आप अपनी रचनाओं की पृष्ठभूमि के संदर्भ में थोड़ा-सा बताइए।
आपको पता भी है कि अब तक मेरे तीन कहानी-संग्रह, एक उपन्यास और तीन आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित हैं। शोध आलेख, आलेख समीक्षाएं और मेरे ब्लाग जो अब साइट में तब्दील हो चुका है उसपर भी थोड़ी सामग्री है। एक उपन्यास पर काम चल रहा हैं हालांकि जो गति होनी चाहिए थी वह है नहीं। जहाँ तक पृष्ठभूमि का सवाल है तो मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से आया हूँ, हालांकि शहर में रहते हुए बहुत दिन हो गए लेकिन संस्कार ग्रामीण ही हैं। स्वाभाविक भी है क्योंकि संस्कार के निर्मिति की आयु अट्ठारह से बीस वर्ष तक की ही होती है। वह समय मेरा मुख्य रूप से गाँव में ही बीता इसलिए मेरी रचनाओं में ग्रामीण जीवन और समाज की अभिव्यक्ति ही हुई है। सच्ची बात तो यह है की इतना लंबा अरसा शहर में व्यतीत करने के बावजूद अभी तक मुझे शहरी जीवन की बहुत गहरी समझ भी नहीं है। हालांकि एक लेखक की हैसियत से यह ठीक बात नहीं लेकिन जो है सो है। यद्यपि कोई मेरा विशेष आग्रह या ध्येय नहीं रहा है लेकिन मेरी अधिकांश रचनाओं में प्रायः मुस्लिम जीवन और समाज की ही पृष्ठभूमि है शायद इसलिए है कि मैं मुस्लिम समाज से संबंध रखता हूँ तो निश्चित ही उसकी प्रवृत्तियों से परिचित होना अधिक स्वाभाविक है। हालांकि मुझे साहित्य को इस प्रकार के यानी धर्म जाति अथवा वर्ग की खाने में विभाजित करके देखना या समझना ठीक नहीं लगता है लेकिन वर्तमान में यही हो रहा है इसी की प्रतिष्ठा है।
आपकी अधिकांश रचनाओं के केंद्र में स्त्रा है। ऐसा क्यों?
बिल्कुल आप सही कह रहे हैं। लिखते समय मेरा यह प्रयास नहीं होता है, लेकिन जब मैं बाद में जब अपने लेखन पर गौर करता हूँ तो आपकी बात बिल्कुल सही लगती है। ऐसा क्यों है ईमानदारी से कहूँ तो कोई कारण मुझे दिखाई नहीं देता। हाँ! अगर तलाश किया जाए तो कहाँ जा सकता है कि वास्तव में संसार की सृष्टि के केंद्र में नारी ही है और उसका क्षेत्रा इतना व्यापक है कि उसकी जद से कुछ भी बाहर नहीं। भले ही पुरुष वर्ग ही केंद्र में दिखता है। उसका वर्चस्व है लेकिन सृजन की शक्ति के केंद्र में स्त्रा ही है। स्त्रा के रूप में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माँ होती है। मैं आपको बड़ी दिलचस्प बात बताऊँ के माँ से मेरा बहुत अधिक संबंध नहीं रहा है। मैं आपको बता चुका हूँ कि छुटपन में ही मैं अपने ननिहाल में चला गया शायद माँ की ममता की अतृप्ति की पूर्ति हेतु मेरी रचनाओं में स्त्रा केंद्रित विषयों को महत्त्व प्राप्त हो जाता हो। निश्चित ही यह चुनाव सप्रयास नहीं होता है। वर्तमान में लेखन का जो काम चल रहा है उस विषय के केंद्र में ही औरत की ही शक्ति ही है।
औरत जब इतनी शक्तिशाली है तो फिर यह पहचान का संकट क्यों?
यह बड़ा ही जटिल प्रश्न है। प्रतिभा मेधा और क्षमता इत्यादि से पहचान का सीधा संबंध होता है हमें ऐसा शायद लगता है। बहुत से साधारण क्षमता वाले लोगों की पहचान बड़ी व्यापक होती है, जबकि इसके विपरीत तमाम लोग ऐसे भी होते हैं जो तमाम प्रतिभा से लैस होते हुए भी हाशिए पर भी बमुश्किल अपनी उपस्थिति दर्ज करवा पाते हैं। नारी के शक्तिशाली होते हुए भी उसकी पहचान का संकट है। दरअसल हमारे समाज की संरचना ही कुछ ऐसी है कि अपनी तमाम शक्तियों के बावजूद स्त्रियों को दोयम दर्जे की जिं़दगी गुजारनी पड़ती है। दरअसल इस विडंबना के पीछे भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही पुरुषों के वर्चस्व की पृष्ठभूमि काम करती रही। मुझे लगता है कि प्राचीन काल से ही भारत विचार और दर्शन की दृष्टि से उर्वर भूमि रही है। विडंबना यह है कि स्त्रियों की शक्ति की चर्चा विविध स्तरों पर होती तो रही, कहना अनुचित न होगा कि व्यवहार में उनके साथ पुरुषों की वर्चस्ववादी मानसिकता का प्रभाव ही सदैव से विद्यमान रहा। जहाँ दूसरी कई क्षेत्रों में संसार की उन्नत से उन्नत सभ्याताओं से बराबरी करते दिखते हैं इस दृष्टि से पिछड़े ही रहे, लेकिन बहुत दिनों तक ऐसा चलने वाला नहीं और अगर चलता रहा तो हम बिछड़ते ही जाएंगे आप मेरी कहे को समझिए। बड़ी-बड़ी बातें करना, आदर्श और नैतिकता की दुहाई देना और बात है और उस पर अमल करना और बात है। मुझे तो लगता है की तमाम संसाधनों और प्रतिभाओं के बावजूद हमारी इसी द्वंद्वात्मक प्रवृत्ति के कारण हमें प्रगति और विकास के क्षेत्रा में वह उपलब्धि कदाचित हासिल नहीं हो पाई है जो हो जानी चाहिए थी। मैं अतीत की कहानियों के बजाय वर्तमान की स्थितियों-परिस्थितियों और वास्तविकता को मद्देनज़र रखते हुए करने में अधिक विश्वास रखता हूँ इसीलिए मुझे लगता है कि हमें शक्ति को पहचान प्रदान करनी ही होगी।
पहचान का संकट क्या केवल ग्रामीण परिवेश में ही है अथवा नगरों में भी?
पहचान का संकट गाँव और शहर में विभाजित नहीं हुआ। दोनों ही स्थानों पर स्थितियाँ एक जैसी हैं। बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि बजाहिर भले ही शहरी जीवन में वह अधिक स्वतंत्रा दिखाई देती हैं, लेकिन गहराई से अगर आप देखें तो ग्रामीण जीवन की अपेक्षा शहरी जीवन में स्त्रियों की स्थिति अधिक बदतर है। मैं एक दिलचस्प बात की तरफ आपका ध्यान आकृष्ट करवाना चाहूँगा। गाँव में विवाह के बाद जैसे-जैसे समय व्यतीत होता जाता है स्त्रियाँ प्रभावशाली होती जाती है जबकि नगरीय सभ्यता में उनकी स्थिति कमजोर होने लगती है। हमारे यहाँ ग्रामीण जीवन में शादी के बाद धीरे-धीरे अक्सर-व-बेस्तर स्त्रियाँ अपने रख-रखाव के प्रति उदासीन होने लगती हैं। एक कहावत हमारे यहाँ प्रचलित है भयल ब्याह मोर करबे का! इसका मतलब है की शादी होने के बाद जब-बाल बच्चे हो गए तो धीरे-धीरे वह इसलिए संभवतः अपना ख़्याल करना छोड़ देती है कि अब किसी की क्या मजाल उसका कोई कुछ कर ले। लेकिन इसके विपरीत शहरों में ढलती उम्र हो में स्त्रियों को एक अजीब-सा डर सताने लगता है। परिणाम स्वरूप वह अपने रूप और सौंदर्य के प्रति अधिक सचेत हो जाती हैं। मेरी इस बात से भले ही आप सहमत ना हो और असहमति के संदर्भ में आपके पास बहुत सारे तर्क भी हां सकते हैं लेकिन यह वास्तविकता है। कुछ एक ऐसे क्षेत्रा हैं जहाँ पर उनकी आजादी को सीधे-सीधे देखा और समझा जा सकता है। इसी के बरक्स शहरी समाज में दिखने वाली आज़ादी के पीछे की जकड़न उस समाज में थोड़ा गहराई में जाने पर दिखाई देने लगती है। तो कुल मिला करके दोनों ही परिवेश में स्त्रियाँ दोयम दर्जे की ज़िंदगी व्यतीत करने के लिए ही मानो पैदा होती हैं।
बहुसंख्यक वर्ग और अल्पसंख्यक वर्ग के सामाजिक संदर्भ में स्त्रियों के अस्तित्व या कहे पहचान की संकट की स्थिति पर आपके विचार क्या हैं?
दोनों ही समाजों में स्थितियाँ लगभग एक-सी हैं। असल में दोनों ही समाज की संरचना में कोई विशिष्ट अंतर नहीं है। मुझे तो लगता है जिस अंतर को ले करके मीडिया इत्यादि में बड़ी चर्चा की जा रही है और एक वर्ग के लिए अतिरिक्त रूप से संवेदना प्रकट की जा रही है वह मात्रा दिखावा है और अंतर जो है वह कृत्रिम है। दोनों ही समाज की मूलभूत आवश्यकताओं में जब कोई अंतर नहीं है तो उनको प्राप्त करने के साधनों में भला अंतर कैसे हो सकता है। बेरोजगारी, गरीबी, बीमारी, शोषण, अत्याचार, भ्रष्टाचार इत्यादि की मार दोनों ही समाजों पर एक ही जैसी पड़ती है। दोनों ही समाज के आचार-विचार रहन-सहन खानपान मौलिक रूप से एक हैं। वर्तमान में भले ही उन्हें अलग बताने का कृत्रिम प्रयास किया जाए लेकिन वह अलग नहीं। अध्ययनों से यह सत्य सिद्ध है कि बंगाल का मुसलमान उत्तर प्रदेश की मुसलमानों की अपेक्षा जीवनशैली के धरातल पर बंगाल के हिंदुओं के अधिक निकट है। प्रभाव धार्मिक कर्मकांडों तक पर भी महसूस किया जा सकता हैं। बंगाल में मोहर्रम के जुलूस पर दुर्गा पूजा के प्रभाव को आप आसानी से देख सकते हैं। यही स्थिति लगभग देश के अधिकांश हिस्से में दिखाई देती है और यह सिद्ध करती है कि दोनों समाजों में मौलिक अंतर नहीं है तो भला स्त्रियों की स्थिति में अंतर कैसे हो सकता है? मुस्लिम समाज के स्त्रियों की स्थिति बदतर या आप कहें कि अपेक्षाकृत भयावह उसी प्रकार से है जिस प्रकार से आप यह भी कह सकते हैं कि सवर्ण समाज की अपेक्षा दलित दमित समाज की स्त्रियों की स्थिति बदतर और भयावह है। मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन के पीछे उसका शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़ापन है। प्राचीनकाल से ही पीड़ित और दमित दलित वर्ग से भी बदतर स्थिति वर्तमान में मुस्लिम समाज की है तो स्वाभाविक है। इस समाज की स्त्रियाँ अधिक दबी-कुचली जाती प्रतीत होती हैं।
पहचान के संदर्भ में शिक्षा की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
शिक्षा की भूमिका तो जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करती है। यह सर्वविदित तथ्य है कि विविध कारणों से दिन पर दिन मुस्लिम समाज की स्थिति दयनीय होती जा रही है वह पिछड़ता जा रहा है। उसकी इस स्थिति के पीछे अशिक्षा एक महती कारण है। वस्तुतः अशिक्षा आपको हर क्षेत्रा में पीछे कर देती है। मुस्लिम समाज में पुरुषों की शैक्षणिक स्थिति अकथ है तो स्त्रियों की स्थिति की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि वास्तव में क्या हो सकती है या होगी! मुझे लगता है कि मुस्लिम समाज की संभवतः वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या उसका शैक्षणिक पिछड़ापन है। स्त्रियों की शिक्षा का प्रभाव समाज पर भी विविध रूपों से पढ़ करके उसे जड़ता की स्थितियों से उबरने नहीं दे रहा है। कभी-कभी तो लगता है कि बजाय आगे बढ़ने के यह समाज पीछे की ओर जा रहा हैं फ़ीरोज़ जी! मेरे उपन्यास की मूल समस्या मुस्लिम समाज में शिक्षा की बदहाली ही है। शिक्षा की स्थिति में सुधार ही वह मार्ग है जोकि स्त्रियों को खासतौर से मुस्लिम समाज की स्त्रियों को और सर्व समाज की स्थितियों को पहचान के संकट से मुक्ति दिला सकता है। मुक्ति के लिए संघर्ष की जरूरत हैं। मैं स्त्रावादी लेखकों से विनम्र निवेदन करना चाहूँगा कि वृहत्तर भारतीय समाज में स्त्रा मुक्ति के संदर्भ में सबसे महती भूमिका शिक्षा की होगी। स्त्रावादी रचनाकार जिन मुद्दों को उठाकर स्त्रा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने में लगे हुए हैं वास्तव में वह मुद्दे हैं ही नहीं। असल में डॉक्टर साहब ना जाने क्यों बुद्धिजीवी वर्ग या आप कहें कलाकार समाज के एक बहुत ही सीमित वर्ग को आधार बनाकर के ही समाज की कल्पना करता है और अक्सर समाज का बड़ा तबका उसके चिंतन और उसके विचार यहाँ तक कि विषय चयन की दृष्टि से भी उनके दायरे में आता ही नहीं। उत्साह के अतिरेक और फटाफट छा जाने की मंशा से यह लोग ऐसे -ऐसे मुद्दों को ला करके हंगामा मचा देना चाहते हैं जो वायवीय और कृत्रिम ही होते हैं या फिर उनका सरोकार समाज के सीमित तबके से होता होता है। मैं नहीं कहता कि उसे उठाना नहीं चाहिए। निश्चित ही वह भी समाज का हिस्सा होते हैं, लेकिन भारतीय नारी समाज की प्रमुख समस्या के रूप में तो अगर देखे जाते हैं तो संदेहास्पद ही होते हैं। विमर्शों की आपाधापी में बुजुर्ग विमर्श भी दस्तक देने लगा है। निश्चित रूप से हमारे देश में बुजुर्गों की समस्याएं हैं, लेकिन वह उस रूप में नहीं है जिस रूप में पश्चिमी देशों में होती हैं। हमारे देश में उनकी समस्याओं के मूल में प्रायः आर्थिक कारण ही होते हैं जबकि पश्चिमी देशों में आर्थिक समस्या उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं। कम-से-कम बुजुर्गों के जीवन में। मैं कभी-कभी अपनी कक्षा में अपने छात्रों से यह सवाल करता हूँ कि बताओ कि किसके-किसके घर में बुजुर्ग है। डॉक्टर साहब मैं देश के एक प्रतिष्ठित केंद्रीय विद्यालय में अध्यापक हूँ। वहाँ पर आने वाले अधिकांश छात्रा मध्यवर्ग अथवा निम्न मध्यवर्ग की तो होते ही हैं। सभी छात्रा हाथ उठा देते हैं। लगभग सभी के घरों में नानी, दादी, दादा, नाना, ताऊ इत्यादि के रूप में बुजुर्ग होते हैं। जब सवाल करता हूँ कहाँ रहते हैं जवाब यही मिलता है कि घर में ही रहते हैं। लोग कहते हैं कि वर्तमान में विश्वविद्यालयी प्राध्यापक उच्च मध्यवर्ग से संबंध रखते हैं। मेरे आस-पास जितने भी मेरे वर्ग के मेरे जानकार हैं किसी भी एक व्यक्ति के परिवार का कोई भी बुजुर्ग सदस्य वृद्धाश्रम इत्यादि में नहीं रहता है। दिल्ली या दूसरे महानगरों में जो कहानियां हैं मैं दावे तो नहीं लेकिन विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि आनुपातिक रूप से बहुत कम लोगों की कहानियाँ हैं। मेरा मानना है कि ऐसे संदर्भों को भी विषय के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए, अभी भी हम लोगों को समाज के उन मूलभूत प्रश्नों से ही लड़ना है जो सदियों से खड़े हैं। एक दूसरा नया मुद्दा जो विकराल रूप ग्रहण कर रहा है वह सामाजिक समरसता पर विशिष्ट कारणों से हो रहा कुठाराघात! लेकिन ना जाने क्यों लोग उससे आँखें मूंदे हुए हैं।
आपने ‘अपनी बात’ में लिखा है कि मुस्लिम समाज मुसलमान होने से पहले भारतीय है आपका आशय क्या है?
प्रश्न बड़ा गंभीर है और जटिल भी। लेकिन मेरा जो यह लिखने का आशय है वह बड़ा ही स्पष्ट है। मैं अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए तो आपका ध्यान हिंदी साहित्य परिदृश्य की तरफ आकृष्ट करवाना चाहूँगा। यह मेरी ही नहीं बल्कि हिंदी के नामवर लोगों की गंभीर चिंता है कि मुस्लिम जीवन और समाज हिंदी साहित्य के परिदृश्य मे उपस्थिति के धरातल पर लगभग हाशिए से बाहर ही है। यद्यपि प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज में सामासिक संस्कृति की प्रवृत्ति बड़ी ताकत के साथ सक्रिय रही है। अल्पसंख्यक वर्ग का तमाम पिछड़ेपन के बावजूद कहीं-न-कहीं हर क्षेत्रा में योगदान है। कम से कम हिंदी बेल्ट में तो कहा ही जा सकता है कि हर क्षेत्रा में बहुसंख्यक वर्ग के समानांतर ही अल्पसंख्यक वर्ग की उपस्थिति समाज में है और वह हर स्तर पर देखी जा सकती है। गाँव से लेकर शहर तक में, खेत-खलिहानों से लेकर कल कारखानों तक में, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्रा से ले करके युद्ध के मैदानों तक नए हिंदुस्तान में बँटवारे के बाद उनकी बड़ी आबादी के नये मुल्क में पलायन कर जाने के बावजूद लिखी जाने वाली सफलता की इबारतों में वह भी अपने नाम को दर्ज कराने की काबिलियत के साथ मौजूद है। अल्पसंख्यक समाज बहुसंख्यक समाज की ही तरह हर क्षेत्रा में उसी रूप में सक्रिय दिखता है जिस रूप में बहुसंख्यक वर्ग सक्रिय है। वह किसान है, कारीगर है, अधिकारी बनना चाहता है, सरकारी कर्मचारी बनना चाहता है, खिलाड़ी के रूप में देश की सेवा करना चाहता है, नेतृत्व के लिए आगे आना चाहता है भले ही दाल में नमक के बराबर हो, उसकी सक्रियता के प्रामाणित करने की आवश्यक्ता नहीं! लेकिन विडंबना यह है कि जब भी उसकी बात की जाती है उसके प्रति जाने-अनजाने संवेदनशील होकर जब उसके हितों की चर्चा की जाती है तो तमाम चीजों को दरकिनार करके केवल उसकी साम्प्रदायिक समस्याओं या उससे जुड़े साम्प्रदायिक संदर्भों को ही देखने समझने और उनको प्रस्तुत करने तक ही ना जाने क्यों हम अपने को सीमित कर लेते हैं। अलगावजन्य पीड़ा मुस्लिम समुदाय की समस्या है, लेकिन वही एकमात्रा समस्या नहीं। विद्वेष चाहे वह अल्पसंख्यक वर्ग हो बहुसंख्यक समाज उसकी प्रवृत्ति नहीं, समरसता ही स्वाभाविक वृत्ति है। कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों को आधार बनाकर के या फिर कुछ विशिष्ट हितों को ध्यान में रखते हुए उनके साथ सहज व्यवहार नहीं करते हैं। समय-पर अकारण ही उन्हें कभी-कभी अस्वाभाविक स्थितियों का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी परिणाम भयावह भी होते हैं, लेकिन उनका दर्द केवल यही नहीं। उनके अभाव, उनकी गरीबी, सामाजिक रूढ़ियाँ, अशिक्षा इत्यादि के बीच बनते बिगड़ते उनके सपने हैं। डॉक्टर बनने के, इंजीनियर बनने के, अधिकारी बनने के, नेता बनने के, सुचारू और खुशहाल जिंदगी जीने के, लेकिन कहीं भी इसकी चर्चा ही नहीं होती है। इस पर कोई गौर ही नहीं किया जाता है। तो मेरा भारतीय कहने का आशय है कि जो मुख्यधारा का समाज है मुस्लिम समाज भी उसी का एक प्रमुख अंग है वह कहीं अलग से नहीं आया है बस इतना ही! इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। उसे भी भारतीय होने पर उतना ही गर्व है जितना कि दूसरे वर्ग और समाज के लोगों को। उसकी भी आकांक्षा इच्छा अंततः देश की आकांक्षाओं और इच्छाओं से अलग नहीं। इसलिए उन्हें भी मुख्यधारा की सहज कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए।
मुस्लिम समाज के लोगों से देशभक्ति का प्रमाण क्यों माँगा जाता है?
मेरी आयु इतनी हो गई है लेकिन किसी ने आज तक देशभक्ति का प्रमाण नहीं मांगा। यह सब बातें वास्तविकता कम ख़्याली पुलाव अधिक हैं। मैंने आपसे कहा ना मुस्लिम समाज को ले करके वास्तव में रचनाकारों की जो चिंता होनी चाहिए या किसी भी बुद्धिजीवी वर्ग की जो चिंता होनी चाहिए वास्वत में वह है नहीं। यह सब सवाल और उनके संदर्भ में की जाने वाली बातें प्रायः हकीकत से अलग पूर्वाग्रहों, अवधारणाआें, मान्यताओं इत्यादि पर ही अधिक निर्भर करती हैं। रचनाकार या तथाकथित सामाजिक चिंतक अल्पसंख्यक समाज के हितैषी के रूप में अपनी पहचान को निर्मित करने वाले कतिपय बुद्धिजीवियों की यह मानसिक जुगाली है। इससे कोई ज्यादा फर्क भी नहीं पड़ता है। समसामयिक संदर्भ में देश का मीडिया जरूर ऐसा वातावरण निर्मित करने में लगा हुआ है कि हो सकता है यह प्रश्न हवाई है हकीकत में तब्दील हो जाए। यद्यपि हमारे देश का आवाम बहुत ही विवेकवान है इसलिए बहुत अधिक घबराने की जरूरत नहीं है। जिस प्रकार का वातावरण निर्मित किया जा रहा है वह बहुत दिनों तक या आप कहें कि हमारे देश का स्थाई चरित्रा बन ही नहीं सकता है। समय-समय पर हमारे देशवासियों ने इस प्रकार के झंझावातों का सामना किया और उससे उबर भी गए। इसलिए यह प्रश्न बहुत प्रासंगिक नहीं।
‘आधी दुनिया’ के संदर्भ में कुछ कहना चाहेंगे?
उपन्यास लोगों के हाथ में है ही, खासतौर से आपने इसको परखने की कोशिश की तो परिणाम भी आपके सामने होगा ही मैं क्या कहूँ!
क्या आपको नहीं लगता है कि आपके उपन्यास की अपेक्षित चर्चा नहीं हुई?
देखिए फ़ीरोज़ साहब आप इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकते है कि चर्चा होती नहीं है बल्कि करवाई जाती है। मैं समझता यह हूँ कि जरूरी भी है। हिंदी साहित्य की पठनीयता को ले करके संकट की स्थिति है इसका कारण भी यही है कि किसी भी रचना और पाठक की बीच व्यवस्थित रूप से संबंध स्थापित करने का प्रयास नहीं किया जाता हैं। स्पष्ट शब्दों में कहें की रचनाओं की मार्केटिंग नहीं की जाती है। बाज़ारवाद के इस दौर में यह जरूरी है। रचनाकारों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए और सक्रिय होना चाहिए। हिंदी में पाठकों की कमी नहीं बस आवश्यकता इस बात की है कि उनको पढ़ने के लिए आमादा किया जाएं इसके लिए प्रयास किए जाएं। मैं बजातेखुद इस मामले में ज़ीरो हूँ। ठीक बात नहीं है। गलत बात है। मैं यह नहीं समझता कि मैंने कोई युगपरिवर्तनकारी कार्य कर दिया है, लेकिन यकीनन मैंने उपन्यास लिखा है और ऐसे मुद्दे उठाए हैं और उन मुद्दों को सकारात्मक दृष्टि से देखने की कोशिश भी की है जो जरूरी है लेकिन संभवतः मेरी काहिली के कारण उपन्यास को जितने लोगों तक पहुँचना चाहिए था वह पहुँच नहीं सका। मैं आपका शुक्रगुजार हूँ आपने इस काम को करने की शुरुआत की है। हो सकता है कि प्रतिक्रिया ठीक मिले फिर मैं भी मैदान में आ जाऊँ।
उपन्यास के शीर्षक के औचित्य पर प्रकाश डालिए।
फ़ीरोज़ साहब शीर्षक मेरी बड़ी समस्या है। कहानियों के शीर्षक भी मैं थोड़ा मुश्किल से दे पाता हूँ। आधी दुनिया शायद मैंने इसलिए इस उपन्यास का नाम रखा है क्योंकि हिंदी का एक प्रसिद्ध उपन्यास आधा गाँव नाम से है। आप और बेश्तर पाठक भी यही सोचेंगे, लेकिन वास्तव में आप विश्वास करिए ऐसा है नहीं। क्योंकि कथा के केंद्र में मुख्य रूप से स्त्रा है इसलिए शायद मैंने सहज रूप में आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली स्त्रा को ध्यान में रख करके इसका नाम आधी दुनिया रख दिया है, लेकिन बहुत स्पष्ट रूप से मैं कह नहीं सकता कि यह नाम वास्तव में सार्थक है या नहीं यह तो पाठक या आलोचक ही समझ सकता है।
क्या आप नारी को आधी दुनिया मानते हैं?
जी नहीं नारी के साथ आधा, तीहा, चौथाई या पूरा विशेषण लगाना बिल्कुल ठीक नहीं। नारी की महत्ता के संदर्भ में अभिव्यक्त करने के लिए आधा, तीहा, चौथाई या पूरा के स्थान पर चौगुना शब्द का भी अगर विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाए तो मुझे लगता है कि वह कम पड़ेगा। नारी अक्षय ऊर्जा का खजाना है। नारी सृष्टि के सृजन का आधार है। नारी की तुलना अगर ब्रह्मांड से भी की जाए तो कदाचित वह भी पूर्ण रूप से उसके महात्म्य को अभिव्यक्त करने में सक्षम ना हो ऐसे में नारी को आधी दुनिया मानने का तो सवाल ही नहीं उठता है।
आप अपने लेखन की कुछ भावी योजनाओं के संदर्भ में बताइए।
फ़ीरोज़ साहब मेरे लिए अफसोस की बात है कि मेरा लेखन बहुत योजनाबद्ध तरीके से नहीं हो रहा है जबकि होना चाहिए। बिना योजनाबद्ध हुए आप अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते हैं। असल में आप विश्वास करिए कि मैं खुद को रचनाकार की हैसियत से न देख पाता हूँ न ही खुद को रचनाकार के रूप में मैं समझता ही हूँ। यह तो बस यूँ ही ना जाने क्यों कैसे लिख रहा हूँ! मैंने आपको पहले ही बताया एक उपन्यास पर काम चल रहा है उसके पीछे शायद मेरा लक्ष्य अवधी के भाषिक स्वरूप को संरक्षित करना अधिक है। मुझे घूमने का थोड़ा बहुत शौक है। यूँ ही मन में आया क्यों ना उस यात्राओं पर भी लिखा जाए। लिख रहा हूँ। देखिए यह काम कितना हो पाता है और आपके अंतिम सवाल से पहले ही में आपके अगले संभावित प्रश्न का जवाब देना चाहता हूँ। जवाब यह है मैं कोई ऐसा साहित्यकार नहीं कि लोगों को किसी प्रकार का संदेश या शिक्षा दूँ। इस पूरे आयोजन के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।
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