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प्रवासी कथाकार कादम्बरी मेहरा से डाॅ. एम. फ़ीरोज़ खान की बातचीत

प्रवासी कथाकार कादम्बरी मेहरा से डाॅ. एम. फ़ीरोज़ खान की बातचीत
आप अपने जन्मस्थान, शिक्षा, घर परिवार और साहित्यिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइये। 
मेरा जन्म पुरानी दिल्ली में नाना के घर हुआ। जामा मस्जिद का इलाका था। उसी गली में इंद्रप्रस्थ स्कूल था जहाँ माँ और उनकी बहने पढ़ने जाती थीं। नाना जी सरकारी वकील थे और उनके पिताजी दिल्ली के सिविल सर्जन। 
मेरी माँ का बचपन भारत छोड़ो आंदोलन से प्रभावित था। घर में बड़ी-बड़ी हस्तियों का आना-जाना था। सर आसिफ अली जी नाना के परम मित्रा थे। आज़ादी का जुनून सर चढ़ के बोलता था। नानाजी श्री जवाहर लाल नेहरू के संग पढ़े थे लाहौर में। हमउम्र थे और दोस्ती नेहरू जी के नेता बन जाने तक खूब चली। माँ अरुणा आसिफ अली जी के दल में स्वतंत्राता के जुलूस निकालती थीं। 
मेरे पिता जी लखनऊ के खानदानी रईस घराने से थे। अंग्रेजों से अच्छे सम्बन्ध थे। शिक्षा का बहुत महत्त्व था। दृष्टिकोण नया था अतः उच्च शिक्षा ली और इंजीनियरिंग की। उनके छोटे भाई डाॅक्टर बने लखनऊ मेडिकल काॅलेज में। लड़कियों को भी पढ़ाई करवाई। हम पाँच बहनें एम.ए. तक पढ़े, पाँचवीं डाॅक्टर बनी। हमारा एकमात्रा भाई आर्किटेक्ट था। यह रीत आगे की पौध में भी चली है। हमारे पंद्रह बच्चों में छह भारत से बाहर डाॅक्टर हैं। बाकी ऊँची नौकरियों में भारत, अमेरिका या इंग्लैंड में हैं। अब हमारे पोते पोतियाँ भी अव्वल पायदान पर हैं। 
अब मेरी बात। मैं वाराणसी और लखनऊ में रहकर पढ़ी। आई.टी. काॅलेज से स्नातक किया। फिर बरेली काॅलेज से अंग्रेज़ी में एम. ए. किया। शादी के बाद यहाँ आना हुआ। यहाँ मैंने शिक्षा की ट्रेनिंग की लंदन यूनिवर्सिटी से। कुछ वर्ष बाद गणित में स्नातक भी किया। 
 िहंदी मेरी मूल भाषा रही। वाराणसी र्के िहंदी परिवेश में पली। अतः वही मानसिक धरातल बना। अंग्रेज़ी में बहुत पढ़ा मगर अनुभूति का माध्यम हिंदी ही रही। बनारस में मेरी दादी जी का मायका था। दादी जी के पिता राजा कहलाते थे। स्वयं विद्या, संगीत व कला के पुजारी थे। उनके हाथों से बना भारत माता का मंदिर आज वल्र्ड हेरिटेज ने सुरक्षित कर लिया है। बनारस में मिसेज़ ऐनी बेसेंट और मदन मोहन मालवीय जी ने स्त्राी शिक्षा का बीड़ा उठाया और हिन्दू स्कूल की शुरुआत की। इसमें दादी जी के पिता श्री दुर्गा दास खत्राी ने ज़मीन और धन दिया। 
मिसेज़ ऐनी बेसेंट ने थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की और उसमंे एक स्कूल बनाया जिसमंे सब धर्मों का समान आदर होता था। हम यहीं पढ़े थे। ज़माना आरएसएस का था जो केवल राष्ट्रवाद की बात करती थी। हम प्रभात फेरियाँ लगाते थे और नवजागरण के गीत गाते थे। यह स्वतंत्राता का उत्सव था। इसमें हमारे नौकर और माली भी आते थे। गरज़ यह कि हमारे बचपन में राजनीति नहीं थी। छुआछूत थी तो वह गन्दगी से परहेज़ था। हमारी भार्षा िहंदी थी। 
वह निर्मल बचपन अब नहीं दीखता कहीं। न भारत में न यहाँ। चार वर्ष की उम्र में मेले में खो गयी तो कोई उठाकर मेरे इशारे पर पूछताछ करता घर ले आया। हजारों की भीड़ में किडनैप नहीं हो गयी हालाँकि यह बहुत आसान था। अब भारत उमड़ रहा है। जन मानस की समाई नहीं रह गयी है। जनसंख्या का सवाल उठाने वाले संजय गाँधी को मार डाला गया और उसके बाद भारत तीन गुना हो गया। 
आपकी प्रिय विधा कौन-सी है और क्यों? 
मेरी प्रिय विधा कहानी है। मैं बचपन में अपनी माँ को देखती थी। किसी भी छोटी-सी बात में उनको हास्य मिल जाता था और वह मज़े से सबको उसकी कहानी बनाकर सुनाती थीं। उनकी अदाकारी, नकलें निकालना, स्वर बदलकर पात्रों की टोन में डायलाग बताना हर छोटे-बड़े को लुभाता था। 76 की उम्र में जब वह मरीं, तब एक स्वर से लोग रो रहे थे कि इस परिवार की रौनक चली गयी। मैं कहानी लिखने से जी चुराती रही जीवन भर मगर उनके अंत समय में करीब एक महीना सब छोड़कर उनके पास रही थी। तब उन्होंने स्वीकारा था कि वह एक लेखिका बनना चाहती थीं पर गृहस्थी की उलझनों ने समय नहीं दिया। मुझसे उनको यही अपेक्षा थी कि मैं लिखूँ। अतः उनके जाने के बाद मैंने कलम उठा ली और गर्व से कहूँगी कि कभी मुड़कर नहीं देखा। कम लिखा मगर दिल से लिखा। मेरी बहन श्रीमती रमणी थापर ग़ज़लें और कविताएँ लिखती हैं। उनके दो संग्रह छप चुके हैं। 
कहानी लम्बी हो या छोटी, यदि वास्तविक संसार को प्रतिबिंबित करती है तो पाठक तक पहुँचती है। उषा वर्मा जी ने एक बार लिखा था कि टुकड़ा-टुकड़ा सच को जोड़कर एक झूठी कहानी बनती है। यह मेरी कहानियों पर सटीक बैठता है। हालाँकि मेरी कहानियों का मौजूं व्यक्ति विशेष ही अधिक रहा है। स्त्रिायाँ अधिक हावी हैं मेरे लेखन पर। इसका कारण हमारी तहज़ीब में लड़के और लड़कियों का अलग-अलग बढ़ना, रहना है। यहाँ इंग्लैंड में यह नहीं चलता। स्त्रिायाँ हैं भी बहुत मेरे परिवार में। नानी की बेल में 21 और दादी की बेल में 15 बहनें। चार मासियाँ, चार मामियाँ, चार बुआएँ और अनेक चाचियाँ। फिर गली-मोहल्ले नौकर चाकर। माँ के आँगन में सबकी फरियादें। माँ की अनवरत संवेदना। सब कुछ विरासत में मिला। 
एक कहानी उनकी किसी दूर की चची की है जो पंजाब के टूटने से भी बीस वर्ष पहले की है। यकीन जानिये इस ज़माने की दास्र्ताँ िहंदी के किसी इतिहास में नहीं मिलेगी। मैंने इसको अंग्रेज़ी में लिखा था। कहीं छपाई नहीं। अब हिंदी में लिखूँगी। जिन हालातों में बँटवारा हुआ वह दिल दहला देते हैं। यह सब आम जनता नहीं जानती। कहने सुनाने वाले अब बचे नहीं। नेहरू युग की अंग्रेज़ी शिक्षा ने इसका ज़िक्र होने ही नहीं दिया। शायद उस समय का समाज सो रहा था। अंग्रेज़ी मांजने की जद्दो जहद में लोग तल्खियों को भूलकर नौकरियाँ जुटाने में रह गएर्। िहंदी वाले प्रेमचंद में सिमट गए। पंजाब शिक्षा के प्रति अब जागा है। वैसे मैं भी पंजाब को बहुत कम जानती थी। शादी के बाद जाना। 
 िहंदी से मेरा नाता सिर्फ बारहवीं कक्षा तक रहा। अतः साहित्यिक दुनिया से मेरा परिचय कम रहा। यहाँ का जीवन अत्यधिक व्यस्त रहा इसलिए यहाँ र्के िहंदी जगत से भी मेरा परिचय बहुत बाद में हुआ। बहुतों को मैं केवल पहचानती हूँ। अतः अपने लेखन को मैं आलोचकों की नज़र से नहीं जांच सकती। काश मैं और तेज़ी से लिख पाती। अभी पिक्चर बाकी है। 
आपके लेखन के मूल विषय क्या रहे हैं और क्यों? 
मैंने कहानी लेखन को ज़रा लगाम दी है। मेरा अधिक समय पेड़-पौधे आदि में खर्च हो जाता है। नौकरी और गृहस्थी तो चलती ही रही। फिर धीरे-धीरे वेस्ट को जाना, फरोला। पाया कि अंग्रेज हमारे बगैर दो कदम नहीं चल सकते थे। सारा इतिहास हमारी दुर्गति और इनकी जीत का लिखा गया। जबकि असलियत इसकी उलट थी। यह लोग फ़कीर थे हम सोने की चिड़िया। पढ़ा और फिर लिखा। यह पलटनी कैसे खाई भारत ने। अतः अब मैंने भारत के पौधों पर लिखा जिनसे आधुनिक दुनिया अँधेरे से निकली। अयन प्रकाशन से चाय की विश्व यात्रा छपी है। पढ़िएगा। यह मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसके आलावा मैंने नील, शक्कर, तुलसी, फूल व झाड़ियाँ आदि पर शोध निबंध लिखे हैं। 
आजकल एक उपन्यास पूरा कर रही हूँ। जो एक सम्भ्रांत परिवार के जीवन पर आधारित है। इस विषय पर भी कम लिखा गया है। भारत से पलायन और यहाँ पैर जमाकर लाखों में खेलने वाले भारतीय मूल के लोग कैसे अपनी कठिनाइयों से जूझे। 
लंदन में स्त्राी स्वतंत्राता का दुरूपयोग भी खूब होता है। हर साल एक हत्या किसी लड़की की हो ही जाती है। गायब होने वाली भी कई होती हैं। यहाँ अगाथा क्रिस्टी के बाद से साहित्य का सारा दारोमदार रहस्य पर जाकर रुक गया। अमेरिका में और भी खुला अपराध जगत है क्योंकि वह देश इतना व्यापक है। कुछ कहानियाँ मैंने भी लिखी हैं जिनके छपने का इन्तजार कर रही हूँ। 
अगर मैंने आलोचना की नज़र से कुछ लिखा है तो वह अपने भारतीय लोगों के लिए ही लिखा है। मेरी कहानियाँ, ‘अपराधी कौन’, ‘तलाश’, ‘निर्बंध’, ‘मंथर हत्या’ आदि हमारे समाज की कमजोरियों पर आधारित हैं। प्रगतिशील सोंच आपको मेरी कहानी ‘उत्तरजीवी’, ‘दूसरी बार’ आदि में मिलेगी। 
मेरे सभी पात्रा समाज की सताई हुई स्त्रिायाँ हैं जो अपने को उठाकर चलने में समर्थ हैं। भले ही उनकी भलमनसाहत का लोग फायदा उठा चुके हों वह गिरती या टूटती नहीं। अपनी आतंरिक शक्ति को उजागर करती हैं और रास्ता निकाल लेती हैं। एक मुर्गा चलते-चलते थक गया, लाओ छुरी, काटो गर्दन फिर यूँ ही चलने लगा। सेठे की कलम के लिए पहेली है। मेरी नायिकाओं पर सटीक बैठती है। चाहे वह रागिनी श्रीवास्तव हो या छिंदो, नताशा हो या डैफ्नी, फूलवती हो या लाजो और भी कई ऐसी वीरांगनाएं मिलेंगी मेरे लेखन में। रंग भेद पर लिखी मेरी कहानी ‘रंगों के उस पार’ अपने में अनूठी है। यूँ सभी कहानियाँ अलग-अलग सवाल उठाती हैं और एक दूसरे से भिन्न हैं। 
देश-देशांतर की सैर ने मुझको अनेक देशों की समझ दी है जो मेरे लेखन में उभरकर आती है। 
प्रवासी साहित्य किसे कहते हैं? इसके मानक क्या हैं? 
सही बोलूँ तो मुझे खुद नहीं पता। शुरू-शुरू में कुछ साहित्यिकों ने हमें साहित्य की मुख्यधारा से अलग रखने के लिए यह नाम ईज़ाद किया। तब विदेशों में हिंदी में लेखन इतना व्यापक नहीं हुआ था। अस्सी का दशक आते-आते अनेक देशों से साहित्यिक गतिविधि के परिणाम आने लगे। मोटे तौर पर देखा जाए तो जो लोग साठ और सत्तर के दशक में विदेशों में जाकर बस गए थे वह इक्कीसवीं शताब्दी के आते-आते अवकाश पर चले गए और तभी मुख्य रूप से वह लिखने लगे। विशेषकर स्त्रिायाँ। कई लेखिकाएं अपने कार्यकाल से ही लिखती आई हैं। अमेरिका में अधिक काम होता रहा। मगर ब्रिटेन उसके मुकाबले बहुत छोटा भी है। 
अब स्थिति यह है की इतने बड़े कोष को रखने के लिए एक कोष्ठक भी चाहिए सो उसे ‘प्रवासी साहित्य’ के हवाले कर दिया गया। असलियत में देखें तो लेखन प्रवासी नहीं होता। हिंदी र्तो िहंदी ही रहेगी। फिजी से निकले या आॅस्ट्रेलिया से। अलबत्ता लेखक देश बदल बैठे है। 
अब यह चर्चा पुराना हो गया है। चलन बना तो बना। ‘प्रवासी साहित्य’ ही चालू नाम पड़ गया। 
मानक की बात करें तो सही में कहा जा सकता है- वह साहित्य जो भारत से बाहर बसे भारतवंशियों द्वारा लिखा गया उनके अपने देश व काल के अनुसार। 
क्या प्रवास की समस्याओं पर लिखना प्रवासी साहित्य है? 
एकदम नहीं! प्रवास में जो कुछ लिखा गया है वह लेखकों की या उनके देश विशेष की, समस्याओं का बखेड़ा मात्रा नहीं है। उसकी विविधता और सौंदर्य उतना ही व्यापक है जितना मूल भारतीय साहित्य का। असलियत यह है कि उसकी नवीनता और व्यापकता अब इतनी लुभावनी लग रही है पाठक को कि सबको उसकी तलब है। पिछले पाँच वर्षों में अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों ने विदेश में बैठे लेखकों की पुस्तकें मुख्यधारा के पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर ली हैं। अनेक विद्यार्थी इनपर शोध कर रहे हैं। स्वयं मेरी पुस्तक ‘पथ के फूल’ सयाजी विश्वविद्यालय बड़ोदरा के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। 
इस साहित्य में भारत के अतिरिक्त भी जिस समाज का वर्णन है वह पाठकों को/नई पौध को नवीन दृष्टिकोण देता है। समाज के साथ-साथ अन्य देशों की संस्कृति, इतिहास, भूगोल, पर्यावरण, मैनर्स, आदर्श, धार्मिक मान्यताएं, अंधविश्वास, दृश्यता के मानदंड, चलन, सामाजिक गठन, राजनीति, शासन व्यवस्था आदि सबसे अवगत कराता है विशेषकर कथा साहित्य। 
मेरी सभी कहानियां अलग-अलग विषयों को लक्ष्य करती हैं। 
इसके अलावा लेखक चाहे कोई भी हो, कम से कम तीन पीढ़ियों तक अपने मूल परिचय से अलग नहीं हो सकता। पश्चिम में बसे भारतीय तो क़तई नहीं। चमड़ी का रंग ही ऐसा नहीं होने देता। कितना भी कोई अपने को अंग्रेज क्यों न समझे वास्तविकता उसको नहीं बख्शती। 
यहाँ इसके साथ ही मैं आपके एक अन्य प्रश्न पर अपने विचार दूँगी। 
लेखन लेखक के निजी अनुभव/अनुभूति का प्रतिफल होता है। अनेक प्रवासी भारतीय विभाजन के दस वर्षों के अंदर अंदर जीविका की तलाश में यहाँ आकर बस गए थे। स्वदेश से सम्बन्ध विच्छेद बहुत हृदयग्राही होता है। यदि उनके लेखन में उनकी यादें समाहित हुई हैं तो उसको नाॅस्टेल्जिक लेखन बताकर उसकी उपेक्षा करने वाले खासे अपरिपक्व लोग थे। यह कदाचित् वह थे जो प्रवासी साहित्य को एक विदेश का चलचित्रा मात्रा देखना चाहते थे। इसमें निहित उनकी जिज्ञासा और ईष्र्या दोनों थी। क्योंकि वे स्वयं बाहर के मुल्कों में जा नहीं सकते थे तो घर बैठे ही उसका जायज़ा लेना चाहते थे। लेखन करते समय आप किसी प्रसंग विशेष को कागज़ पर उतार रहे होते हैं। यह प्रसंग लेखक के जीवन में घटा। 
एक बहुत सफल कहानी पढ़ने के बाद मुझसे पूछा गया ‘‘जी इसमें इंग्लैंड कहाँ है?’’ कहानी अगली डाक में छप भी गयी। अब यह सब अपनी अपनी समझ की बात है। हमारा परिवेश दस गुना व्यापक हो गया मगर भारत में बैठे समीक्षक तो वही के वही रहे। उनको बहुधा लेश मात्रा भी आइडिया नहीं होता है। 
संपादक और समीक्षक कई मायनों में फीके हैं। सामान्य ज्ञान न के बराबर है। अंग्रेज़ी की इतनी जद्दोजहद के बाद भी साधारण शब्दों को गलत लिखते हैं जिससे हास्यास्पद स्थिति पैदा हो जाती है। कई शब्दों का गलत इस्तेमाल करते हैं और इनसे उतरकर देखें तो इनके टाइपिस्ट तो हिंदी भी नहीं जानते। 
मच्छरों की तरह हिंदी की पत्रिकाएं आकाश पर छा गयी हैं। एक कोर्स हमारे विश्वविद्यालय ‘संपादन की कला और जिम्मेदारियाँ’ पर भी क्यों नहीं शुरू करते? 
क्या आपको नहीं लगता कि प्रवासी साहित्य के प्रति आलोचकों का रवैया उपेक्षापूर्ण रहा है ?
असल में भारत में आलोचक हैं ही बहुत कम और जो हैं वह इतने प्रबुद्ध नहीं हैं जितने होने चाहिए। आलोचना एक व्यापारिक मुद्दा बनकर रह गयी है। यहाँ अंग्रेज़ी जगत में पत्रिकाएं इस विषय में अधिकाधिक सक्रीय हैं। इसके अलावा गूगल, विकिपीडिया आदि संस्थाएं शिद्दत से अंग्रेज़ी में लिखी गयी किताबों को फरोलती हैं। आधुनिक काल में अंग्रेज़ी साहित्य कहीं से भी लिखा जा रहा हो उसको सम्मिलित किया जाता है। 
हिंदी जगत में यह जज़्बा नदारद है। अंग्रेज़ी शिक्षा दोयम दर्जे की भी जनता को मान्य है मगर हिंदी की बात आते ही सबके मुँह लटक जाते हैं। यह सब पिछले सत्तर साल की स्वदेशी शिक्षा की उपेक्षा का परिणाम है। 
आलोचकों को स्वाध्याय की आदत डालनी होगी। गरज़ यह कि एक नवोदित आलोचक ने मेरी कहानी ‘समझौता’ पर कलम चला दी। ठीक से उसको पढ़ा भी नहीं। शायद केवल अपने आलोचना लिखवाने वाले ‘मेंटर’ की सुनी-सुनाई पर जो का सो लिख मारा। यह आलेख गगनांचल में छप गया। श्री प्रेम जन्मेजय जैसे वरिष्ठ संपादक थे तब। मैंने उनको पत्रा लिखा और अपनी व्यथा बताई। सफा लग रहा था कि किसी की चाटुकारिता के लिए मेरी रचना का चीरफाड़ किया गया था। अरे भाई न ही लिखो तो क्या घट जाओगे? जबरदस्ती बिना पूछे। ऐसी क्षुद्र मानसिकता के चलते कोई क्या आलोचना करवाए। 
बाहरी परिवेश में लिखी गयी कहानियों की आलोचना करने के लिए बाहर के देशों का पूरा संज्ञान होना आवश्यक है। केवल ठकुर सुहाती करने के लिए किसी ने एक रचना को उत्तम बता दिया। बाद में पता चला की कहानी देशकाल की वास्तविकता के आसपास भी नहीं थी केवल कपोल कल्पना पर आधारित एक भावप्रवण गद्य रचना थी। मगर भारत के पाठक को वही पसंद है। भावनात्मक, रोनी-पिटनी फिल्मों की तरह। 
सम्पादकत्व की तरह ही आलोचना की भी ट्रेनिंग आवश्यक है। 
मुझको बेहद कोफ़्त होती है कि हर क्षेत्रा में शिक्षा के द्वारा कई-कई रास्ते धन कमाने और योग्यता बढ़ाने के लिए खुले है तो इनकी बढ़ोत्तरी की तरफ शिक्षकों का ध्यान क्यों नहीं जाता? 
योग को आपने अहमियत दे दी। वैश्विक स्तर पर करोड़ों का खर्चा। हम जितना हठ योग के विषय में कबीर और जायसी पढ़ते समय सीख जाते थे थ्योरी में उतने को लेकर लोनावला और अन्य कई विश्वविद्यालय एम. ए. इन योग की डिग्री आवंटित कर रहे हैं। क्यों? क्योंकि पश्चिमी देशों में योग का प्रचार ओशो ने किया। जिस चीज़ को पश्चिम से मान्यता मिल गयी उसी की जीत। 
बल्कि मैं चाहती हूँ कि हिंदी के आलोचक जरा तार्किक रूप से प्रवासी साहित्य की भी आलोचना करें। हो इसका उल्टा रहा है। कई लेखक पत्रिकाओं को सदस्य्ाता शुक्ल के नाम पर मोटी रकमें दे रहे हैं और संपादक अंधे वार उनकी रचनाएं छाप रहे हैं। न व्याकरण देखते हैं न गठन। कहानी अन्य पुरुष में शुरू होती है और प्रथम पुरुष में ख़तम। मगर संपादक जी ने पढ़ने की ज़हमत उठाई हो तब ना! 
कुछ विद्वानों का मत है कि प्रवासी देश के प्रति वफादार नहीं हैं। 
किसने कहा? अगर देश भक्ति की कमी रही है कहीं तो वह भारतभूमि में और इसकी जड़ें सम्राट अशोक के काल तक जाती हैं। यह प्रश्न एक लंबा खुलासा माँगता है। भारतवासी इतने कमजोर हैं इस बात में कि उनको पता ही नहीं चलता कि वह किस-किस प्रकार से अपने देश का अहित कर रहे हैं। अधिकांश ज़मीर बिकाऊ है। 
एक नमूना देखिये। 
स्विट्ज़रलैंड में थे हम। पूरा देश खचाखच भारतीयों से भरा पड़ा था। गर्मियों का मौसम। पैसे की कमी नहीं। एक परिवार जिसमें दो युगल दम्पति और चार बच्चे 15 से 10 वर्ष की उम्र के घूमने आये थे दिल्ली से। लड़कियाँ फर्राटे से अंग्रेज़ी बघार रही थीं पूरे स्वर में। वेशभूषा दामी और पश्चिमी। पुरुष मोटे, लैन मैन चाल, तोंदियल, (जिसे बीयर गट कहा जाता है ) एयरपोर्ट से बाहर निकले और टैक्सी के लिए इधर- उधर देखने लगे। संग सामान की भरी चार ट्राॅलियाँ। प्रत्येक के हाथ में छोटी ट्राली बैग आदि। सामान में आम की पेटी भी। लग रहा था रईस बिज़नेस क्लास है। इतने में एक स्विस लेडी उधर से आई और जोर से फटकारती हुई एक तरफ से अपने को बचाती हुई आगे चली गयी। उनके चेहरे देखकर हँसी आ गयी मगर क्षोभ भी हुआ। कारण सब लोग ऐन दरवाज़े में सबका रास्ता रोककर, पूरा पेवमेंट छेंककर जोर-जोर से बतिया रहे थे। किसी ने नहीं देखा कि चार गज़ पर टैक्सी वेटिंग एरिया लिखा है। बाहर निकले हो मगर आदतें पड़ी हैं नौकर चाकर ड्राइवर की जो मुँह के आगे कार लाकर खड़ी करता है। वह स्त्राी गाली दे गयी थी ब्लडी इंडियंस। बाद में पुरुष बोल पड़ा, हमारे ही पैसे पर पलते हैं...वगैरह-वगैरह। पर ना तो तमीज और ना अवेयरनेस। शर्म मुझको आई। पैसा है तो ख़ुदा समझते हैं। 
जब मैं ऐसी हरकतों को बयाँ करती हूँ तो आप मुझको देशद्रोही कहिये। कहिये मेरी बला से। इसी ट्रिप में एक नई नवेली पति के साथ हनीमून मनाने आई थी। इत्तेेफ़ाक़ से कई जगह दिख गयी। जहाँ भी था वह पति के इर्द-गिर्द लिपटी जाती थी। खुले में जहाँ-तहाँ फ़िल्मी तरीके से किसिंग चलती थी। एक बार तो मैंने नज़र भी दौड़ाई कि शायद कोई फोटो वाली टीम न साथ हो। यकीन जानिए लाख बार आप देखें किसी यूरोपियन जोड़े को इस प्रकार अपना प्रदर्शन करते आप नहीं पाएंगे। 
पाॅलिटिक्स की बात तो ना ही करे तो भला। पिछले छह महीने से दिमाग खाली हो गया है और देशद्रोह की जो जो मिसालें सामने आई हैं कि सारी दुनिया हैरान है। ऐसा तमाशा, ना भूतो ना भविष्यति। हर बात का बतंगड़। 
मैं बताऊँ कि मुद्दा क्या है। हम विदेश में रहकर ज़रा अधिक जागरूक हो गए हैं और अपने समाज की कुरीतियों को जताने लगे हैं। वो शकील साहब ने कहा है न ‘‘अपनो को देखते हैं पराई नज़र से हम।’’ इसे देशद्रोह वही कहेंगे जो अपनी खराबियों को सुधारना नहीं चाहते। ‘‘हम तो ऐसे ही हैं भाई।’’ कुछ समझाओ उत्तर मिलेगा ये आपका लंदन नहीं है। भैंस के आगे बीन! 
अब, सारा जीवन अपनों के लिए सब कुछ करने के बाद हमें अपना देश पराया लगने लगा है। सरकार ने एक भी क़ानून हमारी जान-माल की सुरक्षा के लिए नहीं बनाया। 90 प्रतिशत लोग अपनी जीवन भर की कमाई हार चुके हैं। सगे बाप भी आपको वसीयत में से काट देते हैं। यह नीचता आपको सिर्फ हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में मिलेगी। श्रीलंका में नहीं। अब हम वापिस जाने का ख़्वाब भी नहीं देखते। 
अलामा इक़बाल जी ने कहा था, ‘‘...तुम्हारी तहज़ीब खुद अपने ही खंजर से ख़ुदकुशी कर लेगी। जो शाख-ए-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा नापायेदार होगा।’’
भारतीय समाज प्रवासी भारतीय समुदाय से क्या अपेक्षाएं रख सकता है? 
प्रवासी समुदाय से तो अपेक्षाओं का सिलसिला अनवरत है। यह पूरा का पूरा समुदाय जो यहाँ बसा हुआ है, नेहरू युग की बेकारी से त्रास्त था। आज़ादी मिलने के बाद दो या तीन दशकों तक भारत गरीब रहा। अंग्रेजों ने जितना हो सका समेटकर चले गए। विभाजन की विभीषिका ने कमाऊ परिवारों की कमर तोड़ दी। लाहौर व्यापार का केंद्र था। अंत समय तक यह तय नहीं हुआ था कि वह किधर रहेगा। उस युग के नेता अपनी सत्ता हासिल करने के दाँव खेलते रहे। अवाम का भविष्य कैसे मजबूत होगा इसका उनको इल्म ही नहीं था। जहाँ-तहाँ से खजाने अंग्रेजों के हवाले कर दिए गए और फिर भी चर्चिल मियाँ कह मरे कि भारत की आज़ादी अंग्रेजों की भूल थी। 
उद्योगों पर भी आज़ाद भारत का अख्तियार नहीं था। कमाऊँ अंग्रेज बैठे रहे और उनकी कंपनियाँ भारत की कमाई अपने देश या आॅस्ट्रेलिया में थोपती रहीं। वह लोग विश्व युद्ध में सब कुछ गँवा बैठे मगर भारत से ले जाये गए पैसे से नया लंदन शहर बनाया। हमारे ही मजदूर बुलाये। क्यों? क्योंकि यहाँ खजाने वापिस भरने के ज़रिये बंद थे, अतः मजदूरी ही एकमात्रा विकल्प थी। 
उस ज़माने के नवयुवा उन्हीं अंग्रेजो की चाकरी न करते तो क्या करते। पढ़ने भेजे गए थे। अंग्रेजों ने उनको अपने देश के निर्माण में जोत लिया। अनेक ने धन कमाकर अपने घर भेजा और अपनी शादी नहीं की। एक-एक से पूछिए। परिवार के लिए घर बनवा कर दिए, दुकानें खुलीं। उद्योग लगाए। खेत दिलवाये। बहनों की शादियाँ, बूढ़ों की गुजर, बीमारों के इलाज, हर नई इज़ाद से अपनो को मालामाल कर दिया। बदले में क्या मिला? नई पौध की बहुएँ चाय रोटी भी नहीं पूछतीं। मेरे लिहाज से हरेक को अपनी आत्मकथा लिखनी चाहिए। 
इसलिए यहाँ लिखी गयी कहानियाँ उन कठिनाइयों को उजागर करती हैं। फिर भी नया लिखने की होड़ में उस ज़माने का हाल कम ही लिखा गया है। प्रवासी समुदाय की अस्मिता उनकी माली औक़ात से तय की जाती है। भारत के धर्म में लक्ष्मी पूजा का ही विधान है। मेहनतक़श कमतर रहता आया है। हमारी समृद्धि से सब चमत्कृत होते हैं मगर जब यहाँ की परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता है तब हमें, हमारे जीवन को नौकरों के जैसा बताने में नहीं हिचकिचाते। खुद को पत्ता हिलाने की भी आदत नहीं। भारत के महान विद्वान् भी इस विषय में बहुत पोच रहे।
हमसे अपेक्षाएं करना सरल है। माँ-बाप भी जब बेटे -बेटियों के पास आते हैं तो अपनी ‘सेवा करवाने’ की मानसिकता से उभर नहीं पाते। 
भारत का जो इतिहास हमको हमारा गर्व प्रदान कर सकता है वह कभी पढ़ाया नहीं गया। इसलिए मैंने कई लेख लिखे हैं। वह बताते हैं कि कैसे 5000 वर्ष पुरानी सभ्यता 500 साल में मटियामेट हो गयी और कैसे हमारे देश के लालची अमीरों ने ऐसा हो जाने दिया। नील, कपास, शक्कर, चाय, खनिज, सोना, हीरा, पन्ना, रूबी, मोती आदि सबका एकमात्रा स्रोत भारत जिन भूलों के कारण लुटा वह आज भी दुहराई जा रही है। प्रवासियों ने इसे समझा जाना है यहाँ रहकर। हमारा साहित्य इसको प्रतिबिंबित करता है। 
ज्ञान से भावनाएं सुधरती हैं। इसलिए हम अधिक राष्ट्रवादी हैं। हम सिखा सकते है। हमें पढ़कर भारतीय लोग कृतज्ञ बनना सीखेंगे वरना लेकर कौन याद रखता है? 
इसलिए यहाँ से लिखा हुआ साहित्य जरूरी है। अब की नई पौध को हमारी जीवन संघर्ष की गाथा का पता होना जरूरी है वर्ना हम भी भविष्य के अंधेरों में खो जायेंगे। अपनी अहमियत बनाये रखने के लिए प्रवासियों को लिखना जरूरी है और भारतियों को उसे पढ़ना। 
भारत ने विश्व को क्या नहीं दिया? और हमारी जनता इसे जानती भी नहीं। क्योंकि सत्ता में बैठे लोग जनता के अधिकारों को उजागर ही नहीं करना चाहते ताकि लूटते रहें। यही न जानने की वजह से हमारे देश का आत्मसम्मान बिक गया और राष्ट्रवाद का हा्रस हुआ। 
भारतीय समाज, संस्कृति, संस्कार और्र िहंदी भाषा के विकास में प्रवासियों का कितना योगदान है, हो सकता है, होना चाहिए। 
यहाँ इंग्लैंड में अनेक सभ्यताओं का संगम है। सभी के सदस्य यह मानते हैं कि उन्होंने अपनी सभ्यता को बनाये रखने की पूरी कोशिश की है। हम भारतीयों ने इस विषय में सबसे ज्यादा। धर्म को भी हमने पकड़कर रखा क्योंकि हमको एक अपनी ज़मीन चाहिए थी जो सिर्फ हमारी हो। हमारे संस्कार हमको परिभाषित करते हैं। अस्मिता की पहचान भाषा से शुरू होती है। बच्चे अपनी मातृभाषा पहचानते हैं। अनेक समुदायों ने अपने बच्चों को भाषा सीखने के लिए मजबूर किया क्योंकि भाषा के साथ ही संस्कृति और शिष्टाचार जुड़ा होता है। माँ-बाप से डायरेक्ट रिश्ता बना रहता है। अनेक बार केवल अंग्रेज़ी सीखे बच्चे अपने को माँ-बाप से अपने आप को फ़र्क़ करके देखने लगते हैं। भारत में यह तेज़ी से हुआ है। दो पीढ़ियों की अंग्रेज़ी शिक्षा ने संस्कारों की छुट्टी कर दी है। 
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इस देश में मर्दों की बेहद कमी हो गयी थी। इस कारण समाज में स्त्रिायाँ जिस-तिस के संग रह पड़ती थीं। जब विदेशी पुरुष पढ़ने आये तो वह उनको घेर लेती थीं। सामाजिक मर्यादाओं का कोई महत्त्व नहीं रह गया था। सरकार हर पैदा होने वाले बच्चे को कानूनी हक़ दे रही थी। जायज़ और नाजायज़ औलाद का मसला कतई ख़त्म कर दिया गया। यह वही अंग्रेज थे जिन्होंने भारत में रहने वाले अंग्रेजों के बाल-बच्चों को पूरी तरह नकार दिया था। अगर बाप वापिस इंग्लैंड आ रहा था तो उसके भारतीय माँ से पैदा हुए बच्चे संग नहीं आ सकते थे। न ही उनको उनके पिता का धन संपत्ति दिया गया। सारा धन और कमाई उनके मरने पर सरकारी खजाने में जमा करवा दी गयी। 
इसके विपरीत, इंग्लैंड में, स्त्राी के लिए शादी करवाना जरूरी नहीं रहा। कुंवारी माँ को पूरा भत्ता सरकार से मिलता था जब तक बच्चा 18 वर्ष का न हो जाए। अतः स्त्रिायों ने पुरुषों से सिर्फ बच्चे पैदा करके अपनी स्वतंत्राता क़ायम रखी। रिश्ते ही नहीं बने तो जिम्मेदारियाँ भी कैसी? यह सब उस काल के साहित्य में छन कर आया। 
हमारे देश में अंग्रेजी पढ़ी बहुएँ भी अब इसी तौर-तरीके को अपना कर चल रही हैं। सरकार न सही, माँ-बाप भरपूर साथ देते हैं। वह भी न सही, खुद कमा रही हैं मगर रिश्ते जोड़ने से कतराती हैं। 
एक अंग्रेज मित्रा ने कहा था कि भारतीय समाज एक उभरता हुआ समाज है, जबकी अंग्रेजी समाज विश्व युद्धों से पहले, अपनी अंतिम ऊँचाई तक पहुँच चुका था और उनके बाद अधोमुखी हो गया है। ष्प्ज पे ं बतनउइसपदह ेवबपमजल.ष् यह सब यहाँ रहने वाले प्रबुद्ध लोग ही समझ सकते हैं। मगर फिर भी अंग्रेज़ी समाज में भी रिश्तों को तोड़ना सभ्य नहीं माना जाता। जहाँ शादियाँ बरकरार रही हैं वहाँ बाल-बच्चे भी तमीजदार हैं। पढ़े-लिखों की संगत में देखा बड़ों की इज़्ज़त और छोटों से प्यार बना हुआ है। मेरी पड़ोसन लेस्ली विधवा है। अब 92 वर्ष की है। दिमाग और सेहत से ठीक है। मगर सारा परिवार उसकी देखभाल करता है और कभी भी वह अकेली नहीं होती। कोई-न-कोई बहू, बेटी, भतीजी या पोती पास आकर रहती है। लेस्ली के अपना कोई बच्चा नहीं हुआ। एक और साथ वाला पड़ोसी अकेला पड़ गया है। लेस्ली अक्सर उसको खाने पर बुला लेती है। इस प्रकार की उदारता यहाँ समाज में भरपूर है। 
भारत में शिक्षा को समाज से अलग करके समाज को नष्ट कर देने की साजिश चल रही है। सरकारी प्रबंध भी न के बराबर है। परिवार, जो समाज की इकाई होता है, अब टूट रहा है। नई बहुएं अगर रिश्तों से मुँह मोड़ेंगी तो समाज बिखर जाएगा। इस विनाश को रोकने के लिए भारत से बाहर बैठे लोग आजकल बेहद सक्रिय हैं। 
इसलिए प्रवासी साहित्य को और अधिक बढ़ावा देने की जरूरत है। यूँ किसी भी देश और संस्कृति के बदलाव को रोकना संभव नहीं होता और संस्कृति जलवायु, राजनीति, घटनाचक्र आदि सबकी थपकियाँ खाकर शक्ल बदलती चलती है मगर उसको सही रूप देने के लिए अंदर-बाहर दोनों से सुधार जरूरी है। किसी दूसरे देश की सिर्फ नक़ल करके कोई संस्कृति अपना बचाव नहीं कर सकती। 
यातायात ने विश्व की सीमाएं सिकोड़ दी हैं। वैश्विक स्तर पर भारत अभी नहीं आया है। खासकर शिक्षा के क्षेत्रा में। प्रवास में बैठे लोग अधिक प्रबुद्ध हैं। जीवन जीने की कला उनको आती है। आत्मनिर्भरता और स्वाध्याय उनकी आदत है। भारत इस लिहाज से दो शताब्दी पीछे है। भारत से आने वाला बालक अपना खाना तक खुद नहीं खा सकता। न जूते बाँध सकता है न कपड़े तहा सकता है। वयस्क जीवन में भी उनकी आदतें बेहद फूहड़ और गन्दी रह जाती हैं। शिष्टाचार भी वैसा ही। प्रवासी जीवन उनको राह दिखा सकता है। 
आमतौर पर प्रवासी सभाएं, महोत्सव और सम्मेलन केवल आर्थिक मुद्दों पर आकर खत्म हो जाते है। ऐसा क्यों?
ऐसा नहीं है कि साहित्य सभाएं उपयोगी न हों। दिक्कत ये है कि भारत के संयोजक उनको ठीक से संचालित नहीं करते। अंत में वह कोरी धन की बर्बादी लगते हैं। 
जब तक भारत के हर गाँव में पक्की इमारत वाले स्कूल न बन जाएँ इन सभाओं का आयोजन बंद होना चाहिए। बजाय सुप्रसिद्ध महानुभावों को बार-बार आमंत्रित करके हजारों की राशि सम्मान आदि में लुटाने के यदि स्कूलों की व्यवस्था सुनियोजित की जाये तो जनता का धन जनता को लगेगा। 
वो क्या दिखाया है आज टीवी पर? बिहार का आम उत्सव। विधायक लोग आम की पेटियाँ और पेड़ मुफ्त घर ले जा रहे हैं और चमकी बुखार से मरे 200 बच्चों का दोष सरकार पर मढ़ रहे हैं। कितनी बड़ी विडम्बना है हमारे देश की। कोई जिम्मेदारी लेता ही नहीं। सब सरकार को मुफ्त चबा रहे हैं। 
क्या प्रवासी भारतीय साहित्य उपेक्षित है?
नहीं। अब नहीं। पिछले बीस वर्षों में लेखन की गति तेज हुई है। लोग, जो पढ़ते हैं और अधिक रुचि दिखा रहे हैं। गुणवत्ता बढ़ी है। कार्य को सराहा गया है। विशेषकर नयी पीढ़ी द्वारा। 
क्या बाहर लिखा जाने वाला अधिकांश साहित्य हाशिए पर ही है? उसर्का िहंदी के मुख्यधारा में कोई स्थान है। अगर है तो किस तरह से?
एकदम तो नहीं क्योकि प्रवासियों की कई किताबें अब स्नातक स्तर पर स्वीकृत कर ली गयी हैं। अभी बहुत गुंजाइश है। लेखन को स्कूल स्तर पर भी विकसित करना पड़ेगा। भारतीय लेखकों को भी बालकों की उम्र को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम बनाना चाहिए। 10 वर्ष के बच्चे को पूना के एक स्कूल में एक उपन्यास पढ़ाया जाता है जिसमंे एक लड़की की शादी की व्यथाओं का ज़िक्र है। भाषा की दुरूहता से अधिक भावनाओं और समस्याओं की दुरूहता चकित करती है। माँ-बाप ने प्रश्न उठाया तो प्रधान अध्यापिका ने कहा हमारा तो यही स्तर है आपको नहीं पढ़ना यह सब तो किसी अन्य स्कूल में ले जाइये। 
13 वर्ष से पहले यहाँ स्कूलों में उपन्यास नहीं पढ़ाये जाते। डिकेंस या थाॅमस हार्डी के उपन्यासों को सरल भाषा में संक्षेप में दुबारा लिखा गया है ताकि वह बालकों के मानसिक स्तर पर फिट बैठें। भारत से अनेक कहानियों को ले जाकर अंग्रेज़ी में प्रस्तुत किया गया है मगर परिवेश, नाम आदि बदलकर ताकि बच्चे उनसे अपने आप को जोड़ सकें। 
आज के जितने कथाकथित हिंदी के प्रवासी रचनाकार पश्चिम में हैं, उनमें अधिकांश लोग भारत में अपनी जड़ें मजबूत कर चुके हैं। आपकी क्या राय है?
किस मायने में वह अपनी जड़ें मजबूत कर चुके हैं यह स्पष्ट नहीं है आपके प्रश्न में। कोई पूरी तरह से इंग्लैंड को छोड़ना नहीं चाहता। हाँ कुछ ने अपने रहने के लिए घर बना लिए हैं मगर वहाँ अगर उनका कोई बेटा या बेटी रहता हो। असलियत में भारत के क़ानून इतने अस्पष्ट और न्याय व्यवस्था इतनी घिनौनी है कि सब अपनी ही मिलकियत छोड़- छाड़ के ज़िन्दगी के बाकी दिन शांति से गुजारना चाहते हैं। कइयों का पूरा जीवन मुक़द्दमों में गुजर गया। करोड़ों अरबों का नुक्सान सहा है हमने।
साहित्य के क्षेत्र... 
अगर आप कहें कि साहित्यकारों ने साहित्य में जड़ें जमा ली हैं तो वह भी ढोल की पोल है। जिन नामो को शोहरत मिली है वह सभी उच्च कोटि का लेखन नहीं कर रहे। स्त्रिायाँ ज्यादा अच्छा लिख रही हैं मगर वह घर गृहस्थी छोड़कर कहीं नहीं जा सकतीं।

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