7. अधिकांश लेखक दूसरे की प्रथा पर लिखने से बचते हैं आपको नहीं लगा की कुछ गलत लिख दिया तो....
-आपने सही कहा है कि कोई भी लेखक दूसरे की प्रथा विशेष कर धार्मिक प्रथाओं पर लिखने से बचता है और बचाना भी चाहिए l मगर यह इस पर निर्भर करता है कि ऐसा विषय चुनते हुए उसकी मंशा और नीयत क्या और कैसी है l ऐसा ही सवाल कई पाठकों ने मेरे दूसरे उपन्यास ‘बाबल तेरा देस में’ को पढ़ने के बाद उठाया था l इस उपन्यास में भी ऐसे मुद्दों को उठाया गया था l इस बारे में मेरा कहना यह है कि मुझे बचना या डरना तब चाहिए जब मैं दूसरे मज़हब या धर्म को आहात कर रहा हूँ l आप ‘हलाला’ को पढ़ कर थोड़ी देर के लिए सहमत या असहमत तो हो सकते हैं लेकिन मेरी बदनीयती पर सवाल नहीं उठा सकते l हाँ, अगर मुझे सिर्फ़ विवादास्पद होना होता , या मुझे कुछ हासिल करना होता तो शायद यह बात लागू होती l ऐसी कोई मंशा मेरी न तो ‘बाबल तेरा देस में’ लिखने के दौरान थी, न ‘हलाला’ लिखने के दौरान l सनसनी पैदा करने की नीयत से लिखी गयी किसी भी कृति या रचना की उम्र बहुत छोटी होती है l अच्छी रचना वही है जो पाठक को भीतर से बेचैन करे,न कि मज़े लेने के लिए लिखी जाए l हाँ, कभी-कभी तब डर सा लगता है जब कुछ लोग इसे अपनी निजता और धार्मिक मामलों में दखल समझ कर लेखक पर सवाल उठाते हैं कि लेखक को इस्लाम की क्या समझ है l मैं मानता हूँ कि समझ नहीं होगी मगर कोई धर्म या धार्मिकता मनुष्यता से तो ऊपर नहीं है l लेखक का एक दायित्व यह भी होता है कि वह निरपेक्ष हो कर अपने विवेकानुसार गलत और सही में फ़र्क करे l किसी एक का पक्षकार होना भी कभी-कभी उसके लिए घातक सिद्ध हो सकता है l गलत और सही का आकलन खुद लेखक से बेहतर और कौन कर सकता है l
8. क्या आप को पता है कि हज और जमात में बहुत अंतर है?
- आपने पूछा है कि क्या आपको पता है कि हज्ज और जमात में बहुत अंतर है l आपका सोचना एक हद तक बहुत सही है और ईमानदारी से कहूँ, तो सचमुच मुझे हज्ज और जमात में क्या अंतर है, नहीं पता l मुझे सिर्फ़ इतना पता है कि ‘हज्ज’ मुसलमानों का एक ज़ियारत अर्थात तीर्थ-स्थल है l मक्का मदीना स्थित अल्लाह का वह काबा (घर) है जिसके दर्शन का हर मुसलमान इरादा रखता है l वैसे ‘हज्ज’ का मतलब ही इरादा करना होता है l ‘हज्ज’ यानी इरादा करना, वास्तव में आदमी की ओर से इस बात का एलान करना है कि उसका प्रेम और श्रद्धा, उसकी इबादत और बंदगी सब कुछ अल्लाह के लिए ही है l ‘हज्ज’ का मूल उद्देश्य यह है कि इनसान अल्लाह की चाह में उन्मत्त हो कर अपना सब कुछ उसकी राह में लगा दे l वास्तव में यह मूल उद्देश्य केवल हज्ज का ही नहीं है बल्कि सभी धर्मों के तीर्थ-स्थलों का है l इस ‘मूल’ की अवधारणाएँ इतनी व्यापक हैं कि अगर मनुष्य इन्हें सच्चे मन से धारण कर ले, तो आज हमारे समाज में जिस तरह की धार्मिक अहिष्णुता घर कर गयी है, वह शायद हमें देखने को न मिले l दरअसल, यह धारण करना ही धर्म कहलाता है l
अब आता हूँ ‘तबलीग़ जमात’ पर l अरबी में तबलीग़ शब्द का अर्थ होता है ‘किसी के पास कुछ पहुँचाना’, ‘धर्म का प्रचार करना’ या ‘दूसरों को अपने धर्म में मिलाना’ l यहाँ यह एक बड़ा प्रश्न है की तबलीग़ आन्दोलन मुस्लिम मिशनरी है या मुस्लिम धर्म का पुनर्जीवन आन्दोलन l इसी पर अपनी समझ और जानकारी के मुताबिक़ कुछ रोशनी डाल सकता हूँ l शायद आपको यक़ीन न हो, या आपको इसमें कुछ अतिश्योक्ति लगे, मगर आपको सुनकर हैरानी होगी कि तबलीग़ जमात की शुरुआत 1926 में मेरे मेवात से ही हुई और इसके प्रवर्तक और प्रेरक थे मौलाना मौहम्मद इलियास खंडालवी (1885-1944) l वही तबलीग़ जमात जो आज हर मुसलमान के लिए मानो उसकी धार्मिक अनिवार्यता और जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है l मौलाना इलियास ने एक नारा दिया दिया था -ऐ मुसलमानो मुसलमान बनो ! हालांकि तबलीग़ की स्थापना मौलाना इलियास द्वारा 1920 में की गयी थी l मगर इसकी जड़ें 19वीं शताब्दी के उत्तर्राद्ध में इनके वालिद मोहम्मद इस्माइल ने बंगले वाली मस्जिद, हज़रात निजामुद्दीन, नई दिल्ली में जमा दी थीं l मौलाना इलियास 1923 ने मेवात के नूहं में मदरसा मोइनुल इस्लाम की स्थापना की l 1926 में तबलीग़ जमात का पहला जत्था सहारनपुर के मौलाना खलील अहमद के नेतृत्व में आया l इस जत्थे ने स्थानीय लोगों की मदद से नूहं क़स्बे में एक सम्मेलान का आयोजन किया था l हज़ारों की तादाद वाले इस सम्मलेन में लोगों से हिन्दू-रीति-रिवाजों को त्यागने और मुस्लिम क्रियाकलापों को अपनाने तथा पूरे मेवात में तबलीग़ आन्दोलन को फैलाने की अपील की गयी थी l मेवात के मेव मुसलमानों से यह अपील इसलिए की गयी थी की यहाँ के मेव मुसलानों की धार्मिकता आधी हिन्दू रीति-रिवाजों पर आधारित थी, तो आधी मुस्लिम रीति-रिवाज़ों पर l यहाँ तक कि उस समय के पुरषों के नाम हिन्दू नामों से प्रेरित थे, जैसे हरिसिंह, धनसिंह, चांदसिंह, लालसिंह आदि l इस तरह तबलीग़ जमात के मेवात से शुरुआत का एक कारण यह भी हो सकता है l
9. आपने जिन जिन पात्रों का उपन्यास में उल्लेख किया है क्या वह काल्पनिक है या वास्तविक?
-किसी भी रचना के चरित्र या पात्र वास्तविक और काल्पनिक दोनों होते हैं l बल्कि कहना होगा कि कोई भी पात्र न तो अपने आप में पूरी तरह काल्पनिक होता है, न पूरी तरह वास्तविक जो पात्र वास्तविक जीवन से लिए गये होते हैं, उनमें लेखक अपनी कल्पना और लेखकीय कौशल इतना विश्वसनीय और प्रामाणिक बना देता है कि एक पाठक के लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है वह कितना काल्पनिक है और कितना वास्तविक l यही बात उन काल्पनिक पात्रों पर लागू होती है l एक लेखक निजी अनुभवों और पात्रों के मिश्रित अनुभवों से अपने इन काल्पनिक पात्रों को अपनी कल्पना शक्ति से इतना जीवंत और प्रामाणिक बना देता है कि पाठक को लगता है मानो ये पात्र यहीं कहीं उसके आसपास खड़े हैं l यह एक लेखक की कल्पनाशीलता और लेखकीय कौशल पर निर्भर करता है कि वह अपने इन पात्रों को कितना और किस तरह जीता है, या कहिए उनको किस हद तक आत्मसात करता है l यह आत्मसात करने की चुनौती तब और बढ़ जाती है, जब उसने अपने किसी पात्र से ज़िन्दगी में कभी मुलाक़ात ही न की हो l बल्कि दूसरे धर्म व स्त्री पात्र और पुरुष पात्रों के मनोविज्ञान को व्यक्त करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है l यह चुनौती स्त्री व पुरुष दोनों लेखकों के लिए सामान होती है l मैं यह बात सिर्फ़ ‘हलाला’ के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि मेरी सभी रचनाओं के पात्रों पर लागू होती है l आप कल्पना कर सकते है कि एक लेखक अपने पूरे जीवन काल की अपनी कितनी रचनाओं के कितने काल्पनिक और वास्तविक पात्रों को एकसाथ जीता होगा l इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि एक लेखक के असंख्य पात्रों से गुज़रते हुए हम के पात्रों के नहीं बल्कि एक लेखक के अनेक रूपों और व्यक्तित्वों से भी गुज़रते हैं l यह आशा-निराशा ख़ुशी-गम, नैराश्य-कुंठा, चतुराई-चालाकियाँ, घात-प्रतिघात पात्रों की नहीं स्वयं लेखक की होती हैं l अब एक लेखक अपने पाठकों को अपने लेखकीय कौशल से उलझाता या भ्रमित करता है , तो यह उसकी सबसे बड़ी सफलता है l
10. क्या आपने सूर बकरा आयत नं. 228 को पढ़ा है उसमें भी शायद उसी तरह का कोई जिक्र हुआ है । आपकी टिप्पणी?
-सूरा अलबक़रा की आयतें पारंपरिक तलाक़ यानी उन सूरतों की आयते हैं जिनमें कुरआन के मुताबिक़ तलाक़ के पूरे विधिविधान की बात कही गयी है l जबकि भारतीय समाज के ज़्यादातर तलाक़ के मामले कुरआन के मुताबिक़ होते ही नहीं हैं l अधिकतर मामलों में पति की अराजक मनमर्ज़ी चलती है l उसका एक कारण है कि कुरआन में पुरुष को औरत का क़व्वाम यानी एक दर्ज़ा दिया गया है l तलाक़ के मामलों में प्राय: यह देखने में आया है कि विधिविधान की शर्तें केवल औरत पर थोपी जाती हैं, जबकि पुरुष इनसे पूरी छूट ले लेता है l वैसे भी सूरा अलबक़रा की यह आयत बीवी के गर्भवती होने कि स्थिति को लेकर है l जिन तीन महावारियों का इसमें ज़िक्र किया गया है, वह इसीलिए किया गया है ताकि यह पता चल सके कि वह गर्भवती है या नहीं l या कहना चाहिए कि इस बहाने तीन महीने तक औरत के चरित्र की परीक्षा ली जाति है l
11. बिना इद्दत की अवधि पूरे किए व निकाह किए बिना स्त्री बपने पूर्व पति के घर नहीं जा सकती है। लेकिन आपने गलत उल्लेख कर दिया। जिससे लोगों में भ्रामकता पैदा होती है।
-आपने अपने सवाल में इद्दत का मुद्दा उठाया है तो मैं इसके बारे में यह कहना चाहता हूँ कि उपन्यास ‘हलाला’ में यह कहाँ नहीं कहा गया है कि बिना इद्दत पूरी किये नज़राना का डमरू से निकाह हुआ है, या अपने पहले पति के पास लौट आयी होगी ? तलाक़ के मामले में इद्दत एक सामान्य प्रक्रिया है, और इसके बारे हम सब लगभग जानते हैं l चूँकि इस उपन्यास की विषय वस्तु हलाला को आधार बना कर तैयार की गयी है न कि तलाक़ को आधार बना कर, इसलिए पाठक को ऐसा लगता है मानो इद्दत को छोड़ दिया गया है l इद्दत का मामला शिक्षित परिवारों के उन तलाक़ के मामलों में बारीक़ी के साथ देखा जाता है, जहाँ पतिपत्नी के बीच अचानक नहीं बल्कि काफी सोच विचार के बाद तलाक़ लिया जाता है l वैसे भी यह उपन्यास एक ग्रामीण और लगभग अशिक्षित समाज को केंद्र में रख कर लिखा गया है l एक ऐसे भारतीय आम परिवारों को केंद्र बना कर जिनमें धर्म की जगह उनके जीवन-जगत में सिर्फ़ उतनी रहती है, जिससे उनकी धार्मिक पहचान सुरक्षित रह सके l और यह बात सभी धर्मों के समाजों पर लागू होती है l अधिकतर धर्मों में बहुत-सी रस्मों का पता भी नहीं होता है, बस परम्परा के नाम पर एक-दूसरे की देखादेख उन्हें लगभग निभाया भर जाता है l हिन्दुओं में भी धर्म का असली पालन कितना होता है, हम सब जानते हैं l इसका बड़ा उदाहरण है करवा चौथ l छलनी से चन्द्रमा देखने से यह व्रत पूरा थोड़े ही हो जाता है l मगर एक भेड़चाल जिसने शिक्षित-अशिक्षित सभी तरह की महिलाओं को अपनी चपेट में ले लिया है l दरअसल ऐसी शर्तों के पीछे स्त्री को बंधक बनाये रखने की हम मर्दों की एक चाल है l इसलिए तलाक़ ही नहीं बाकी के मामलों में भी मेरा यह मानना है कि एक ‘सच्चा’ मुसलमान अगर पूरी ईमानदारी से कुरआन का पालन करे, तो मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूँ कि मुस्लिम समाज में न एक तलाक़ हो, न एक हलाला l सच तो यह है कि अपने स्वार्थों के चलते हमने अपनी कुछ सामाजिक समस्याओं को धार्मिक बना कर रख दिया l धर्म या मज़हब को पूरी तरह आत्मसात करना हरेक के बूते की बात है ही नहीं l दरअसल, धर्म का मामला इतना आसान नहीं है जितना हम समझते हैं l
12. आपने अपने हलाला उपन्यास को पाँच अध्याय में विभक्त किया है जिसके नाम पाँच वक्त की नमाजों पर है उससे आपका क्या अभिप्राय है।
-उपन्यास को पाँच अध्यायों में न तो किसी सोचे-समझे अभिप्राय के तहत बाँटा गया है न किसी योजना के तहत l अगर इसमें से इन पाँचो नमाज़ों, कुरआन की आयतों और रेखांकनों को हटा भी दें, तो मूल कथा पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है l अंतिम प्रूफ़ तक यह उपन्यास सिर्फ़ दस अध्यायों बांटा गया था l मेरे पास जब इसको सरसरी तौर पर अवलोकन के लिए भेजा गया, तो मुझे लगा यह एक पाठक के साथ अन्याय होगा कि वह दस अध्याय बिना अपनी आँखों को आराम दिए पढता जाए l इसलिए मैंने सोचा कि पाठक को पढ़ने के दौरान कुछ रीलिफ़ मिलनी चाहिए l इसके लिए एक ही तरीक़ा था कि इसके अध्याय बनाये जाएँ l कैसे बनाये जाएँ अंतिम समय में यह बड़ी चुनौती थी l एक बार सोचा कि इसे सुबह, दोपहर, शाम इन तीन शीर्षकों के अध्यायों में बांटा जाए l लेकिन तभी लगा कि इस तरह के शीर्षक पहले भी प्रयोग में लाये जा चुके हैं l वैसे भी यह जिस तरह का उपन्यास है उसके लिए ये उपयुक्त नहीं था l ऐसा लगना चाहिए कि सचमुच अध्याय उपन्यास के कथानक के ही हिस्से हैं l बहुत सोच-विचार के बाद मन में आया कि इसे नमाज़ों के शीर्षकों में विभाजित किया जाए, तथा इसे और प्रमाणिक व रोचक बनाने के लिए इसमें कुरआन की आयतें दी जाएँ l यह प्रयोग पाठकों को भाया भी l हालाँकि कई पाठकों ने इस पर यह कहते हुए आपत्ति जतायी कि कुरआन की आयतों का ऐसे इस्तेमाल नहीं करना चाहिए l मेरा एक लेखक होने के नाते यह कहना है कि ऐसे प्रयोग उसी रचना प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसे जानने की एक पाठक में बड़ी जिज्ञासा होती है l मेरा मानना है कि ऐसे प्रयोगों से रचना की रेंज बढ़ती ही है, घटती नहीं हैं l
13. नजराना हलाला उपन्यास की मुख्य पात्र है जो हलाला से पीड़ित है उसको उपन्यास में कम महत्व दिया गया है बल्कि वही दूसरी पात्र आमना को ज्यादा स्पेस दिया है... ऐसा क्यों?
-आपने यह बड़ा रोचक सवाल पूछा है कि मुख्य पात्र नज़राना की अपेक्षा इसकी एक अन्य पात्र आमना को ज़्यादा स्पेस दिया गया है l दरअसल, कोई भी रचना विशेषकर उपन्यास लिखते समय लेखक कई तरह के प्रयोगों से झूझता रहता है, जिसमें एक यह भी है कि कोई पात्र दूसरे पात्र पर बेवजह ज़्यादा भारी न पड़ जाए l जिस स्पेस की आपने बात की है, वह स्पेस नहीं प्रवृत्तियाँ हैं l चाहे वह मनुष्य है अथवा पशु-पक्षी, यहाँ तक कि पेड़-पौधे सबकी कुछ न कुछ प्रवृत्तियाँ होती हैं l यही प्रवृत्तियाँ पात्रों की विशेषताएँ होती हैं जो एक-दूसरे को एक-दूसरे से अलग करती हैं l ये प्रवृत्तियाँ अगर साहित्यिक शब्दावली का इस्तेमाल करूँ तो पात्रों की विशेषताएँ होती हैं l मैं आपसे ही पूछना चाहता हूँ कि आमना के बिना यह उपन्यास आपको कुछ अधूरा नहीं लागत l क्या हमारे समाज में नसीबन जैसी भाभियाँ नहीं होती हैं ? डमरू जैसे युवा नहीं होते हैं ? नियाज़ जैसे लोग नहीं होते हैं ? लपरलैंडी जैसे किरदार नहीं होते हैं ? कहने का मेरा आशय यह है कि रचना में किसी पात्र को कोई स्पेस नहीं दिया जाता l यह तो रचना की मांग पर निर्भर करता है कि उसका कौन-सा पात्र कितना स्पेस लेता है l
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