी सबसे बड़ी सफलता है l अगर यह उपन्यास काल्पनिक होते हुए भी कुछ सवाल उठाता है तो लेखक के साथ-साथ यह इसकी भी सफलता है l
6. हलाला उपन्यास लिखने के लिए क्या आपने कुरान या हदीस को पढ़ा था?
-यह आप अच्छी तरह जानते हैं कि किसी भी रचना या उपन्यास पर काम करने से पहले एक शोधार्थी की तरह मैं अपनी क्षमता और समझ के मुताबिक़ पूरी मेहनत करता हूँ l विषय से संबंधित हर तरह की उपलब्ध साहित्य और सामग्री का अध्ययन करता हूँ l उपन्यास ‘हलाला’ पर काम शुरू करने से पहले इस रस्म से संबंधित कुरआन की आयतों को खोजा, तो कुरआन में इससे संबंधित सूरा अल-बक़रा की मुझे सिर्फ़ 230वीं एक आयत मिली l बाकी हलाला के बारे में मुझे कोई दूसरी आयत नहीं मिली l इस आयत को मैं हू-ब-हू यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ – ‘तो यदि उसे ‘तलाक़’ दे दे, तो फिर उस के लिए यह स्त्री जायज नहीं है जब तक कि किसी दूसरे पति से निकाह न कर ले l फिर यदि वह उसे तलाक़ दे दे, तो फिर इन दोनों के लिए एक-दूसरे की ओर पलट आने में कोई दोष न होगा l’
इसे और स्पष्ट करने के लिए कुरआन में लिखा गया है –‘यह दूसरा पति यदि उसे छोड़ दे या उसकी मृत्यु हो जाए, तो यह स्त्री अपने पहले पति के साथ फिर से विवाह कर सकती है l ‘ इस आयत का अलग-अलग कोणों से अध्ययन करने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न यह उठा कि अगर कुरआन में ऐसा कहा गया है, तो फिर दूसरे पति से निकाह के बाद उससे सहवास की बात कहाँ से आयी l हालाँकि कुरआन से इतर दूसरे धार्मिक ग्रन्थ जैसे हदीस में इसे क्यों और कहाँ जोड़ा गया कि औरत दूसरे शौहर के लिए उस वक़्त तक हलाल नहीं हो सकती, जब तक कि दूसरा शौहर उसके साथ न कर ले l अगर मैं एक आम मुस्लिम के नज़रिए से सोचूँ तो मेरे भीतर इस सवाल का उठाना स्वाभाविक है कि जब कुरआन में ऐसा कहीं है ही नहीं तो दूसरे पति से सहवास का क्या मतलब है l जहाँ तक हदीस की बात है और जितना मुझे पता है हदीस का आधार भी कुरआन ही है l अब हम यदि कुरआन को एक मुक्कदस आधार ग्रन्थ मानते हैं तो जो बात उसमें है ही नहीं वह खां से आयी l जबकि इसके बरअक्स दूसरे ग्रन्थों में सहवास का न केवल उल्लेख किया गया है बल्कि एक आम मुसलमान को जिस तरह समझाने की कोशिश की गयी है, उसमें मर्दवादी सोच पूरी तरह निहित है l जैसे सैयद अबुल आला मौदूदी की एक पुस्तक में हलाला के बारे में कहा गया है – नबी सल्लाहेवलेअस्ल्लम ने साफ़ कहा है कि हलाला के लिए केवल दूसरा निकाह ही काफी नहीं है, बल्कि औरत उस वक़्त तक पहले शौहर के लिए हलाल नहीं हो सकती, जब तक कि दूसरा शौहर उससे सहवास का स्वाद न चख ले l इसी तरह मैंने एक पत्रिका इसलाहे समाज में पढ़ा था कि ...दूसरा शौहर उससे सहवास का मज़ा न चख ले l
अब आप देखिए कि कुरआन की मूल आयात का अर्थ एक पुस्तक से होता हुआ एक रिसाले तक आते-आते कितने चटखारे और मसालेदार हो गया ? मेरी नज़र में इस रस्म को घृणित और एक तरह से पूररी तरह स्त्री विरोधी उसके बाद के इन अर्थों और व्याख्याओं ने बना दिया है l चूंकि हमारा आम असमाज और आम नागरिक अपने धार्मिक दानिशवरों पर बहुत भरोसा करता है इसलिए जब स्वाद और मज़ा उन तक संप्रेषित होते हैं , उनके मायने और सलीके भी बदल जाते हैं l एक लेखक होने के नाते मैंने अपनी बात बिना किसी उत्तेजना और उकसावे के स्त्री के हक़ में कही है l
Comments