सलोनी (किन्नर) से डा.
फ़ीरोज़ एवं मोहम्मद
हुसैन की बातचीत
आप का मूल
नाम
क्या
है?
मेरा मूल नाम
कुछ और है,
पर किन्नर समाज
में आने के
बाद मुझे सलोनी
उर्फ बिजली नाम
दिया गया है।
इस तरह से
आप मेरा नाम
इसे ही मान
सकते हैं।
आपकी जन्मतिथि?
24 जून
1986
आप के गुरु
का
क्या
नाम
है?
मेरे गुरु का
नाम किरण भाई
है।
आपने पढाई कहा
तक
की
है?
मैं नवीं क्लास
तक पढ़ी हूं
और दसवीं क्लास
पढ़ते हुए मैंने
पढ़ाई छोड़ दी।
आपने पढ़ाई क्यों
छोड़
दी?
कुछ
कारण
बताइए।
शिक्षा छोड़ने के पीछे
कई कारण रहे
हैं जिनमें मुख्य
कारण यह है
जब मैं नवीं
कक्षा में थी,
तब मेरे शरीर
में होने वाले
परिवर्तन अन्य बच्चों
से अलग थे
जिसके कारण मैं
दूसरे बच्चों से
अलग दिखने लगी,
चाहे वह लड़कियां
हो या लड़के।
इस कारण लड़के
मुझे छेड़ने लगे।
वैसे मेरे परिवार
वाले और सभ्य
समाज वाले मुझे
पुरुष समझ रहे
थे, पर मैं
अपने हाव-भाव
व व्यवहार से
अपने आप को
एक लड़की ही
समझती थी। मेरा
सारा व्यवहार लड़कियों जैसा
था। इस दोहरेपन
के कारण स्कूल
के बच्चे-बच्चियां
मुझसे सवाल करते
हुए छेड़ते कि
तुम क्या हो
लड़की हो या
लड़का? जिससे परेशान
होकर दसवीं क्लास
में मैंने पढ़ाई
छोड़ दी।
शिक्षकों का आपके
प्रति
क्या
नजरिया
रहा?
मेरे प्रति उनका नजरिया
अच्छा था। उन्होंने
मुझे कभी प्रताड़ित
नहीं किया, पर
हाँ, वे यह
जरूर समझ चुके
थे कि यह
बच्चा अन्य बच्चों
से अलग है।
शिक्षक लोगों ने कभी
भी मेरी हंसी
नहीं उड़ाई। पर
बच्चे मुझे बहुत
परेशान करते थे।
वह कहते थे
कि तू लड़कियों
जैसा चलता है।
लड़कियों जैसे नखरे
करता है जबकि
तेरी आवाज लड़कों
जैसी है। ऐसे
कई कमेंट्स वह
लोग करते थे
जिसके कारण हमारा
स्कूल में दिल
नहीं लग पाया।
अपने परिवार के
बारे
में
कुछ
विस्तार
से
बताइए।
जब मैं 5 वर्ष की
थी तभी मेरे
पिताजी की मृत्यु
हो गई थी।
मेरी मां, तीन
बहने, दो भाई
मेरे परिवार में
हैं। मेरे परिवार
वालों का व्यवहार
बहुत ही अच्छा
था। बड़े भाई
जो घर के
मुखिया थे, उनको
गांव के आदमी
मेरे बारे में
कई बातें कहा
करते थे। इस
कारण बड़े भाई
साहब मुझे डांटते
भी थे और
मारते भी थे।
मेरी नजर में
उनका यह व्यवहार
उचित ही है,
क्योंकि मुखिया होने के
कारण उनका कर्तव्य
था कि मैं
सामान्य बच्चों जैसा व्यवहार
करूं। वह मुझे
कहा करते थे
कि तू लड़कियों
की तरह क्यों
चलता है? उनकी
तरह बातें क्यों
करता है? लड़कियों
के साथ ही
क्यों रहता है?
उनके ऐसे सभी
सवाल मुझे बहुत
टॉर्चर करने वाले
लगते थे, पर
मैं क्या कर
सकती थी? मेरे
भीतर तो एक
लड़की छिपी हुई
थी। लड़की की
आत्मा मेरे अन्दर
थी।
आपने अपना घर
खुद
छोड़ा
या
घर
वालों
ने
ही
निकाल
दिया।
नहीं, घरवालों ने मुझे
नहीं निकाला। उन्होंने
मुझे स्वीकार किया
और हमेशा कहते
थे कि तू
पढ़ती रह। मुझे
डांस का बहुत
शौक था। गली
मोहल्ले में जहां
कहीं भी शादी
का प्रोग्राम होता
था, वहां मैं
नाचने के लिए
चली जाती थी।
घरवाले इसका विरोध
करते थे क्योंकि
वह कहते थे
कि समाज में
हमारी भी कुछ
इज्जत है उसका
ख्याल रखा करो।
पर मुझे नवीं
कक्षा में आते
ही एहसास हो
गया कि मैं
उन सभी बच्चों
से अलग हूं।
इसीलिए मैंने विचार किया
कि क्यों न
मैं मेरे जैसे
और लोगों के
साथ ही घुल-मिल कर
रहूं? इस तरह
से मैं इन
लोगों के बीच
आ गई। शुरू
में दूसरे किन्नरों
से दोस्ती करके
मैंने नये रिश्ते
बनाए। यह अनुभव
बहुत ही अच्छा
था क्योंकि मुझे
अपना माहौल इन
लोगों के बीच
मिल गया। जब
मुझे संध्या मिली
तो काफी दिनों
तक हम साथ
में रहे और
बाद में किन्नर
समाज से जुड़
गए।
आपकी संध्या से
कब
मुलाकात
हुई
और
संध्या
के
साथ
कितने
सालो
से
साथ
रह
रही
है?
संध्या से मेरी
मुलाकात गरीब नवाज
के उर्स में
12-13 वर्ष पूर्व हुई थी।
यह मुंबई से
आई थी। फिर
हम दोनों ने
मिलकर एक गुरु
बनाया और उसके
बाद हम कोटा
चले गए। इस
घटना के साथ
ही हम दोनों
बहनों में दिल
का रिश्ता बन
गया।
किस उम्र में
आप
दोनों
की
मुलाकात
हुई
16 -17 वर्ष
की उम्र में
संध्या से मेरी
मुलाकात हुई। वैसे
मैं आपको बता
दूं हम दोनों
हमउम्र हैं
आपको कब पता
चला
कि
आप
एक
किन्नर
है?
वैसे आठवीं क्लास तक
आते आते मुझे
ऐसा एहसास होने
लग गया था
कि मैं अन्य
बच्चों से अलग
हूं। इसके पश्चात्
अगले कुछ वर्षों
में जब मैं
घर से बाहर
निकली तो मेरी
यह धारणा और
भी ज्यादा मजबूत
हो गई थी।
फिर धीरे-धीरे
मुझे जानकारी मिली
कि मेरे जैसे
और भी कुछ
लोग होते हैं
जिन्हें मेरे हाव
भाव अच्छे लगते
हैं और वह
भी ऐसा ही
व्यवहार करते हैं।
फिर पता चला
कि समाज में
इन लोगों को
किन्नर के नाम
से जाना जाता
है और मैं
भी इसी श्रेणी
की एक इंसान
हूं। इसके पश्चात
मुझमें यह धारणा
घर कर गई
कि यह मेरा
ही समाज है
और इस समाज
में रहकर मैं
अपना जीवन खुलकर
जी सकती हूं।
गुरु-चेला परंपरा
के
बारे
में
कुछ
विस्तार
से
बताइए।
जिस तरह से
हर समाज में
गुरु होते हैं
उसी तरह से
हमारे समाज में
भी यह परंपरा
विद्यमान है। गुरु
की भूमिका परिवार
के मुखिया के
रूप में होती
है जो हम
सभी को साथ
लेकर चलता है।
हमारी देखरेख, पालन-पोषण, अच्छे- बुरे
की समझ हमें
गुरुद्वारा ही मिल
पाती है।
क्या गुरु की
तरफ
से
आप
लोगों
पर
दबाव
रहता
है?
दबाव तो नहीं
रहता है, पर
जिस तरह से
बच्चे अगर समाज
के विरुद्ध काम
करेंगे तो उसे
उनका पिता डांटते
हैं, ठीक उसी
तरह हमारे गुरु
भी यही भूमिका
निभाते हैं। यह
हमें अच्छा लगता
है, क्योंकि हम
जानते हैं उनका
उद्देश्य यह रहता
है कि उनके
शिष्य रुपी संतान
कहीं गलत रास्ते
पर ना चले
जाएं और उनको
यह डर भी
रहता है कि
कहीं उनका भविष्य
खराब ना हो
जाए।
गुरु परंपरा किस
तरह
की
होती
है?
गुरु
और
चेला
किस
तरह
से
बनते
हैं?
मानव समाज में
गुरु परंपरा अनादि
काल से चली
आ रही है,
या कहें तो
भगवान राम के
जमाने में भी
यह परंपरा थी।
इसी परंपरा का
अनुसरण हम उस
समय देख सकते
हैं जब भगवान
कृष्ण का जन्म
हुआ था, तब
भी किन्नरों ने
उनके परिवार वालों
से बधाई उपहार
प्राप्त किये थे।
इस तरह यह
परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी
हुई है। जब
गुरु के स्वर्गवास
हो जाता है
तो उसके 100 दिनों
के बाद प्रिय
चैले को गद्दी
पर बिठाया जाता
है।
आपके समुदाय में
कुल
कितने
घराने
हैं?
हर समुदाय में अलग-अलग जगह
अलग-अलग घराने
होते हैं जिस
तरह से अजमेर
में हमारे कुल
3 घर हैं तो
उनके भी अलग-अलग घराने
और गुरु है।
हम अजमेर के
पूरे इलाके में
बधाइयां लेेते हैं जिनका
व्यवस्थित तौर से
बंटवारा होता है।
आपके अखाड़े में
शिक्षा
दीक्षा
दी
जाती
है?
अगर
दी
जाती
है
तो
वह
किस
तरह
की
होती
है?
जी हां हमारे
अखाड़े में भी
शिक्षा-दीक्षा दी जाती
है। यह दो
तरह की होती
है, जो बच्चा
पढ़ना चाहता है
उसे पढ़ाया जाता
है और जो
नहीं पढ़ना चाहता
है उसे नाचने-
गाने का काम
सिखाया जाता है।
इसके अलावा सभी
को प्राय बड़ों
के साथ कैसा
व्यवहार करना है,
इसके लिए तहजीब
और अदब सिखाई
जाती है।
एक किन्नर के
मस्तिष्क
में
क्या
अंतद्र्वंद्व
चलता
रहता
है।
हर व्यक्ति की तरह
है हम किन्नरों
को भी अपने
नियम बनाएं हुए
है और उनका
पालन करना पड़ता
है। जैसे रोजमर्रा
का काम, नहाना-धोना, पूजा -पाठ
करना, मंदिर जाना
आदि काम प्रमुख
है । पर
एक दर्द-सा
दिल में हमेशा
रहता है कि
हम भी पार्कों
में घूमने जाएं
पिक्चर देखने जाएं या
वह सभी मनोरंजन
के साधनों का
उपयोग करें जो
दूसरे समाज के
आदमी करते हैं।
पर हमें ज्यादा
घूमने फिरने की
आजादी नहीं होती
है। इन सभी
के पीछे हमारी
सामाजिक मर्यादाएं हैं जो
हमें इस परिवेश
में बांधे हुए
रखती हैं।
यानी कि आप
मुख्य
समाज
द्वारा
अपनाए
जाने
वाले
मनोरंजन
के
सभी
साधनों
का
उचित
प्रयोग
नहीं
कर
पाती
हैं?
हां, यह बात
सही है जहां
तक हमारे समाज
की मर्यादा की
बात है, वह
अपनी जगह पर
सही है। क्योंकि
अगर हम पार्कों
में, सिनेमा में,
उत्सव में सामान्य
रूप से जाने
का प्रयास करते
हैं तो लोग
हमें अजीब तरह
से देखते हैं,
कई तरह के
कमेंट्स भी करते
हैं। इन कारणों
से हमारे स्वाभिमान
को ठेस पहुंचती
है और हम
सोचते हैं कि
जब हम इन
लोगों की तरह
सामान्य नहीं है
तो इनके जैसे
ज़िंदगी जीने का
हक कहां रखते
हैं। छुट्टियों में
भी हम लोग
अपने घरों तक
ही सीमित रहती
हैं।
सभ्य समाज द्वारा
ऐसा
व्यवहार
करने
पर
आप
लोगों
को
गुस्सा
नहीं
आता
है?
और
अगर
गुस्सा
आता
है
तो
वह
गुस्सा
किस
पर
उतारती
हैं?
गुस्सा तो बहुत
ही आता है।
फिर भी हम
अपने आप को
समझा लेते हैं
जब हम दुनिया
से अलग हैं,
तब ये लोग
हमें क्यों स्वीकार
करेंगे। अपने आप
पर बहुत गुस्सा
आता है और
मालिक से सवाल
करते हैं कि
हमें ऐसा क्यों
बनाया है? हमें
भी तू सामान्य
इंसानों जैसा ही
बनाता? फिर थोड़ी
देर बाद हम
समझौता कर लेते
हैं कि आगे
से ऐसी जगह
पर हमें जाना
ही नहीं है
जहां पर हमारा
अपमान हो।
क्या आपको मालूम
है
कि
14 अप्रैल
2014 को
सुप्रीम
कोर्ट
ने
अपने
निर्णय
ने
यह
कहा
है
कि
किन्नर
समाज
भी
भारतीय
समाज
का
एक
मुख्य
अंग
है?
हां हमें मालूम
है कोर्ट ने
ऐसा आदेश दिया
है।
कोर्ट के आदेश
के
पश्चात्
आप
लोगों
को
लगता
है
कि
आपके
समाज
में
कोई
सुधार
हो
पाएगा?
जी हां, सुधार
की उम्मीद तो
है। सुप्रीम कोर्ट
ने तो अपना
काम कर दिया।
पर असल लड़ाई
इससे आगे शुरू
होनी है, क्योंकि
लोगों की मानसिकता
का हम क्या
कर सकते हैं।
कानून बनाना कुछ
और बात है
और लोगों की
मानसिकता बदलना कुछ और।
हम अगर किन्नर
हैं तो क्या
हमारा काम केवल
नाचने गाने तक
ही सीमित है?
ऐसे में हमारे
अधिकार सुप्रीम कोर्ट के
आदेश से सामने
तो आएंगे, पर
उनके अमल को
जमीन तक पहुंचाने
में काफी मेहनत
और वक्त लगेगा।
अपनी परंपरागत सोच
से अलग होकर
भारतीय समाज के
अंग के रूप
में ही हमें
भी स्वीकार करें
, यह हमारी हार्दिक
इच्छा है। हम
भी खुलकर जीने
की इच्छा रखते
हैं।
प्रकृति ने आपको
संतान
पैदा
करने
की
ताकत
नहीं
दी
है,
पर
क्या
कभी
आप
का
भी
दिल
होता
है
कि
आप
भी
गोद
लेकर
बाल
बच्चों
को
पाले-पोसे
और
खेले
कूदे?
यह इच्छा तो बहुत
होती है। हमारे
समाज में आजकल
कुछ लोग बच्चे
गोद ले रहे
हैं, उनका पालन-पोषण भी
कर रहे हैं।
यह बात भी
है कि बहुत
से व्यक्ति स्वच्छंदतापूर्वक
बच्चों को गोद
लेकर उनके साथ
सुखमय जीवन जीते
हैं। पर हमारे
लिए थोड़ा मुश्किल
है क्योंकि हम
लोग डेरों में
रहते हैं जहां
उन्हें बाहरी एवं आंतरिक
समाज द्वारा स्वीकृति
मिलना मुश्किल होती
है।
आप मुझे यह
बताइए
कि
किन-किन
क्षेत्रों
के
किन्नर
लोग
बालकों
को
गोद
ले
रहे
हैं?
उन
शहरों
का
नाम
बताइए।
वैसे प्रायः उन्हीं क्षेत्रों
के बच्चों को
गोद लेते हैं,
जैसे ब्यावर और
जोधपुर के बीच
बिलाड़ा नामक गांव
में ममता किन्नर
ने एक बालक
गोद ले रखा
है, उसी तरह
जयपुर की मुन्नी
बाई, कोटा में
चांदनी बाई आदि
ने बच्चों को
गोद ले रखा
है। प्रायः लड़कियों
को ज्यादा गोद
लिया जाता है।
गोद लेने के
पश्चात् उनकी हम
शिक्षा-दीक्षा का पूरा
ध्यान रखते हैं।
यह शिक्षा-दीक्षा
सभ्य समाज के
अनुरूप होती हैं
और उनकी शादियां
भी उन्हीं के
समाज के अंदर
करते हैं।
किन्नरों द्वारा गोद
लिए
गए
बच्चे
के
प्रति
सभ्य
समाज
का
क्या
नजरिया
रहता
है
? क्या
सभ्य
समाज
उन
बच्चों
को
स्वीकार
कर
लेता
है
या
उसकी
मानसिकता
भी
उन
बच्चों
की
प्रति
वैसी
ही
रहती
हैं
जैसे
आप
लोगों
के
साथ?
समाज की मानसिकता
तो वैसी ही
रहती है। अक्सर
हम ऐसी बातें
सुनते रहते हैं
जिनमें वे कहते
रहते हैं कि
ठीक है इन्होंने
बच्चा गोद तो
ले लिया है,
पर न जाने
किसका बच्चा है?
अब किन्नरों के
यहां रह रहा
है चाहे वह
किसी का भी
क्यों ना हो?
आखिर रह रहा
है। कहने का
मतलब यह है
कि उनके शब्दों
में एक ताना
रहता है। इससे
स्पष्ट होता है
कि समाज की
मानसिकता बदलना बहुत मुश्किल
है। समाज का
तो यह भी
मानना है कि
किन्नर तो कुछ
भी नहीं कर
सकते। उनको तो
यही लगता है
कि नाचने गाने
के अलावा परिवार
की जो जिम्मेदारी
है वह यह
लोग नहीं उठा
सकते।
आप अपना आदर्श
किस
किन्नर
को
मानती
हैं?
देखिए, किन्नर समाज अपने
आप से जुड़े
हुए रहते हैं
इस परिवेश में
हम बहने, गुरु
आदि प्रकार के
रिश्ते बनाते हैं। हमारी
इच्छा भी यही
रहती है कि
हम हमारे गुरु
का अनुसरण करते
रहें और भविष्य
में हम भी
गुरु बने। मोटे
तौर पर यह
कह सकते हैं
कि हमारे गुरु
हमारे आदर्श होते
हैं क्योंकि वह
हमारे परिवार के
मुखिया भी तो
हैं।
सांप्रदायिक तनाव
के
समय
जब
सभ्य
समाज
चरम
रूप
से
दो
भागों
में
बंट
जाता
है,
उस
समय
किन्नर
समाज
का
क्या
दृष्टिकोण
रहता
है?
देखिए, आपको ध्यान
होना चाहिए कि
हम किन्नर लोग
सभी मतावलंबियों के
परिवारों में जाकर
बधाइयाँ लेते हैं,
बदले में उन्हें
आशीष देकर आते
हैं। ऐसे में
हमारे लिए कोई
भी धर्म महत्त्वपूर्ण
या कमतर नहीं
होता है जिस
प्रेम से हिंदू
समुदाय के आदमी
हमें उपहार देते
हैं, उसी प्रेम
से मुस्लिम या
अन्य धर्म के
अनुयाई भी देते
हैं। चाहे कैसा
भी माहौल क्यों
ना हो हम
लोग हमेशा से
सभी को शांतिमय
जीवन जीने का
संदेश देते रहते
हैं। क्योंकि किन्नर
समाज को जहां
दोनों समुदायों से
प्रेम मिलता है,
वही दूसरी ओर
हमारे जैसे बच्चों
का बहिष्कार भी
प्रायः इन परिवारों
में ज्यादा होता
है। अतः यह
समझ लीजिए कि
हम धर्म के
जो औपचारिक रूप
है, उन्हें नहीं
स्वीकारते हैं। प्रेम
और मानवता का
जो धर्म है
हम उसी का
अनुसरण करते हैं
और उसी को
फैलाने में यकीन
रखते हैं। दंगों
के समय भी
हम लोग सभी
समुदायों से यही
अपील करते रहते
हैं कि प्रेम
बड़ी चीज है।
आपसी सद्भाव से
हमें अपना जीवन
निर्वाह करना चाहिए।
विभाजन का किन्नर
समुदाय
पर
क्या
प्रभाव
पड़ा?
आपका सवाल अच्छा
है। आप इस
पर गौर फरमाइए
की विभाजन हिंदू
और मुसलमानों को
लेकर के हुआ
था, इसमें किन्नर
समाज की कहीं
पर भी भूमिका
नहीं थी। उन्हें
इस बंटवारे से
कोई मतलब नहीं
था, पर फिर
भी उस उथल-पुथल में
कई किन्नर पाकिस्तान
चले गए तो
कई किन्नर पाकिस्तान
से हिंदुस्तान में
आ गए, विशेषकर
राजस्थान के भागों
में। बंटवारे के
बाद आए हुए
किन्नरों ने अपने
नए यजमान तलाशे
और अपना पुराना
पेशा पुनः जारी
रखा। उस हिंसक
माहौल में थोड़े
समय तक किन्नर
लोग जरूर अपने
काम को लेकर
विचलित रहे हैं,
पर जैसे ही
थोड़ी-सी शांति
फैलना शुरू हुई,
उन्हें अपना नया
जीवन शुरू करने
में विशेष दिक्कत
नहीं हुई। यह
सब मैं अपनी
सुनी सुनाई बातों
के आधार पर
कह रही हूं।
अब वैसे भी
पुराने किन्नर बचे भी
नहीं है जिन्होंने
विभाजन की त्रासदी
देखी हो।
अजमेर में आपके
समाज
को
सुधारने
से
जुड़ी
हुई
कोई
सामाजिक
संस्था
हैं?
जी नहीं, अजमेर में
ऐसी कोई संस्था
नहीं है।
आप मानते हैं
कि
इन
समाज
संस्थाओं
या
एन.जी.ओ.
द्वारा
आपके
समाज
में
कुछ
सुधार
हो
सकता
है?
हां, यह एक
बात तो है
कि एक संस्था
कुछ कर सकती
है। पर हमारा
मानना है कि
हमारा पूरा समाज
भी अपने आप
में एक संस्था
ही हैं हमारे
समाज से जुड़ी
हुई सभी गतिविधियां
एक व्यवस्थित तरीके
से होती है।
मृत्यु के पश्चात्
किसी का 12वां
हो या चालीसवां,
इन सभी अवसर
पर हम भंडारा
करते हैं जैसे
पुराने जमाने में मौसेरा
या घड़ा भरना
होता था। यह
परंपरा हमारे समाज में
सभी किन्नर इकट्ठे
होकर आगे बढ़ाते
जा रहे हैं।
पूरे देश के
किन्नर उस समय
इकट्ठे होते हैं।
सम्पर्क-
डा. एम. फीरोज
अहमद, वाड्मय पत्रिका,
अलीगढ़
मोहम्मद हुसैन, शोधार्थी हिन्दी
विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय,
उदयपुर
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