Skip to main content

शनि महराज

श्याम यादव
उसने एक निगाह सिर उठा कर, आसमान पर चमकते हुए सूरज पर डाली और दूसरी अपने हाथ में पकड़े उस कमण्डल पर जिसमें शनि महराज की तेल में सनी मूर्ति विराजमान थी। उसने हिसाब लगाया पॉंच और पॉच दस, ग्यारह, बारह, तेरह चौदह.............. अठारह । कुल अठारह रूपए ही आए थे अभी तक चढ़ावे में । पच्चीस तो कमण्ड़ल का किराया ही देना पड़ेगा, और पॉंच रूपए का तेल वह पहले ही खरीद चुका था। कुल खरचा हो गया तीस रूपए का। आए अभी तक अठारह।
शहर के व्यस्तम चौराहे पर लालबत्ती के होने पर रूकने वाली गाड़ियों के आगे पहुंच कर '' जय शनि महराज '' का उद्घोष कर कमण्डल दिखा कर दान मॉगने वाला ''बिसना'' आज बेहद परेच्चान था। कल का दिन भी उसका खराब ही बीता था । जुमे की नमाज पर लोहबान का धूनीपात्र लेकर मस्जिद के बाहर खड़ा बिसना बामुश्किल,लोहबान पात्र,लोहबान और मयूरीपन्खी झाडू का खरचा ही निकाल पाया था। उसे यह अहसास होने लगा था कि आज का दिन भी उसका कल की तरह ही बीत जाएगा।
गाड़ियों के रूकते ही ''जयशनि महराज '' कहता हुआ वह उनके सामने जा धमकता और उस पर सवार लोगों की ऑंखों में झॉंकता। उसे लगता कि दाता की ऑंखों में भक्तिभाव और श्रद्धाभाव है तो वह रूकता नहीे तो अगले दाता के सामने कमण्डल। शनि महराज की रट लगाए बिसना की कोशिश तो यही होती कि वह उस एक डेढ़मिनिट के अन्तराल में ज्यादा से ज्यादा दाताओं के समक्ष शनि महराज के कमण्डल को घुमा कर उनकी जेब ढीली करा सके।
आकाश पर सूरज चढ़ रहा था और बिसना के शरीर पर पसीना। छोटे से बिसना के माथे पर परेशानी की बड़ी बड़ी लकीरें उभरना शुरू हो गई थी। ये क्या हो रहा है उसके साथ। उसकी आमदानी पर किसी की नजर लग गई या लोगों की धर्म पर से आस्था उठ गई है। उसके छोटे से दिमाग में अनेक सवाल गुथ्मगुथ्था होने लगे थे। सवालों में उलझे बिसना ने सवालों को उलझा हुआ ही छोड़ा और एक बार फिर लालबत्ती के कारण रूकी गाड़ियों के सामने जा पहुंचा। चमचमाती मोटरकारें, तरह तरह की मोटरसायकलें और उन पर सवार लोग।आज अपना पर्स खोल कर शनि महराज को दान ही नहीं कर रहें थे। इस बार आए कुल सात रूपए, सब के सब एक- एक रूपए के सिक्के । बिसना ने एक गाली दी,साले...............कजूंस लोग । उसने मन ही मन चतुर बनिए की भॉंति हिसाब जोड़ा , पहले के अठारह और इस फेरे के सात। कुल जमा हो गए पच्चीस ।
बिसना ने राहत की एक सांस ली। चलो शनि महराज के कमण्डल का किराया तो निकला। सिर पर चढ़ आए सूरज की ओर देखा, इतने समय तक वह और दिनों में सब खरचा निकाल कर पचास -साठ रूपया तो उपर कमा लेता था।
पता नहीं आज क्या हो गया था। उसके अल्पबुद्धि वाले दिमाग में फिर बुद्धिमानों जैसे सवाल घर बनाने लगे थे। लोगों का दान धर्म से विश्वास कम होता जा रहा है? उसने अपने आप से सवाल किया। फिर खुद ही जवाब देने लगा। नहीं नहीं, धर्म तो नहीं छूटा । मंदिर मस्जिद में लोगों की भीड़ तो रहती ही है। कल मस्जिद में कितने लोग नमाज के लिए आए थे। नोगो ने दान देना छोड़ दिया और धर्म नेताओं की गोद में बैठ कर वोटों की राजनीति करने में लग गया। आगे कुछ और सोच-विचार करने से पहले ही गाड़ियॉं रूकी ओैर बिसना फिर भागा। इस बार के फेरे में उसे एक रूपया भी नहीं मिला। बिसना का दिमाग घूमने लगा था। बिसना का कमण्डल खाली का खाली ही रहा और सूरज गर्मी से लबरेज होता जा रहा था।
बिसना सड़क किनारे खड़ा हो गया और चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को पौंछा। बिसना का कमाना उसकी मजबूरी थी। बाप था शराबी सो शराब उसे पी गई। घरों में बर्तन मॉंज कर मॉं,उसका और उसकी छोटी बहन का पेट भरने का कोच्चिच्च करने में लगी रहती। स्कूल का मुंह उसने कभी देखा नहीं। स्कूल की पढाई उसके लिए उतनी महत्वपूर्ण थी नहीं जितनी जिन्दगी की पाठशाला की शिक्षा। छोटे से बिसना को जिन्दगी की पाठशाला ने पैसे कमाने के हजार तरीके सिखा दिए थे।
हर दिन नया व्यवसाय करने का गुर सीख चुका बिसना पुरा व्यवसाई बन चुका था। व्यवसाय भी बिना पूंजी का । बुधवार गणेच्च मन्दिर,गुरूवार दरगाह,शुक्रवार मस्जिद और शनि वार शनि महराज। बिसना की विचार श्रृंखला एक बार पुनः भंग हो गई,जब लालबत्ती के होते ही गाड़ियॉं रूकने लगी। बिसना दौड़ा ''जयशनि महराज ''.........''जयशनि महराज ''। बिसना की मेहनत ने रंग दिखाया। इस फेरे में उसका कमण्डल जितने भी दाताओं के सामने घूमा सभी से उसे सिक्के की खनकती आवाज सुनाई दी। हरीबत्ती के जलते ही बिसना सड़क किनारे और निगाह कमण्डल पर। उसकी लागत भी निकल गई और अब षुरू होगा कमाई का दौर। बिसना ने गिन कर पच्चीस रूपए जो कमण्डल के किराए के देने थे अलग निकाल लिए। मटमैले से कपड़े से उन तेलहे सिक्कों को पौंछा और अपनी जेब में सुरक्षित रख लिए। कमण्डल में बचे थे सात-आठ सिक्के और बिसना के चेहरे पर संतोष।
गर्मी शबाब पर जा पहुंची थी और शरीर को निचोड कर पसीना बाहर फेंक रही थी। बिसना का हाल भी कोई जुदा नहीं था। गला सूखने लगा था और उसे पानी की दरकार सताने लगी थी। ख्वाहिशें पानी से होती हुई, नाक में आ रही होटलों में तले जा रहे नाश्ते की खुशबू के सहारे पेट तक जा पहुंची, जो बिसना के बालमन में भूख की इच्छा और मूंह में लार पैदा करने लगी थी। बिसना ने एक निगाह कमण्डल में पडे सिक्कों पर डाली और स्थिति का अन्दाजा लगाया और दूसरे ही पल उसे अपनी छोटी बहन और मॉं का ख्याल दिमाग में कौंध गया। मां इस समय उस मोटी औरत के बंगले पर बर्तन मांज रही होगी और बहन भूखी ललचाई निगाहों से कॉंच वाली खाने की टेबल पर रखे फलों की ओर निहार रही होगी तथा उस सेठानी की डॉंट सुन रही होगी। शाम को जब बिसना अपनी कमाई के पैसे मॉं के हाथों में रखता है तो वह किसी धन्नासेठ से कम नहीं होता। मॉं का स्नेह भरा हाथ जब उसके बालों में घूमता है तो उसे लगता है कि यही तो वह सुख है, जिसकी उसे बचपन से चाह थी। यही जो वह सुख है जिसे उसे पिता से मिलना था और मिल नहीं पाया। बिसना था तो तेरह चौदह साल का मगर परिवार के एक मुखिया की भूमिका को बाखूबी निभा रहा था। वह मॉं का सहारा समझने लगा था खुद को। घर के मर्द की भूमिका में बिसना ने खुद को ढाल लिया था,और उसका यही कर्तव्यबोध उसके मन में उपजी इच्छाओं और लालसाओं को दबा गई। नाष्ते की खुशबू को उसने एक गहरी सांस ले कर सूंघा और उसे फिर छोड़ दिया।
इसी बीच हुई लालबत्ती ने बिसना की भूख प्यास और कर्तव्यों पर लगाम लगा दी। व्यवसाय के सामने भावना और रिश्ते नाते सब बौने साबित हुए और बिसना '' जय शनि महराज '' .........'' जय शनि महराज '' कहता हुआ वाहनों की कतार में खो गया और जब हरीबत्ती हुई तो बिसना की लाश किसी वाहन से कुचली हुई वहॉं पड़ी मिली।
२२-बी, संचार नगर एक्सटेंशन,इन्दौर ४५२०१६
*****************************************

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क