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नासिरा शर्मा के बहाने

शीबा असलम फ़हमी

जिस तरह वक़्त कई बार शख़्सियतों को बनाता है उस ही तरह यह वक़्त कई बार उन्हें बनने भी नहीं देता। भारत जैसे सक्रिय लोकतंत्रा में जहां हर विद्या पर सामाजिक सरोकारों को सामने रखकर वरीयताक्रम तय हो रहा हो, वहां यह अपने-अपने में एक विडम्बना हो सकती है कि आप किसी ‘वाद’ या किसी वंचित वर्ग के सांचे में फिट न बैठें।

साहित्यकार नासिरा शर्मा साहेबा को अभी पिछले 6-7 सालों से ही जानती हू। जब ‘हैडलाइन प्लस’ पत्रिका का सम्पादन शुरू किया तो कुछ ऐसे लेखकों की तलाश भी शुरू हुई जो साहित्य के साथ-साथ वृहत्तर विषयों पर भी टिप्पणी कर सकें। यह 2003-04 के दौर की बात है जब ‘गुजरात कांड’ पर कहानियाँ, लघु कथाओं, कथा संग्रहों का उत्पादन बहुत ज़ोर-शोर से चल रहा था। ज़्यादातर रचनाकारों के मुसलमान नाम थे और कम से कम हिन्दी साहित्य में यही लग रहा था कि इस जघन्य कांड पर लिखने की ज़िम्मेदारी शायद सिर्फ़ मुसलमानों पर आ पड़ी है। हिन्दी के इतने बड़े अन्तर्राष्ट्रीय फ़लक पर इस घटना पर संवेदना केवल ‘हिन्दी के मुसलमान लेखकों’ में ही जगी है और इस सच्चाई को महसूस करते हुए ही वह आवरण-कथा ‘हैडलाइन प्लस’ के अक्टूबर 2003 के अंक में छपी थी जो कि 2008 में मीरा सीकरी की बदौलत दस्तावेज़ी अहमियत की हक़दार बन गई और जिसका शीर्षक था ‘हिन्दी के मुसलमान लेखक’। ख़ैर, इस आवरण कथा पर काम करते हुए जिन साहित्यकारों से परिचय हुआ उनमें से एक थीं - नासिरा शर्मा।

उनकी कई रचनाएं पढ़ीं और कुछ एक छापी भी फिर उनसे कई मुलाकातें भी हुईं। इतनी जान-पहचान में यह साफ़ होने लगा कि मैं नासिरा शर्मा की शख़्सियत में एक नई तरह की जटिलता का सामना कर रही हू। फिर उनके बारे में हिन्दी के कुछ बड़े नामों से चर्चा भी हुई। लगा लोग बचते हैं कोई ठोस राय देने से। नासिरा शर्मा के लेखन के कुछ नए तरह के क्लेम हैं। स्त्राी की संवेदना पर जब वह लिखती हैं तो उसके अहसासों की बारीक परतें, उसे मुख्यधारा के ‘स्त्राीवादी’ कोणों से आगे जाकर एक ज़िन्दा औरत और व्यवहारवादी आयाम देती है। आखि़र इन्सानी रिश्ते दो जामा दो बराबर चार की कहानी कहां होते हैं?

यह पहलू उनके दूसरे विषयों में भी उभरता है जैसे कि सामाजिक रिश्तों में जहां ज़िन्दगी तयशुदा खानों में नहीं बंधती। फिर यह कि उनका रचनात्मक फ़लक उतना ही फैला हुआ है जितना कि उनका ज़ाती तजुर्बा।

अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रम और उससे असमंजित समाज, उससे पीड़ित समाज और उसमें ढलता समाज उनके लेखन के विषय हैं। हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्ध, ब्राह्मण-शूद्र सम्बन्ध, स्त्राी-पुरुष सम्बन्ध, इंसान और पूँजीवाद, व्यक्ति और राष्ट्र इन सभी मुद्दों पर नासिरा शर्मा ने कलम उठाई है और उनकी तमाम देश-विदेश यात्राओं ने उन्हें वह बहुमूल्य ‘कच्चामाल’ उपलब्ध कराया है जिसके बिना व्यापक समझ मुमकिन नहीं।

हिन्दी में दूसरे समाजों, ख़ासकर ग़ैर भारतीय मुस्लिम समाजों को, उनके फ्लेवर के साथ (यदि अनुवादों को छोड़ दें) प्रस्तुत करने का खूबसूरत और दिलचस्प काम नासिरा शर्मा ने किया है। हिन्दी साहित्य में आंचलिक जीवन और ठेठ-भारतीयता के उत्सव में यह पहलू नज़रअंदाज़ होता लगता है। लेकिन नासिरा शर्मा के लेखन व शख़्सियत पर मुझे जो कहना है वह कुछ और है।

जयनंदन की मशहूर कहानी ‘कस्तूरी पहचानो वत्स’ की नायिका जुबैदा को संस्कृत के श्लोक पढ़ने के अपराध में ‘ज़बान काट कर’ गूँगा कर दिया गया था, लेकिन वह लड़की क्या करे जिसे ‘मुसलमान-उर्दू-फ़ारसी’ परिवेश की होने के बावजूद यह आज़ादी मिली हो कि चाहे तो उर्दू-फ़ारसी छोड़कर हिन्दी- संस्कृत पढ़े और उसे ही अपना क्षेत्रा बना ले? जिसके पास पत्नी-उत्पीड़न की कहानियों के बजाय यह सुकून हो कि पति हर जगह संबल बने और प्रतिभा के विकास व तराश में आड़े न आकर सहारा दें? हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की सच्चाई को नकार कर जिस जोड़े ने गंगा-जमुनी तहज़ीब की बुनियाद पर नेह-नीड़ गुंथा हो? शिया-सुन्नी नफ़रत को अपने घर में ख़त्म कर दायरे बढ़ाए हों? ऐेसे आदर्श तजुर्बों की बुनियाद पर जिस तरह की शख़्सियत का निर्माण होगा वह इस दौर की राजनैतिक पहचानों को नकारेगी ही, यह उसकी मजबूरी भी है और ख़ासियत भी।

शायद यही कारण है कि नासिरा शर्मा रचनात्मक लेखन में .............................................शेष भाग पढ़ने के लिए पत्रिका देखिए





















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अरे, लेख पूरा ही लगा दें ना...

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