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आधा गाँव में विभाजन की त्रासदी और राष्ट्रीय एकता के संदर्भ

- डॉ० मेराज अहमद
हिन्दी के चन्द चर्चित उपन्यासों में राही मासूम रजाकृत आधा गाँव का उल्लेख किया जाता है। साम्प्रदायिकता के प्रश्न की जैसी सांगोपाँग छान-बीन मुस्लिम समुदाय के विशेष सन्दर्भ में आधा गाँव के माध्यम से हुई दिखायी पड़ती है, कदाचित्‌ दूसरे उपन्यास में नहीं दिखती है। यद्यपि साम्प्रदायिकता से सम्बन्धित कथा-साहित्य की परम्परा हिन्दी साहित्य में बन चुकी है। इधर हाल के वर्षों में यह परम्परा घनीभूत भी हुई है। मुस्लिम-समाज से आने वाले रचनाकारों ने मुस्लिम समाज के परिप्रेक्ष्य में इसे विशेष रूप से देखने का प्रयास भी किया है। इन प्रयासों के तहत मुस्लिम मानसिकता का पक्ष बड़े तल्ख तेवर के साथ उभरा है। तल्ख यूँ है कि उसमें भीरूता नहीं स्पष्टवादिता है। संतुलन का प्रयास नहीं, ईमानदारी है, जो भारतीय समाज की सबसे भयावह त्रासदी की तहों तक हमें ले जाती है। कहना अनुचित न होगा कि जिस गहराई से मुस्लिम मानसिकता और साम्प्रदायिकता की जाँच-पड़ताल आधा गाँव में हुई हैं वही गहराई लेखन के इतने समयान्तराल के बाद भी उपन्यास की प्रासंगिकता के न केवल बनाए हुए है अपितु उसे बढ़ा भी रही है।
महत्त्वपूर्ण साम्प्रदायिकता की अभिव्यक्ति नहीं, महत्त्व है उससे मुक्ति का, जो किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के हित में नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र के हित में है। राष्ट्रीय एकता के नियामक तत्त्व जीवन और समाज की बहुत सारी गतिविधियों से ही उभरकर आते हैं, परन्तु साम्प्रदायिक सद्भाव कदाचित्‌ इस दिशा में सर्वाधिक अहमियत रखता है। दरअसल साम्प्रदायिकता से छुटकारा और राष्ट्रीय एकता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं इस वास्तविकता से कदाचित्‌ डॉ० राही मासूम रजा भली-भाँति परिचित थे इसीलिए संभवतः आधा गाँव' की कथा के केन्द्र को विभाजन की त्रासदी का आधार दिया। विभाजन की त्रासदी का विषय त्रासदी के अंकन एवं आकलन की दृष्टि से उतना अहम्‌ नहीं जितना की उस मानसिकता के अध्ययन से है जो साम्प्रदायिकता के मूल में कार्यरत था। साम्प्रदायिकता के ऐतिहासिक पक्ष की जानकारी के बिना इसे समझना संभव नहीं, क्योंकि साम्प्रदायिकता को जन्म देने में सहयोगी जिस वर्ग के लोग रहे हैं वैसे ही लोग समाज में आज भी मौजूद ही नहीं अपितु ... सक्रियता के उत्कर्ष पर हैं। इसे गहराई से समझने के लिए विभाजन के बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विभाजन भारत में विकसित साम्प्रदायिकता के उत्कर्ष का परिणाम था।
आधा गाँव, विभाजन की त्रासदी के अंकन के बजाय उस मानसिकता को उकेरने के प्रयत्न के रूप में सामने आता है जो साम्प्रदायिकता के सन्दर्भ में कार्यरत थी। उल्लेखनीय यह भी है कि प्रस्तुत उपन्यास में विभाजन को ग्रामीण मनोभावों के स्तर पर रूढ़िगत एवं अशिक्षित जनता की दृष्टि से देखा गया है। भारत के ग्रामीण समाज में नगरों की भाँति साम्प्रदायिकता की अग्नि बाद में पहुँची। निश्चित रूप से इसका कारण यह है कि धार्मिक वैभिन्य के बावजूद ग्रामीण-समाज नगरीय-समाज की अपेक्षा सांस्कृतिक धरातल पर अधिक मजबूती से बंधा होता है।
उपन्यास की केन्द्रीय पृष्ठभूमि में एक गाँव और वहाँ आने वाला साल-दर-साल मोहर्रम का महीना, ताजियादारी, जुलूस, नौहें, शोजखानी, मजलिसें और चालीसवां है। गाँव पूरा नहीं आधा है, जितना कि लेखक जीता है। यह गाँव उत्तर-प्रदेश के जिला गाजीपुर में स्थित गाँव गंगौली है। आधा गाँव का यह पूरा गाँव गंगौली शिया और सुन्नी मुसलमानों का गाँव है तथा यह सैयदों, जुलाहों, राकियों, उत्तर पट्टी और दक्खिन पट्टी एवं आस-पास के पुरवों-मुहल्लों को सम्मिलित कर लेने पर हिन्दुओं और मुसलमानों, छूतों और अछूतों तथा जमींदारों एवं आसामियों में बंटा है। बावजूद बंटवारे के एक ऐसी रेखा है जो सबको एकता के सूत्र में पिरोये थी। परन्तु देश के सीने पर विभाजन की रेखा खिंचती है तो फिर गंगौली उसकी लपेट में आ ही जाता है। उपन्यास की कहानी का खुलासा करते हुए स्वयं उपन्यासकार का मत कुछ यूँ है कि यह कहानी न कुछ लोगों की कहानी है न कुछ परिवारों की, यह उस गाँव की कहानी भी नहीं है, जिसमें इस कहानी के भले-बुरे पात्र अपने आप को पूर्ण बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। यह कहानी न धार्मिक है न राजनीति की, यह गंगौली से गुजरने वाले समय की कहानी है।१ आधा गाँव का समय यानी कि इसका फलक द्वितीय विश्व-युद्ध की पृष्ठभूमि में आरम्भ होने वाले स्वतन्त्रता-संघर्ष के अन्तिम दौर से शुरू होकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद तक के एक लम्बे समयान्तराल को अपने अन्दर समेटे हैं। जहाँ तक विभाजन की प्रत्यक्ष प्रक्रिया का प्रश्न है, इस दृष्टि से उपन्यास का तीन चौथाई के बाद का भाग महत्त्वपूर्ण है। यही वह भाग है जिसमें विभाजन की ऐतिहासिक प्रक्रिया के फलस्वरूप निर्मित चेतना की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। वस्तुतः यह कहानी का वही भाग है जहाँ से यह स्पष्ट हो जाता है कि गंगौली का मुसलमान कितना अपने गाँव का है कितना अपने धर्म का, कितना भारतीय है और कितना मुसलमान। विभाजन के संदर्भ में गंगौली के मुसलमानों की मानसिकता का, उपन्यास के इसी बिन्दु से उद्घाटन होता है। इसे मुसलमानों के एक बड़े वर्ग की मानसिकता के रूप में देखा जा सकता है। दरअसल थोड़े-बहुत अन्तर के साथ देश के उत्तरी भाग के मुस्लिम समाज की जीवन-शैली में कोई उल्लेखनीय अन्तर दिखायी नहीं देता है।
मुहर्रम का भारतीय मुस्लिम समाज के धार्मिक सामाजिक जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। प्रभाव की इसी व्यापकता के माध्यम से गंगौली के जीवन और समाज में होने वाले परिवर्तन तथा उससे निर्मित मानसिकता पर्त-दर-पर्त खुलती हुई मुस्लिम मानसिकता के विस्तृत परिप्रेक्ष्य से परिचित कराती है। गंगौली में एक तरफ मियाँ लोगों की जमींदारी का गुरूर और ठाट-बाट है तो दूसरी तरफ जीवन की विदू्रपताएँ हैं, खोखलापन है, जो मोहर्रम के महत्त्वपूर्ण अवसर से जुड़े क्रिया-कलापों के माध्यम से बखूबी सामने आता है। मियाँ लोगों से जुड़े अहीरों, जुलाहों, ठाकुरों इत्यादि के जीवन के भी कुछ बन्द खुलते हैं। मोहर्रम के जुलूस में मियाँ लोग आपस में खून-खराबा भी कर देते हैं, लेकिन इमामबाड़े का फर्श और वहाँ के अंधेरे में हकीम अली कबीर की गूँजती हुई आवाज, शब्बू पढ़ो भाई, सबको एक सूत्र में बांधे रहती है।
दरअसल मोहर्रम का गंगौली के जीवन में इतना गहरा प्रभाव था कि उनकी खुशियाँ उनके दुःख, उनके जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं जिसे उससे अलग करके देखा जाय। मोहर्रम की व्यस्तता में वे अपने इतिहास से इतने बेखबर थे कि उन्हें इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती थी कि बरगद की छाँव में लेट कर अपने इतिहास के विषय में सोचें जो कि रामायण से आगे तक फैला हुआ है,२ फिर उन्हें विभाजन को लेकर उठा प्रश्न भला कैसे प्रभावित कर सकता था जो कि अपना लम्बा ... इतिहास भी नहीं रखता था न ही उनके लिए उसकी खास अहमियत ही थी। ''ख्याल में भी गंगौली वालों को गंगौली छोड़ने की बात न आती थी।''३ वह किससे अलग होते, उस भारत से जहाँ आने की तमन्ना इमाम हुसैन के दिल में भी रही हो।४ गंगौली के जीवन में हिन्दू-मुस्लिम एकता की जड़ों की गहराई का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि, ''शिया मुसलमानों में ख्याल आम है कि एक कश्मीरी ब्राह्मण कर्बला में शहीद हुआ था।''५ मोहर्रम का ताजिया उठाने वाले हिन्दू होते थे आगे चलने वाले भी हिन्दू। ग्रामीण जीवन में पीर-फकीरों की मजार पर जहाँ एक तरफ हिन्दू पूरी श्रद्धा और आस्था से चादरें चढ़ाते थे वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम जमींदार मन्दिरों के लिए जगह-जमीन की व्यवस्था करने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे।६
आपसी लड़ाई के कारण गंगौली के मियाँ लोग फुन्नन मियाँ की लड़की रजिया की मौत के बाद उसकी अर्थी को कन्धा देने से इन्कार कर देते हैं। फिर कंधा देने के लिए झिंगुरिया और ठाकुर पृथ्वीपाल के साथ उनका सारा परिवार सामने आ जाता है। जनाजे की नमाज के बाद जब फुन्नन मियाँ अपनी बेटी को कब्र में उतारना चाहते हैं, तो पृथ्वीपाल कहता है, ''हम उतारब अपनी बहिन को'',७ सामाजिक और सांस्कृतिक एकता की ऐसी मजबूत डोर से बंधे गंगौली वालों के मस्तिष्क में यह बैठना कि हिन्दू-मुसलमानों को इस देश से निकालना चाहता है, मुसलमान हिन्दुओं का दुश्मन है, आसान नहीं था।
अलगाववादी तत्त्वों द्वारा विभाजन के पहले यह प्रचारित-प्रसारित किया गया कि ''पाकिस्तान न बना तो आठ करोड़ मुसलमान यहाँ (भारत में) अछूत बन जायेगा।''८ यह बात मुसलमानों की समझ से बाहर की थी। जो लोग अपने जीते जी उन लोगों की माँ-बहन की तरफ आँख उठाने वाले की आँख फोड़ने के लिए तैयार हैं,९ उनके साथ पीढ़ियों से रहते आये हैं वो उनके साथ ऐसा व्यवहार भला क्यों करेंगे?
हिन्दू अलगाववादियों का यह प्रचार कि मलेच्छों ने भारतवर्ष को तहस-नहस कर दिया है। मन्दिरों को तोड़-तोड़ कर मस्जिदें बनवा ली है इन पापियों ने, आम हिन्दू की समझ में ही नहीं आता था, क्योंकि उसने तो मियाँ लोगों को दशहरे का चन्दा और बाबा के मठ के लिए जमीन देते देखा था।१० दरअसल ग्रामीण जीवन में अलगाववाद का ज+हर बहुत प्रभावी नहीं था क्योंकि वह वहाँ बाह्य शक्तियों द्वारा थोपा उनके निजी स्वार्थों पर आधारित था। इस तथ्य को आधा गाँव में व्यक्त फुन्नन मियाँ की इस मानसिकता कि ''पाकिस्तान पेट भरन का खेल है''११ के द्वारा रेखांकित करते हुए अलगाववाद के जहर को फैलाने के प्रयत्नों के पीछे के कारण को भी बड़ी बेबाकी के साथ स्पष्ट कर दिया गया है।
कलकत्ते से प्रारम्भ प्रत्यक्ष-कार्यवाही-दिवस का साया जब उत्तर-पूर्वी भारत के बड़े-बड़े शहरों को अपने घेरे में ले चुका था तब भी उसी क्षेत्र के ग्रामीण जीवन पर उसका कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा था। दंगे-फसाद की अफवाहें गाँवों तक जब पहुँचने लगी तब भी गंगौली के आस-पास के हिन्दुओं की समझ में नहीं आ रहा था कि''अगर गुनाह कलकत्ता के मुसलमानों ने किया है तो बारिखपुर के वफाती, अलावपुर के घुरहू, हुंडरही के घसीटा को यानी अपने मुसलमानों को सजा क्यों दी जाये? जिन मुसलमान बच्चियों ने छुटपन में उनकी गोद में पेशाब किया है, उनके साथ जिना क्यों और कैसे की जाय? उनकी समझ में ये भी नहीं आ रहा था कि जिन मुसलमानों के साथ वह सदियों से रहते चले आ रहे हैं, उनके मकानों में आग क्यों और कैसे लगा दी जाय, उन मुल्ला जी को कोई कैसे मारे जो नमाज पढ़कर मस्जिद से निकलते हैं तो हिन्दू-मुसलमान सभी बच्चों को फूँकते हैं'',१२ लेकिन धीरे-धीरे साम्प्रदायिक तत्त्व विद्वेष की अग्नि प्रज्जवलित करने में सफल हो गये। मास्टर जी और स्वामी जी जैसे लोगों की मानसिकता ग्रामीण जीवन की सहजता पर प्रभावी हो गयी। अन्ततः बारिखपुर के हिन्दुओं का समूह मुसलमानों को लूटने निकल पड़ा। यह ऐतिहासिक सच्चाई भी है कि कुछ समय के बाद ग्रामीण जन-जीवन में साम्प्रदायिकता का विष घुल गया। भारत वाले भाग में मुसलमानों के साथ पाकिस्तान वाले हिस्से में हिन्दुओं के साथ हिंसा के खेल ने गति पकड़ ली। लेकिन भारतीय भाग में एक बड़ा क्षेत्र इस सबके बावजूद हिंसा के ताण्डव से सुरक्षित रहा। ठाकुर पृथ्वीपाल जैसे अनेक लोग ऐसे थे जो यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि सिर्फ इस जुर्म में लोगों के कत्ल कर दिये जाय कि वह मुसलमान हैं।
अफवाहों बहकावों के प्रभाव से ग्रामीण जन-जीवन में साम्प्रदायिकता के लिए उर्वर भूमि तैयार हो गयी लेकिन हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की हकीकत को लोग समझ नहीं पा रहे थे। जो लोग थोड़ा-बहुत परिचित भी हुए वह जमींदार तबके के लोग थे और उन्हें इसे जमींदारी से जोड़ कर समझाते हुए कहा गया कि आजादी मिलने के बाद हिन्दुस्तान में काँग्रेस जमींदारी समाप्त करेगी क्योंकि जमींदार ज्यादा मुसलमान ही हैं।१३ इसके बावजूद गंगौली के लोगों ने न तो पाकिस्तान में कोई रुचि प्रदर्शित की, न ही पाकिस्तान बनने के बाद वहाँ जाने के लिए तैयार होते हुए दिखे। क्योंकि यहाँ की जमीन अपनी थी। लोग अपने थे। लोगों को चिन्ता थी कि चले जाने के बाद यहाँ के इमामबाड़े का क्या होगा? यहाँ की मस्जिदों का क्या होगा। उन्हें इस बात का खौफ था कि चले जाने के बाद इनमें घोड़ा, गाय कुछ भी बंध सकता है।१४
पाकिस्तान निर्माण के सन्दर्भ में चुनावों के बाद लीग की बढ़ी हुई ताकत का योगदान बड़ा अहम्‌ है। मुस्लिम मानसिकता के सन्दर्भ में एक बड़ा महत्त्वपूर्ण सवाल उठता है कि जब आम मुसलमान पाकिस्तान की हकीकत से न तो परिचित ही थे न ही वहाँ जाना ही चाहते थे तो फिर चुनाव में लीग के पक्ष में मतदान करके उसकी ताकत को क्यों बढ़ाया। आधा गाँव में इस संदर्भ का स्पष्ट रूप से उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इसके पीछे मुख्य कारण था जमींदारी जाने का भय! मियाँ लोग काँग्रेस और गाँधी को गाली देते हुए कोसते हैं, कहते हैं, ''ई, कांग्रेस वाले त आसामियन का दिमाग इकदम्मे से खराब कर दिहिन हैं भाई, खुदा समझे ई गाँधी से!''१५ स्वतन्त्रता के बाद जमींदारी उन्मूलन के कारण गंगौली के जमीदारों की दुर्दशा का जो व्यापक चित्रण उपन्यास में है वह मुसलमानों की लीग समर्थन के लिए बनी मानसिकता के औचित्य को एक प्रकार से सिद्ध ही करता है।
अलगावादी मानसिकता के निर्माण के लिए साम्प्रदायिक शक्तियों ने मुस्लिम समाज के पढ़े-लिखे वर्ग को पाकिस्तान बन जाने के बाद सुन्दर भविष्य का लालच दिया। अलीगढ़ से पाकिस्तान के लिए जनसमर्थन बनाने आया अब्बास कहता है कि ''पाकिस्तान बन गया तो मुसलमान ऐश करेंगे ऐश''१६ ये लोग धार्मिक भावना का भी प्रयोग करते हैं। नमाज रोजे की दुहायी देते हैं। मगर नमाज के तहफ्फुज के लिए पाकिस्तान की जरूरत को सिद्ध करने वाले ऐसे लोगों को हाजी अंसारी जवाब देते हुए कहते हैं कि ''हम त अनपढ़ गँवार हैं। बाकी हमरे ख्याल से निमाज की खातिर पाकिस्तान-आकिस्तान की तनिकों जरूरत न है। निमाज के वास्ते खाली ईमान की जरूरत है। खुदाबन्दताला साफ फरमादिहिन है कि मेरे पैगम्बर कह दे ई लोग से कि हम ईमान वालन के साथ हैं। अउरी कानी कउन त्‌ कहत रहा कि आप लोगन के जउन जिन्ना हैं ऊ नमाजों न पढ़ते।''१७ दरअसल यह तथ्य एक गंवार ग्रामीण की पाकिस्तान के प्रति उदासीनता को ही नहीं प्रकट करता अपितु पाकिस्तान और इस्लाम के आपसी सम्बन्धों की इस सच्चाई को भी स्पष्ट कर देता है कि पाकिस्तान निर्माण के पीछे इस्लाम की धार्मिक आवश्यकताओं का कोई दखल नहीं था।
जमींदारी टूटने का भय, मजहबी उफान और हिन्दू अलगाववादी तत्त्वों की विध्वंसक कार्यवाहियों की खबरों के परिणामस्वरूप मुसलमानों का झुकाव लीग की तरफ होने भी लगा। फिर भी पाकिस्तान के रूप में एक नये मुल्क के वजूद में उन्हें कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। इसका कारण भी था। तन्नू को वहाँ आठवीं की मजलिस भला कहाँ मिलती। बैठकर गन्ना खाने के लिए गंगौली वाला गोदाम भला कहाँ मिलता। गंगौली उसका गाँव था, अल्ला मियाँ का घर मक्का। जब अल्ला मियाँ को अपने घर से प्यार था तो उसे भला अपने गंगौली से प्यार क्यों न हो।१८ कम्मो की चाहत सईदा अलीगढ़ में रहती है। अलीगढ़ के पाकिस्तान जाने के साथ अगर वो भी चली गयी तो फिर उसके लिए क्या बचेगा।१९ मिगदाद की जमीन खेत गंगौली में है। हल बैल से उसे शरम नहीं आती इसलिए वह गंगौली क्यों छोड़े।२० तन्नू, कम्मो और मिगदाद के दर्द से यहाँ के मुस्लिम समाज का दर्द अलग नहीं था। इसकी जड़ें यहाँ उतनी ही गहराई तक पहुँच गयी थीं जितनी कि हिन्दुओं की। अब उन्हें दूसरी जगह लगाने का अर्थ था कि उसके अस्तित्व को समाप्त कर देना।
मुस्लिम जनमानस की पाकिस्तान सम्बन्धी मानसिकता की अभिव्यक्ति के साथ इसी सन्दर्भ में हिन्दू अवाम की मानसिकता के भी कुछ छुट-पुट चित्र, आधा गाँव में मिलते हैं। वे भी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के उलझावे से अपरिचित थे। कांग्रेस मतदान के लिए तैयार तो थे, लेकिन लीग, कांग्रेस, हिन्दुस्तान तथा पाकिस्तान की हकीकत से अनजान ही थे। उपन्यास का एक पात्र छिकुरिया कुलसुम बी के इन्हीं सवालों के उत्तर में कहता है कि ''हम त समझत बाड़ी की ई पाकिस्तान कउनों महजिद-ओहजिद होई''।२१
धीरे-धीरे जुड़ाव और एकता की मानसिकता को तोड़ने और खण्डित करने वाली शक्तियों की सक्रियता बढ़ी तो इन तत्त्वों का प्रभाव शहरी मध्य वर्ग से होता हुआ ग्रामीण क्षेत्रों में भी पड़ने लगा, परन्तु उनको विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। अलीगढ़, जोकि लीग की गतिविधियों का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था, वहाँ से विश्वविद्यालयों के छात्रों का जत्था गाँव-गाँव आकर विभाजन के समर्थन में मुसलमानों को लीग के पक्ष में खड़ा करने में लग गया। गंगौली के हम्माद मियाँ का लड़का छुट्टियों में अलीगढ़ से आने पर पाकिस्तान और लीग के पक्ष में राजा महमूदाबाद, चौधरी खलीकुज्जमा, गजनफर अली, नवाब इस्माईल, नवाब यूसुफ, सर सुल्तान और जिन्ना आदि का नाम लेकर भावुकता भरे तर्क देता है। कहता है, ''हिन्दुस्तान के दस करोड़ मुसलमान कायदे आजम के पसीने पर अपना खून बहा देंगे''।२२ हिन्दू महासभा और आर०एस०एस० के लोग भी इसी प्रकार की विध्वंसक गतिविधियों में लग गये थे। भारत की धरती से मुसलमानों को समाप्त करके पवित्र करने का आह्‌वान करते हुए स्वामी जी कहते हैं, ''आज मुरली मनोहर भारत के हर हिन्दू को पुकार रहा है, कि उठो और गंगा यमुना के पवित्र तट से इन मलेच्छ मुसलमानों को हटा दो .... धर्म संकट में है। गंगाजली उठाकर प्रतिज्ञा करो कि भारत की पवित्र भूमि को मुसलमानों के खून से धोना है।''२३ परन्तु ये शक्तियाँ गंगौली में सक्रिय नहीं हो पाती हैं। अब्बास की बातों का कोई खास असर नहीं पड़ता है। लोग उसकी बात इसलिए नहीं सुनते हैं कि वह उन्हें प्रभावित करता है, बल्कि इसलिए सुनते हैं कि वह पढ़ा लिखा है। अलीगढ़ के लड़के हाजी गफूर के सामने चित्त हो जाते हैं। स्वामी जी के भाषण के दौरान भी कुछ लोग भड़क जाते हैं। एक जवान बफाती को गाली देता है तो दूसरा जवान उसका विरोध करता है, ''बूढ़ पुरनियाँ के गाली बक्कत बाड़ा लाज न आवत होई?''२४ उत्तेजित भीड़ मुसलमानों के घरों पर धावा बोल देती है तो ठाकुर जयपाल सिंह बचाते हैं। यह घटना भी अलगाववादियों की असफलता को रेखांकित करती है। परन्तु यह धावा और गाँव के राकियों और जुलाहों का लीग के पक्ष में होता झुकाव भविष्य की त्रासदी का संकेत अवश्य कर देता है।
कलकत्ते में मुस्लिम लीग द्वारा आरम्भ प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस के परिणामस्वरूप पूरे पूर्वोत्तर भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का जो सिलसिला आरम्भ हुआ उपन्यास में उसके ग्रामीण जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के फलस्वरूप निर्मित मानसिकता का भी चित्रण है। आरम्भ में आने वाली अफवाहों और खबरों का गंगौली पर कोई खास प्रभाव पड़ता दिखायी नहीं देता है। स्थानीय लोगों के भड़कावे में आकर छुट-पुट घटने वाली घटनाओं के अतिरिक्त मुसलमान वहाँ से आने वाली खबरों की अफवाहों पर विश्वास ही नहीं करते हैं। मौलवी बेदार के द्वारा कलकत्ते में मुसलमानों के ऊपर हो रहे अत्याचार की चर्चा पर हकीम साहब जवाब देते हुए कहते हैं कि''बाकी मुसलमानों कउनों हलालजादे ना हैं ... बाकी ओठरा कउन खोजिस।''२५ कहना बहुत कुछ चाहकर भी फुन्नन मियां कलकत्ते और लाहौर में हो रहे अत्याचारों की कहानी सुनाकर भड़काने वाले पंडित मातादीन को केवल इसलिए कुछ नहीं कहते हैं कि पंडित जी को मंदिर बनवाने के लिए उन्होंने ही जमीन दिया था। उनकी नजर में मंदिर भी खान-ए-खुदा है।२६ कोई कारण भी नहीं था कि हिन्दुओं को लेकर फुन्नन मियाँ के मन में अविश्वास का भाव उत्पन्न होता। वह मिगदाद से इसी विश्वास के बल पर बेबाक ढंग से राय प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि ''हिन्दू कउनों चूतिया न हैं कि उनके (स्वामी जी) भड़कावे में आ जैय इै।''२७
राही मासूम रजा का मानना है कि मुसलमानों की भाँति हिन्दू जनमानस में भी इन दंगों से जुड़ी अफवाहों का बहुत अधिक प्रभाव नहीं दिखा। इसे आधा गाँव में हमलावर आततायियों के ऊपर ठाकुर जयपाल सिंह के प्रकट क्षोभ के माध्यम से देखा जा सकता है वह उन लोगों पर क्रोधित होते हुए कहता है, ''खैरियत यही में बाय कि चलजा लोग। का नवाखली मा हई बफतियां अउरी हई दिलदरवा अउरी अलुआ हिन्दू इसत्रियन के खराब किहले बाये। बड़ बहादुर हउवा लोग अउर हिन्दू मरिजादा के ढेर ख्याल बाये तुहरे लोगन के त्‌ कलकत्ते लाहौर जाये के चाही।''२८ परन्तु एक समय के बाद प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस का प्रभाव ग्रामीण जन-जीवन पर पड़ना आरम्भ हो गया। अन्ततः ग्रामीण क्षेत्रों में भी साम्प्रदायिक विद्वेष की अग्नि भड़कने लगी। गंगौली भी कलकत्ते से आरम्भ हिंसा की आँच की तपिश से बच न सका। लोग धीरे-धीरे खौफजदा होने ही लगे। मौलवी बेदार की हिम्मत दिलेरी और साफगोई पश्त होती दिखी। कहने लगे, ''जेह दिन से ई जिनवा पाकिस्तान की बात निकालिस है तेही दिन से माथा ठनका। अब देख ल्यो, कलकत्ते में बलबा भया। छपरे में भया। दुइ-चार दिन में गाजीओपुर में हो जैयहै।''२9 हुआ भी वही। दिल्ली, बंबई, लाहौर, अमृतसर, कलकत्ता, ढ़ाका, चटगाँव, सैदपुर, रावलपिण्डी, लालकिला, जामा मस्जिद, गोल्डन टेम्पुल, जलियावाला बाग, हाल बाजार, उर्दू बाजार सब दंगे की आग में धूँ-धूँ करके जल उठे।३० इन्हीं के बीच में देश का विभाजन हो गया।
विभाजन तो देश का हो ही गया। इसने भाई को भाई से, माँ को बेटे से, पत्नी को पति से अलग कर दिया। ''अब हम लोग अपने लड़कन के बाप न रह गये हैं। अब लड़के वे सब हमरे लोगन के बाप हो गये हैं। हम बहुत कहा कुद्दन से ए बेटा तुहैं पाकिस्तान जाये की कउन जरूरत है त्‌-बोले कि हियाँ मुसलमानन की तरक्की का रास्ता बन्द हो गया है। अब वो अपने बाल-बच्चन को भी ले जाये त्‌ इतमिनान की साँस लें। ए बशीर ई पाकिस्तान त हिन्दू-मुसलमानन को अलग करे को बना रहा, बाकी हम त ई देख रहे हैं कि मियां-बीबी, बाप-बेटा अउर भाई को अलग कर रहा। कुद्दन चले गये त ऊ मुसलमान हैं अउर हम हियाँ रह गये त का हम खुदा न करे हिन्दू हो गये।''३१ हकीम साहब का यह दर्द रिश्तों के बिखरने की पीड़ा को उद्घाटित करते हुए पाकिस्तान निर्माण के पीछे मुस्लिम मानसिकता की आर्थिक अवधारणा को भी संकेतित करता है।
पाकिस्तान निर्माण के बाद पारिवारिक बिखराव की जैसी पीड़ा मुसलमानों को सहन करनी पड़ी वैसी हिन्दुओं को नहीं। स्थानान्तरण के समय हिन्दुओं के पूरे परिवार साथ थे। वे या तो मारे गये या ठिकाने पर पहुँच गये। जो बिछुड़ गये वह भी मार डाले गये परन्तु मुसलमानों के बहुत से ऐसे परिवार थे जिसके कुछ सदस्य पाकिस्तान चले गये कुछ हिन्दुस्तान में ही रह गये। कुछ एक देश के नागरिक हो गये कुछ दूसरे देश के। जाने वाले छोड़ गये अपने साथ अनेक सवाल। रह गयी पत्नियों का क्या होगा? बाप के बिन बच्चों का भविष्य कैसा होगा?३२ मुस्लिम मानस इस पीड़ा से विभाजनोपरान्त एक लम्बे समयान्तराल के बाद भी मुक्ति नहीं पा सका।
पारिवारिक बिखराव के साथ आने वाली अफवाहें काफी समय तक मुस्लिम मानस को प्रभावित करती रहीं। अमृतसर और जालंधर की मस्जिदों को तोड़कर मन्दिर बनवाने की खबरें आ रही थीं। दिल्ली के इमामबाड़े पर सिक्खों द्वारा कब्जे की बात सुनाई पड़ रही थी। बचे मुसलमानों को काट देने की अफवाहों का जोर था।३३
मुसलमान बादशाहों ने अगर मन्दिर तोड़कर मस्जिद बनवा लिया था। देवी-देवताओं के बुतों को खुड्डियों में इस्तेमाल किया तो इसमें आम जनता का क्या कसूर था? ''काहेन मारा सभन ने पकड़ के ऊ बहनचोद बादशाह को ! ल्यो मंदिर तोड़े बादशाह और गाँड़ मरायैं हम''३४ वाह! फुन्नन मियां के इस तर्क का जवाब किसी के पास नहीं था। भोली-भाली रब्बन बी कहती हैं, 'अच्छा, हम ई पूँछ रहे हैं कि जब तू ही लोग ओट देके पाकिस्तान बनाए हो तो उहे ओटवा देके बिगाड़ द्यो माटी मिले को।'३५ रब्बन बी का यह तर्क पाकिस्तान निर्माण में सक्रिय मानसिकता की निस्सारता को प्रकट करते हुए उस मानसिकता पर गहरी चोट भी करता है।
''ई (पाकिस्तान) बहनचोदन (अंग्रेज) का तोहफा है।''३६ इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण उपन्यास में पाकिस्तान निर्माण के पीछे कार्यकारी शक्ति अंग्रेजों का कहीं उल्लेख नहीं किया गया है। दरअसल उपन्यास का लक्ष्य विभाजन को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने के बजाय सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल पर जनसामान्य की मानसिकता का चित्रण रहा है, यही वह कारण हो सकता है जिसने अंग्रेजों की ऐतिहासिक भूमिका को चित्रित करने का कथाकार को अवसर ही नहीं दिया।
कांग्रेस और विभाजन के आपसी सम्बन्धों को भी उपन्यास में संक्षेप में ही विवेचित विश्लेषित किया गया है। विभाजनोपरान्त कांग्रेस एवं कांग्रेसियों के चरित्र तथा कांग्रेसी राजनीति और उसके सामाजिक प्रभाव का चित्रण अवश्य है जबकि वास्तविकता यह है कि भारत-विभाजन की पृष्ठभूमि में कांग्रेस और मुसलमानों के मध्य उपजी दूरी की भूमिका बड़ी अहम्‌ थी।
आजादी से पहले कांगे्रस से मुसलमानों का विरोध आर्थिक आधार पर विकसित था। मुस्लिम जमींदारों की कांग्रेस से दूरी और मुस्लिम लीग की तरफ हुआ झुकाव पाकिस्तान निर्माण को आकांक्षा इच्छा के कारण नहीं था। दरअसल उन्हें भय था कि कांग्रेस का राज आने पर जमींदारी चली जायेगी। इस तथ्य पर उपन्यासकार ने विशेष बल दिया है। आजादी के बाद इसीलिए बड़ी बूढ़ियो ने गिड़गिड़ा कर दुआएँ मांगी थी कि अंगे्रज लौट आयें। हर नमाज में कांग्रेस को बद्दुआएँ दी गयी। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं था कि मुसलमानों में कांगे्रस विरोध के मूल में केवल जमींदारी जाने का भय था। मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस में विकसित अवसरवादी, हिन्दूवादी, रूझान के कारण कांग्रेस का विरोधी हो गया। १९४६ के चुनाव में लीग को मिली भारी सफलता के पीछे कांग्रेस में विकसित अवसरवादी हिन्दू चरित्र और नेतृत्व का ही प्रभाव था। परन्तु कथाकार ने इस प्रश्न पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन विश्लेषण के प्रकाश में कहा जा सकता है कि मोहर्रम की पृष्ठभूमि पर आधारित गंगौली के सामाजिक जीवन के चित्रण माध्यम से आधा गाँव के उपन्यासकार डॉ० राही मासूम रजा ने विभाजनकालीन मानसिकता के विविध पक्षों को यथार्थ के धरातल पर अभिव्यक्ति प्रदान की है। इस प्रक्रिया में उन्हें साम्प्रदायिकता के सन्दर्भ में अलगाववादी तत्त्वों की भूमिका, जमींदारी उन्मूलन का मुस्लिम समाज पर प्रभाव, कांग्रेस की राजनीति का मुस्लिम जनमानस से सम्बन्धित यथार्थ तथा विभाजनोपरान्त पारिवारिक विघटन से उपजी त्रासदी से जूझते मुस्लिम-समाज के इतिहास की कथा की प्रस्तुती में यथेष्ट सफलता भी प्राप्त हुई है। इसी क्रम में मुसलमानों से जुड़ी हिन्दू मानसिकता की पर्तें भी खुली हैं।आधा गाँव उपन्यास के माध्यम से साम्प्रदायिक मानसिकता की पर्त-दर-पर्त जाँच पड़ताल और परख न केवल तद्युगीन विध्वंसकारी परिस्थितियों में कार्यरत सकारात्मक शक्तियों की सक्रियता को रेखांकित करती है, बल्कि उन सन्दर्भों को भी संकेतित करती है जो वर्तमान परिदृश्य में साम्प्रदायिकता से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुए राष्ट्रीय एकता को मजबूती प्रदान कर सकते हैं।
सन्दर्भ
१-२. राही मासूम रजा, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन प्रा० लि०, नई दिल्ली, सं० १९८९, पृ० ३
३. वही, पृ० ६३
४-५. वही, पृ० ५२
६. वही, पृ० १७४
७. वही, पृ० ६८
८. वही, पृ० २४४
९. वही, पृ० २४५
१०. वही, पृ० १७४
११. वही, पृ० २६३
१२. वही, पृ० २८३
१३. वही, पृ० २५८
१४. वही, पृ० २४५
१५. वही, पृ० ९२
१६. वही, पृ० ५२
१७. वही, पृ० २४७
१८. वही, पृ० २५६
१९. वही, पृ० २४२
२०. वही, पृ० २१९
२१. वही, पृ० २४३
२२. वही, पृ० ५२
२३-२४. वही, पृ० २८१
२५-२६. वही, पृ० २७०
२७. वही, पृ० २७९
२८. वही, पृ० २८३
२९. वही, पृ० २७४
३०-३१. वही, पृ० २९२
३२-३३. वही, पृ० ३०२
३४-३५. वही, पृ० ३३०
३६. वही, पृ० २४६
३७. वही, पृ० २४०

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