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विमर्श

फ़ीरोज

हिन्दी साहित्य के वर्तमान परिदृश्य में उपन्यास, कहानी और कविता ही मुख्यधारा में है। इधर जब से दलित विमर्श का हंगामा है तो ‘आत्म चरित' की चर्चा भी छुट-पुट रूप में हो रही है, परन्तु साहित्य की दूसरी विधाओं की चर्चा न के बराबर है। गौरतलब यह है कि साहित्य के प्रभाव की दृष्टि से जो भूमिका मुख्यधारा की विधाओं की है, दूसरी विधाएं उसमें पीछे नहीं। प्रमाण के रूप में हम आत्मकथा की बढ़ी मांग को देख सकते हैं। दलित विमर्श में इसकी बढ़ी हुई अहमियत इस बात को साबित करती है कि दूसरी सभी विधाओं की भी भूमिका वही है जो आत्मकथा की। बस प्रतीक्षा है तो विमर्श और आन्दोलन की। इत्तेफाक से स्त्रीविमर्श के पुराधाओं का ध्यान मुख्य धारा की विधाओं की तरफ से इधर-उधर हुआ ही नहीं।
साक्षात्कार भी उन्हीं गैर अहम्‌ मान ली गयी साहित्यिक विधाओं में ऐसी विधा है जो कि बहुआयामी है। सूचना क्रान्ति ने इसके क्षेत्र को व्यापक और प्रभावशाली बनाया है। समाचार और सूचना प्रेषण के प्रामाणिक स्वरूप के रूप में इसको स्थापित किया है। साहित्य के क्षेत्र में भी इसकी भूमिका का पता इसी तथ्य से चलता है कि साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं ने नियमित रूप से साक्षात्कार का प्रकाशन होता है, परन्तु आश्चर्य तब होता है जब हम देखते हैं कि उपन्यास, कहानी और कविता की भाँति साक्षात्कार को अपेक्षित महत्ता प्राप्त नहीं, इसका आलोचनात्मक अध्ययन तो न के बराबर है यही हाल इसके ऐतिहासिक संदर्भों का भी है। यह अध्यताओं की उपेक्षा का शिकार रहा है। साहित्यिक सन्दर्भों में विद्वानों ने इसके सैद्धान्तिक पहलू पर कम ध्यान दिया है। यद्यपि पाठ्यक्रम में परम्परा पूर्ति के लिए स्नातक और स्नात्‌कोत्तर स्तर पर कहीं न कहीं साहित्यिक विधाओं का एक प्रश्न-पत्ररख दिया जाता है और कर्तव्य की इति मान ली जाती है। छात्रों को इन विधाओं से सम्बन्धित उपयुक्त सामग्री भी नहीं मिल पाती है।
साक्षात्कार के सन्दर्भ में उत्साहजनक तथ्य यह है कि जब से पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों की धूम मची है तो पत्रकारिता सम्बन्धी सामग्री की हिन्दी में मार्केट वैल्यू बढ़ी है। धड़ाधड़ विद्वान और व्यावसायिक, दोनों तरह के लोग पुस्तक पर पुस्तक लिखे जा रहे हैं। प्रकाशकों को भी इन पुस्तकों से वित्तीय लाभ हो रहा है। पत्रकारिता सम्बन्धी इन पुस्तकों में छुट-पुट रूप से साक्षात्कार के सैद्धान्ति पक्ष पर प्रकाश डाला जा रहा है, परन्तु यह सारे प्रयास व्यावसायिक आवश्यकता के तहत ही हो रहे हैं।
वाङ्मय अपने सीमित संसाधनों के साथ सीमित समय में चौथे विशेषांक के साथ प्रस्तुत है। सफलता-असफलता की चर्चा को पाठकों पर छोड़ देनी चाहिए इसलिए विद्वजनों से केवल यही निवेदन करना चाहूगा कि जिस प्रकार आरम्भ से वाङ्मय का आग्रह वाद निरपेक्षता का रहा है, उसी क्रम में यह अंक भी प्रस्तुत है। परिणाम के सन्दर्भ में विद्वानों की राय मेरे लिए महत्त्वपूर्ण होगी। पत्रिका के प्रस्तुतिकरण में कितनी सादगी है यह भी निर्धारित पाठकों को ही करना होगा।

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