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‘दरमियाना’ में चित्रित किन्नर जीवन-संघर्ष और संवेदना


डॉ. सियाराम
         
वैश्वीकरण की सहज प्रतिक्रिया स्वरूप अस्तित्व में आये अस्मितामूलक विमर्शों में किन्नर-विमर्श सर्वाधिक नवीन है किन्तु यह विमर्श किन्नर समाज की स्वीकार्यता व अधिकारां के प्रति का गम्भीर चिन्तन करने पर बल देता है। कारण कि, किन्नर भी हमारे समान अपनी माँ की कोख से जन्म लेते हैं किन्तु लिंगाधारित-पुरुषवादी सामाजिक व्यवस्था में इन्हें अधिकार विहीन कर पशुवत् जीवन जीने को मजबूर किया गया है। एक ही माँ-बाप से जन्में बच्चों के साथ यदि किसी कारणवश किन्नर बच्चा पैदा हो जाता है तो सब कुछ समान व एक होते हुए भी उसके प्रति प्रेम और सहानुभूति के स्थान पर, उपेक्षा, तिरस्कार और घृणा का व्यवहार किया जाता है। किन्नर के प्रति होने वाले शोषण को केन्द्र में न आ पाने के कारणां का उल्लेख करते हुए प्रसिद्धि कथाकार नीरजा माधव कहती हैं- ‘‘समाज में संख्या और महत्त्व के आधार पर न्यूनता, साथ ही शोषण और अत्याचार के हर मानवीय आक्रमण से परे हास-परिहास का विषय मात्रा होना।’’1 साहित्य में किन्नरां पर केन्द्रित रचनाओं का अभाव ही है। रामायण, महाभारत और पौराणिक साहित्य में यद्यपि इनकी चर्चा मिलती है परन्तु प्रसंगवश। इधर हिन्दी के कथा साहित्य में अनेक ऐसे उपन्यास और कहानियाँ लिखी गयी हैं, जिनसे किन्नर विमर्श न केवल केन्द्र में आ गया है वरन् किन्नरों में जागरुकता लाने और इनके प्रति सामाजिक नज़रिया भी बदलने लगा है। 
भारतीय पारम्पारिक समाज में जिन्हें हिजड़ा, खसुआ, जोगपा, जोगता, विषयशक्ति, ख्वाजासरा, छक्का, नपुंसक, थिरू नंगई, अरावनी, पवैय्या, खुसरा, खोजा आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है उन्हें ही यहाँ किन्नर कहा जा रहा है। जो सभ्य समाज और साहित्य के सर्वथा अनुकूल हैं किन्तु हिजड़ों के लिए सम्बोधन संज्ञा, किन्नर कर देने मात्रा से इसके निहितार्थ नहीं बदल जाते। इस सम्बन्ध में चित्रा मुद्गल कहती हैं- ‘‘सुनने में किन्नर शब्द भले ही गाली न लगे मगर अपने निहितार्थ में यह उतना की क्रूर और मर्मान्तक है जितना हिजड़ा। किन्नर की सफेदपोशी में लिपटा चला आता है उसकी ध्वन्यात्मकता में रचा-बसा इतिहास, कोई भूले तो कैसे भूले।’’2 इसी पीड़ा और विवाद के मद्देनजर उच्चतम न्यायलय ने इस वर्ग के लिए थर्ड जेण्डर (तृतीय लिंग) का प्रयोग किया है। प्रस्तुत शोधपत्रा किन्नर विमर्शक सद्यः प्रकाशित औपन्यासिक कृति ‘दरमियाना’3 पर केन्द्रित होने के कारण, यहाँ किन्नरों के लिए उपयुक्त अभिधान पर चर्चा करना अप्रासंगिक होगा।
पत्राकार-साहित्यकार सुभाष अखिल विरचित ‘दरमियाना’ उपन्यास किन्नर जीवन की त्रासदी को मानवीय रूप में देखने की सार्थक पहल है। इस औपन्यसिक कृति में किन्नरों को एक नया अभिधान दिया गया है- दरमियाना यानी न तो वे जनाने थे और न ही मर्दाने।
यह सम्पूर्ण उपन्यास ‘मैं’ शैली में लिखा गया है। पात्रा, लेखक के जीवन से अतरंगता से सम्बद्ध है। पाँच अध्यायों में विभक्त इस औपन्यासिक रचना की विशेषता यह है कि इन पाँचों अध्यायों के दरमियानां के बीच परस्पर अन्तर्सम्बंध होते हुए भी वे एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। प्रत्येक अध्याय में लेखक, भिन्न-भिन्न किन्नर पात्रों से रू-ब-रू होता है और उसके जीवन-संघर्षों का साक्षी बनता है। एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि यह उपन्यास सुभाष अखिल रचित एक कहानी दरमियाना पर आधारित है जो सारिका पत्रिका में इसी शीर्षक से अक्टूबर 1980 में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी से सुभाष अचानक चर्चा में आ गये।
‘दरमियाना-एक’ लेखक की ‘तारा और रेशमा की संगत’ पर केन्द्रित है। तारा किन्नरों की गुरु और रेशमा उसकी शिष्या है। तारा को नटराज की भाभी कहलाना अत्यधिक पसंद है। जब ग्यारह-बारह वर्ष की अवस्था में लेखक का तारा से परिचय प्रगाढ़ होता है तो वह स्वयं को नटराज कहलाना पसंद करता है। बकौल रचनाकार- ‘‘साहित्य से परिचय प्रगाढ़ होता है और परिचय की प्रगाढ़ता से प्रेम। किन्तु जिस तरह से प्रेम की प्रक्रिया को क्षणां में विभाजित नहीं किया जा सकता है। ठीक उसी तरह मेरे और तारा के अंतरंग हो जाने वाले क्षणों को भी रेखांकित करना कठिन है। मैं कब और क्यों उसके इतना समीप चला गया, वह क्यां और कब मुझ तक इतना सिमट आयी थी- नहीं कहा जा सकता।’’5 और यह प्रगाढ़ता और प्रेम था, एक माता का पुत्रा के प्रति, एक भाभी का देवर के प्रति। तारा माँ और रेशमा भाभी। तभी रचनाकार के गलत संगति में पड़ जाने के कारण तारा को उसी तरह क्रोध आता है, जैसे कि माता को अपने पुत्रा पर आता है- ‘‘तारा चीख उठी तूने मुझे भी अपनी माँ समझ लिया है क्या? तू क्या समझता है, अगर उसे बेवकूफ बना लेता तो मुझे भी बना लेगा?’’6 मैंने देखा जब माँ बिगड़ती है, तो वह भी ऐसी लगती है। धिक्कार के साथ तारा उसे तिरस्कृत करती है किन्तु कुछ समय पश्चात् ही उसका पुत्रा स्नेह पुनः जागृत हो जाता है और वह उसे समझाने लगती है- ‘‘मान जा बेटा ये सब अच्छे घर के लड़कां का काम नहीं है। तू उनका साथ छोड़ दे, तुझे कोई परेशानी हो तो मुझसे कह, जितना पैसा-धेला चाहिए मुझे बता। क्या मैं छाती पर धर कर ले जाऊँगी ये सब न जाने खुदा ने किस जनम का बैर ढाया है। मेरे ही बीज पड़ सकता तो अब तक मेरा जना भी तेरे जैसा ही होता, पर अपनी तो धरती ही...।’’7 इसमें प्रेम और पश्चाताप में ममत्त्व की झलक स्पष्ट है। इसी तरह वह अपने व्यहार में सुधार न करके एक दिन छल से तारा से पढ़ाई के नाम पर पैसा माँगकर शराब पीता है। जब यह बात तारा को पता चलती है तो आशू से एक माँ की तरह बातचीत करना बन्द कर देती है परन्तु मृत शैय्या पर पड़े-पडे़ वह एक बार पुनः अपने अशुए या नटराज को ही देखना चाहती है। रेशमा कहती है- ‘‘बाबू जी! हम छोटे लोग हैं जिन्दगी भर हक माँगते रहते हैं। मगर आज मैं आपसे भीख माँगती हूँ। आप एक बार उसे देख आयें तो वह डायन चैन से देह छोड़ देगी।’’8 इस प्रकार स्पष्ट है कि लेखक तारा के चरित्रा में मानवीय करुणा, ममता, त्याग, समर्पण और प्रेम जैसे उदात्त मूल्यों का अंकन किया है।-------
पूरा आलेख पढ़ने के लिए थर्ड जेण्डर अतीत और वर्तमान पुस्तक देखिए....

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