Skip to main content

नासिरा शर्मा- जितना मैंने जाना

डा. सुदेश बत्रा

वह दिसम्बर 1991 का कोई दिन था - शायद 18 दिसम्बर - जब मैंने पहली बार नासिरा शर्मा को देखा - गोरा, गुलाबी आभा लिए दमकता रंग, नीली भूरी चमकती आँखें, उभरे गाल, गुलाबी रंगत लिए अघरों पर हल्का स्मित, लम्बे सीधे खुले बाल, कानों में हरे रंग के कीमती नगों वाले खूबसूरत कर्णफूल, हरे रंग की प्रिन्टेड सिल्क की साड़ी में लिपटा मझोला कद- मैं जैसे उनके चेहरे में शाल्मली को ढूढ रही थी और शाल्मली के माध्यम से उस सुलझी दृष्टि और नायिका की स्वाभिमानी मगर अन्तर्मुखी गरिमा को। उस समय मुझे लगा था - जैसे मेरे मन में छिपे सारे अन्तद्र्वन्द्वों और हलचलों को इन्होंने कैसे पन्नों पर साकार कर दिया है - मेरी संवेदनशीलता को शाल्मली ने भीतर तक एकाकार कर लिया था।

नासिरा शर्मा ने शाल्मली के माध्यम से पति-पत्नी के सम्बन्धों, समीकरणों और समझौतों को द्वन्द्वात्मक रूप में चित्रित किया है। वह पुरुष वर्चस्व एवं व्यवस्था के उपनिवेश के खिलाफ़ संघर्ष भी करती है और उसका हिस्सा भी बनती है। एक ओर वह मुक्तिकामना से छटपटा रही है, दूसरी ओर अपने मनोजगत् से व्यवहार जगत् तक निःसंग न रह पाने के कारण अपने संस्कारों से आक्रान्त भी है। किसी भी लड़ाई के लिए मोहासक्ति से बाहर आना पहली शर्त है। नारी अस्मिता का मुख्य तर्क समाज में उसकी सत्ता और स्थिति का मापदण्ड स्थापित करने का है। विश्व के प्रत्येक धर्म, वर्ग, जाति और समाज में दोहरी स्थितियाँ स्त्री-स्वातन्त्रय की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं गढ़तीं।

नासिरा जी का साहित्य विविधवर्गीय है। चरित्रा की अन्तरात्मा में उतरना उन्हें बखूबी आता है। शाल्मली के चरित्रा का विकास अनेक छवियों में साकार रूप में आबद्ध है तो ‘ठीकरे की मंगनी’ की महरुख अपने आधुनिक मगर स्वतन्त्र वजूद के लिये लड़ती स्त्राी के रूप में भी उतनी ही जीवंत है।

नासिरा जी से अक्सर अनेक मुद्दों पर खुली चर्चा हुई है। वे आधुनिकता के नाम पर स्त्राी स्वच्छन्दता की पक्षधर नहीं है। वे हर हाल में विवाह और परिवार को बनाये रखने में विश्वास रखती है, अगर एक बार ये आधार खंडित हो गए तो नयी पीढ़ी फैशन के नाम पर अनेक विकृतियों और असाध्य रोगों की शिकार हो जायेगी, जिसका प्रभाव समाज पर दूरगामी रूप में स्वस्थ नहीं होगा। इसीलिए उनके नारी पात्रा आधुनिक होते हुए भी उच्च्छृंखल नहीं हैं।

मैं सम्मेलन के कार्यक्रमों के आयोजन में अत्यधिक व्यस्त थी और उनसे खुलकर बात नहीं कर पाई थी, परन्तु आते-जाते उनके उद्बोधनों को सुनने का लोभ भी संवरण नहीं कर पा रही थी। सभी मेहमान बहुत खुश थे। सम्मेलन के समापन पर विदा होते हुए वे सीढ़ियां उतरकर नीचे के चबूतरे पर सहज भाव से बैठ गई थीं। उनकी आँखें बोलती भी हैं और सामने वाले के भीतर को भेदती भी हैं। अचानक मेरी ओर देखकर बोलीं - ‘आपको देखकर मुझे सद्दाम हुसैन की याद आती है’ - आस-पास खड़े हुए सभी लोग हैरानी से चैंक पड़े - कम से कम मुझे तो उनसे अपने लिए ऐसी टिप्पणी की उम्मीद न थी - सबकी आँखें प्रश्नवाचक चिद्द बन गई थीं - ‘आपको मैं दो दिन से देख रही हँू - आप सबको सम्भाल भी रही हैं, मेहमानों का स्वागत भी कर रही हैं, बीच-बीच में आकर माइक पर टिप्पणी भी कर जाती हैं, लेकिन इतनी भाग-दौड़ के बाद भी आपके चेहरे पर शिकन तक नहीं है’ - फिर पल भर रुक कर बोलीं - ‘बाहर चाहे बम बरस रहे हों पर सद्दाम हुसैन बिना चेहरे पर शिकन डाले, शान्त भाव से अंदर मीटिंग में भाषण दे रहा होता।’ - मुझे याद है, कुछ की चुप्पी के बाद वहाँ एक ज़ोरदार ठहाका गूँज गया था। बरसों बीत गए, इस बात को, पर मैं उनकी टिप्पणी को कभी नहीं भूल पाती। मुझे पता लगा था - नासिरा जी फ़ारसी भाषा की विदुषी हैं और उन्होंने ईरान, इराक, अफ़गानिस्तान तथा अरब देशों में बहुत यात्राएं की हैं तथा वहाँ के जीवन, कानून, धर्म और विशेष रूप से नारी की स्थिति पर बहुत शोध किया है। उनका दृष्टिकोण सदा स्थितियों को यथारूप स्वीकार न कर क्रांतिकारी चेतना का रहा है, मगर ढेर सारे बुनियादी प्रश्नों को उठाते हुए वे इन्सानियत की जीत में विश्वास रखती हैं। ‘बुजकशी का मैदान’ और ईरानी क्रांति पर आधारित ‘पुनश्च’ का विशेषांक उनकी इस चेतना के साक्षी हैं।

नासिरा जी जयपुर कई बार आईं हैं। उन्हें मंच से सुनना एक सुखद अनुभव होता है। उन्होंने एक बार कहा था - पत्राकारिता चीते की सवारी करना है। जन के बीच धँस कर सच्चाई निकालना चीते पर नियन्त्राण करने जैसा है। उनकी उर्दू, फ़ारसी युरू भाषा का ठहरा, गंभीर अंदाज़ और विचारों की धारा-प्रवा.............................................शेष भाग पढ़ने के लिए पत्रिका देखिए















Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क