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विभाजनोपरान्त मुस्लिम रचनाकारों की अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति

डॉ. मो. फिरोज़ अहमद



रचनाकार द्वारा निर्मित पात्र, उसका आचार-विचार सामाजिक प्राणी जैसा ही होता है। रचनाकार इसे अपने अनुभवों के आधार पर निर्मित करता है। किसी भी पात्र से जुड़ी आत्मीयता, संवेदना तथा अपनत्व रचनाकार के मानस से जुड़ना होता है। उपन्यास, कहानी, निबंध एवं नाटक आदि रचनाकार की अनुभूतिगत कलात्मक अभिव्यक्ति है। वह घटनायें एवं परिस्थितियाँ जिससे रचनाकार प्रभावित हुआ तथा उसे अभिव्यक्ति देने हेतु प्रेरित हुआ जो कि रचना के सृजन हेतु यह तथ्य विशेष रूप से महत्तवपूर्ण है। रचनाकार की सफलता उसकी समसामयिक संदर्भों से जुड़ी सशक्त अभिव्यक्ति में निहित है। भारत विभाजन की घटना, देश के लिये सबसे बड़ी त्रासदी थी जिसने पूरे देशवासियों के जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया, स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों में उपन्यासकारों द्वारा विभाजन का भोगा गया तिक्त अनुभव जीवन्त रूप से चित्रित किया गया है। इस त्रासदी ने सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को ही नहीं साथ में सम्पूर्ण जनसामान्य की मानसिकता को भी प्रभावित किया जिसे सर्जक ने गहराई से अनुभव किया है और उसे अपनी कृति में अभिव्यक्ति प्रदान की है।



राही मासूम रज़ा ने विभाजनोपरान्त व्याप्त स्थिति का उल्लेख करते हुए लिखा है कि - ''हर कैफियत अकेली थी हर ज़ज्बा तन्हा था। दिन से रात और रात से दिन का ताअल्लुक टूट गया था।''3



प्रेमपूर्वक रहने वाले भारतवासी एक झटके में केवल हिन्दू और मुसलमान बनकर रह गये। जैसे दिशायें स्तब्ध सी इस घटना को मौन देख रही थी।



विभाजन की त्रासदी से जन्मी कड़वाहट ने धर्म की रेखा ही नहीं खिंची बल्कि भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति पर भी आशंका व्यक्त की जाने लगी जिसे भारतीय मुस्लिम उपन्यासकारों ने न केवल अनुभव किया अपितु इस सत्य को इस पीड़ा के साथ नासिरा शर्मा ने व्यक्त किया है कि - ''वह तर्जुबा कितना तकलीफ़देह होता है कि जहाँ आप पैदा हों जिस ज़मीन को आप अपना वतन समझें उसे बाकी लोग आपका गलत कब्जा बतायें। और साथ ही यह प्रश्न किया जाय कि वह कहाँ रहना चाहता है।''4



बद्दीउज्ज़मा ने 'छाको की वापसी' उपन्यास में विभाजन के पश्चात् भारत सरकार द्वारा भारतीय मुसलमानों से निवास सम्बन्धी किये जाने वाले प्रश्न और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप जन्म लेने वाली सोच को व्यक्त करते हुए छोटी अम्मा के माध्यम से व्यक्त किया है जिन्हें अपना वतन छोड़कर जाना स्वीकार नहीं है। वह कहती हैं कि हमें पाकिस्तान-वाकिस्तान नहीं जाना है। हम अपना घर-बार छोड़कर परदेस क्यों जायें?5



पाकिस्तान के निर्माण के साथ नफ़रत जंगल की आग की तरह पूरे देश में फैल गयी थी। आदमी-आदमी का शत्रु बना घूम रहा था। डॉ. राही मासूम रज़ा का मानस भी विभाजन की इस पीड़ा से प्रभावित हुआ था उन्होंने भी इस सत्य को भोगा था। उनका मानस भी पाकिस्तान निर्माण के समर्थन में न था। राही ने अपने उपन्यास 'आधा गाँव' में लिखा है कि नफरत और ख़ौफ की बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज़ मुबारक नहीं हो सकती।6



मानवीय सोच के विविध स्तर को दिखाने के लिये रचनाकार दो विपरीत विचारों वाले पात्रों के मध्य संवाद प्रक्रिया का आयोजन करता है। इस प्रकार मानस के विविध स्तर उद्धाटित होते हैं। विभाजन के पश्चात् बने नवीन देश पाकिस्तान के प्रति जहाँ कुछ भारतीय मुसलमानों में अविश्वास और विद्रोह था वहाँ कुछ मुसलमानों को मज़हब, इस्लाम, समान संस्कृति वाले नवनिर्मित राष्ट्र से बड़ी आशायें थी।'छाको की वापसी' उपन्यास में छोटी अम्मी पाकिस्तान जाने के पक्ष में नहीं है। परन्तु बद्दीउज्ज़मा ने उपन्यास के दूसरे पात्रों में पाकिस्तान के प्रति रूचि एवं आशायें भी दिखाई हैं। उपन्यास के पात्र कहते हैं कि हिन्दू पाकिस्तान से भागकर हिन्दुस्तान आ रहे हैं। उनकी जगह यहाँ से जाने वालों को मिलेगी और फिर मुसलमानों का अपना मुल्क है। वहाँ न हिन्दू का डर होगा न दंगों का खतरा।7



'जिन्दा मुहावरे' उपन्यास में नासिरा शर्मा ने भी बद्दीउज्ज़मा के समान ही पाकिस्तान से जुड़ी आशायें और अपनी सुरक्षा का सन्तोष व्यक्त करने वाली सोच नासिरा शर्मा के उपन्यास 'जिन्दा मुहावरे' के पात्र निज़ाम में दिखाई पड़ता है। द्रष्टव्य है - ''जहाँ जात है अब वही हमार वतन कहलइहे। नया ही सही अपना तो होइहे। जहाँ रोज़-रोज़ ओकी खुद्दारी को कोई ललकारिये तो नाही। कोई ओके गरिबान पर हाथ डालै की जुर्रत तो न करिहे।''8



पाकिस्तान का निर्माण साधारण जनता की इच्छा न होकर राजनीतिक स्वार्थ का परिणाम था। यही कारण है कि भारतीय मुसलमान विभाजन से अप्रसन्न थे, साथ ही वह भारत छोड़कर जाने को तैयार न थे। मनुष्य की यह सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपनी जमीन, सम्बन्धी, पड़ोसी, समाज और देश के प्रति प्रेम रखता है। परिस्थितिवश प्रेम का स्वरूप बदल भी सकता है। यह सब कुछ मानस से प्रभावित सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है। राही मासूम रज़ा का छोटा सा गाँव गंगौली भी विभाजन से प्रभावित था। गाँव के कुछ लोग पाकिस्तान चले गये थे तो कुछ अपने पूर्वजों की धरती छोड़कर जाने को तैयार न थे। कुछ सम्बन्धियों के कारण देश छोड़कर जाने पर विवश हुए। भारत विभाजन के पश्चात् भारतीय मुसलमान द्वन्द्वात्मक पीड़ा की यातनायें सह रहा था। राही मासूम रज़ा ने सब कुछ बहुत निकट से देखा था और महसूस भी किया था जो उनके मानस पर चित्रित हो गया था। वही उपन्यास में घटना और प्रतिक्रिया के रूप में व्यक्त हुआ। उन्होंने आधा गाँव उपन्यास में कृषक वर्ग की मातृभूमि के प्रति प्रेम दिखाने का प्रयास किया है, जैसे - ''हम ना जाय वाले हैं ... जहाँ हमरा खेत हमरी जमीन तहाँ हम।''9



परम्परावादी, ईश्वरवादी, भारतवासी अपने देश की मिट्टी में ही अपना अन्त चाहता है। 'ओंस की बूंद' उपन्यास में भी राही का यही भाव व्यक्त हुआ हैं'' मैं एक गुनहगार आदमी हूँ और उसी जमीन पर मरना चाहता हूँ जिस पर मेंने गुनाह किये हैं।''10



राही मासूम रज़ा के उपन्यासों में पाकिस्तान को लेकर बार-बार आक्रोश और विरोध व्यक्त हुआ है जिससे उनके भीतर का देशप्रेम दिखाई पड़ता है। वह बार-बार अपने देश के प्रति अपने लगाव को अलग-अलग शब्दों में अभिव्यक्ति प्रदान करते दिखाई पड़ते हैं। 'आधा गाँव' उपन्यास के पात्रा का संवाद पुन: राही मासूम रज़ा के देशप्रेम का प्रमाण प्रस्तुत करता है - ''अच्छा हम कह दे रहे हैं कि हमरे सामने तू पाकिस्तान का नाम मत ली हो। तू है बहुत शौक चर्राया है तो जाओ बाकी हम अपनी लड़कियन को लेके इहहँ रहिहै।''11



विभाजन के पश्चात् प्रभावित मुस्लिम समाज का उल्लेख नासिरा शर्मा, राही मासूम रज़ा, बद्दीउज्ज़मा आदि बहुत सारे उपन्यासकारों ने किया है। विवेच्य संवादों में व्यक्त मानसिकता से स्पष्ट है कि अधिकांश मुसलमान न ही पाकिस्तान के निर्माण के पक्ष में थे और न ही पाकिस्तान के प्रति उनमें रूचि थी, यदि कुछ लोगों में पाकिस्तान से जुड़ी अपेक्षायें थी भी तो उसका कारण अपने ही देश में मिलने वाली उपेक्षा और असुरक्षा की आशंका थी।विभाजन के पश्चात् अर्थ की समस्या सामने आ गई थी। बदलते समाज और बदलते जीवन मूल्यों के साथ जीने का तौर तरीका बदलता जा रहा हैं माँ-बाप द्वारा दिये जाने वाले सुख में खोयी सन्तान उनके त्याग, बलिदान से पूरी तरह अनभिज्ञ है। उसे आभास कराने के लिये माँ-बाप समय-समय पर सचेत करते हैं। अपने जीवन के संघर्षों की घटना सुनाकर नयी पीढ़ी में विश्वास, शक्ति तथा त्याग पैदा करना चाहते हैं। 'छाको की वापसी' में अब्बा के माध्यम से बद्दीउज्ज़मा ने ऐसे ही तथ्यों पर प्रकाश डाला है। उपन्यास के पात्र अपने जीवन के अनुभवों एवं संघर्षों के सम्बन्ध में कहते हैं कि - ''तुम लोगों को क्या पता कितनी मुसीबतें झेलकर पढ़ा है। टयूशन कर करके पढ़ाई और खाने पीने का खर्च निकाला है। अक्सर फीस के लिए मेरे पास पैसे नहीं होते थे।''12

संदर्भः

1.डॉ0 बदरीप्रसाद, हिन्दी में तुलनात्मक आलोचना, पृ0 43

2.वही, पृ0 138

3.राही मासूम रज़ा, आधा गाँव, पृ0 336

4.नासिरा शर्मा, जिन्दा मुहावरे, पृ0 101

5.बदीउज्ज़मा, छाको की वापसी, पृ0 17

6.आधा गाँव, पृ0 256

7.छाको की वापसी, पृ0 17

8.जिन्दा मुहावरे, पृ0 11

9.आधा गाँव, पृ0 218

10.राही मासूम रज़ा, ओस की बूँद, पृ0 19

11.आधा गाँव, पृ0 315

12.छाको की वापसी,पृ0 12

शानी ने 'काला जल' उपन्यास में युवा पीढ़ी के दायित्वों से विमुख होने का ऐसा ही चित्राण प्रस्तुत किया है। उपन्यास का बुजुर्ग पात्रा फूफा कहते हैं कि - ''वह मर-मर कर कमाते हैं, सब सालों का पेट पालते हैं लेकिन कोई उनके ज़रा से खाने-पीने का ख्याल नहीं रखता।''13



आर्थिक विषमताओं से प्रभावित मनुष्य की विषाक्ताओं को संवेदनशील रचनाकारों ने गहराई से महसूस किया है। आर्थिक विषमताओं से प्रभावित जन्म लेने वाली परिस्थिति एवं विचारों का उल्लेख, जीवन को व्याख्यायित करने वाली उपन्यास विधा में देखने को मिलता है। अलग-अलग रचनाकरों का अर्थ सम्बन्धी व्यक्त विचार आर्थिक अनिवार्यता की ओर संकेत करता हैं असगर वज़ाहत के उपन्यास 'सात आसमान' का पात्रा आर्थिक संकट के क्षणों से निरन्तर संघर्ष करने के साथ जीवन में मिली असफलताओं और स्वजनों की अपेक्षाओं से खीझकर कहता है कि - ''अब्बा आपको हर वक्त पैसे की लगी रहती है। ये मेरा ही दिल जानता है कि जिस तरह खर्च पूरा कर रहा हूँ। ... जब होगा तो मैं आपको ... मुझे शर्म भी आती है जब आप मुझसे पैसे माँगते हैं।''14



अर्थ पूरे जीवन को संचालित करने वाली महत्त्वपूर्ण धुरी है। जिससे परिवार, समाज, देश कुछ भी अछूता नहीं है। अर्थाभाव केवल मनुष्य विशेष को ही नहीं अपितु उससे जुड़े समस्त सम्बन्धों को भी प्रभावित करता है। भविष्य की असुरक्षा दायित्व का निर्वाह और मनुष्य की अपनी असफलतायें उसे बड़ी पीड़ा देती है। अर्थ के अभाव सम्बन्धी ऐसे ही भावों को असगर वज़ाहत की भाँति मेहरून्निसा परवेज़ ने भी अनुभव किया हैं तद्सम्बन्धी विचार परवेज के उपन्यास 'कोरजा' में व्यक्त हुआ है। द्रष्टव्य है - ''नई-नई नौकरी है वह भी परमानेंट नहीं जाने कब छंटनी कर दिया जाऊँ ...ऊपर से परिवार का इतना बोझ। दो बहनें शादी के लिए बैठी है, उनकी शादी के लिए अम्मा अलग छाती छोल रही है। अब्बा को मरे पाँच साल हो गए। छोटे-छोटे भाई बहनों को पैसे की तंगी की वजह से स्कूल से निकाल दिया गया।''15



अर्थ की अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए उससे प्रभावित होने वाले जीवन और सम्बन्धों पर अपने-अपने ढंग से असगर वजाहत, शानी, मेहरून्निसा परवेज़ ने प्रकाश डाला है। इन सबको अनुभूति निष्कर्ष रूप में अर्थ का जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव और सम्बन्धों की विषाक्तता को स्पष्ट करता है।सामाजिक सम्बन्धों में बंधा हुआ मनुष्य समय एवं परिस्थितियों से प्रभावित होकर परस्पर सम्बन्धों में भाँति-भाँति के व्यवहार करता है। कभी-कभी उसके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार अत्यधिक निन्दनीय होता है। कभी पाशविक और कभी अत्यन्त प्रेमपूर्ण, भावनापूर्ण। मनुष्य अपने द्वारा किये व्यवहार पर पश्चाताप करता है उसके अंतरात्मा उसे अपने दुर्व्यवहार का प्रयश्चित करने के लिये प्रेरित करती है। उपन्यासों में व्यक्त परिवार समाज और उनसे जुड़े सम्बन्धों के साथ किये गये व्यवहार से ग्लानि ग्रस्त विचारों का उल्लेख उपन्यासकारों ने बार-बार अलग-अलग रूप में किया है। अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास 'समरशेष' की पात्रा भाभी अपने देवर से किये अपने दुर्व्यवहार से लज्जित है वह कहती है कि - ''आप हमें माफ कर दीजिये। हमने आपके साथ बहुत बुरा बर्ताव किया है और हमारा दिल हमको धिक्कार रहा है, हम अल्लामियाँ के सामने क्या मुँह दिखायेंगे? हम आपसे माफी माँगने के लिए इस वक्त यहाँ आए हैं। यक़ीन मानिए हमारा रोआ-रोआ तड़प रहा है। इस वक्त। भैय्या! हमें माफ कर दीजिये।''16



मनुष्य जीवन में मिलने वाले सुखों में डूबा हुआ बहुत कुछ भूल जाता है उसे बहुत देर बाद होश आता है। जब समय उसके हाथों से निकल चुका होता है ऐसे ही पछतावे का उल्लेख नासिरा शर्मा ने 'जिन्दा मुहावरे' उपन्यास में किया है। उपन्यास के पात्रा निज़ाम का सब कुछ पाकर भी कुछ खो देने की पीड़ा का अनुभव बड़ा ही यथार्थपरक है। वह कहते हैं कि - ''पछतावा...बहुत पछतावा हो रहा है बेटे। तुम से क्या छिपाना। कुछ मज़ा नहीं आया ज़िंदगी में सब कुछ पाकर भी क्या खोया यह आज समझ में आया।''17



पाश्चात्य का यही क्रम उन्हीं का उपन्यास 'सात नदियाँ एक समुन्दर' में दिखाई पड़ता है। यहाँ भी भ्रम का परदा ऑंखों पर होने के कारण सत्य से साक्षात्कार होने पर, होने वाले पछतावे का उल्लेख नासिरा शर्मा ने किया है। इस उपन्यास की पात्रा सूसन कहती है कि - ''हमने कभी सोचा ही न था एक परदा था जो ऑंखों के सामने पड़ा था। सुख के अतिरिक्त हमने देखा ही क्या था।''18



वर्तमान के क्षणों को अलग-अलग रूप से अलग-अलग परिस्थितियों को केन्द्र में रखकर चित्रित किया गया है। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' में बुनकर की पीड़ा को व्यक्त किया है। इस उपन्यास के पात्रा को पछतावा है कि दुनिया के लिये मँहगी बनारसी साड़ी बुनने वाले को, माँ को सस्ती साड़ी पहननी पड़ती है। यह श्रमिक वर्ग की अजीब सी नियति है। अनाज उगाने वाले कृषक के पास ही भर पेट खाने को नहीं होता, जूते सिलने वालों के पास पहनने को जूता नहीं होता। इसी सत्य को बिस्मिल्लाह की जागरूक चेतना ने न केवल अनुभव किया अपितु अत्यन्त मर्मस्पर्शी ढंग से भी चित्रिात भी किया है। द्रष्टव्य है - ''वह पछता रहा था उसने गलती की। साड़ी उसे नहीं बेचनी थी। अपनी माँ को दे देनी थी। ... छि: दुनिया भर के लिये साड़ी बिनकर देने वाले घर की औरतों को एक सस्ते दाम वाली बनारसी साड़ी भी नसीब नहीं होती। पूरी उम्र कट गयी सूती धोतियाँ और छींट की सलवार-कमीज पर। अरे जैसे इतना कर्ज़ है वैसे ही कुछ कर्ज और चढ़ जाता और क्या। आज कैसी तो चमक थी, अम्मा की ऑंखों में। साड़ी पर किस तरह उसकी उंगलियाँ फिर रही थी, जैसे कोई भूखा बच्चा रोटी पर अपना हाथ फेरे।''19



कहीं परिस्थितिजन्य पछतावा तो कहीं अपने कर्मों का पछतावा प्रायश्चित की अलग-अलग मानसिकता की परिस्थितियों से प्रभावित होती हुई 'ओस की बूँद' उपन्यास में राही मासूम रज़ा ने अशिक्षा के कारण अनुभव की जाने वाली विवशता और प्रायश्चित का उल्लेख किया है - ''ससुराल से हमें खत लिखियों तो मोहल्ले भर में डौडियाएंगे कि ए भाई हमारी शहलिया का खत आया है कोई पढ़ के सुनाव हमारी पोती हमें का लिक्खिस है।''20



पश्चाताप से जुड़ी मानसिकता को व्यवहार के आधार पर और परिस्थितिजन्य विवशता के आधार पर अब्दुल बिस्मिल्लाह ने तथा राही मासूम रज़ा ने अलग-अलग ढंग से अनुभव कर उसे अभिव्यक्ति प्रदान की है। इन सभी उपन्यासकारों का आधार परिस्थितियाँ भले ही भिन्न-भिन्न है पर इनके मूल में मानवीय प्रवृत्ति अनुरूप मूल चेतना पश्चाताप समान है।जीवन और उससे जुड़ी समस्त परिस्थितियों से जन्मी मानवीय प्रवृत्तियों को आधार बनाकर ही उपन्यासकारों ने उपन्यास में व्यक्त किया है। मनुष्य जीवन को जीता तो हैं क्योंकि जीना उसकी नियति है। परन्तु वह पल-पल जीवन में होने वाली घटनाओं से स्तम्भित रहता है वह जीवन के गूढ़ रहस्यों को खोल पाने में कहीं न कहीं असमर्थ है। 'सात नदियाँ एक समुन्दर' की पात्रा महनाज मनुष्य की रागात्मिक प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हुए कहती है कि - ''इन्सान भी कितना अजीब है जहाँ रहता है वहीं जुड़ जाता है।''21

संदर्भः

13.शानी, काला जल, पृ0 94

14.असगर वज़ाहत, सात आसमान, पृ0 92

15.मेहरून्निसा परवेज़, कोरजा, पृ0 179

16.अब्दुल बिस्मिल्लाह, समरशेष, पृ0 114

17.जिन्दा मुहावरे, पृ0 127

18.नासिरा शर्मा, सात नदियाँ एक समुन्दर, पृ0 66

19.अब्दुल बिस्मिल्लाह, झीनी-झीनी बीनी चदरिया, पृ0 190

20.ओस की बूँद, पृ0 31



21.सात नदियाँ एक समुन्दर, पृ0 167

एक तरह मनुष्य का स्थान और परिवार समाज आदि के प्रति लगाव रचनाकार के मस्तिष्क को प्रभावित करता है, दूसरी ओर एक ही मनुष्य के विषय में लोगों की अलग-अलग राय भी हैरान करने वाली होती है। इस रहस्यमयी वास्तविकता को अब्दुल बिस्मिल्लाह ने 'मुखड़ा क्या देखे' उपन्यास में व्यक्त किया है। उपन्यास के पात्रा बुध्दू के माध्यम से अनुभवगत सत्य को उद्धाटित करते हुए बिस्मिल्लाह ने लिखा है कि - ''हर आदमी अच्छा भी है और बुरा भी। दुख में शायद हम उसकी अच्छाईयों को याद करते हैं। सोचने पर भी बुराई सामने नहीं आती।...फिर एक ही परिवार में कोई बुरा है तो कोई अच्छा भी।''22



मनुष्य को दुनिया को ही नहीं अपने को भी समझ पाना बड़ा कठिन है पूरी ज़िंदगी बीत जाती है पर वह कुछ नहीं समझ पाता। नासिरा शर्मा ने 'जिन्दा मुहावरे' उपन्यास में लिखा है कि इन्सान की यह ज़िंदगी कितनी कम होती है अपने को और इस दुनिया को समझने के लिये।''23



नासिरा शर्मा की भाँति ही मेहरून्निसा परवेज भी जीवन के विविध रंगों को देखकर हैरान है वह अपने उपन्यास 'कोरजा' में नसीमा को आधार बनाकर लिखती है कि - ''ज़िंदगी के इस नये-नये रूपों को देखकर दंग थी, हैरान थी। आदमी का जन्म कितना दुखदायी है। मरकर भी शान्ति नहीं मिलती। फिर भी कहते हैं कि आदमी का जन्म सबसे ऊँचा है और सबसे अच्छा है।''24



मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण अपनी आवश्यकता एवं परिस्थितिवश एक दूसरे के सामीप्य में आता है और इस बीच उसमें मैत्रीपूर्ण, प्रेमपूर्ण, सहानुभूतिपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं। नारी मन सदैव से भावुक, कोमल और संवेदनशील है। उसने समाजगत सम्बन्धों का अनुभव किया है। उसकी पीड़ा को भी भोगा है। नासिरा शर्मा और मेहरून्निसा दोनों ही नारी लेखिका है और दोनों ने ही सामाजिक सम्बन्धों से जुड़े अनुभव को नारी पात्रा के माध्यम से शब्दबध्द किया है। 'सात नदियाँ एक समुन्दर' उपन्यास की पात्रा स्वार्थ हीन समर्पित प्रेम सम्बन्धों की बात करती है। वह कहती है कि कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिनका कोई नियम नहीं, बनने से पहले ही टूट जाते है। क्षणिक होते हैं। इतने कम समय का क्या नियम बनाया जा सकता है। हर रिश्ते से कुछ मिलने की तमन्ना करना केवल स्वार्थ है।''25



मेहरून्निसा परवेज के उपन्यास 'कोरजा' की पात्रा कम्मो ऐसे ही सम्बन्ध के टूटने की पीड़ा सह रही है। वह कहती है कि - ''दुख इस बात का नहीं मुझे धोखा दिया गया बस अपने से ही शिकायत है कि जब उम्र के इतने साल अकेले बिना साथी के काट दिये थे। तो फिर क्यों सहारे के लिये इधर-उधर देखा। उम्र का बड़ा हिस्सा अपने समेटने में अपने को दूसरे की बराबरी में खड़ा करने में बीत गया, थोड़ी फुरसत हुई तो किसी की ओर सहारे के लिए हाथ बढ़ाया, पर वह सहारा बनना छोड़ बैसाखियों की ओर लौट गया। अब सारी उम्र मन इस दर्द को इस वीरानी को ढोता फिरेगा।''26



नासिरा शर्मा और मेहरून्निसा परवेज दोनों ने ही सम्बन्धों की क्षणिकता को स्वीकार किया है। नासिरा शर्मा के यहाँ नि:स्वार्थ सम्बन्ध की समझ है तो मेहरून्निसा परवेज़ के उपन्यास में त्यागपूर्ण प्रेम के परिणामस्वरूप मिली पीड़ा की चुभन व्यक्त हुई है। मनुष्य की रागात्मक वृत्ति संवेदना के धरातल पर प्रेम सम्बन्धों को स्थापित करती है। प्रेम का भाव प्रत्येक प्राणी में पाया जाता है। यह एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है जो अन्तर्मन से सम्बध्द है। प्रेम से जुड़े अनुभव को मेहरून्निसा परवेज़ व्यक्त करते हुए उपन्यास 'कोरजा' में लिखती है कि - ''प्यार बड़े विचित्रा ढंग से सामने आता है, तब बुध्दि काम नहीं करती, आदमी भी सोचने पर मजबूर हो जाता है, क्या ऐसा भी हो सकता है।''27



स्पष्ट है कि मेहरून्निसा परवेज प्रेम में अचेतन मन द्वारा घटित होने वाली प्रक्रिया मानती है। वह लिखती है कि - ''प्यार को शायद किसी सहारे या बहाने की ज़रूरत नहीं होती वह ख़ुद अपने आप अपने लिये बहाने तलाश कर लेता है, रास्ता निकाल लेता है।''28



प्यार स्वत: प्रवाहित होने वाली स्वाभाविक प्रक्रिया है। यही बात नासिरा शर्मा भी मानती है। उन्होंने अपने उपन्यास 'सात नदियां एक समुन्दर' के पात्रों के माध्यम से प्रेम की स्वाभाविकता, सहजता एवं स्वच्छन्दता को व्यक्त किया है। उदाहरणस्वरूप इतनी परेशानी और कहर में भी हम इश्क करना नहीं भूले, जबकि ईरान की धरती से बरकत तक उड़ गयी। हम जिन्दा है मरे नहीं है इसका अहसास आज हुआ है। हम नार्मल है और इश्क का सोता हमारे दिलों में सूखा नहीं है।''29



मेहरून्निसा परवेज़ प्रेम को स्वाभाविक ढंग से घटने वाली एक घटना के रूप में स्वीकार करती हैं। उन्होंने 'कोरजा' उपन्यास में लिखा है कि - ''हम जहाँ से समझते हैं कि प्रेम समाप्त हुआ, वहीं से वह असल शुरू होता है। बासमती के पौधे कैसे धरती फोड़कर महकते हैं। उनकी कच्ची निराली महक अजीब लगती है। बस ऐसे ही प्रेम की महक होती हैं। अनजाने में बीज़ पड़ जाता है और... ? जब प्रेम का अन्त हो जाता है तब यह कच्ची धरती फोड़कर निकली गन्ध मन को मापने लगती है।''30



मेहरून्निसा परवेज़ प्रेम के सम्बन्ध को अटूट रिश्ते की डोर से जुड़ा सम्बन्ध मानती हैं। जिसका कोई मोल नहीं, जिसकी कोई परिभाषा नहीं। जो सीमातीत है, शब्दातीत है और अनमोल थी। नासिरा शर्मा भी इन बात को स्वीकार करती है कि भले ही सब कुछ समाप्त हो जाये पर भावनायें रह जाती हैं। वह 'सात नदियां एक समुन्दर' उपन्यास में लिखती हैं कि - ''भावनाएं ही तो रह जाती हैं। भावनायें ही सब कुछ है।''31



दोनों ही महिला उपन्यासकारों की प्रेम से जुड़ी अनुभूति उनके उपन्यासों में उजागर हुई हैं। दोनों ने ही प्रेम को स्वार्थ और देशकाल, परिस्थितियों की सीमा से ऊपर स्वच्छन्द बहने वाली अमर धारा माना है।जीवन में मनुष्य आशायें और सपने सजाता है और कभी-कभी उसे ही सत्य मान कर सुख का अनुभव करता है परन्तु सहज यथार्थ से टकराकर उसके सपने उसकी आशायें और कल्पनायें चकनाचूर हो जाती हैं। कल्पनात्मक सुख और जीवन के यथार्थ के मध्य संघर्षरत मानव जीवन का चित्राण उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में किया है। 'कोरजा' उपन्यास में मेहरून्निसा लिखती हैं कि - ''कितने अरमानों से तिनके-तिनके कर सपनों का महल खड़ा किया था पर दुष्ट हवा ने आकर सब कुछ छीन लिया।''32



अतीत हमेशा मनुष्य का पीछा करता है। जिन्दा मुहावरे उपन्यास में इस यथार्थपरक सत्य को नासिरा शर्मा ने उद्धाटित किया है वह लिखती है कि - ''गुज़रा कल हर इन्सान पर भारी होता है। उससे जान छुड़ाना बहुत मुश्किल है और इस मौजूदा हकीकत से इन्कार भी गद्दारी है।''33



मुस्लिम समाज में बड़ी संख्या में लोग ईश्वर के प्रति विशेष रूप से अटूट आस्था रखते हुए मिलते हैं। मुस्लिम उपन्यासकारों का ध्यान इस ओर होना सहज स्वाभाविक है। इस्लाम की बुनियाद, त्याग, तपस्या और बलिदान की बुनियाद पर खड़ी है। नासिरा शर्मा का सम्बन्ध मुस्लिम परिवार से रहा है। उन्हें इस्लाम के नाम पर की गई कुर्बानियों को अपने पारिवारिक परिवेश से ही सुना है उसे आत्मसात् भी किया है। 'सात नदियां एक समुन्दर' में उन्होंने आस्थापरक दृष्टि का उल्लेख किया है - ''शहादत न मिली न सही पर जियारत तो नसीब हो गयी। जन्नत तो अली की चौखट है।''34



अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास 'मुखड़ा क्या देखें' उपन्यास में इस्लाम की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि - ''न सिर्फ़ दीन पर मजबूती के साथ कायम रहना है, बल्कि दूसरों को भी इसकी नसीहत देनी है। इस्लाम से बढ़कर वाकई कोई मजहब नहीं है।''35



स्पष्ट है कि भारतीय मुसलमान अनुभूति के धरातल पर विभाजन के जिम्मेदार होने के बोझ को निरन्तर ढोता हुआ असुरक्षा, अविश्वास और संशय से ग्रस्त है।इस्लाम त्याग, बलिदान, तपस्या, मेल-मिलाप एवं भाईचारे का सन्देश देने वाला धर्म है जिसे हर मुसलमान स्वीकार करता है। ये अलग बात है कि अपनी स्वार्थसिध्दि हेतु इसे अपने ढंग से परिभाषित एवं व्याख्यायित करने का प्रयास कुछ अवसरवादियों द्वारा समय-समय पर किया जाता रहा है। जिसका परिणाम भोले भाले आस्थावादी मुसलमानों को भोगना पड़ा है।

संदर्भः-

22.झीनी-झीनी बीनी चदरिया, पृ0 178

23.जिन्दा मुहावरे, पृ0 127

24.कोरजा, प0 222

25.सात नदियाँ एक समुन्दर, पृ0 56

26.कोरजा, पृ0 214

27.वही, पृ0 205

28.वही, पृ0 6529.सात नदियाँ एक समुन्दर, पृ0 198

30.कोरजा, पृ0 208

31.सात नदियाँ एक समुन्दर, पृ0 17

32.कोरजा, पृ0 195

33.जिन्दा मुहावरे, पृ0 156

34.सात नदियाँ एक समुन्दर, पृ0 288

35.अब्दुल बिस्मिल्लाह, मुखड़ा क्या देखें, पृ0 63





फिरोज़ अहमद

संपादक, वाङ्मय

बी-4,लिबटी होम्स, अलीगढ, उत्तरप्रदेश







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कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क