Skip to main content

मेरी स्मृति के कमलेश्वर

वीरेन्द्र जैन
मैंने कमलेश्वर को कहानीकार की तरह जानने से पहले एक सम्पादक के रूप में जाना।सारिका में उनके सम्पादकीय पढने से पहले मैं उन्हें मोहन राकेश,राजेन्द्रयादव कमलेश्वर नामक त्रिशूल के एक सदस्य के रूप में ही जानता था।और जब मैंने उन्हें जाना तब तक उनका कहानीकार तो पीछे छूट चुका था और रह गया था एक सामाजिक कार्यकर्ता, एक फिल्मकथा-पटकथा लेखक,एक सम्पादक,एक लेखकसंगठन का नेतृत्वकारी साथी दूरदर्शन का महानिदेशक विभिन्न अवसरों पर आंखेंदेखा हाल सुनाने वाला उद्घोषक, डाकूमेंटरी फिल्म निर्माता,स्तंभलेखक, धर्मनिरपेक्षता का सिपहसालार आदि। सच तो यह है कि कमलेश्वर के ये रूप मुझे उनके कहानीकार से भी अधिक आर्कषक लगते थे।एक अकेले आदमी में इतने आयाम देख कर मुझे हैरत होती थी।बामपंथी विचारधारा और साहित्य में कुछ करने का सपना मुझे विरासत में मिला था, इसलिये तार्किक ढंग से अपनी बात कहने वाले बामपंथी विचारक व साहित्यकार मुझे स्वाभाविक रूप से अच्छे लगते थे।

विसंगति यह हुयी कि साहित्य में मुझे जिन लोगों ने प्रारम्भ में स्थान दिया वे बामविरोधी संस्थान थे व इतने चर्चित और उच्चस्तरीय थे कि उनमें स्थान पा लेने पर अच्छा लगना सहज स्वाभाविक था।यह उन्नीस सौ इकहत्तर का वर्ष था जब मुझे किसी बड़ी मानी जाने वाली पत्रिका में पहली बार स्थान मिला था और तब से ही मैं हिन्दी की सभी लोकप्रिय पत्रिकाओं का पाठक हो गया था जिनमें सारिका भी एक थी।किसी व्यावसायिक संस्थान की पत्रिका में आम आदमी की पक्षधरता के तेवर मुझे खूब भाने लगे। मुझे लगता था कि काश मैं भी इस पत्रिका में प्रकाशित होने लायक कुछ लिख सकूं। पर निरन्तर प्रकाशित होते रहने की वासना के वषीभूत मैं गैरबामपंथी पत्रिकाओं मैं प्रकाशित रचनाओं में से ही अपने मानदण्ड खोजता रहा।दूसरी ओर प्रयास के बाद भी मुझे प्रगतिशील जनवादी पत्रिकाओं में वांछित स्थान नहीं मिल सका।भारत भूषण केशशब्द उधार लेकर कहूं तो -बांह में है और कोई चाह में है और कोई- वाला मामला था।फिर इसी बीच गुजरात का छात्र आन्दोलन,जयप्रकाशजी का सम्पूर्णक्रान्ति का नारा,रेल हड़ताल आदि जैसी घटनाएं घटीं तथा श्रीमती इन्दिरा गांधी के खिलाफ हाईकोर्ट के फैसले के बाद तो इमरजैंसी ही लगा दी गयी।इमरजैंसी के साथ सैंसरशिप लागू होते ही धर्मयुग का एक अंक तो रद्द ही कर दिया गया और सारिका की अनेक कहानियों पर कालिख पोत दी गयी। सारिका सम्पादक कमलेश्वर ने अंक को स्थगित करना पसंद नहीं किया था। वे चाहते तो कालिख पोतने की जगह उन अंशों को हटा भी सकते थे, पर उन्होंने कालिख पोत कर एक सन्देश देना अधिक उचित समझा। कमलेश्वर जी का यह ढंग मुझे बहुत भाया।इसी दौरान उनके समांतर कथा आंदोलन से सामने आयी कहानियों व दुष्यंत कुमार की गजलों को सारिका में छाप कर उन्होंने मुझे ही नहीं अपितु देष के असंख्य पाठकों को अपना मुरीद बना लिया था।
इमरजैंसी हटने के बाद लोक सभा के चुनाव हुये व श्रीमती इन्दिरागांधी को हार का सामना करना पड़ा। जो नई सरकार सत्ता में आयी उसमें संघ से जनित जनसंघ भी अपने को विलीन करने का दिखावा करते हुये घुस गयी थी।यद्यपि बुद्धिजीवी और राजनीतिक विश्लेशक यह मान रहे थे कि कि संघ कभी भी जनसंघ को अपना अस्तित्व समाप्त नहीं करने देगा तथा यह संघ की एक चाल मात्र है।केन्द्रीय सरकार में अमेरिका परस्त संघ के होने से सारे बामपंथी, व मजदूर आन्दोलन से जुड़े लोग सषंकित थे क्योंकि अमेरिका ने शीतयुद्ध के दौर में सदैव ही भारत के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया था।सभी देशभक्त चाहते थे कि संघ की इस चाल को जनता के सामने उजागर किया जाये।हिन्दीभाषी क्षेत्र में इस काम को करने का बीड़ा जिन लोगों ने उठाया उनमें हरिषंकर परसाई, कमलेश्वर, डा. राही मासूम रजा समेत बामपंथी विचारों से जुड़े अनेक पत्रकार थे।सारिका के माध्यम से कमलेश्वर जी अपनी सम्पादकीय टिप्पणियों में सरकार और सरकार में शामिल दलों की भरपूर खबर ले रहे थे।वे बड़े अखबारों के उन सम्पादकों को भी नहीं छोड़ रहे थे जिन्होंने इमरजैंसी में तत्कालीन सरकार की पक्षधरता की और इस समय भी नई सरकार को नई आजादी का जनक बतला रहे थे। ऐसे सम्पादकों के खिलाफ वे जो कायर थे वे कायर ही रहैंगे' शीर्षक से लिख रहे थे तथा सम्पादकीय न लिखने वाले सम्पादकों को अवसरवादी सिद्ध कर रहे थे।जनतापार्टी सरकार ने कई जांच कमीशन बैठाये थे और इन्हें दूसरी आजादी का जांच कमीशन' बताया जा रहा था।कमलेश्वर जी ने उसी समय तीसरी आजादी का जांच कमीशन' नाम से लिखना प्रारम्भ किया जिसका सार यह था कि इस सरकार के बाद जो सरकार आयेगी वह इनके खिलाफ तीसरी आजादी का जांच कमीशन बैठायेगी क्योंकि ये भी लगभग सब कुछ वही कर रहे हैं जो पिछली सरकार ने किया था,दूसरे इनके साथ एक जानामाना साम्प्रदायिक संगठन धोखा भी कर रहा है।उनका सन्देश यह था कि लोकतंत्र में सरकारें तो बदलती ही रहती हैं पर ऐसे प्रत्येक परिवर्तन को आजादी की लड़ाई बतलाना हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का अपमान है।

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत...

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार...

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...