Skip to main content

               अनुक्रम
            सम्पादकीय            
              
               श्रीप्रकाश मिश्र                   
          समकालीन आदिवासी उपन्यासों की दशा व दिशा      
                डा. आदित्य प्रसाद सिंहा
               एक उलगुलान की यात्रा कथा    
                डा. सुरेश उजाला
               आदिवासी जीवन में वनों का महत्त्व     
               प्रो. शैलेन्द्र कुमार त्रिपाठी                   
         रेगिस्तान का लोकरंग   
               मूलचन्द सोनकर      
               मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ अर्थात् जारी है शिव का कंठ नीला...     
               बिपिन तिवारी                      
        साहित्य के विमर्श में आदिवासी समाज   
               डा. तारिक असलम तस्नीम’                                                      
               आदिवासी समाज का जीवंत दस्तावेज: आमचो बस्तर  
               डा. दया दीक्षित                     
        जंगल की गुहार: धपेल  
               डा. रामशंकर द्विवेदी                       
        सागर लहरें और मनुष्य: नारी की भटकन का उपाख्यान     
               प्रभाकर सिंह                       
        डूब और पार होने की व्यथा-कथा 
               केदार प्रसाद मीणा                         
        आदिवासियों का जमीनी राजनीतिक संघर्ष 
               श्याम बिहारी श्यामल                       
        आदिभूमिः धारदार लड़ाई का भोथरा अंत  
               डा. श्रीकांत सिंह                     
        अंधेरे में भटक रही ज़िंदगियों में रोशनी भरने की कामयाब कोशिश
               प्रेमशंकर सिंह
         कचनार: एक समीक्षात्मक अध्ययन
               डा. रमाकांत राय
               अल्मा कबूतरी में जनजातीय जीवन
               डा. जागीर नागर
               आदिवासी जीवन की मर्म-कथा: वन के मन में
               डा. संजीव कुमार जैन
               मानवीय संदर्भों की कहानी: काला पादरी
               राजेश राव     
               हिन्दी उपन्यासों में आदिवासी जीवन की अभिव्यक्ति
               सुन्दरम् शांडिल्य
               आदिवासियों की वेदना एवं चेतना का नया पाठ
              

              
              
               

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क