Skip to main content

स्त्री-मुक्ति का समावेशी रूप

वेद प्रकाश

नासिरा शर्मा का उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी’ दो दशक पहले प्रकाशित हुआ था। यह सुखद आश्चर्य है कि आज भी इस उपन्यास में स्त्री-विमर्श का एक विश्वसनीय एवं सार्थक रूप मिलता है। यह उपन्यास स्त्रीवाद के समक्ष कुछ चुनौतीपूर्ण सवाल भी व्यंजित करता है। इसीलिए बहुत से स्त्राीवादी इसके निंदक आलोचक हो सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि नासिरा शर्मा स्त्री की यातना, उसके जीवन की विसंगतियों-विडंबनाओं पर सशक्त ढंग से विचार करती है। वे सामान्य अर्थों में स्त्रीवादी लेखिका नहीं है। वे नारीवाद की एकांगिता, आवेगिता, आवेगात्मकता को पहचानती हैं। नारीवाद की पश्चिमी परंपरा का प्रभाव तथा उसकी सीमाएं नासिरा शर्मा की दृष्टि में हैं, इसलिए बहुत हद तक वे इन सीमाओं से मुक्त होकर लिखती हैं, उनकी स्त्राी संबंधी दृष्टि कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी जैसी लेखिकाओं की दृष्टि के अधिक निकट ठहरती है। ये लेखिकाएं मौलिक, यथार्थवादी ढंग से स्त्री समस्याओं पर विचार करती हैं। इस संदर्भ में इन लेखिकाओं की रचनाएं द्वंद्वात्मकता से युक्त हैं।

जीवन की अंतःसंबद्धता की उपेक्षा किसी भी प्रकार के लेखन की बहुत बड़ी सीमा हो सकती है। स्त्रीवादी और दलितवादी लेखन को लेकर यह आशंका कम नहीं, अधिक ही है। प्रभावशाली स्त्रीवादी और दलित लेखन वह है जिसमें जीवन की जटिलता और परस्पर संबद्धता की अभिव्यक्ति होती है। बुद्धिजीवी या लेखक, सक्रिय राजनीति के नकारात्मक पहलुओं का चाहे जितना उल्लेख करें लेकिन सक्रिय राजनीति की बड़ी शक्ति यह है कि वह अधिक समावेशी - सबको साथ लेकर चलने वाली होती है। आज की दलित राजनीति इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इस समावेशिता से लेखन को समृद्ध होना चाहिए। स्त्रीवादी एवं दलित लेखन को भी।

नासिरा शर्मा ने ‘ठीकरे की मंगनी’ के माध्यम से हिन्दी साहित्य को महरुख़ जैसा अद्वितीय एवं मौलिक पात्रा दिया है। महरुख़ का जीवन उन स्त्रियों के जीवन का प्रतिनिधित्व करता है जो अपनी मुक्ति को अकेले में न ढूँढकर समाज के उपेक्षित, निम्नवर्गीय, संघर्षरत, शोषितों पात्रों की मुक्ति से जोड़कर मुक्ति के प्रश्न को व्यापक बना देती है। वह ‘मुक्ति अकेले में नहीं मिलती’ पंक्ति को चरितार्थ करती है। बहुत बाद में लिखे गए चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘आवाँ’ की नमिता पाण्डे, महरुख़ की वंशज पात्रा है। यह स्त्री-विमर्श का व्यापक, समावेशी रूप है इसीलिए अनुकरणीय भी। ‘ठीकरे की मंगनी’ उपन्यास के फ्लैप में ठीक ही लिखा गया है कि ‘‘औरत को जैसा होना चाहिए, उसी की कहानी यह उपन्यास कहता है।’’ यह वाक्य औरत को परंपरागत आदर्शवाद की ओर न ले जाकर उसके व्यावहारिक एवं सशक्त रूप की ओर संकेत करता है। उसका स्वयं को समाज की सापेक्षता में देखने का समर्थन करता है। साथ ही पुरुष को जैसा होना चाहिए वैसा होने की माँग भी करता है क्योंकि औरत भी तभी वैसी होगी जैसी उसे होना चाहिए। इन्हीं सब बातों को लेकर चलने वाली महरुख़ की जीवन-यात्रा है। वह जहाँ से आरंभ करती है वह बिन्दु अंत में बहुत व्यापक बन जाता है। जैसे किसी नदी का उद्गम तो सीमित हो लेकिन समुद्र में मिलने से पहले उसका संघर्ष भी है, अनुकूल को मिलाने और प्रतिकूल को मिटाने की प्रक्रिया भी।

समृद्ध और जन-संकुल जै़दी खानदान एक विशाल घर में रहता है। जिसके द्वार ऐसे खुलते हैं मानो जहाज़ के दरवाजे खुल रहे हों। चार पुश्तों से इस खानदान में कोई लड़की पैदा नहीं हुई। जब हुई तो सबके दिल खुशी से झूम उठे। उसका नाम रखा गया महरुख़ - ‘चाँद-से चेहरे वाली। सबकी लाड़ली। दादा तो रोज़ सुबह महरुख़ का मुंह देखकर बिस्तर छोड़ते थे। जै़दी खानदान में बाइस बच्चे थे, जिनकी सिपहसालार महरुख़ थी। उसका बचपन कमोबेश ऐसे ही बीता। उसी महरुख़ की मंगनी बचपन में शाहिदा खाला के बेटे रफ़त के साथ कर दी गई, ठीकरे की मंगनी। शाहिदा खाला ने महरुख़ को गोद ले लिया ताकि वह जी जाए। रफ़त, परंपरागत परिवार में पली-बढ़ी, नाजुक महरुख़ को अपनी तरह से ढालना चाहता है। क्रांति और संघर्ष की बड़ी-बड़ी बातें करता है। पुस्तकें लाकर देता है। महरुख़ अपने को बदलती तो है लेकिन उसकी बदलने की राह और उद्देश्य अलग है। वह क्रांति और आधुनिकता की बातें करने वाले लोगों के जीवन में झाँकती है तो काँप उठती है। वहाँ ये मूल्य फैशन अवसरवाद एवं कुण्ठाग्रस्त हैं। रफ़त दिखने को तो रूस का समर्थक है लेकिन पी-एच.डी. करने अमेरिका जाता है। उसका और उसके दोस्तों का अपना तर्क है, ‘‘पूंजीवादी व्यवस्था देखकर आओ, फिर इन साम्राज्यवादियों की ऐसी-तैसी करेंगे।’’

खुलेपन और प्रगतिशीलता के नाम पर रवि जो माँग एकांत में महरुख़ से करता है, उसे वह स्वीकार नहीं कर पाती। वह रवि की दृष्टि में पिछड़ेपन का प्रतीक बनती है लेकिन महरुख़ का तर्क है, ‘‘उसे हैरत होती है कि इस विश्वविद्यालय में भी औरत को देखने वाली नज़रों का वही पुराना दृष्टिकोण है, तो फिर यह किस अर्थ में अपने को स्वतंत्रा, प्रगतिशील और शिक्षित कहते हैं?’’

नासिरा शर्मा कम्युनिस्ट विचारधारा को मानने वाले कुछ लोगों की सीमाओं और उपभोक्तावाद के दोगलेपन की आलोचना करती है लेकिन वे कम्युनिस्ट विचारधारा की विरोधी नहीं समर्थक हैं क्येकि महरुख़ ने अपने सकर्मक जीवन के माध्यम से इसी विचारधारा को सार्थक बनाया। यह भी कह सकते हैं कि वह इस विचारधारा पर चलकर सार्थक पात्रा बनी। इसके साथ ही लेखिका इस बात की भी अभिव्यक्ति करती है कि परंपरागत, संस्कारी, धर्म को मानने वाले सभी गैरप्रगतिशील तथा जड़ नहीं होते। इस स्तर पर नासिरा शर्मा अनेक रचनाकारों की तरह अग्नीभक्षी या अराजकतावादी नहीं हैं। न ही वे पुराने माने जाने वाले मानवीय मूल्यों की विरोधी लेखिका है। बल्कि वे.............................................शेष भाग पढ़ने के लिए पत्रिका देखिए

Comments

Anonymous said…
With the help of the loans, they can also alternate choice to read quotes of many loan lenders and can button up the best loan lender. They will affect to you the accent the adjustment and conditions of the loan to the atrocity of the applicant. In the accident that there is no emergency, then there's it's not absolute to accede to an accounting for for the credit, of the borrower at adulthood by encasing the a reckoning of. [url=http://paydayloansinstant4.co.uk]instant loans uk[/url] Discovering a loan ace who is both faithful well as for the assembly of payday loans. You need to and so X with a certain number lenders of fastest as he can accord the loan in easy installments.
Anonymous said…
Heу There. Ι discovered уοur blog the uѕаgе of msn.
Thiѕ is a ѵery smaгtly ωritten
artіcle. I'll make sure to bookmark it and come back to read more of your useful info. Thanks for the post. I will certainly return.

Look into my web-site :: Payday Loans Online Same Day
Here is my web page : Online Payday oan

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार