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अंतस की आवाज

- सुदर्शन पानीपती
आखिर रेणुका चली गई। उसे विदा देकर मैं लौटा तो मेरी मनःस्थिति उस मुसाफिर की-सी थी जो थक जाये, हार जाए, मंजिल के पास जाकर भी उसे छू न सके, असफलता जिसकी नियति बन जाए।
मैं चल तो रहा था किन्तु मेरी चाल में असमरसता नहीं थी। मेरे पांव लड़खड़ा रहे थे। मैं कुछ कदम चल कर रुक जाता। मुझे एहसास होता कि मेरी टांग मेरे जिस्म को खींच नहीं पाएगी। टांगें बहुत कमजोर हैं और जिस्म बहुत बोझल। बदहवासी में मैं अपनी गरदन पीछे घुमाता, मुड़कर देखता। मुझे भ्रम होता है कि रेणुका मेरा पीछा कर रही है, भागी आ रही है। रुक जाओ, रुक जाओ पुकार रही है। ग़ौर से देखने पर ही मुझे विश्वास होता कि नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। मैं जिन चेहरों में रेणुका का चेहरा खोज रहा हूँ, कौतूहलवश वे मुझे घूर रहे हैं, मानो जानना चाहते हैं कि मैं परेशान क्यों हूँ? रह रहकर पीछे मुड़कर क्यों देखता हूँ? रुक ही क्यों नहीं जाता? आने वाले की प्रतीक्षा ही क्यों नहीं कर लेता?
जैसे-तैसे मैं घर के मुख द्वार पहुँचा। चाहता था कि हाथ बढ़ाऊं, दरवाजे पर दस्तक दूँ, किवाड़ खुलवाऊं मगर मुझसे यह नहीं हो पा रहा था। ऐसा करना मुझे असंभव प्रतीत हो रहा था। मेरी इच्छा शक्ति ही जवाब देने लगी थी। मुझे आभास हो रहा था कि मैं यदि चाहूँ भी तो हाथ नहीं उठेगा, दरवाजे की जानिब नहीं बढ़ेगा। मेरे मनोप्राण कसमसाने लगे थे, बदन सिहरने लगा था। मुझे यक़ीन था कि बाबा जाग रहे होंगे, मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। मां ने उन्हें सब कुछ बता दिया होगा। किवाड़ वही खोलेंगे। फिर दोनों पल्लों को अपने हाथों से थामते हुए पूछने लगेंगे।
तुम्हारा मुँह क्यों उतरा हुआ है?
रेणुका क्यों नहीं आई?
यहां आना उसे अच्छा क्यों नहीं लगा?
वह वापस लौट गई है क्या?
उनके प्रश्नों का स्वरूप ऐसा होगा, यह मेरी कल्पना थी। मात्रा मेरे चिंतन की उपज। इसलिए मैं उन्हें विशेष महत्त्व नहीं दे रहा था। मैं जानता था कि ये मेरे अंतस में व्याप्त हताशा का परिणाम है। बाबा किसी और तरह भी पूछ सकते हैं। मगर सारांश तो यही होगा, मुझे ख्याल आया। मेरी हताशा बढ़ने लगी। उसके तीनों अक्षर, ह ता शा एक बड़े सवालिया निशान में ढल गये। मेरी आंखों के सामने हिलोरे लेने लगे, वाल क्लाक के पैंडुलम की तरह झूलने लगे, इधर से उधर, उधर से इधर।
तब क्या होगा जब किवाड़ खुलेंगे, बाबा से सामना होगा। वह मेरी आंखों में झाकेंगे। मुझसे सवाल करेंगे। वही सवाल, मैं जिनकी कल्पना तो कर रहा हूँ किन्तु उन्हें महत्त्व नहीं देना चाहता था। वह अपनी खनकदार आवाज में उन्हें दोहराएंगे, उनका पुनर्पाठ करेंगे।
यह विचार मेरे रोम-रोम में चरमराहट उत्पन्न करने लगा, पेड़ से झड़ते सूखे पत्तों की-सी चरमराहट।
रेणुका, जाने उसका नाम मेरी ज+बान पर कैसे आ गया। अब मेरे सामने बाबा का आक्रोशित चेहरा नहीं, रेणुका का वजूद था, सुघड़, सलोना, सौष्ठव। वह झील-सी विस्फारित आंखों वाली लड़की मुझे सम्मोहित कर रही थी।
मेरा अतीत मेरी आंखों के सामने उघड़ने लगा, एक नन्हीं-सी बच्ची को कन्धे से लगाए वह हमारे घर के सामने से गुज+रती है। मां बनने के बाद जब वह अपने बच्चे को उठाकर चलेगी तो कैसी लगेगी, मैं अनुमान लगाता हूँ। उसने कनखियों से मेरी ओर देखा है। मैं सायास मुस्कराता हूँ। एक मधुर मुस्कान उसके अधरो पर भी छितर गई है। मैं उमगता हूँ। सोचता हूँ लड़की पटने ही वाली है। जिस उद्देश्य से मैं उसे रोज ताकता हूँ उसके पूर्ण होने में अब देर नहीं। वह गली की नुक्कड़ पर जाकर जरा सी ठिठकती है, पीछे मुड़कर देखती है, मुस्कराती है और चली जाती है। मैं चाहता हूँ। मेरा मन बल्लियों उछलने लगता है।
हमारा एक कमरे का किराए का घर उसके घर के बिल्कुल सामने था। बाबा वहां एक फैक्ट्री में नौकरी करते थे। दरअसल वह नौकरी मुझे दिलाने गये थे किन्तु स्वयं भी करने लगे। सुबह जब वह काम पर चले जाते, मैं टिकटिकी लगाकर उसके घर की ओर देखने लगता। हर क्षण मुझे यह आस रहती कि वह अपनी विधवा मां की नजर बचाकर बाहर आएगी, मेरी ओर देखेगी, हंसेगी और शर्माती हुई लौट जाएगी।
बाबा सांझ को थके हारे लौटते। मुझसे पूछते कि दिन भर मैं क्या करता रहा हूँ? कहीं कोई नौकरी आदि तलाश करने का प्रयास भी किया अथवा नहीं। उनकी संतुष्टी के लिए मैं झूठ बोलता। अपने उत्तर में एक कल्पित दिनचर्या का खाका पेश करता। उस निकृष्ट प्रस्तुति के समय मुझे आत्मग्लानी का अहसास भी होता। मुझे ख्याल आता कि नौकरी करने तो मैं आया था, बाबा को तो फकत मेरा अभिभावक बन कर रहना था, सिर्फ मुझे संरक्षण देना था। इस दायित्व का निर्वहन भी वह मां के कहने पर कर रहे थे। ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित मां की मुसमुसी शक्ल देखकर बाबा भाव विह्नल हो उठते थे। वह समझते थे कि उसके किसी भी अनुरोध को अस्वीकार करना उसे मानसिक यातना देना है।
मां ने ही तो कहा था, दीपू की उम्र बढ़ती जा रही है। मेरी इच्छा है कि यह कोई धंधा करे, अपने पांव पर खड़ा हो, इसकी शादी हो। इसे बसता - रसता देखकर मैं चैन से मरूंगी। मैं सोचती हूँ करनाल हमारा आबाई वतन है वहां के लोग आज भी आप को याद करते हैं। आप इसे वहीं ले जाएं, कह-कहवाकर किसी फैक्ट्री में काम दिला दें। यह नौकरी करेगा, आप इसका ख्याल रखना।
कहते-कहते मां की आंखें भर आई थीं। बाबा न चाहते हुए भी मेरे साथ आ गए थे। तभी हमने यह कमरा किराए पर लिया था। मिलने-मिलाने वाले तो बहुत हैं, पर किसी के यहां ठहरना मुनासिब नहीं, बाबा सोचते थे। कमरे का परिवेश कैसा है, यहीं अंदाजा लगाने के लिए मैं इधर-उधर झांक रहा था कि अकस्मात मेरी नजर रेणुका पर पड़ी। उसने भी निगाह भर कर मुझे देखा था। लौडिंया सुन्दर है मैंने होंठों ही होंठों में कहा था।
बाबा के प्रयासों से मुझे एक फैक्ट्री में काम मिल गया। वह स्वयं किसी दूसरी जगह नौकरी करने लगे तेरी मां की बीमारी, घर की खस्ताहाली तथा दो स्थानों पर बटकर रहने का खर्च मेरी पैंशन और तेरी पगार में नहीं निपटेंगे। यो भी निठल्ले आदमी से जिन्दगी चिढ़ने लगती है। इसीलिए मैंने जॉब करना ही उचित समझा है बाबा ने एक शाम बताया था।
वह जॉब करते रहे लेकिन मैंने छोड़ दी। बहाना बना दिया कि मेरी मालिकों से नहीं बनती। कह दिया कि नौकरी का क्या है, कहीं और ढूंढ लूंगा। वास्तव में मेरी रुचि तो महज रेणुका को फांसने में थी। अब मैं जुनूनी की भांति अपने कमरे के बाहर खड़ा रहता। मुझे यही इन्तजार होता कि वह मेरे सामने आए तो मैं उसे देखकर मुस्कराऊं। मेरी बेबाकी तथा बेशर्मी पर आस पड़ौस के लोग काना-फूंसियां करते, जवान लौंडा कुछ नहीं करता, केवल इश्क फरमाता है और बूढ़ा बाप जिसे आराम करना चाहिए, सुबह से शाम तक पिलता रहता है।
रेणुका से मेरी मित्रता पर निखार आने लगा। हम शाम के गहराते अंधेरे में मिलते। उस कॉलोनी के बीचों-बीच बना छोटा-सा पार्क हमारे प्रेम प्रसंगों का साक्षी होता। उसे अपने चंगुल में पूरी तरह फांसने के लिए मैं खूब झूठी सच्ची फैंकता। कुछ ही दिनों में मेरा जादू उसके सिर चढ़कर बोलने लगा। अब वह मिलन स्थल पर मुझसे पहले पहुंचती मेरी प्रतीक्षा करती। वह सदैव उल्लसित होकर कहती कि उसे मेरी राह देखना अच्छा लगता है।
युवा मनों की चाहत युवा शरीरों की चाहत में बदलती, इससे पूर्व ही एक दिन बाबा ने घर बदलने की घोषणा कर दी। शायद वह मामले की तह तक पहुँच चुके थे।

नया घर शहर से बाहर था, उनकी फैक्ट्री के समीप किन्तु रेणुका के घर से बहुत दूर। अब रोज मिलना संभव नहीं होगा, एक ठण्डी आह भरकर मैंने रेणुका से कहा। एक सांझ, बाबा ने किचन में घुसते ही प्रश्न किया -
कौन आया था?
कोई नहीं
तो क्या दो गिलासों में चाय पीने वाले तुम अकेले ही थे?
अब झूठ की गुंजाइश नहीं थी। मैंने सच उगल दिया कि रेणुका आई थी।
अच्छा तो वह डायन यहां भी पहुँच गई।
उन्होंने त्यौरियां चढ़ाकर कहा। वह खिन्न थे किन्तु मेरे लिए वह खिन्नता बेअसर थी। अपने घर से इतनी दूर आकर उसका मुझे मिलना, मेरे लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। मैं स्वयं पर इतरा रहा था। मैं समझता था कि मुझसे मुलाकात का जोखिम उठाकर उसने मेरे भीतर आत्म विश्वास पैदा किया है। मुझे यह अहसास दिया है कि मैं मां-बाप की नज+रों में भले ही निकम्मा और निखट्टू हूँ, किन्तु इश्क की राह में तो मैंने मील का पत्थर गाढ़ दिया है। लौंडिया फांसना कोई आसान काम नहीं है। मेरे ये विचार मेरी मानसिक वृत्तियों पर पूरी तरह छा गये थे।
बाबा की संभवतः मेरी मूर्खता का अनुमान लगा चुके थे। कुछ देर पहले जो रोष उनके चेहरे पर उजागर हुआ था, अब नहीं था। वह सहज होकर बोले -
क्यों आई थी?
मुझे चूरमा खिलाने। कह रही थी वह मुझे बहुत प्यार करती है। मन की अतल गहराईयों से चाहती है।
मैंने बड़े गर्व से उत्तर दिया। बाबा एक क्षण के लिए गम्भीर हो गये। मगर दूसरे ही क्षण अपने होठों पर हल्की सी मुस्कराहट बिखेरते हुए बोले -
चूरमा खिलाने आई थी, अच्छा? इस लोकांचल में प्रचलित हीर रांझा की प्रेम कहानी तो तुमने सुनी ही होगी। उस हीर ने भी रांझे को बहुत चूरमा खिलाया था। वह भैंसे चराता था। हीर उसे रोज मिलने जाती थी। उसकी बाहों में सिमटी सकुची उसे चूरमा खिलाती थी। उसी चूरमे की गंध मायावी सिद्ध हुई। वह संघर्षशील चरवाहा प्रेम दीवाना हो गया। उसने कान छिदवाकर कुण्डल पहन लिए, वीतरागी बन गया
गांभीर्य एक बार पुनः उनके चेहरे पर उभरने लगा। वह पैनी दृष्टि से मुझे घूरते हुए बोले, - तू बन सकेगा रांझा? हो सकेगा संन्यासी अपनी रेणुका की खातिर? तुम पाठ्य पुस्तकों से लौ नहीं लगा सके, रोजी-रोटी की खातिर हल्कान नहीं हो सके, जीवन की प्राथमिकताएं तय नहीं कर सके, प्रेम के दुर्गम मार्ग पर चल सकोगे?'' बाबा का स्वर शनै-शनै तीखा होता जा रहा था। उनके सामने खड़ा रहने की ताब अब मुझमें नहीं थी। मैं चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया।
रेणुका अब लगभग रोज आने लगी थी। हम काफी समय एकान्त में गुजारते, कहकहे लगाते, अपने कमरे की खामोश फजाओं में जीवंतता उलीचते। वह मेरी बाहों में होती। मैं उसे अपनी वाक्‌ पटुता से भांति-भांति के सब्ज बाग दिखाता। जीवन भर साथ रहने की कसमें देता। वह मुझसे रोज मिलने आती है, इसी आधार पर मैं उसे सोहिनी की संज्ञा देता।
सोहिनी जो घड़े के सहारे तैरती हुई चनाव नदी को पार करती थी। हर रोज अपने यार महींवाल को मिलती थी।
उन्मना होने का अभिनय करते हुए मैं उसे बताता कि किस प्रकार एक दिन सोहिनी का घड़ा दरिया की निर्मम लहरों से जूझता हुआ फूट गया, वह गहरे पानी में समा गई।
सोहिनी डूब गयी, मगर महींवाल से उसकी मुहब्बत जिन्दा रही। उसका फसाना पंजाब की एक रागरंजित लोकगाथा बन कर अमर हो गया।

मैं जब-जब उसे यह कहानी सुनाता, उसकी मानसिक तथा दैहिक उत्तेजना बढ़ने लगती। उसका समर्पण अतिरेक को छूने लगता। वह प्यासी हिरणी की तरह छटपटाती, आंखों ही आंखों में कहती कि, मैं अपनी बाहों का घेरा और मजबूत करूं। अपनी आगोश में इतना कसूं कि वह मेरे ही वजूद का हिस्सा बन जाए।
उन अंतरंग क्षणों में वह प्रायः बुदबुदाती कि वह मेरे बच्चे की मां बनेगी, मुझे मेरा प्रतिरूप देगी। वह भाव विह्‌वल होकर फुसफुसाती, मैं अपना हाथ किसी दूसरे को नहीं दूंगी। तुम्हें वक्त की निर्ममता का शिकार नहीं होने दूंगी, रांझे की तरह मारा-मारा नहीं फिरने दूंगी, महींवाल की तरह बिछोह नहीं सहने दूंगा मैं मन ही मन अपनी चतुराई पर खुश होता।

एक दिन अचानक बाबा की नौकरी छूट गयी। वह घर आए तो उनका मुंह लटका हुआ था। उन्होंने एक नजर मुझ पर डाली और स्वतः बोलने लगे ,जिन्दगी भी एक रूपसी की तरह है, खूबसूरत बिंदास मोहिनी। परन्तु उसकी जुल्फें संवारने के लिए आदमी को फरहाद बनना पड़ता है, पहाड़ काटने पड़ते हैं। लेकिन नहीं, यह सब तुम्हें बताने का कोई फायदा नहीं। मैं समझता था कि मुझे इस वृद्ध अवस्था में नौकरी करते देखकर तुम्हारी आंखें खुलेंगी। तुम्हारे भीतर आत्म निर्भर बनने की ललक जागेगी। तुम मुझे नौकरी छोड़ देने के लिए कहोगे। खुद करने का आग्रह करोगे। तुमने अगर यह किया होता तो न मैं बुढ़ापे में नौकरी करता और न ही नौकरी से निकाले जाने का कड़वा अहसास लेकर लौटता''
बाबा, बोलते-बोलते रूआंसे हो उठे। अगले ही क्षण उनकी आंखें बरसने लगीं। परन्तु बूढ़ी आंखों से गिरते मोटे-मोटे आंसुओं का आकार मुझे एक झीने पारदर्शी आवरण सा ही लगा। मेरी नजरें उन्हें बेधती हुई रेणुका के शारीरिक अवयवों को देखने लगी। उनके बांकपन का आंकलन करने लगीं। खजुराओं की किसी मूर्ति की तरह उसका जिस्म मेरे सामने लहराने लगा। मैं कल्पना करने लगा कि उसके रसीले अधर मेरे पिपासित होठों की प्यास बुझा रहे हैं। उसकी सुंगधित सांसे मेरी रूह को सुवासित कर रही हैं। मेरे सीने से सटे उसके उरोज यह टोह लेना चाहते हैं कि मेरी धड़कनों में उसका नाम रचा बसा है या नहीं। बाबा रोते रहे, लेकिन मेरे कान पर जूं तक न रेंगी।

वह झल्लाते हुए बोले, अब भांकरोटा लौटने के सिवा कोई विकल्प नहीं है। तुम्हें तो कुछ करना धरना नहीं। मुझे ही झक मारनी है तो मैं वहीं मार लूंगा अपने गांव में। कम से कम तेरी मां का ख्याल तो रख सकूँगा।
आखिर कुछ दिनों में करनाल हम से छूट गया।

गांव लौटकर मैं रेणुका की याद में आंसू बहाता रहता। मां मेरे निठल्लेपन पर सिर पीटती। बाबा यदा-कदा बुदबुदाने लगते। उनकी बुदबुदाहट हमेशा एक ही कथन की पुनरावृत्ति होती।
इस सच्चाई से तुम वाकिफ नहीं हो कि जीवित रहने के लिए मनुष्य को भूख के खिलाफ जिहाद करना पड़ता है। एक लड़की के इश्क में गिरफ्तार होकर तुमने समझ लिया है कि करबला का मैदान मारने वाले तुम्हीं थे.
मां प्रायः उनकी बात काट कर अपनी कहती, इससे इतना भी तो नहीं हुआ। यह उसे बहू बनाकर ही ले आता तो भी मैं समझती कि यह कुछ कर गुजरा है। मैं दोनों की सुनता और शून्य में घूरने लगता।

एक दिन अचानक मुझे रेणुका का पत्र मिला। लिखा था -
दीपू
मैं २५ जून को जयपुर आ रही हूँ। मुझे अंबेर में शिलामाता के दर्शन करने हैं। भैया ने कभी कोई मन्नत मांगी थी, मेरा वहाँ आगमन इसी सिलसिले में है। रात की बस से चलकर मैं सुबह पहुंचूँगी और उसी सांझ लौट आऊंगी। आशा करती हूँ कि तुम आओगे कुछ देर साथ रहेंगे।
रेणुका
२० जून को लिखा गया उसका पत्र मुझे २४ जून को मिला, मैंने पत्रा पढ़ा, उसे बार-बार चूमा। सहसा मुझे याद आया कि उसने बड़े ही निच्छल भाव से कहा था -
मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनूंगी, तुम्हें तुम्हारा प्रतिरूप दूंगी,

मैं बहुत खुश था। मैंने सोचा, मैं उसे भांकरोटा ले आऊंगा, वापस नहीं जाने दूंगा फिर मुझे ख्याल आया कि वह स्वयं ही नहीं लौटेगी। भैया को पत्रा द्वारा सूचित कर देगी कि उसने अपना लक्ष्य पा लिया है। उसे उसका अभीष्ट मिल गया है। मैं मां से कहूँगा लो मैं तुम्हारी बहू ले आया हूँ, बाबा को बोलूंगा लो बाबा, देखो मेरी हीर मेरे साथ आ गई है। उसने अपने रांझे को जोगी नहीं बनने दिया। अगले दिन सवेरे-सवेरे ही मैं उसकी अगुवानी के लिए निकल पड़ा। जाते-जाते मां को इस सम्बन्ध में एक हल्का सा संकेत भी दे गया।
मेरे पहुंचने से पूर्व रेणुका, वहां पहुंच चुकी थी। वह देवी के पूजन अर्चन से निवृत हुई तो हम मन्दिर के प्रांगण में टहलने लगे। वह पर्यटकों की सवारी हेतु सजे संवरे हाथियों को देखती रही। वहां की दुकानों पर रखी राजस्थान मूल की कलाकृतियों में खोई रही। कुछ देर बाद हम सुस्ताने के लिए वहीं एक ओर बैठ गये। उसकी भाव भंगिया से मुझे महसूस हुआ कि आज वह सदैव की भांति प्रफुल्लित नहीं है। उसका मस्तिष्क किसी उलझन का निदान ढूंढ रहा है। उसकी मांसल गालों पर गम की एक ऐसी परत है जिसके परिप्रेक्ष्य में गहरा दर्द उफन रहा है। इससे पूर्व कि मैं उसकी उदासी को खंगालने का प्रयास करूं उसने नजर भर कर मेरी आँखों में देखा। सहसा उसका सिर मेरे कंधे पर झूल गया। उसके अधर फड़फड़ाए -
दीपू, आज की भेंट हमारी अंतिम भेंट है।
मैं विस्मत सा उसका मुँह ताकने लगा। उसने अपनी बात जारी रखी।
तुम से विवाह का मेरा प्रस्ताव भैया ने खारिज कर दिया है। उनकी दृष्टि में तुम्हारी जीवन संगिनी बनने की अपेक्षा मेरा जीवन पर्यन्त कुंआरी रहना कहीं बहतर है। उनका कथन है कि जो अपना पेट भरने के लिए ही अपने बाप का मोहताज है वह पत्नी को कहां से खिलायेगा। उन्होंने यह धमकी भी दी है कि मैं यदि जिद करूंगी तो वह आत्म हत्या कर लेंगे। दीपू, तुम तो जानते ही हो कि पिता के देहान्त के पश्चात्‌ मुझे भैया ने ही पाला-पोसा है। मैं तुमसे प्यार जरूर करती हूँ किन्तु तुम्हारी खातिर मैं अपने मां जाये की लाश से नहीं गुजर सकती। यह साहस मुझमें नहीं है। मैं क्षमा चाहती हूँ। मुझे माफ करना दीपू।

कभी कभार शायद खामोशियां भी बोलती हैं अन्यथा बाबा कैसे जान पाते कि मैं बाहर खड़ा हूँ। उन्होंने एक झटके के साथ किवाड़ खोले, मैंने पर्दापण किया। मुझे देखकर मां भी वहीं आ गई। अचकचाते हुए मैंने सारा माजरा कह सुनाया। सुनते ही मां सिर पकड़ कर बैठ गई किन्तु बाबा ने एक जोरदार ठहाका लगाया।
तो तुम्हारी रेणुका, साहिबा बन गयी। साहिबा ने भी अपने भाईयों की खातिर अपने यार मिजरा के धनुष और बाण तोड़ डाले थे।
उफनते लावे की तरह ये शब्द उनके मुंह से निकले।
मां ने अपने स्वभावानुसार उनकी बात काटते हुए टिप्पणी की।
इस संघर्ष भीरू की तुलना मिर्जा से? आप भी कमाल करते हैं। कहां वह बहादुर प्रेमी और कहां यह हरामखोर पाखंडी।
हरामखोर, पाखंडी, मां के इन शब्दों ने मेरे तन बदन में आग लगा दी। मैं चाहता था कि उसका प्रतिवाद करूं, मगर मेरे भीतर का मैं मुझे धिक्कारने लगा।
तुमने पाखण्ड और हरामखोरी के सिवा किया ही क्या है?
यह मेरे अंतस की आवाज थी।
एच.१९/ए, रामनगर विस्तार,
सोडाला, जयपुर।

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