थर्ड जेन्डर...
प्रो. मेराज अहमद
सामाजिक संरचना मुख्यतः द्विलिंगी होती है। मादा और नर। स्त्राी और पुरुष उसका प्रतिनिधित्व करते हैं। समाज में तीसरा लिंग भी रहता जो न तो नर ही होता है न मादा ही। अर्थात् अलिंगी होता है। इसे परिष्कृत शब्दावली में किन्नर कहा जाता है। इनके अलग-समाजों और भाषाओं में विविध नाम है। हिन्दी में इसके लिए शिखण्डी, छक्का, कीव, खोजा, मौसी और हिजड़ा इत्यादि अन्य नाम भी प्रचलित हैं। भारतीय इतिहास में पौराणिक काल से ही हिजड़ों का उल्लेख मिलता है। महाभारत मंे हिजड़े का उल्लेख शिखण्डी के रूप में मिलता है। महाभारत में भी शिखंडी नामक किन्नर योद्धा था जिसकी मदद से अर्जुन ने भीष्म पितामह का वध किया था। कहा जाता है कि अर्जुन ने भी अपने अज्ञातवास का एक वर्ष वृहन्नला नाम से किन्नर का रूप धारण करके बिताया था। राजा- महाराजा भी किन्नरों को अपनी रानियों की पहरेदारियों के लिये रखते थे क्यों राजाओं को अधिक से अधिक समय युद्ध के मोर्चे बिताना पड़ता था। इसके पीछे उनकी यह सोच थी कि रानिया पहरेदारों से अवैध संबंध न बना सके। मुस्लिम शासन में हरमों की सुरक्षा के लिए हिजड़े ख्वाजासरा के नाम से सुरक्षाकर्मी के रूप में तैनात किए जाते थे। भारतीय उपमहाद्वीप में हिजड़े समूहों में रहते हैं। देश में इनकी जनसंख्या लाखों में है। शिक्षा की दृष्टि से तो इनकी स्थिति अत्यन्त दयनीय होती है। अधिकांश किन्नर निरक्षर होते हैं। समाज के साथ सरकारें भी इनको वह अधिकार और सुविधा नहीं प्रदान करते हैं जिसकी इनको आवश्यकता होती है। सामाजिक व आर्थिक तौर पर ये असुरक्षित और निस्सहाय होते हैं। यद्यपि हाल के दशकों में कई एक किन्नरों के राजनीति में आने से इनकी चर्चा होनी आरम्भ हुई है। स्वयं किन्नर समाज भी जागरूक हुआ है। जगह-जगह पर होने वाले किन्नर सम्मेलन और उसमें अधिकारों को लेकर उठाये जाने वाले प्रश्न किन्नर समाज मंे आ रही जागरूकता का परिणाम है।
इनकी सामाजिक संरचना बड़ी जटिल होती है। बाहरी व्यक्ति उसमें दखल देने की हिम्मत कम ही करता है। मुखिया इनका गुरु होता है। किन्नर समाज में जब कोई नया सदस्य किन्नर आता है तो उसका विवाह उसके गुरु से कराया जाता है इसलिए गुरु ही उसका पति होता है। किन्तु वह पति-पत्नी जैसा संबंध नहीं बना सकते हैं। इसलिए भाई बहन या मित्रा के रूप में रहते है। वह गुरु को पति परमेश्वर के रूप में मानते है। गुरु के मरने बाद वह सफेद साड़ी पहनने लगते हैं। पैर की बिछिया, मांग का सिंदूर व गहने पहनना छोड़ देती है और शोक भी करते हैै। विधवा जैसा जीवन जीते हैं। लोगों का मानना यह भी है कि मृत्यु के पश्चात् इनके पार्थिव शरीर की जूते-चप्पलों से पिटाई की जाती है। आमतौर पर चाहे महिला हिजड़ा हो या पुरुष यह नाच-गा कर माँग कर अपना जीवन-यापन करते हैं। समाज में इनको घृणा की नज़रों से देखा जाता है जबकि किन्नर भी मानव समाज का ही अंग है। शुभ कार्य में इनकी दुआ की बड़ी महत्ता होती है। माना जाता है कि किन्नरों की दुआ का असर भी बहुत अधिक होता है। जिनके बच्चे नहीं होते है उनके बच्चे हो जाते है। इनको दान करने से धन-वैभव में भी बढ़ोत्तरी होती है। इसके विपरीत मान्यता यह भी है कि अगर किन्नर किसी को बद्दुआ दे दंे तो उस परिवार का बुरा ही बुरा होता है। जैसे किसी नवविवाहित दुल्हन या दूल्हे को अपने कपड़े उतारकर उस पर चूड़ियाँ तोड़कर शाप दे दें तो ग्रह-नक्षत्रा भी दशा बदल लेते है, लेकिन इनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता है। लोग-बाग इनको आस-पास देखना भी पसंद नहीं करते है। हकीकत यह है कि इनको लेकर समाज में पूर्वाग्रह आधारित मान्यताएँ अधिक हैं, इनकी वास्तविकता से अभी भी समाज बहुत अधिक परिचित नहीं है।
हिजड़ा शब्द सुनते ही हमारे सामने एक छवि बन जाती है इठलाती चाल, गहनों से सजा हुआ शरीर, चमकीले कपड़े व चेहरे पर ठेर सारा मेकअप और दुकानों व घरों और बच्चों के जन्म पर, विवाह आयोजन जैसे अन्य कार्यक्रमों में नाच-गा कर पैसा कमाने वाला, अगर पैसा नहीं दिया तो गाली-गलौज करने पर भी उतारू हो जाते है, इनके आते ही लोगांे के मन में अजीब-सा रोमांच उत्पन्न होता है और डर सताने लग जाता है। इनको पैसे नहीं दिये तो गाली-गलौज या कोई बदतमीजी न कर दे, कोई बद्दुआ न दे दंे। दरअसल समाज में रहते हुए भी यह समाज से पृथक् ऐसी इकाई के रूप में इनकी पहचान होती जो वास्तविकताओं के बजाय पूर्वाग्रहों मान्यताओं और अफवाहों पर ही आधारित होती है।
समाज के साथ कला और साहित्य में भी किन्नर समाज उपेक्षित ही रहा है। चलचित्रों में किन्नरोें के प्रसंग अवश्य आते हैं, परन्तु किसी संजीदा किस्म के चरित्रा के बजाय कतिपय अपवादों को छोड़ दिया जाय तो ज्यादातर हास्य-व्यंग्य के लिए ही इनका चित्राण होता है। साहित्य की स्थिति तो और भी निराशाजनक है। हिन्दी में विपुल साहित्य का सृजन हुआ। इधर आंदोलनों को हथियार बनाकर सृजक और आलोचक दोनों ही अपनी लेखनी को धार दे रहे हैं, लेकिन किन्नर समाज आज भी लगभग अनछुआ है। शिवप्रसाद सिंह की कहानी ‘बिन्दा महराज’ जरूर ऐसी कहानी है जो आजादी बाद के कहानी आन्दोलन से निकली है अन्यथा इन पर नहीं के बराबर ही लिखा गया है। इधर हाल के वर्षों में कतिपय कथाकारों ने पाँच-सात उपन्यास और कहानियाँ लिखी हैं। पिछले दस से अधिक वर्षों से प्रकाशित और अपने विशेषांकों के लिए चर्चित पत्रिका वाङ्मय ने तृतीय लिंगियों पर आधारित विशेषांक के माध्यम से हिन्दी और दूसरी भाषाओं की किन्नर जीवन पर आधारित कहानियों को संकलित करने का महती प्रयास किया है।
शिवप्रसाद सिंह की कहानी ‘बिन्दा महराज’ नई कहानी के दौर की महत्त्वपूर्ण कहानियों में परिगणित की जाती है। कहानी चरित्रा प्रधान है। अपूर्ण लिंगियों की सामाजिक संदर्भों में दयनीय स्थिति के कारण न केवल उनको भौतिक कष्ट सहन करना पड़ता, अपितु उनके प्रति घृणापूर्ण दृष्टिकोण के कारण मानसिक संताप भी सहन करना पड़ता है। यह लोग लिंग की दृष्टि से भले ही अपूर्ण होते हैं परन्तु मानवी गुण के रूप में प्रेम करुणा और ममता जैसी प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से उनके भीतर भी होती हैं। लेकिन वह उसको व्यक्त नहीं कर सकते हैं। या कहा जाय कि समाज का नफरत भरा रवैया उसको व्यक्त करने का अवसर ही नहीं देता है। यदि वह व्यक्त करने का प्रयत्न करता भी हैं तो उसे सहानुभूति व्यक्त करने के बजाय दर्द ही देता है। बिन्दा महराज कहानी का मुख्य चरित्रा बिन्दा ऐसे ही चरित्रा का प्रतिनिधित्व करता है। माँ-बाप तो उसके प्राणहीन शरीर को उपजा कर चले गये। मर्द होता तो बीवी-बच्चे होते, पुरुषत्व का शासन होता, स्त्राी भी होती तो किसी पुरुष को सहारा मिलता, बच्चों की किलकारियों से आत्मा के कण-कण तृप्त हो जाते, परन्तु वह भटकता ही रहता है। पहले चचेरे भाई ने निकाल दिया जिसके पुत्रा का नेह उसके जीवन का लक्ष्य था। फिर दीपू मिसिर से नाता उसके दो-ढाई वर्षीय पुत्रा के लिए लगाया परन्तु उसकी मृत्यु हो गई। डायन का लांछन लगा। घुरदिनवा चमार है। उससे कैसा नाता? प्यार उनकी आत्मा की प्यास थी। लेकिन वह परिणामहीन प्रेम की क्रूरता को समझ नहीं पाते हैं। जरा से आकर्षण से चित्त चंचल हो जाता है। लोगों के मनोरंजन के लिए किए गये व्यवहार को प्रेम समझकर नशे में आ जाते हैं। हाथ बटोरकर उसे समेटना चाहते हैं तो हाथ कुछ नहीं आता है केवल दोनों हथेलियाँ आपस में टकरा जाती हैं। वास्तव में प्रेम ऐसे लोगों के लिए निर्जीव शब्द से अधिक कुछ नहीं होते हैं। यही उनकी नियति है और इसे वह स्वीकार भी लेते हैं।
‘ख़लीक़ अहमद बूआ’ एक सीमा तक बिन्दा महराज की चेतना से संपृक्त चरित्रा प्रधान कहानी है। अन्तर यह है कि बिन्दा महराज के विपरीत ख़लीक अहमद बूआ अपने प्रेम पर अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तो बिन्दा महराज की भाँति ही कर देते हैं, लेकिन वह अपने प्रेम के लिए हद से गुजर जाते हैं। रुस्तम से प्यार करते हैं। समाज को तमाम तानों-उल्हानों से परे उसको अपने साथ रखते हैं। एक रोटी से दो अंगुल देसी घी में तर तीन-तीन तरह का सालन खिलाते है। उसकी देह-मूड़ करते हैं। शहर भर की खबरें सुनाते हुए उन्हें हर प्रकार की सुख-सुविधा देते हैं। कभी-कभी उनके मन में आता है कि रुस्तम खाँ अभी छोटे हैं। उनके लिए वह सोचते हैं कि एक और लौंडा रख लें, लेकिन ऐसे लड़के बहुत आवारा होते हैं और एक के होकर नहीं रह सकते इसलिए वह अपने इरादे से हट जाते हैं। उन्हें रुस्तम खाँ पर भरोसा है। लेकिन वह जैसे ही उनका भरोसा तोड़ता है तो उसका कत्ल कर देते हैं।
सलाम बिन रज़ाक की कहानी ‘बीच के लोग’ का स्वर व्यंग्यात्मक है। प्रतीक के माध्यम से व्यवस्था में व्याप्त अकर्मण्यता को रेखांकित करते हुए उचित समय पर उचित निर्णय न लेने की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला गया है। कथाकार ने हिजड़ों की प्रतीकात्मक प्रयुक्ति के द्वारा बड़े ही प्रभावशाली रूप से अपने लक्ष्य को हासिल किया है। पुलिस के छोटे से अमले से लेकर मन्त्राी तक अपनी जिम्मेदारियों से भागते हैं। भारतीय शासन-प्रशासन व्यवस्था का यह चरित्रा किसी से छुपा नहीं है। उल्लेखनीय यह कि यदि व्यवस्था में व्याप्त यह मानसिकता परिवर्तित नहीं हुई तो? ”कल संसार हिजड़ों का होगा।“ शहर में एक विचित्रा-सा जुलूस निकला है। हिजड़ों का। वह हाथ में लकड़ी की तलवारें लहराते जुलूस लेकर आगे बढ़ रहे हैं। इक्का-दुक्का पुलिस के जवान उन्हें रोक नहीं पाते हैं तो पुलिस की फोर्स बुला ली जाती है। पुलिस के जवान यह कहकर उन्हें गिरफ्तार करने से यह कहकर इंकार कर देते हैं कि इनको महिला पुलिस गिरफ्तार करेगी। महिला पुलिस भी इसी प्रकार का तर्क देकर उन्हें गिरफ्तार करने से मना कर देती है। बात अनुशासन की है, लेकिन इच्छाशक्ति की कमी के कारण छोटे से लेकर बड़े अधिकारी तक की समझ में नहीं आता है कि किया क्या जाय? असमंजस्य की इसी मानसिकता ने स्थितियों को कितना भयावह बना दिया है उसका अनुामन इसी बात से लगाय जा सकता है कि गली में जिसके होने की सूचना मिलती है उसके भय से सुपरिटेंडेंट के होठ सूखने लगते हैं। दरअसल हिंसा और आतंकवाद जैसी गतिविधियों की पीछे हमारी व्यवस्था के हिजड़ेपन का भी हाथ कम नहीं होता है। कहानी अपने प्रभाव की संपूर्णता में उक्त वास्तविकता को उद्घाटित करते हुए हिजड़ों की जीवनशैली के कुछ महत्त्वपूर्ण और यथार्थ चित्रा भी प्रस्तुत कर देती हैै।
एस. आर. हरनोट की कहानी ‘किन्नर’ नाम के कारण तीसरे लिंग की कहानी प्रतीत होती है, परन्तु कहानी पौराणिक आधार पर नामित आधुनिक किन्नौर क्षेत्रा की समस्याओं और रीति-रिवाजों एवं राजनीति इत्यादि के मध्य एक युवा और युवती के प्रेम के विषय को आधार बनाकर लिखी गयी है। पुराणों वर्णित गन्धर्व, किन्नर इत्यादि देव संस्कृतियों में से किन्नर जाति को हिजड़ों के पर्याय के रूप में मानते हुए हिजड़ों के लिए किन्नर की संज्ञा दे दिये जाने को लेकर चिंता अवश्य व्यक्त की गयी हैै। इसी आधार पर प्रस्तुत कहानी को किन्नर कथा के संदर्भ में भले ही देख लिया जाय अन्यथा कहानी का संबंध किन्नर क्षेत्रा की समस्याओं और रीति-रिवाजों एवं राजनीति इत्यादि के मध्य एक युवा और युवती के प्रेम से ही है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि जब तीसरे लिंग के परम्परा और इतिहास की चर्चा होती है तो किन्नौर प्रदेश का नाम अवश्य आता है। इससे प्रतीत यह होता है कि किन्नरों की जन्मस्थली का यही स्थान है, जबकि वास्तविकता यह है कि किन्नर देव संस्कृतिवाची संज्ञा है। आधुनिक युग में भी यह शब्द स्थानीय लोगों के लिए जातिवाचक अर्थों में प्रयुक्त होता है। किन्नौर के लोगों के लिए यह शब्द चिंता का विषय भी है। कथानायक इस शब्द विशिष्ट लिंग सूची संज्ञा के रूप में प्रयुक्त होने के कारण व्यवस्थित है। यद्यपि जन्मस्थान का जातिवाचक संज्ञा के रूप में प्रयोग गर्व का द्योतक होता है, परन्तु किन्नौर की आधुनिक पीढ़ी जाति वाची शब्द किन्नर से मुक्त होने के लिए छटपटा रही है। कथाकार ने प्रस्तुत कहानी के माध्यम से किन्नौर की युवा पीढ़ी की मानसिकता को भी उद्घाटित किया है।
कुसुम अंसल की कहानी ‘ई मुर्दन का गाँव’ में लैंगिक विकृति से पीड़ित इंसानी नस्ल के उस तबके को कथा के केन्द्र मे ग्रहण किया गया है जो ख्वाजा सरा या हिजड़ा कहे जाते हैं। लैंगिक विकृति में उनका कोई दोष नहीं, लेकिन समाज उन्हें जीवित होने के बावजूद मुर्दों के रूप में तब्दील होने पर विवश कर देता है। यही उनकी नियित है। दरअसल लैंगिक विकृति से पीड़ित यह लोग हमारे बीच में रहते हुए बहुत रहस्मय होते हैं उनको ले करके बहुत सारे मिथक होते है। कथाकार ने मिथकों को तोड़ते हुये रहस्य को भी उद्घाटित किया है। लैंगिक विकृति के साथ पैदा होते ही मेहतर, दाईयां या नर्स उसकी सूचना उसके समाज तक पहँुचा देती हैं। फिर उन्हें चाह कर भी परिवार उनके समाज में जाने से रोक नहीं सकता हैं। उस समाज में सम्मिलित होने के बाद उनकी घृणित जीवन जीने की विवशता उनके प्रति समाज की संकुचित मानसिकता को रेखांकित करती है। कथाकार ने यह संकेत भी किया है कि यदि अभिभावक ऐसे बच्चों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाहन करें तो वह भी केवल स्वस्थ सामाजिक जीवन जी ही नहीं सकते है अपितु जीवन में सफलता के सोपानों को भी प्राप्त कर सकते हैं। अलिंगी, विक्की अभिभावक की सजगता के कारण एक सफल फ़ैशन डिज़ाईनर बनने में सफल हो जाता है।
‘संझा’ किन्नरों की पृष्ठभूमि पर आधारित महत्त्वपूर्ण कहानी है। कथा का विस्तार अत्यन्त व्यापक है। संतान के किन्नर के रूप में जन्म लेने से लेकर उसके भेद समाज में खुल जाने के अनन्तर उसके पिता के भय से उपजी पीड़ा का बड़ा ही गहन और मार्मिक चित्राण किया गया है। समाज की वह मानसिकता जो किन्नरों को नारकीय जीवन व्यतीत करने पर विवश करते हुए उनके माता-पिता को भी सामाजिक रूप से घोर यातना सहन करने के लिए विवश कर देती है, प्रस्तुत कहानी उस मानसिकता के यथार्थ को उद्घाटित करते हुए उक्त यातना को भी यथार्थ के धरातल पर रेखांकित करती है। रहमान खेड़ा के चार गाँव की आबादी में चैगाँव के वैद्य जी आस-पास की आबादी के एक मात्रा चिकित्सक सबसे इज्जतदार आदमी हैं। इसीलिए इज्जत उतारने के लिए उन्हीं को चुना गया। आठ साल बाद संतान के रूप में संझा का जन्म होता है। संझा माने न दिन न रात। न लड़का न लड़की। यानी कि हिजड़ा। फिर तो उनके जीवन में यातनाआंे के दौर का आरम्भ हो जाता है। माँ की मृत्यु हो जाती है। वह नहीं चाहते हैं कि लोग उनकी संतान की वास्तविकता से परिचित हों इसलिए भेद खुल जाने की शंका के बाद सामाजिक प्रताड़ना के भय से वैद्य जी अकेले ही पत्नी का दाह संस्कार करते हैं। यह भय उनको दाने-दाने का मोहताज बना देता है। संतान को संसार की निगाहों से छुपा कर पालने में ही उनकी सारी ऊर्जा लग जाती है। वह जड़ी-बूटी के लिए अगर जंगल जायेंगे तो संझा किसके सहारे रहेगी। उनकी बैदकी बन्दी के कगार पर आ जाती है। दाने-दाने के मोहताज हो जाते हैं। जवानी को मूसली के कारगर ईलाज से लौटाने केे कारण एक बार दुबारा उनका कारोबार चल निकलता है तो रोजी-रोटी की समस्या तो हल हो जाती है लेकिन बढ़ती हुई संझा को समाज की दृष्टि से बचाना और स्वयं उसकी जिज्ञासाओं को शांत करना उनके लिए कितना हृदय विदारक है वह पूरी शिद्दत के साथ उद्घाटित हुआ है। ”छः महीने बीतने के बाद संझा का चैदहवाँ साल लग गया। उसके साथ की लड़कियों के अंग जब मुलायम और गदरारे हो रहे थे उस समय संझा का बदन तेल पी हुई लाठी की तरह लंबाई नाप रहा था, ऊँचाई के नाम पर सिर्फ गाँठे उभर रही थीं। उसकी नसें बैंगनी और त्वचा मोटी हो रही थी। उसकी ठुड्डी और होठों के ऊपर रोंए। उभर रहे थे। गालों की हड्डियाँ उभर रही थीं और चेहरा तिकोना में लम्बा हो रहा था, किन्तु एक अंग वैसा ही था, सूई की नोक के बराबर, वह शीशे के सामने खड़ी रहती। गिरने-गिरने को होती तो बैठ जाती, एक छेद उसके दिल मेें होता जा रहा था जिससे वह बंद कोठरी में कपड़े पहनना भूलने लगी थी।“ समस्या के हल के रूप में वह एक दिन अपने शरीर में चाकू घुसेड़कर उस अंग का निर्माण करना चाहती है जो था ही नहीं। इस घटना के द्वारा मानसिक पीड़ा की अभिव्यक्ति उत्कर्ष के रूप में देखते हुए ऐसी संतानों के अभिभावकों की स्थिति को भी लक्षित कर सकते हैं। उल्लेखनीय यह है कि ऐसे बच्चों को समाज से छुपाना आसान नहीं होता है। बढ़ती आयु के साथ उनकी जिज्ञासा और समाज को ऐसे लोगों के प्रति नकारात्मक रवैया दोनों ही बच्चे के साथ अभिभावक के लिए त्रासद होते है। संझा की बढ़ती आयु के साथ अब लोग उसके विवाह की बात करने लगते हैं, जो स्वाभाविक है। संझा भी सच जानकर भले ही स्थितियों से समझौता कर लेती है, लेकिन उसके भीतर लिंग का विकास न होने के बावजूद मन और मस्तिष्क का विकास हुआ ही है। वह बाहर निकलना चाहती है। मिट्टी, पानी, जंगल और आसमान देखना चाहती है। यह तो उसका अधिकार है उससे उसे भला क्यों वंचित रक्खा जाय! इसकी भी व्यवस्था हो जाती है। वह रात में निकलती है। परन्तु उसे घर में कब तक रक्खा जा सकता था! वैदकी वह पैत्रिक गुण के रूप में स्वमेव ही अपने भीतर आत्मसात् कर लेती हैै। सब कुछ के बावजूद वैद जी को भी तो एक-न-एक दिन संसार छोड़ना ही था। उसके विवाह के लिए समाज का दबाव उन पर बढ़ता ही जाता है। दोनों के संबन्धों को लेकर संदेह के बीज भी पनपने लगते हैं। वह घबराकर ललिता महराज के दत्तक पुत्रा कनाई से उसका विवाह कर देते हैं। वह नपुंसक है, इसलिए उसका भेद खुलता नहीं है। अपने पिता के सम्मान की रक्षा के लिए श्रम के साथ जितने भी जतन कर सकती है करती है। वह अपने चेहरे और शरीर को जितना संभव है छुपाए रहती है। उसके श्रम से न केवल उसके परिवार की आर्थिक स्थिति सुधर जाती है, अपितु आस-पास के सभी किसानों की स्थिति भी सुधर जाती है। पिता से सीखी वैदकी तो मरीजों के लिए रामबाण का कार्य करती है। उसी के बल पर गाँव के तमाम अवैध कारगुजारियों के परिणाम से मुक्ति दिलाकर लोगों के मान-सम्मान पर परदा डालती है। बसुकि एक दिन उसके पति पर बलात्कार का आरोप लगा देती है। बसुकि के भाइयों के साथ चैगाँव उसका दुश्मन हो जाता है। विवश होकर उसे अपना भेद खोलना पड़ता है। भेद संझा का भी खुल जाता है। बसुकि का बलात्कार उसके चचेरे भाई ने किया था। घोर पाप! गाँव के एक-एक राज खोलते हुए मार खाती संझा उठ खड़ी होती है। असल में उसका गुण गाँव वालों की आवश्यकता है। उसके भीतर व्याप्त पुरुष का पौरुष और औरत का औरतपन दोनों ही जाग जाता है। कथाकार ने भले ही उसकी आवश्यकता सिद्ध करते हुए लोगों को उसके बाउदी की गद्दी पर बैठाने के लिए विवश कर दिया परन्तु इसके बरक्स जिस समाज में काल्पनिक मान-सम्मान के लिए अपने ही रक्त से हाथों को रंजित कर लेने में कोई संकोच न किया जाता हो उस समाज में समाज के निकृष्टतम समझे जाने वाले तृतीय लिंगी के प्रति बरते जाने वाले रवैये की कल्पना की जा सकती है। बचपन से लेकर अन्त तक संझा के पिता और संझा के द्वारा खुद को समाज की दृष्टि से बचाए रखने की जद्दोजहद के अनन्तर उस कल्पना के यथार्थ को देखा जा सकता है।
हिजड़ों की एक जमात ऐसी भी होती हैै जो न तो जन्मजात होती है न ही बधियाकरण इत्यादि से बनाई जाती है। वर्तमान में कुछ लोग हिजड़ों का नकली वेश धारण करके उत्पात मचाते हैं, लेकिन कभी-कभी विपरीत जीवन की स्थितियाँ ही स्त्राी और पुरुषों को हिजड़ा बनने पर विवश कर देती हैं। हिजड़ा शीर्षक से एक कहानी कादंबरी मेहरा की भी मिलती है। कहानी की विषयवस्तु का आधार ऐसी स्त्राी का जीवन है जो कद्ाचित विवश होकर किन्नर जीवन को अपनाती है। उसकी विवशता जीवन जीने की जद्दोजेहद का परिणाम है। निश्चित ही स्त्राी जीवन को विवश बनाने में पुरुषों की बर्बर मानसिकता होती है। रागिनी राहुल की मौसी के स्कूल की साथी है। गायन-वादन में इतनी सिद्धहस्त है कि उसकी बदसूरती के बावजूद स्कूल का कोई भी कार्यक्रम पूरा नहीं होता है। उसकी एक आँख कानी है। रंग काला है। चेहरा चेचक के दागों से भरा है। उसकी माँ की चेचक की बामारी से मृत्य हो जाती है छोटा भाई भी उसी समय काल के गाल में समा जाता है। पिता दूसरा विवाह करके उसे उसके जीजा के हवाले कर देते हैं। जीजा उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी उसके शरीर और उसकी जी तोड़ परिश्रम की कीमत पर उठाते है। रागिनी का यह अतीत है। उसका वर्तमान है जो राहुल की मौसी वर्षों बाद राहुल के विवाह के अवसर पर देखती है। वह हिजड़ा है। यह भले ही रागिनी का व्यक्तिगत सच हो लेकिन भारतीय समाज की पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता कभी-कभी जिस पौरुष स्त्रिायों पर प्रयोग करता है वह वास्तव में वह हिजड़ों से भी गया बीता कृत्य होता है। कथाकार ने समग्रता में प्रस्तुत कहानी के माध्यम से समाज की उक्त भयावह पक्ष को रेखांकित करते हुए हिजड़ों की जीवनशैली और वर्तमान समाज के समानान्तर उसकी वाह्य प्रवृत्तियों का आत्मसात् करते हुए परिवर्तनों को स्वीकार करके स्वयं को तब्दील करने की उनकी अद्भुत क्षमताआंे का भी संकेत किया है।
डाॅ. पद्मा शर्माकृत ‘इज्जत के रहबर’ हिजड़ों की पृष्ठभूमि पर आधारित ऐसी कहानी है जिसके द्वारा न केवल हिजड़ों की त्रासद ज़िन्दगी पर प्रकाश डाला गया है अपितु उनके अन्तरंग जीवन के पहुलओं को उजागर करते हुए उनकी हिम्मत और दिलेरी की अभिव्यक्ति के माध्यम से बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के बाद समाज की प्रतिक्रिया और उसके भय को भी रेखांकित किया गया है। कस्बे के मुहल्ले में सोफिया के नेतृत्त्व में हिजड़ों का समूह रहता है। अपने समाज की परम्परा पर आधारित उनकी जीवन शैली है। अनाथ किशोर बल्लू उनके बीच पला-बढ़ा है। उसकी दृष्टि से उनके अन्तरंग जीवन के विविध पहलुओं को भी उद्घाटित करने का प्रयास है। उनकी नशे की लत, अश्लीलता भरी जीवन शैली, अतृप्त वासना के साथ उनके शरीर और नाम तथा सामूहिकता का चित्राण कहानी का महत्त्वपूर्ण पहलू तो है ही, कहानी का विशिष्ट पक्ष उनकी हिम्मत और सामाजिक संदर्भों में सकारात्मक भूमिका का उद्घाटन है। कथा का आरम्भ जिस श्रीलाल के भाई के विवाह के बाद सोफिया के नेतृत्त्व में नेग लेने आयी हिजड़ों की टोली से होता है उन्हीं श्रीलाल की बेटी का स्थानीय गुंडे के द्वारा बलात्कार हो जाता है। सोफिया और उसके साथियों को इस बात का पता चल जाता है। दरअसल उस घटना का अप्रत्यक्ष रूप से बल्लू गवाह है। इसीलिए सोफिया के नेतृत्व में हिजड़े श्रीलाल जी के पास आते हैं। गवाही के वादे के साथ उनसे पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाने के लिए कहते हैं। श्रीलाल इज्जत की दुहाई देकर चुप साध लेने में ही भलाई समझते हैं, लेकिन सोफिया के नेतृत्व में हिजड़ों का समूह गुंडे को नपुंसक बनाकर समाज के लिए रहबरी का उदाहरण पेश करता है।
अंजना वर्मा की कहानी ‘कौन तार से बीनी चदरिया’ मानवीय संबन्धों की संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति से संपृक्त है। कथावस्तु के केन्द्र में तृतीय लिंगी अर्थात् हिजड़ा है। उल्लेखनीय यह है कि हिजड़ों को लेकर सामाजिक दृष्टिकोण की जाँच-पड़ताल तो अहम् है ही। प्रस्तुत कहानी में हिजड़ों की दयनीय जीवनचर्या के साथ उनके अपने परिवार के संबन्धों और हिजड़ों के प्रति नकारात्मक सामाजिक रवैये के कारण परिवार की उनको लेकर विवशता का मार्मिक चित्राण है। भले ही समाज उनको हेय दृष्टि से देखता हो लेकिन उनका जन्म भी तो समाज की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई पति-पत्नी अर्थात् माता-पिता के द्वारा ही होता है। ममता का स्नेह और संतानों का उनके प्रति लगाव नैसर्गिक वृत्ति है। इसी नैसर्गिक वृत्ति पर सामाजिक जड़ता के कारण जब रोक लगा दी जाय तो पीड़ा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। सुन्दरी और कुसुम हिजड़ा है। वह अपने पारम्परिक पेशे से खाते-जीते हैं। समाज उनको हेय दृष्टि से देखता है। लेकिन उनका परिवार इसके बावजूद उनसे लगाव तो रखता है, परन्तु उसे भी दिखा नहीं सकता है। सुन्दरी संपन्न परिवार में जन्मी है। परिवार में सुख-वैभव के साथ भाई-बहन-माँ सब हैं। वह मिलने जाती है, लेकिन सामाजिक वर्जनाओं के कारण माँ और बहन से मिल भी नहींे सकती है। इससे केवल उसे ही तकलीफ नहीं होती है। जिस माँ ने उसे भी अपनी कोख में नौ महीने रखकर पैदा किया और जिस बहन के साथ उसका कोख का नाता है उससे मिलने के लिए उसको वियाबान का सहारा लेना पड़ता है। ऐसे में दोनों का कलेजा फटने लगता है। सामाजिक वर्जनाओं के कारण उपजी पीड़ा को महसूस करने के लिए उसके पारिवारिक मिलन के पश्चात् विदा के समय के चित्रा में देखिए, ”उसकी माँ भी उठी। स्नेह कातर होकर अपने कमजोर हाथों से सुंदरी का गाल छूती हुई ठुड्डी पकड़कर उसे कई पलों तक देखती रही। कुछ बोल न सकी। सुन्दरी ने माँ को पकड़ लिया और उसके गाल से अपना गाल सटा लिया। माँ के गाल की गोरी कोमल त्वचा बुढ़ा के और भी कोमल लग रही थी सटने पर। सीने पर चिपकी सूती साड़ी का मुलायम एहसास वह अपने कलेजे में संजोती रही। अलग हुई तो देख माँ रो रही थी।“
महेन्द्र भीष्म की कहानी ‘त्रासदी’ हिजड़ों की त्रासदी की कहानी है। कहानी का आरम्भ स्त्राी की त्रासदी से आरम्भ होता है। चाहे त्रासदी हिजड़े की हो या स्त्राी की भारतीय समाज की नियति हैै। कथाकार ने प्रस्तुत कहानी में दोनों ही वर्गों की नियति को बड़े सहज लेकिन यथार्थ के धरातल पर अभिव्यक्त किया है। बंशी और रूपवान रति का दाम्पत्य सुखमय है। तीन संताने हैं। दो जुड़वा पुत्रियाँ और एक पुत्रा। संयोग से बंशी की दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। पति के स्थान पर मिलने वाली नौकरी से तो उसकी आर्थिक समस्या का हल हो जाता है लेकिन उसका रूप उसका दुश्मन बन जाता है। कामुक व्यभिचारियों उसे वहशी निगाहों से देखने लगते। नैतिकता और आर्दश की माला जपने वाले भारतीय समाज में सुन्दर विधवा स्त्राी की यही नियति है जो कि रति की है। अति तब हो जाती है जब उसे दो युवक बलात्कार के लिए खींच कर खाली रेल के कोच में ले जाते हंै। सुन्दरी जो कि एक हिजड़ा है उसे बचाने आ जाती है। वह उसे बचा भी लेती है, लेकिन बलात्कारी चाकुओं से वार करके उसके चेहरे को बिगाड़ देते हैं। वह अब नाच-गा कर रोजी कमाने लायक नहीं रह जाती है। उसे लोग भीख देने लगते हैं। ऐसे में रति उसे मानसिक रूप से सहारा देती है। समाज केे साथ उसका पुत्रा भी उसे इस बात को लेकर प्रताड़ित करने लगता हे। यद्यपि वह स्वयं चरित्राहीन है। परिणामस्वरूप उसको एक ऐसी लड़की से विवाह करना पड़ता है जो साधारण रूप-गुण की है। असल में वह उससे अवैध संबन्ध स्थापित करता है। वह गर्भवती हो जाती है। समाज उसे विवाह के लिए विवश कर देता है। सवयं चरित्राहीन है, लेकिन उसे अपनी माँ चरित्राहीन लगती है। उसका आक्रोश बढ़ता ही जाता है। एक दिन उस सुन्दरी को जो उसके लिए रोजी-रोटी की व्यवस्था करने के लिए उसकी माँ से बात कर रहा है उसे मौत के घाट उतार देता है। उसके आक्रोश की अति का यह परिणाम सुन्दरी के हिजड़ा होने के कारण है। समाज की जो मानसिकता हिजड़ों को समाज की मुख्यधारा की बात तो दूर उसे हाशिए से बाहर रखना चाहता है उसे रति का युवा पुत्रा भला कैसे सहन कर सकता था? उसके आक्रोश के अनन्तर कहानी हिजड़ों की पीड़ा के उत्कर्ष से रू-ब-रू करवा देती है।
‘रतियावन चाची की चेली’ ललित शर्मा की आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई ऐसी कहानी है जो तृतीय लिंगी समाज पर आधारित कहानियों से भिन्न है। भिन्नता हिजड़ों द्वारा अपने जीवन को लेकर सहज स्वीकृत की अभिव्यक्ति के अनन्तर रेखांकित की जा सकती है। रतियावन की चेली पार्वती हिजड़ा योनि में जन्म लेती है। उसकी भी व्यथा उसी प्रकार की है जिस प्रकार की व्यथा से आमतौर पर हिजड़ों को गुजरना पड़ता है। पहले तो हिजड़ा समाज जैसे ही ज्ञात होता है कि अमुक परिवार में कोई ऐसी संतान जन्मी है जो न स्त्राी है न पुरुष तो वह उसे फौरन ही उस बच्चे को हथिया लेते हैं। पार्वती का जन्म एक संपन्न परिवार में होता है लेकिन पता चलते ही उसे अपना घर छोड़ना पड़ता है। उसके पश्चात् उसे भी यातना के दौर से गुजरना पड़ता है। यह यातना मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की है। भटकाव भी है, परन्तु पार्वती अपने व्यवहार से यह साबित कर देती है कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जीवन को सहजता से व्यतीत किया जा सकता है। दरअसल तिरस्कार और सम्मान का संबन्ध व्यवहार कुशलता, ईमानदारी और व्यक्तिगत संतोष से भी होता है। पार्वती की कथा इस तथ्य को बखूबी पुष्ट करती है। ”हिजड़ा होने पर समाज का तिरस्कार झेलना पड़ता है तो वही समाज सम्मान भी करता है।“ शर्त यह है कि स्वभाव व्यवहार सकारात्मक हो। कथाकार ने इस तथ्य को बड़ी ही सहजता के साथ व्यक्त किया है।
डाॅ. लवलेश दत्तकृत ‘नेग’ की विषयवस्तु का आधार भारतीय समाज में लड़कियों के प्रति उपेक्षा और तिरस्कार जैसे महत्त्वपूर्ण और बहुचर्चित समस्या है। हिजड़े की भूमिका विषय की अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने की भूमिका में है। सुधीर की पत्नी को तीसरी संतान के रूप में भी कन्या जन्म लेती है। यद्यपि इसमें न तो कन्या का ही कोई दोष है न ही उसकी माँ का, परन्तु उसकी माँ के साथ उसका भी व्यवहार पत्नी के प्रति न केवल आक्रोशपूर्ण है अपितु नवजात कन्या भी उनको बोझ सरीखी लगती है। इस प्रकार की स्थिति-परिस्थिति पर आधारित कहानियों की कमी नहीं परन्तु कहानी का महत्त्वपूर्ण इसलिए है कि समाज का तिरस्कृत वर्ग जिसे हिजड़ा अथव किन्नर के रूप में जाना जाता है, जिसके कृत्य-कुकृत्य के रूप में देखे जाते हैं, वही आकर अंधविश्वासी और सभ्य समाज की आँखें खोल देता है। परम्परा के अनुसार घर में संतानोत्पत्ति की सूचना सुनकर हिजड़े सुधीर के घर बधाई गाने और नेग लेने आ जाते हैं। कन्या के जन्म से कुंठित परिवार तथाकथित रूप से अभिशप्त मानी जानी वाली योनि से अत्यन्त बुरा व्यवहार करते हैं। घर में कन्या के जन्मने का आक्रोश हिजड़ों पर उतार देते हैं। उन्हें नेग देने की बात तो दूर गाली-गलौज करते हुए मार-पीट पर उतारू हो जाते हैं। इनके इस व्यवहार के बरअक्स हिजड़े जब स्थिति की वास्तविकता से अवगत होते हैं तो बच्ची को अपनी तरफ से नेग देकर परिवार की आँखें खोल देते हैं। असल में हिजड़े भले ही लिंग के स्तर पर अधूरे हों लेकिन करुणा, दया और प्रेम जैसे मानवीय भावों के धरातल पर पूर्णलिंगियों से किसी भी स्तर पर कमतर नहीं होते हैं। प्रस्तुत कथा इस संदेश को प्रभावशाली रूप से उद्घाटित करती है।
संजय गरिमा दूबे की कहानी ‘पन्ना बा’ संस्मरणात्मक कहानी है। कथाकार ने एक कन्या की किन्नरों के प्रति जिज्ञासा की अभिव्यक्ति के माध्यम से किन्नर योनि के प्रति समाज की जिज्ञासा को एक ही मुहल्ले में रहने वाले किन्नर पन्ना को लेकर गोटी के बचपन की यादों के माध्यम से समाज में किन्न्रों को लेकर विविध मान्यताओं और जिज्ञासाओं को उद्घाटित करते हुए किन्नर के प्रति समाज की नफरत भरी मानसिकता को उकेरते हुए उनके लिए सम्मान का आह्वान करती है।
दया, माया, ममता और मानवीय करुणा की उत्कृष्ट भावों की अभिव्यक्ति पर आधारित श्रीकृष्ण सैनी की कहानी ‘हिजड़ा’ मार्मिक कहानी है। कहानी में हिजड़ों के जीवन के विविध पक्षों में से उस पक्ष को ग्रहण किया गया जो उनकी सामाजिक संदर्भों में विडम्बना को रेखांकित करते हुए उनकी मानसिक पीड़ा को भी उद्घाटित करती है। राघव दम्पति की दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। उनके इकलौते पुत्रा को सभ्य समाज अनाथ आश्रम के हवाले करना चाहता है, लेकिन तथाकथित रूप से क्रूर और असभ्य माने-जाने वाली हिजड़ा समाज की प्रतिनिधि राघव की पत्नी से बहिनापा का संबन्ध मानने वाली रजिया अनाथ बच्चे के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उठाने के लिए सामने आती है। वह उसे हाॅस्टल में रखकर सहृदय प्राचार्य की सहासता से पढ़ा-लिखाकर अधिकारी तो बना ही देती है, रक्त देकर उसकी जान भी बचाती है। परन्तु विडम्बना यह है कि वह उसे बताने की बात तो दूर उससे अपनी पहचान भी उजागर नहीं कर सकती है। सहज ही उसकी पीड़ा का अनुमान किया जा सकता है।
संकल्प एक ऐसे किन्नर की कथा को केन्द्र में रखकर रची गयी है जो अविकसित जननांग के साथ पैदा तो होता है क्योंकि उसके आन्तरिक जननांग उसके शरीर में रहते हैं। उनको शल्यक्रिया के द्वारा स्त्राी अथवा पुरुष रूप में तब्दील किया जा सकता है। समस्या धन और जागरूकता की होती है। माधुरी यानी कि मधुर अविकसित जननांग के साथ पैदा होता है। समाज में उससे उसी प्रकार का व्यवहार किया जाता है, जैसे की लोगों की मान्यता है और होता भी है। निर्धनता तो सभी के लिए ही अभिशाप होती है, धनाभाव के कारण समाज के बहिष्कृत वर्ग की स्थिति और भी भयावह हो जाती है। हकीकत यह भी होती है कि तमाम तरह की विपरीत परिस्थितियों के बाद भी विजय उसी की होती है जो अन्तिम समय तक संघर्ष का दामन नहीं छोड़ता है। मधुर अर्थात् माधुरी माँ की असमय मृत्यु और पिता की मानसिक स्थिति बिगड़ने के बावजूद कम आयु की होते हुए भी न केवल अपनी छोटी बहन और पिता के पेट भरने की व्यवस्था करती है, अपनी बहन का विवाह भी करती है। मधुर का बलात्कार हो जाता है। वह टूटने-बिखरने के बजाय उठने की हिम्मत ही नहीं करती है, अपितु अपने कठिन परिश्रम के बल पर शल्यक्रिया के द्वारा शरीर को स्त्राी शरीर के रूप में परिवर्तित करवाकर जीवन का लक्ष्य भी हासिल कर लेती है। सामान्य लिंगियों केे लिए किन्नरांे का संसार पूर्वाग्रहों और मान्यताओं पर आधारित होता है। उनके शरीर को लेकर भाँति-भाँति की भ्रान्तियाँ होती हैं। कथाकार ने किन्नरों के शरीर विज्ञान की भी एक विशिष्ट वास्तविकता से परिचित कराया है। किन्नरों का एक वर्ग ऐसा होता है जो बुचरा कहा जाता है। बुचरा हिजड़े, जो औरत ज्यादा होते हैं। उनके योनि जैसी आकृति कम उन्नत होती है और उनके साथ औरत की तरह सेक्स किया जा सकता। माधुरी को जब यह पता चल जाता है तो उसके मन में बुचरा हिजड़ों के योनि होने की बात दिन-रात घूमने लगी और एक दिन वह डाॅक्टर के पास अकेली पहुंच गई। डाॅक्टर से स्पष्ट पूछा क्या मैं औरत बन सकती है। डाॅक्टर ने सोनोग्राफी की और पाया कि माधुरी के अंदर भ्रूण उपस्थित है। उसने कहा- ‘‘माधुरी तुम औरत बन सकती है।......पर इसका आॅपरेशन करना होगा और आॅपरेशन में बहुत खर्च आएगा।“ शल्य चिकित्सा के लिए हाड़-तोड़ श्रम करके वह धन एकत्रित करके सफल शल्य क्रिया के माध्यम से स्वस्थ और पूर्ण स्त्राी बनकर अभिशप्त जीवन से मुक्ति पा जाती है। किन्नरों के समाज में आन्तरिक बंधन बहुत कठोर होते हैं, लेकिन माधुरी का सौभाग्य यह है कि उसे गुरुमाई की कृपा से बंधन से छूट मिल जाती है। यह सौभाग्य कठोर बंधन वाले समाजों में दुर्लभ होता है। गौरतलब यह है कि दुर्लभ को सुलभ बनाना ही कहानी का लक्ष्य है। कथाकार काफी हद तक अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल दिखाई देता है। जहाँ तक उनके मानसिक स्थितियों का प्रश्न है तो ऐसा लगता है कि कहानीकार का लक्ष्य उनके शरीर विज्ञान की गुत्थियों को ही सुलझाने में निहित है इसलिए इस तरफ उसका ध्यान कम गया है।
चाँद दीपिका की कहानी ‘खुश रहो क्लीनिक’ की विषयवस्तु का आधार भी किन्नर जीवन की विडम्बनाएँ ही है। किन्नर के रूप में जन्मी संतान समक्ष जो स्थितियाँ दरपेश आती हैं वह सब कहानी में मौजूद है। ऋषि सुखी परिवार में जन्म लेता है, लेकिन सामाजिक मान-सम्मान और लोक-लाज के भय के कारण किन्नरों के समूह को सौंप दिया जाता है। उसे उसी प्रकार की नारकीय यातनाओं के बीच जीवन आरम्भ करना पड़ता है जैसा कि आमतौर पर इस प्रकार के बच्चों को सहना पड़ता है, परन्तु वह उन यातनाओं के बीच से निकलकर डाॅक्टरी की पढ़ाई करता है। दरअसल कथाकार ने इस तथ्य पर बल देता है कि किन्नरों के समाज की नारकीय स्थिति उनकी प्रवृत्ति नहीं, जीवन जीने की जद्दोजहद का परिणाम है। वस्तुतः यही कारण है जहाँ एक तरफ किन्न्र समूह के सदस्यों द्वारा उसका विरोध होता है तो दूसरी तरफ ममता और प्रेम तथा स्नेह के नैसर्गिक गुणों के कारण ही उसी समाज के सदस्य उसकी सहायता ही नहीं करते अपितु बाबा जैसे शराबी किन्नर को सुधर जाने की प्रेरणा का कार्य भी करते हैं। कहानी किन्नरों के लिए स्वस्थ मार्ग का संकेत भी करती है। ऋषि डाॅक्टर बनने के बाद मलीन बस्ती में जाकर अपनी क्लीनिक खोलकर सेवा स्वास्थ्य और स्वच्छता की अलख जगाता है।
पूनम पाठक की लघु कहानी ‘किन्नर’ और पारस दासोत की कहानी ‘गलती जो माफ नहीं’ व्यंग्यात्मक तेवर की ऐसी कहानियाँ हैं जो सभ्य समाज किन्नरों के प्रति रवैये पर प्रहार करती हैं। उपर्युक्त तथ्यों के प्रकाश में कहा जा सकता है। किन्नर होना शरीर विज्ञान की एक विकृति है। उसमें यदि कोई इस विकृति के साथ जन्म ले ले तो उनका कोई दोष नहीं, लेकिन समाज उन्हें जीवित होने के बावजूद मुर्दों के रूप में तब्दील होने पर विवश कर देता है। यही उनकी नियति है। दरअसल लैंगिक विकृति से पीड़ित यह लोग हमारे बीच में रहते हुए बहुत रहस्यमय होते हैं उनको ले करके बहुत सारे मिथक होते है। कथाकार ने मिथकांे को तोड़ते हुए रहस्य को भी उद्घाटित किया है। गौरतलब यह भी यह है कि अधिकांश कहानियों में रचनाकारों ने उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाते हुए उनके भीतर की मानवीय करुणा, दया, प्रेम जैसी सकारात्मक प्रवृत्तियों को भी उद्घाटित किया है।
प्रो. मेराज अहमद
सामाजिक संरचना मुख्यतः द्विलिंगी होती है। मादा और नर। स्त्राी और पुरुष उसका प्रतिनिधित्व करते हैं। समाज में तीसरा लिंग भी रहता जो न तो नर ही होता है न मादा ही। अर्थात् अलिंगी होता है। इसे परिष्कृत शब्दावली में किन्नर कहा जाता है। इनके अलग-समाजों और भाषाओं में विविध नाम है। हिन्दी में इसके लिए शिखण्डी, छक्का, कीव, खोजा, मौसी और हिजड़ा इत्यादि अन्य नाम भी प्रचलित हैं। भारतीय इतिहास में पौराणिक काल से ही हिजड़ों का उल्लेख मिलता है। महाभारत मंे हिजड़े का उल्लेख शिखण्डी के रूप में मिलता है। महाभारत में भी शिखंडी नामक किन्नर योद्धा था जिसकी मदद से अर्जुन ने भीष्म पितामह का वध किया था। कहा जाता है कि अर्जुन ने भी अपने अज्ञातवास का एक वर्ष वृहन्नला नाम से किन्नर का रूप धारण करके बिताया था। राजा- महाराजा भी किन्नरों को अपनी रानियों की पहरेदारियों के लिये रखते थे क्यों राजाओं को अधिक से अधिक समय युद्ध के मोर्चे बिताना पड़ता था। इसके पीछे उनकी यह सोच थी कि रानिया पहरेदारों से अवैध संबंध न बना सके। मुस्लिम शासन में हरमों की सुरक्षा के लिए हिजड़े ख्वाजासरा के नाम से सुरक्षाकर्मी के रूप में तैनात किए जाते थे। भारतीय उपमहाद्वीप में हिजड़े समूहों में रहते हैं। देश में इनकी जनसंख्या लाखों में है। शिक्षा की दृष्टि से तो इनकी स्थिति अत्यन्त दयनीय होती है। अधिकांश किन्नर निरक्षर होते हैं। समाज के साथ सरकारें भी इनको वह अधिकार और सुविधा नहीं प्रदान करते हैं जिसकी इनको आवश्यकता होती है। सामाजिक व आर्थिक तौर पर ये असुरक्षित और निस्सहाय होते हैं। यद्यपि हाल के दशकों में कई एक किन्नरों के राजनीति में आने से इनकी चर्चा होनी आरम्भ हुई है। स्वयं किन्नर समाज भी जागरूक हुआ है। जगह-जगह पर होने वाले किन्नर सम्मेलन और उसमें अधिकारों को लेकर उठाये जाने वाले प्रश्न किन्नर समाज मंे आ रही जागरूकता का परिणाम है।
इनकी सामाजिक संरचना बड़ी जटिल होती है। बाहरी व्यक्ति उसमें दखल देने की हिम्मत कम ही करता है। मुखिया इनका गुरु होता है। किन्नर समाज में जब कोई नया सदस्य किन्नर आता है तो उसका विवाह उसके गुरु से कराया जाता है इसलिए गुरु ही उसका पति होता है। किन्तु वह पति-पत्नी जैसा संबंध नहीं बना सकते हैं। इसलिए भाई बहन या मित्रा के रूप में रहते है। वह गुरु को पति परमेश्वर के रूप में मानते है। गुरु के मरने बाद वह सफेद साड़ी पहनने लगते हैं। पैर की बिछिया, मांग का सिंदूर व गहने पहनना छोड़ देती है और शोक भी करते हैै। विधवा जैसा जीवन जीते हैं। लोगों का मानना यह भी है कि मृत्यु के पश्चात् इनके पार्थिव शरीर की जूते-चप्पलों से पिटाई की जाती है। आमतौर पर चाहे महिला हिजड़ा हो या पुरुष यह नाच-गा कर माँग कर अपना जीवन-यापन करते हैं। समाज में इनको घृणा की नज़रों से देखा जाता है जबकि किन्नर भी मानव समाज का ही अंग है। शुभ कार्य में इनकी दुआ की बड़ी महत्ता होती है। माना जाता है कि किन्नरों की दुआ का असर भी बहुत अधिक होता है। जिनके बच्चे नहीं होते है उनके बच्चे हो जाते है। इनको दान करने से धन-वैभव में भी बढ़ोत्तरी होती है। इसके विपरीत मान्यता यह भी है कि अगर किन्नर किसी को बद्दुआ दे दंे तो उस परिवार का बुरा ही बुरा होता है। जैसे किसी नवविवाहित दुल्हन या दूल्हे को अपने कपड़े उतारकर उस पर चूड़ियाँ तोड़कर शाप दे दें तो ग्रह-नक्षत्रा भी दशा बदल लेते है, लेकिन इनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता है। लोग-बाग इनको आस-पास देखना भी पसंद नहीं करते है। हकीकत यह है कि इनको लेकर समाज में पूर्वाग्रह आधारित मान्यताएँ अधिक हैं, इनकी वास्तविकता से अभी भी समाज बहुत अधिक परिचित नहीं है।
हिजड़ा शब्द सुनते ही हमारे सामने एक छवि बन जाती है इठलाती चाल, गहनों से सजा हुआ शरीर, चमकीले कपड़े व चेहरे पर ठेर सारा मेकअप और दुकानों व घरों और बच्चों के जन्म पर, विवाह आयोजन जैसे अन्य कार्यक्रमों में नाच-गा कर पैसा कमाने वाला, अगर पैसा नहीं दिया तो गाली-गलौज करने पर भी उतारू हो जाते है, इनके आते ही लोगांे के मन में अजीब-सा रोमांच उत्पन्न होता है और डर सताने लग जाता है। इनको पैसे नहीं दिये तो गाली-गलौज या कोई बदतमीजी न कर दे, कोई बद्दुआ न दे दंे। दरअसल समाज में रहते हुए भी यह समाज से पृथक् ऐसी इकाई के रूप में इनकी पहचान होती जो वास्तविकताओं के बजाय पूर्वाग्रहों मान्यताओं और अफवाहों पर ही आधारित होती है।
समाज के साथ कला और साहित्य में भी किन्नर समाज उपेक्षित ही रहा है। चलचित्रों में किन्नरोें के प्रसंग अवश्य आते हैं, परन्तु किसी संजीदा किस्म के चरित्रा के बजाय कतिपय अपवादों को छोड़ दिया जाय तो ज्यादातर हास्य-व्यंग्य के लिए ही इनका चित्राण होता है। साहित्य की स्थिति तो और भी निराशाजनक है। हिन्दी में विपुल साहित्य का सृजन हुआ। इधर आंदोलनों को हथियार बनाकर सृजक और आलोचक दोनों ही अपनी लेखनी को धार दे रहे हैं, लेकिन किन्नर समाज आज भी लगभग अनछुआ है। शिवप्रसाद सिंह की कहानी ‘बिन्दा महराज’ जरूर ऐसी कहानी है जो आजादी बाद के कहानी आन्दोलन से निकली है अन्यथा इन पर नहीं के बराबर ही लिखा गया है। इधर हाल के वर्षों में कतिपय कथाकारों ने पाँच-सात उपन्यास और कहानियाँ लिखी हैं। पिछले दस से अधिक वर्षों से प्रकाशित और अपने विशेषांकों के लिए चर्चित पत्रिका वाङ्मय ने तृतीय लिंगियों पर आधारित विशेषांक के माध्यम से हिन्दी और दूसरी भाषाओं की किन्नर जीवन पर आधारित कहानियों को संकलित करने का महती प्रयास किया है।
शिवप्रसाद सिंह की कहानी ‘बिन्दा महराज’ नई कहानी के दौर की महत्त्वपूर्ण कहानियों में परिगणित की जाती है। कहानी चरित्रा प्रधान है। अपूर्ण लिंगियों की सामाजिक संदर्भों में दयनीय स्थिति के कारण न केवल उनको भौतिक कष्ट सहन करना पड़ता, अपितु उनके प्रति घृणापूर्ण दृष्टिकोण के कारण मानसिक संताप भी सहन करना पड़ता है। यह लोग लिंग की दृष्टि से भले ही अपूर्ण होते हैं परन्तु मानवी गुण के रूप में प्रेम करुणा और ममता जैसी प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से उनके भीतर भी होती हैं। लेकिन वह उसको व्यक्त नहीं कर सकते हैं। या कहा जाय कि समाज का नफरत भरा रवैया उसको व्यक्त करने का अवसर ही नहीं देता है। यदि वह व्यक्त करने का प्रयत्न करता भी हैं तो उसे सहानुभूति व्यक्त करने के बजाय दर्द ही देता है। बिन्दा महराज कहानी का मुख्य चरित्रा बिन्दा ऐसे ही चरित्रा का प्रतिनिधित्व करता है। माँ-बाप तो उसके प्राणहीन शरीर को उपजा कर चले गये। मर्द होता तो बीवी-बच्चे होते, पुरुषत्व का शासन होता, स्त्राी भी होती तो किसी पुरुष को सहारा मिलता, बच्चों की किलकारियों से आत्मा के कण-कण तृप्त हो जाते, परन्तु वह भटकता ही रहता है। पहले चचेरे भाई ने निकाल दिया जिसके पुत्रा का नेह उसके जीवन का लक्ष्य था। फिर दीपू मिसिर से नाता उसके दो-ढाई वर्षीय पुत्रा के लिए लगाया परन्तु उसकी मृत्यु हो गई। डायन का लांछन लगा। घुरदिनवा चमार है। उससे कैसा नाता? प्यार उनकी आत्मा की प्यास थी। लेकिन वह परिणामहीन प्रेम की क्रूरता को समझ नहीं पाते हैं। जरा से आकर्षण से चित्त चंचल हो जाता है। लोगों के मनोरंजन के लिए किए गये व्यवहार को प्रेम समझकर नशे में आ जाते हैं। हाथ बटोरकर उसे समेटना चाहते हैं तो हाथ कुछ नहीं आता है केवल दोनों हथेलियाँ आपस में टकरा जाती हैं। वास्तव में प्रेम ऐसे लोगों के लिए निर्जीव शब्द से अधिक कुछ नहीं होते हैं। यही उनकी नियति है और इसे वह स्वीकार भी लेते हैं।
‘ख़लीक़ अहमद बूआ’ एक सीमा तक बिन्दा महराज की चेतना से संपृक्त चरित्रा प्रधान कहानी है। अन्तर यह है कि बिन्दा महराज के विपरीत ख़लीक अहमद बूआ अपने प्रेम पर अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तो बिन्दा महराज की भाँति ही कर देते हैं, लेकिन वह अपने प्रेम के लिए हद से गुजर जाते हैं। रुस्तम से प्यार करते हैं। समाज को तमाम तानों-उल्हानों से परे उसको अपने साथ रखते हैं। एक रोटी से दो अंगुल देसी घी में तर तीन-तीन तरह का सालन खिलाते है। उसकी देह-मूड़ करते हैं। शहर भर की खबरें सुनाते हुए उन्हें हर प्रकार की सुख-सुविधा देते हैं। कभी-कभी उनके मन में आता है कि रुस्तम खाँ अभी छोटे हैं। उनके लिए वह सोचते हैं कि एक और लौंडा रख लें, लेकिन ऐसे लड़के बहुत आवारा होते हैं और एक के होकर नहीं रह सकते इसलिए वह अपने इरादे से हट जाते हैं। उन्हें रुस्तम खाँ पर भरोसा है। लेकिन वह जैसे ही उनका भरोसा तोड़ता है तो उसका कत्ल कर देते हैं।
सलाम बिन रज़ाक की कहानी ‘बीच के लोग’ का स्वर व्यंग्यात्मक है। प्रतीक के माध्यम से व्यवस्था में व्याप्त अकर्मण्यता को रेखांकित करते हुए उचित समय पर उचित निर्णय न लेने की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला गया है। कथाकार ने हिजड़ों की प्रतीकात्मक प्रयुक्ति के द्वारा बड़े ही प्रभावशाली रूप से अपने लक्ष्य को हासिल किया है। पुलिस के छोटे से अमले से लेकर मन्त्राी तक अपनी जिम्मेदारियों से भागते हैं। भारतीय शासन-प्रशासन व्यवस्था का यह चरित्रा किसी से छुपा नहीं है। उल्लेखनीय यह कि यदि व्यवस्था में व्याप्त यह मानसिकता परिवर्तित नहीं हुई तो? ”कल संसार हिजड़ों का होगा।“ शहर में एक विचित्रा-सा जुलूस निकला है। हिजड़ों का। वह हाथ में लकड़ी की तलवारें लहराते जुलूस लेकर आगे बढ़ रहे हैं। इक्का-दुक्का पुलिस के जवान उन्हें रोक नहीं पाते हैं तो पुलिस की फोर्स बुला ली जाती है। पुलिस के जवान यह कहकर उन्हें गिरफ्तार करने से यह कहकर इंकार कर देते हैं कि इनको महिला पुलिस गिरफ्तार करेगी। महिला पुलिस भी इसी प्रकार का तर्क देकर उन्हें गिरफ्तार करने से मना कर देती है। बात अनुशासन की है, लेकिन इच्छाशक्ति की कमी के कारण छोटे से लेकर बड़े अधिकारी तक की समझ में नहीं आता है कि किया क्या जाय? असमंजस्य की इसी मानसिकता ने स्थितियों को कितना भयावह बना दिया है उसका अनुामन इसी बात से लगाय जा सकता है कि गली में जिसके होने की सूचना मिलती है उसके भय से सुपरिटेंडेंट के होठ सूखने लगते हैं। दरअसल हिंसा और आतंकवाद जैसी गतिविधियों की पीछे हमारी व्यवस्था के हिजड़ेपन का भी हाथ कम नहीं होता है। कहानी अपने प्रभाव की संपूर्णता में उक्त वास्तविकता को उद्घाटित करते हुए हिजड़ों की जीवनशैली के कुछ महत्त्वपूर्ण और यथार्थ चित्रा भी प्रस्तुत कर देती हैै।
एस. आर. हरनोट की कहानी ‘किन्नर’ नाम के कारण तीसरे लिंग की कहानी प्रतीत होती है, परन्तु कहानी पौराणिक आधार पर नामित आधुनिक किन्नौर क्षेत्रा की समस्याओं और रीति-रिवाजों एवं राजनीति इत्यादि के मध्य एक युवा और युवती के प्रेम के विषय को आधार बनाकर लिखी गयी है। पुराणों वर्णित गन्धर्व, किन्नर इत्यादि देव संस्कृतियों में से किन्नर जाति को हिजड़ों के पर्याय के रूप में मानते हुए हिजड़ों के लिए किन्नर की संज्ञा दे दिये जाने को लेकर चिंता अवश्य व्यक्त की गयी हैै। इसी आधार पर प्रस्तुत कहानी को किन्नर कथा के संदर्भ में भले ही देख लिया जाय अन्यथा कहानी का संबंध किन्नर क्षेत्रा की समस्याओं और रीति-रिवाजों एवं राजनीति इत्यादि के मध्य एक युवा और युवती के प्रेम से ही है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि जब तीसरे लिंग के परम्परा और इतिहास की चर्चा होती है तो किन्नौर प्रदेश का नाम अवश्य आता है। इससे प्रतीत यह होता है कि किन्नरों की जन्मस्थली का यही स्थान है, जबकि वास्तविकता यह है कि किन्नर देव संस्कृतिवाची संज्ञा है। आधुनिक युग में भी यह शब्द स्थानीय लोगों के लिए जातिवाचक अर्थों में प्रयुक्त होता है। किन्नौर के लोगों के लिए यह शब्द चिंता का विषय भी है। कथानायक इस शब्द विशिष्ट लिंग सूची संज्ञा के रूप में प्रयुक्त होने के कारण व्यवस्थित है। यद्यपि जन्मस्थान का जातिवाचक संज्ञा के रूप में प्रयोग गर्व का द्योतक होता है, परन्तु किन्नौर की आधुनिक पीढ़ी जाति वाची शब्द किन्नर से मुक्त होने के लिए छटपटा रही है। कथाकार ने प्रस्तुत कहानी के माध्यम से किन्नौर की युवा पीढ़ी की मानसिकता को भी उद्घाटित किया है।
कुसुम अंसल की कहानी ‘ई मुर्दन का गाँव’ में लैंगिक विकृति से पीड़ित इंसानी नस्ल के उस तबके को कथा के केन्द्र मे ग्रहण किया गया है जो ख्वाजा सरा या हिजड़ा कहे जाते हैं। लैंगिक विकृति में उनका कोई दोष नहीं, लेकिन समाज उन्हें जीवित होने के बावजूद मुर्दों के रूप में तब्दील होने पर विवश कर देता है। यही उनकी नियित है। दरअसल लैंगिक विकृति से पीड़ित यह लोग हमारे बीच में रहते हुए बहुत रहस्मय होते हैं उनको ले करके बहुत सारे मिथक होते है। कथाकार ने मिथकों को तोड़ते हुये रहस्य को भी उद्घाटित किया है। लैंगिक विकृति के साथ पैदा होते ही मेहतर, दाईयां या नर्स उसकी सूचना उसके समाज तक पहँुचा देती हैं। फिर उन्हें चाह कर भी परिवार उनके समाज में जाने से रोक नहीं सकता हैं। उस समाज में सम्मिलित होने के बाद उनकी घृणित जीवन जीने की विवशता उनके प्रति समाज की संकुचित मानसिकता को रेखांकित करती है। कथाकार ने यह संकेत भी किया है कि यदि अभिभावक ऐसे बच्चों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाहन करें तो वह भी केवल स्वस्थ सामाजिक जीवन जी ही नहीं सकते है अपितु जीवन में सफलता के सोपानों को भी प्राप्त कर सकते हैं। अलिंगी, विक्की अभिभावक की सजगता के कारण एक सफल फ़ैशन डिज़ाईनर बनने में सफल हो जाता है।
‘संझा’ किन्नरों की पृष्ठभूमि पर आधारित महत्त्वपूर्ण कहानी है। कथा का विस्तार अत्यन्त व्यापक है। संतान के किन्नर के रूप में जन्म लेने से लेकर उसके भेद समाज में खुल जाने के अनन्तर उसके पिता के भय से उपजी पीड़ा का बड़ा ही गहन और मार्मिक चित्राण किया गया है। समाज की वह मानसिकता जो किन्नरों को नारकीय जीवन व्यतीत करने पर विवश करते हुए उनके माता-पिता को भी सामाजिक रूप से घोर यातना सहन करने के लिए विवश कर देती है, प्रस्तुत कहानी उस मानसिकता के यथार्थ को उद्घाटित करते हुए उक्त यातना को भी यथार्थ के धरातल पर रेखांकित करती है। रहमान खेड़ा के चार गाँव की आबादी में चैगाँव के वैद्य जी आस-पास की आबादी के एक मात्रा चिकित्सक सबसे इज्जतदार आदमी हैं। इसीलिए इज्जत उतारने के लिए उन्हीं को चुना गया। आठ साल बाद संतान के रूप में संझा का जन्म होता है। संझा माने न दिन न रात। न लड़का न लड़की। यानी कि हिजड़ा। फिर तो उनके जीवन में यातनाआंे के दौर का आरम्भ हो जाता है। माँ की मृत्यु हो जाती है। वह नहीं चाहते हैं कि लोग उनकी संतान की वास्तविकता से परिचित हों इसलिए भेद खुल जाने की शंका के बाद सामाजिक प्रताड़ना के भय से वैद्य जी अकेले ही पत्नी का दाह संस्कार करते हैं। यह भय उनको दाने-दाने का मोहताज बना देता है। संतान को संसार की निगाहों से छुपा कर पालने में ही उनकी सारी ऊर्जा लग जाती है। वह जड़ी-बूटी के लिए अगर जंगल जायेंगे तो संझा किसके सहारे रहेगी। उनकी बैदकी बन्दी के कगार पर आ जाती है। दाने-दाने के मोहताज हो जाते हैं। जवानी को मूसली के कारगर ईलाज से लौटाने केे कारण एक बार दुबारा उनका कारोबार चल निकलता है तो रोजी-रोटी की समस्या तो हल हो जाती है लेकिन बढ़ती हुई संझा को समाज की दृष्टि से बचाना और स्वयं उसकी जिज्ञासाओं को शांत करना उनके लिए कितना हृदय विदारक है वह पूरी शिद्दत के साथ उद्घाटित हुआ है। ”छः महीने बीतने के बाद संझा का चैदहवाँ साल लग गया। उसके साथ की लड़कियों के अंग जब मुलायम और गदरारे हो रहे थे उस समय संझा का बदन तेल पी हुई लाठी की तरह लंबाई नाप रहा था, ऊँचाई के नाम पर सिर्फ गाँठे उभर रही थीं। उसकी नसें बैंगनी और त्वचा मोटी हो रही थी। उसकी ठुड्डी और होठों के ऊपर रोंए। उभर रहे थे। गालों की हड्डियाँ उभर रही थीं और चेहरा तिकोना में लम्बा हो रहा था, किन्तु एक अंग वैसा ही था, सूई की नोक के बराबर, वह शीशे के सामने खड़ी रहती। गिरने-गिरने को होती तो बैठ जाती, एक छेद उसके दिल मेें होता जा रहा था जिससे वह बंद कोठरी में कपड़े पहनना भूलने लगी थी।“ समस्या के हल के रूप में वह एक दिन अपने शरीर में चाकू घुसेड़कर उस अंग का निर्माण करना चाहती है जो था ही नहीं। इस घटना के द्वारा मानसिक पीड़ा की अभिव्यक्ति उत्कर्ष के रूप में देखते हुए ऐसी संतानों के अभिभावकों की स्थिति को भी लक्षित कर सकते हैं। उल्लेखनीय यह है कि ऐसे बच्चों को समाज से छुपाना आसान नहीं होता है। बढ़ती आयु के साथ उनकी जिज्ञासा और समाज को ऐसे लोगों के प्रति नकारात्मक रवैया दोनों ही बच्चे के साथ अभिभावक के लिए त्रासद होते है। संझा की बढ़ती आयु के साथ अब लोग उसके विवाह की बात करने लगते हैं, जो स्वाभाविक है। संझा भी सच जानकर भले ही स्थितियों से समझौता कर लेती है, लेकिन उसके भीतर लिंग का विकास न होने के बावजूद मन और मस्तिष्क का विकास हुआ ही है। वह बाहर निकलना चाहती है। मिट्टी, पानी, जंगल और आसमान देखना चाहती है। यह तो उसका अधिकार है उससे उसे भला क्यों वंचित रक्खा जाय! इसकी भी व्यवस्था हो जाती है। वह रात में निकलती है। परन्तु उसे घर में कब तक रक्खा जा सकता था! वैदकी वह पैत्रिक गुण के रूप में स्वमेव ही अपने भीतर आत्मसात् कर लेती हैै। सब कुछ के बावजूद वैद जी को भी तो एक-न-एक दिन संसार छोड़ना ही था। उसके विवाह के लिए समाज का दबाव उन पर बढ़ता ही जाता है। दोनों के संबन्धों को लेकर संदेह के बीज भी पनपने लगते हैं। वह घबराकर ललिता महराज के दत्तक पुत्रा कनाई से उसका विवाह कर देते हैं। वह नपुंसक है, इसलिए उसका भेद खुलता नहीं है। अपने पिता के सम्मान की रक्षा के लिए श्रम के साथ जितने भी जतन कर सकती है करती है। वह अपने चेहरे और शरीर को जितना संभव है छुपाए रहती है। उसके श्रम से न केवल उसके परिवार की आर्थिक स्थिति सुधर जाती है, अपितु आस-पास के सभी किसानों की स्थिति भी सुधर जाती है। पिता से सीखी वैदकी तो मरीजों के लिए रामबाण का कार्य करती है। उसी के बल पर गाँव के तमाम अवैध कारगुजारियों के परिणाम से मुक्ति दिलाकर लोगों के मान-सम्मान पर परदा डालती है। बसुकि एक दिन उसके पति पर बलात्कार का आरोप लगा देती है। बसुकि के भाइयों के साथ चैगाँव उसका दुश्मन हो जाता है। विवश होकर उसे अपना भेद खोलना पड़ता है। भेद संझा का भी खुल जाता है। बसुकि का बलात्कार उसके चचेरे भाई ने किया था। घोर पाप! गाँव के एक-एक राज खोलते हुए मार खाती संझा उठ खड़ी होती है। असल में उसका गुण गाँव वालों की आवश्यकता है। उसके भीतर व्याप्त पुरुष का पौरुष और औरत का औरतपन दोनों ही जाग जाता है। कथाकार ने भले ही उसकी आवश्यकता सिद्ध करते हुए लोगों को उसके बाउदी की गद्दी पर बैठाने के लिए विवश कर दिया परन्तु इसके बरक्स जिस समाज में काल्पनिक मान-सम्मान के लिए अपने ही रक्त से हाथों को रंजित कर लेने में कोई संकोच न किया जाता हो उस समाज में समाज के निकृष्टतम समझे जाने वाले तृतीय लिंगी के प्रति बरते जाने वाले रवैये की कल्पना की जा सकती है। बचपन से लेकर अन्त तक संझा के पिता और संझा के द्वारा खुद को समाज की दृष्टि से बचाए रखने की जद्दोजहद के अनन्तर उस कल्पना के यथार्थ को देखा जा सकता है।
हिजड़ों की एक जमात ऐसी भी होती हैै जो न तो जन्मजात होती है न ही बधियाकरण इत्यादि से बनाई जाती है। वर्तमान में कुछ लोग हिजड़ों का नकली वेश धारण करके उत्पात मचाते हैं, लेकिन कभी-कभी विपरीत जीवन की स्थितियाँ ही स्त्राी और पुरुषों को हिजड़ा बनने पर विवश कर देती हैं। हिजड़ा शीर्षक से एक कहानी कादंबरी मेहरा की भी मिलती है। कहानी की विषयवस्तु का आधार ऐसी स्त्राी का जीवन है जो कद्ाचित विवश होकर किन्नर जीवन को अपनाती है। उसकी विवशता जीवन जीने की जद्दोजेहद का परिणाम है। निश्चित ही स्त्राी जीवन को विवश बनाने में पुरुषों की बर्बर मानसिकता होती है। रागिनी राहुल की मौसी के स्कूल की साथी है। गायन-वादन में इतनी सिद्धहस्त है कि उसकी बदसूरती के बावजूद स्कूल का कोई भी कार्यक्रम पूरा नहीं होता है। उसकी एक आँख कानी है। रंग काला है। चेहरा चेचक के दागों से भरा है। उसकी माँ की चेचक की बामारी से मृत्य हो जाती है छोटा भाई भी उसी समय काल के गाल में समा जाता है। पिता दूसरा विवाह करके उसे उसके जीजा के हवाले कर देते हैं। जीजा उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी उसके शरीर और उसकी जी तोड़ परिश्रम की कीमत पर उठाते है। रागिनी का यह अतीत है। उसका वर्तमान है जो राहुल की मौसी वर्षों बाद राहुल के विवाह के अवसर पर देखती है। वह हिजड़ा है। यह भले ही रागिनी का व्यक्तिगत सच हो लेकिन भारतीय समाज की पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता कभी-कभी जिस पौरुष स्त्रिायों पर प्रयोग करता है वह वास्तव में वह हिजड़ों से भी गया बीता कृत्य होता है। कथाकार ने समग्रता में प्रस्तुत कहानी के माध्यम से समाज की उक्त भयावह पक्ष को रेखांकित करते हुए हिजड़ों की जीवनशैली और वर्तमान समाज के समानान्तर उसकी वाह्य प्रवृत्तियों का आत्मसात् करते हुए परिवर्तनों को स्वीकार करके स्वयं को तब्दील करने की उनकी अद्भुत क्षमताआंे का भी संकेत किया है।
डाॅ. पद्मा शर्माकृत ‘इज्जत के रहबर’ हिजड़ों की पृष्ठभूमि पर आधारित ऐसी कहानी है जिसके द्वारा न केवल हिजड़ों की त्रासद ज़िन्दगी पर प्रकाश डाला गया है अपितु उनके अन्तरंग जीवन के पहुलओं को उजागर करते हुए उनकी हिम्मत और दिलेरी की अभिव्यक्ति के माध्यम से बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के बाद समाज की प्रतिक्रिया और उसके भय को भी रेखांकित किया गया है। कस्बे के मुहल्ले में सोफिया के नेतृत्त्व में हिजड़ों का समूह रहता है। अपने समाज की परम्परा पर आधारित उनकी जीवन शैली है। अनाथ किशोर बल्लू उनके बीच पला-बढ़ा है। उसकी दृष्टि से उनके अन्तरंग जीवन के विविध पहलुओं को भी उद्घाटित करने का प्रयास है। उनकी नशे की लत, अश्लीलता भरी जीवन शैली, अतृप्त वासना के साथ उनके शरीर और नाम तथा सामूहिकता का चित्राण कहानी का महत्त्वपूर्ण पहलू तो है ही, कहानी का विशिष्ट पक्ष उनकी हिम्मत और सामाजिक संदर्भों में सकारात्मक भूमिका का उद्घाटन है। कथा का आरम्भ जिस श्रीलाल के भाई के विवाह के बाद सोफिया के नेतृत्त्व में नेग लेने आयी हिजड़ों की टोली से होता है उन्हीं श्रीलाल की बेटी का स्थानीय गुंडे के द्वारा बलात्कार हो जाता है। सोफिया और उसके साथियों को इस बात का पता चल जाता है। दरअसल उस घटना का अप्रत्यक्ष रूप से बल्लू गवाह है। इसीलिए सोफिया के नेतृत्व में हिजड़े श्रीलाल जी के पास आते हैं। गवाही के वादे के साथ उनसे पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाने के लिए कहते हैं। श्रीलाल इज्जत की दुहाई देकर चुप साध लेने में ही भलाई समझते हैं, लेकिन सोफिया के नेतृत्व में हिजड़ों का समूह गुंडे को नपुंसक बनाकर समाज के लिए रहबरी का उदाहरण पेश करता है।
अंजना वर्मा की कहानी ‘कौन तार से बीनी चदरिया’ मानवीय संबन्धों की संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति से संपृक्त है। कथावस्तु के केन्द्र में तृतीय लिंगी अर्थात् हिजड़ा है। उल्लेखनीय यह है कि हिजड़ों को लेकर सामाजिक दृष्टिकोण की जाँच-पड़ताल तो अहम् है ही। प्रस्तुत कहानी में हिजड़ों की दयनीय जीवनचर्या के साथ उनके अपने परिवार के संबन्धों और हिजड़ों के प्रति नकारात्मक सामाजिक रवैये के कारण परिवार की उनको लेकर विवशता का मार्मिक चित्राण है। भले ही समाज उनको हेय दृष्टि से देखता हो लेकिन उनका जन्म भी तो समाज की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई पति-पत्नी अर्थात् माता-पिता के द्वारा ही होता है। ममता का स्नेह और संतानों का उनके प्रति लगाव नैसर्गिक वृत्ति है। इसी नैसर्गिक वृत्ति पर सामाजिक जड़ता के कारण जब रोक लगा दी जाय तो पीड़ा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। सुन्दरी और कुसुम हिजड़ा है। वह अपने पारम्परिक पेशे से खाते-जीते हैं। समाज उनको हेय दृष्टि से देखता है। लेकिन उनका परिवार इसके बावजूद उनसे लगाव तो रखता है, परन्तु उसे भी दिखा नहीं सकता है। सुन्दरी संपन्न परिवार में जन्मी है। परिवार में सुख-वैभव के साथ भाई-बहन-माँ सब हैं। वह मिलने जाती है, लेकिन सामाजिक वर्जनाओं के कारण माँ और बहन से मिल भी नहींे सकती है। इससे केवल उसे ही तकलीफ नहीं होती है। जिस माँ ने उसे भी अपनी कोख में नौ महीने रखकर पैदा किया और जिस बहन के साथ उसका कोख का नाता है उससे मिलने के लिए उसको वियाबान का सहारा लेना पड़ता है। ऐसे में दोनों का कलेजा फटने लगता है। सामाजिक वर्जनाओं के कारण उपजी पीड़ा को महसूस करने के लिए उसके पारिवारिक मिलन के पश्चात् विदा के समय के चित्रा में देखिए, ”उसकी माँ भी उठी। स्नेह कातर होकर अपने कमजोर हाथों से सुंदरी का गाल छूती हुई ठुड्डी पकड़कर उसे कई पलों तक देखती रही। कुछ बोल न सकी। सुन्दरी ने माँ को पकड़ लिया और उसके गाल से अपना गाल सटा लिया। माँ के गाल की गोरी कोमल त्वचा बुढ़ा के और भी कोमल लग रही थी सटने पर। सीने पर चिपकी सूती साड़ी का मुलायम एहसास वह अपने कलेजे में संजोती रही। अलग हुई तो देख माँ रो रही थी।“
महेन्द्र भीष्म की कहानी ‘त्रासदी’ हिजड़ों की त्रासदी की कहानी है। कहानी का आरम्भ स्त्राी की त्रासदी से आरम्भ होता है। चाहे त्रासदी हिजड़े की हो या स्त्राी की भारतीय समाज की नियति हैै। कथाकार ने प्रस्तुत कहानी में दोनों ही वर्गों की नियति को बड़े सहज लेकिन यथार्थ के धरातल पर अभिव्यक्त किया है। बंशी और रूपवान रति का दाम्पत्य सुखमय है। तीन संताने हैं। दो जुड़वा पुत्रियाँ और एक पुत्रा। संयोग से बंशी की दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। पति के स्थान पर मिलने वाली नौकरी से तो उसकी आर्थिक समस्या का हल हो जाता है लेकिन उसका रूप उसका दुश्मन बन जाता है। कामुक व्यभिचारियों उसे वहशी निगाहों से देखने लगते। नैतिकता और आर्दश की माला जपने वाले भारतीय समाज में सुन्दर विधवा स्त्राी की यही नियति है जो कि रति की है। अति तब हो जाती है जब उसे दो युवक बलात्कार के लिए खींच कर खाली रेल के कोच में ले जाते हंै। सुन्दरी जो कि एक हिजड़ा है उसे बचाने आ जाती है। वह उसे बचा भी लेती है, लेकिन बलात्कारी चाकुओं से वार करके उसके चेहरे को बिगाड़ देते हैं। वह अब नाच-गा कर रोजी कमाने लायक नहीं रह जाती है। उसे लोग भीख देने लगते हैं। ऐसे में रति उसे मानसिक रूप से सहारा देती है। समाज केे साथ उसका पुत्रा भी उसे इस बात को लेकर प्रताड़ित करने लगता हे। यद्यपि वह स्वयं चरित्राहीन है। परिणामस्वरूप उसको एक ऐसी लड़की से विवाह करना पड़ता है जो साधारण रूप-गुण की है। असल में वह उससे अवैध संबन्ध स्थापित करता है। वह गर्भवती हो जाती है। समाज उसे विवाह के लिए विवश कर देता है। सवयं चरित्राहीन है, लेकिन उसे अपनी माँ चरित्राहीन लगती है। उसका आक्रोश बढ़ता ही जाता है। एक दिन उस सुन्दरी को जो उसके लिए रोजी-रोटी की व्यवस्था करने के लिए उसकी माँ से बात कर रहा है उसे मौत के घाट उतार देता है। उसके आक्रोश की अति का यह परिणाम सुन्दरी के हिजड़ा होने के कारण है। समाज की जो मानसिकता हिजड़ों को समाज की मुख्यधारा की बात तो दूर उसे हाशिए से बाहर रखना चाहता है उसे रति का युवा पुत्रा भला कैसे सहन कर सकता था? उसके आक्रोश के अनन्तर कहानी हिजड़ों की पीड़ा के उत्कर्ष से रू-ब-रू करवा देती है।
‘रतियावन चाची की चेली’ ललित शर्मा की आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई ऐसी कहानी है जो तृतीय लिंगी समाज पर आधारित कहानियों से भिन्न है। भिन्नता हिजड़ों द्वारा अपने जीवन को लेकर सहज स्वीकृत की अभिव्यक्ति के अनन्तर रेखांकित की जा सकती है। रतियावन की चेली पार्वती हिजड़ा योनि में जन्म लेती है। उसकी भी व्यथा उसी प्रकार की है जिस प्रकार की व्यथा से आमतौर पर हिजड़ों को गुजरना पड़ता है। पहले तो हिजड़ा समाज जैसे ही ज्ञात होता है कि अमुक परिवार में कोई ऐसी संतान जन्मी है जो न स्त्राी है न पुरुष तो वह उसे फौरन ही उस बच्चे को हथिया लेते हैं। पार्वती का जन्म एक संपन्न परिवार में होता है लेकिन पता चलते ही उसे अपना घर छोड़ना पड़ता है। उसके पश्चात् उसे भी यातना के दौर से गुजरना पड़ता है। यह यातना मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की है। भटकाव भी है, परन्तु पार्वती अपने व्यवहार से यह साबित कर देती है कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जीवन को सहजता से व्यतीत किया जा सकता है। दरअसल तिरस्कार और सम्मान का संबन्ध व्यवहार कुशलता, ईमानदारी और व्यक्तिगत संतोष से भी होता है। पार्वती की कथा इस तथ्य को बखूबी पुष्ट करती है। ”हिजड़ा होने पर समाज का तिरस्कार झेलना पड़ता है तो वही समाज सम्मान भी करता है।“ शर्त यह है कि स्वभाव व्यवहार सकारात्मक हो। कथाकार ने इस तथ्य को बड़ी ही सहजता के साथ व्यक्त किया है।
डाॅ. लवलेश दत्तकृत ‘नेग’ की विषयवस्तु का आधार भारतीय समाज में लड़कियों के प्रति उपेक्षा और तिरस्कार जैसे महत्त्वपूर्ण और बहुचर्चित समस्या है। हिजड़े की भूमिका विषय की अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने की भूमिका में है। सुधीर की पत्नी को तीसरी संतान के रूप में भी कन्या जन्म लेती है। यद्यपि इसमें न तो कन्या का ही कोई दोष है न ही उसकी माँ का, परन्तु उसकी माँ के साथ उसका भी व्यवहार पत्नी के प्रति न केवल आक्रोशपूर्ण है अपितु नवजात कन्या भी उनको बोझ सरीखी लगती है। इस प्रकार की स्थिति-परिस्थिति पर आधारित कहानियों की कमी नहीं परन्तु कहानी का महत्त्वपूर्ण इसलिए है कि समाज का तिरस्कृत वर्ग जिसे हिजड़ा अथव किन्नर के रूप में जाना जाता है, जिसके कृत्य-कुकृत्य के रूप में देखे जाते हैं, वही आकर अंधविश्वासी और सभ्य समाज की आँखें खोल देता है। परम्परा के अनुसार घर में संतानोत्पत्ति की सूचना सुनकर हिजड़े सुधीर के घर बधाई गाने और नेग लेने आ जाते हैं। कन्या के जन्म से कुंठित परिवार तथाकथित रूप से अभिशप्त मानी जानी वाली योनि से अत्यन्त बुरा व्यवहार करते हैं। घर में कन्या के जन्मने का आक्रोश हिजड़ों पर उतार देते हैं। उन्हें नेग देने की बात तो दूर गाली-गलौज करते हुए मार-पीट पर उतारू हो जाते हैं। इनके इस व्यवहार के बरअक्स हिजड़े जब स्थिति की वास्तविकता से अवगत होते हैं तो बच्ची को अपनी तरफ से नेग देकर परिवार की आँखें खोल देते हैं। असल में हिजड़े भले ही लिंग के स्तर पर अधूरे हों लेकिन करुणा, दया और प्रेम जैसे मानवीय भावों के धरातल पर पूर्णलिंगियों से किसी भी स्तर पर कमतर नहीं होते हैं। प्रस्तुत कथा इस संदेश को प्रभावशाली रूप से उद्घाटित करती है।
संजय गरिमा दूबे की कहानी ‘पन्ना बा’ संस्मरणात्मक कहानी है। कथाकार ने एक कन्या की किन्नरों के प्रति जिज्ञासा की अभिव्यक्ति के माध्यम से किन्नर योनि के प्रति समाज की जिज्ञासा को एक ही मुहल्ले में रहने वाले किन्नर पन्ना को लेकर गोटी के बचपन की यादों के माध्यम से समाज में किन्न्रों को लेकर विविध मान्यताओं और जिज्ञासाओं को उद्घाटित करते हुए किन्नर के प्रति समाज की नफरत भरी मानसिकता को उकेरते हुए उनके लिए सम्मान का आह्वान करती है।
दया, माया, ममता और मानवीय करुणा की उत्कृष्ट भावों की अभिव्यक्ति पर आधारित श्रीकृष्ण सैनी की कहानी ‘हिजड़ा’ मार्मिक कहानी है। कहानी में हिजड़ों के जीवन के विविध पक्षों में से उस पक्ष को ग्रहण किया गया जो उनकी सामाजिक संदर्भों में विडम्बना को रेखांकित करते हुए उनकी मानसिक पीड़ा को भी उद्घाटित करती है। राघव दम्पति की दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। उनके इकलौते पुत्रा को सभ्य समाज अनाथ आश्रम के हवाले करना चाहता है, लेकिन तथाकथित रूप से क्रूर और असभ्य माने-जाने वाली हिजड़ा समाज की प्रतिनिधि राघव की पत्नी से बहिनापा का संबन्ध मानने वाली रजिया अनाथ बच्चे के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उठाने के लिए सामने आती है। वह उसे हाॅस्टल में रखकर सहृदय प्राचार्य की सहासता से पढ़ा-लिखाकर अधिकारी तो बना ही देती है, रक्त देकर उसकी जान भी बचाती है। परन्तु विडम्बना यह है कि वह उसे बताने की बात तो दूर उससे अपनी पहचान भी उजागर नहीं कर सकती है। सहज ही उसकी पीड़ा का अनुमान किया जा सकता है।
संकल्प एक ऐसे किन्नर की कथा को केन्द्र में रखकर रची गयी है जो अविकसित जननांग के साथ पैदा तो होता है क्योंकि उसके आन्तरिक जननांग उसके शरीर में रहते हैं। उनको शल्यक्रिया के द्वारा स्त्राी अथवा पुरुष रूप में तब्दील किया जा सकता है। समस्या धन और जागरूकता की होती है। माधुरी यानी कि मधुर अविकसित जननांग के साथ पैदा होता है। समाज में उससे उसी प्रकार का व्यवहार किया जाता है, जैसे की लोगों की मान्यता है और होता भी है। निर्धनता तो सभी के लिए ही अभिशाप होती है, धनाभाव के कारण समाज के बहिष्कृत वर्ग की स्थिति और भी भयावह हो जाती है। हकीकत यह भी होती है कि तमाम तरह की विपरीत परिस्थितियों के बाद भी विजय उसी की होती है जो अन्तिम समय तक संघर्ष का दामन नहीं छोड़ता है। मधुर अर्थात् माधुरी माँ की असमय मृत्यु और पिता की मानसिक स्थिति बिगड़ने के बावजूद कम आयु की होते हुए भी न केवल अपनी छोटी बहन और पिता के पेट भरने की व्यवस्था करती है, अपनी बहन का विवाह भी करती है। मधुर का बलात्कार हो जाता है। वह टूटने-बिखरने के बजाय उठने की हिम्मत ही नहीं करती है, अपितु अपने कठिन परिश्रम के बल पर शल्यक्रिया के द्वारा शरीर को स्त्राी शरीर के रूप में परिवर्तित करवाकर जीवन का लक्ष्य भी हासिल कर लेती है। सामान्य लिंगियों केे लिए किन्नरांे का संसार पूर्वाग्रहों और मान्यताओं पर आधारित होता है। उनके शरीर को लेकर भाँति-भाँति की भ्रान्तियाँ होती हैं। कथाकार ने किन्नरों के शरीर विज्ञान की भी एक विशिष्ट वास्तविकता से परिचित कराया है। किन्नरों का एक वर्ग ऐसा होता है जो बुचरा कहा जाता है। बुचरा हिजड़े, जो औरत ज्यादा होते हैं। उनके योनि जैसी आकृति कम उन्नत होती है और उनके साथ औरत की तरह सेक्स किया जा सकता। माधुरी को जब यह पता चल जाता है तो उसके मन में बुचरा हिजड़ों के योनि होने की बात दिन-रात घूमने लगी और एक दिन वह डाॅक्टर के पास अकेली पहुंच गई। डाॅक्टर से स्पष्ट पूछा क्या मैं औरत बन सकती है। डाॅक्टर ने सोनोग्राफी की और पाया कि माधुरी के अंदर भ्रूण उपस्थित है। उसने कहा- ‘‘माधुरी तुम औरत बन सकती है।......पर इसका आॅपरेशन करना होगा और आॅपरेशन में बहुत खर्च आएगा।“ शल्य चिकित्सा के लिए हाड़-तोड़ श्रम करके वह धन एकत्रित करके सफल शल्य क्रिया के माध्यम से स्वस्थ और पूर्ण स्त्राी बनकर अभिशप्त जीवन से मुक्ति पा जाती है। किन्नरों के समाज में आन्तरिक बंधन बहुत कठोर होते हैं, लेकिन माधुरी का सौभाग्य यह है कि उसे गुरुमाई की कृपा से बंधन से छूट मिल जाती है। यह सौभाग्य कठोर बंधन वाले समाजों में दुर्लभ होता है। गौरतलब यह है कि दुर्लभ को सुलभ बनाना ही कहानी का लक्ष्य है। कथाकार काफी हद तक अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल दिखाई देता है। जहाँ तक उनके मानसिक स्थितियों का प्रश्न है तो ऐसा लगता है कि कहानीकार का लक्ष्य उनके शरीर विज्ञान की गुत्थियों को ही सुलझाने में निहित है इसलिए इस तरफ उसका ध्यान कम गया है।
चाँद दीपिका की कहानी ‘खुश रहो क्लीनिक’ की विषयवस्तु का आधार भी किन्नर जीवन की विडम्बनाएँ ही है। किन्नर के रूप में जन्मी संतान समक्ष जो स्थितियाँ दरपेश आती हैं वह सब कहानी में मौजूद है। ऋषि सुखी परिवार में जन्म लेता है, लेकिन सामाजिक मान-सम्मान और लोक-लाज के भय के कारण किन्नरों के समूह को सौंप दिया जाता है। उसे उसी प्रकार की नारकीय यातनाओं के बीच जीवन आरम्भ करना पड़ता है जैसा कि आमतौर पर इस प्रकार के बच्चों को सहना पड़ता है, परन्तु वह उन यातनाओं के बीच से निकलकर डाॅक्टरी की पढ़ाई करता है। दरअसल कथाकार ने इस तथ्य पर बल देता है कि किन्नरों के समाज की नारकीय स्थिति उनकी प्रवृत्ति नहीं, जीवन जीने की जद्दोजहद का परिणाम है। वस्तुतः यही कारण है जहाँ एक तरफ किन्न्र समूह के सदस्यों द्वारा उसका विरोध होता है तो दूसरी तरफ ममता और प्रेम तथा स्नेह के नैसर्गिक गुणों के कारण ही उसी समाज के सदस्य उसकी सहायता ही नहीं करते अपितु बाबा जैसे शराबी किन्नर को सुधर जाने की प्रेरणा का कार्य भी करते हैं। कहानी किन्नरों के लिए स्वस्थ मार्ग का संकेत भी करती है। ऋषि डाॅक्टर बनने के बाद मलीन बस्ती में जाकर अपनी क्लीनिक खोलकर सेवा स्वास्थ्य और स्वच्छता की अलख जगाता है।
पूनम पाठक की लघु कहानी ‘किन्नर’ और पारस दासोत की कहानी ‘गलती जो माफ नहीं’ व्यंग्यात्मक तेवर की ऐसी कहानियाँ हैं जो सभ्य समाज किन्नरों के प्रति रवैये पर प्रहार करती हैं। उपर्युक्त तथ्यों के प्रकाश में कहा जा सकता है। किन्नर होना शरीर विज्ञान की एक विकृति है। उसमें यदि कोई इस विकृति के साथ जन्म ले ले तो उनका कोई दोष नहीं, लेकिन समाज उन्हें जीवित होने के बावजूद मुर्दों के रूप में तब्दील होने पर विवश कर देता है। यही उनकी नियति है। दरअसल लैंगिक विकृति से पीड़ित यह लोग हमारे बीच में रहते हुए बहुत रहस्यमय होते हैं उनको ले करके बहुत सारे मिथक होते है। कथाकार ने मिथकांे को तोड़ते हुए रहस्य को भी उद्घाटित किया है। गौरतलब यह भी यह है कि अधिकांश कहानियों में रचनाकारों ने उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाते हुए उनके भीतर की मानवीय करुणा, दया, प्रेम जैसी सकारात्मक प्रवृत्तियों को भी उद्घाटित किया है।
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