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प्रवासी भारतवंशी श्रमवीरों की व्यथाकथा का सांस्कृतिक आख्यान है-छिन्नमूल



  शम्भुनाथ तिवारी
‘‘विदेशों के राजदूतावासों में भारत से आया राष्ट्रीय ध्वज जिस तरह से डटा हुआ परिसर में खड़ा है, वैसे ही भारत से लाए गए मजदूरों के वंशज विदेश की धरती पर भारत की ध्वजा-पताका बनकर लहराते रहते हैं। वे फीजी, मॉरीशस, जमैका, क्यूबा, गयाना, दक्षिण अफ्रीका, ट्रिनीडाड, बरबेडस, कुरुसावा और सूरीनाम, युगांडा, केनियाकृकिसी भी देश के नागरिक बनकर जी रहे हों, पर पहले वे अपने को भारतीय और हिंदुस्तानी मानते हैं। ...सूरीनाम की धरती पर बसे भारतवंशियों के घर-द्वार और जीवन को देखा जाना पूर्वजों के धाम का आँखों से स्पर्श जैसा था। आँखें संघर्ष के इतिहास की स्मृति से गीली हो आईं थीं।... वियोग-संकल्प की यातना इतनी भीषण होती है कि नदी पार के गाँव का प्रवास अखरता है, फिर सात समुद्र पार चौदह हजार सात सौ किलोमीटर की दूरी का बसेरा सचमुच दूसरे जन्म के जीवन के बराबर होता है। मृत्यु के बाद पुनर्जन्म  की तरह इतनी दूरियों को बरदाश्त कर जिया जा सकता है। चार माह की जानलेवा समुद्री यात्रा के बाद जिस धरती पर पाँव रखे थे, वहाँ धरती नहीं सिर्फ जंगल था। जीवन नहीं सिर्फ जंगल था। उस जंगल को उजाड़कर पाँव रखने की जमीन बनाई। अपनी गठरी धरने की धरती रची। जंगल को उजाड़कर धरती को काटकर अपने लिए कोठरी और रसोई रचाई। चूल्हा बनाने के साथ पकाने के लिए, अनाज के लिए जंगल को खेत बनाया। जंगल से जंगल को उजाड़ फेंका। हिम्मत और विश्वास की रोशनी अपने भीतर, घर के भीतर और हिंदुस्तानियों के भीतर जलाई।’’(छिन्नमूल, पृ. 255-256) 
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  ‘तारीखों के इतिहास में बंद पड़ा है अतीत के एक सौ चौवालीस वर्षों का इतिहास। अहर्निश होनेवाली वर्षा ने धोया है, बहाया है दुख-दर्द का इतिहास, लेकिन पानी के धोने और बहाने से नहीं खतम होता हैकृऐतिहासिक दर्द, जिसे पीढ़ियाँ जीती हैं, भोगती हैं। भारत-भूमि का मानव-धन एक समय में ब्रिटिश, फ्रेंच और डच सत्ताधारियों का धन बना। भारत-भूमि के मानव-ईख की तरह जल-जहाजों पर पैसे के लिए कैरेबियन देशों में लाए गए। कोल्हू के बैल की तरह लगे रहे। इनकी देह के शंख के भीतर इनकी साँसें भारतीय संस्कृति का ही शंखनाद करती रहीं। मजदूरी के श्रम में यह भारत की स्मृतियों के ही लोकगीत गाते रहे, उन्होंने मन से न अपना देश छोड़ा न अपनी संस्कृति, न अपना धर्म और न ही अपना ईश्वर और यह उन हिंदुस्तानी मजदूरों की आत्मशक्ति का बहुत बड़ा सबूत है कि वे न टूटे और न ही बुझे।’’ (छिन्नमूल, पृ. 251)  
‘छिन्नमूल’ नीदरलैंड की प्रवासी भारतीय साहित्यकार पुष्पिता अवस्थी की  सन् 2016 में प्रकाशित पहली औपन्यासिक कृति है, जिसमें सूरीनाम के प्रवासी भारतीय परिवारों की जीवनशैली, संस्कृति और उनके संघर्ष को बहुत व्यापक फलक पर समग्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है। उपन्यास में भारत से श्रमिक के रूप में ले जाए गए शोषित-पीड़ित भारतीय परिवारों, जो अब वहीं की संस्कृति में रच-बस गए हैं, के लंबे जीवनसंघर्ष के साथ-साथ उनके जीवन के विविध पड़ावों पर अवस्थित उनकी सहजता-सरलता, प्रगति-अवनति, आशा-निराशा, कल्पना-आकांक्षा, वेदना-पीड़ा, सबलता-निर्बलता, सुकृति- विकृति, उनके सारे दुख-सुख, हास-परिहास, रहन-सहन और सबसे बढ़कर उनके अदम्य साहस सहित उनके श्रमशील जीवन को बहुत विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। ऐसा इसलिए भी संभव हो सका है कि पुष्पिता जी ने सूरीनाम ही नहीं, बल्कि अन्य कैरेबियन देशों को बहुत समीप से जाना-पहचाना और गहराई से समझा है, जहाँ भारतीय श्रमिक कभी ‘गिरमिटिया’ के रूप ले जाए गए और वे वहीं के होकर रह गए। सूरीनाम को बहुत करीब से जानने-समझने का पुष्पिता जी का लंबा अनुभव है। वहाँ के समाज में रहते हुए उन्होंने वहाँ के भारतवंशियों के जीवनपरिवेश का बहुत सूक्ष्म निरीक्षण किया है, जिसका ही विश्वसनीय परिणाम है, यह उपन्यास- ‘छिन्नमूल’। उपन्यास के केंद्र में भले ही सूरीनाम और वहाँ का भारतीय परिवेश है, पर उसका चिंतनपरक रचनात्मक स्वरूप कैरेबियन  अन्य देशों के साथ-साथ भारतीय परिवेश के अनेक महत्त्वपूर्ण स्थानों के वर्णन-चित्रों को भी अपने में समेटता हुआ, उनका व्यापक चित्रांकन करता है। बावजूद इसके यह उपन्यास भारत से मजदूर के रूप में कैरेबियन देशों में गुलाम के रूप में ले जाए गए और अनेक विवशताओं के चलते भारत वापस नहीं लौट पाने की मजबूरी में वहाँ के निवासी बन गए भारतीय श्रमिकों, जिन्हें एक एग्रीमेंट के तहत कुछ शर्तों के अधीन मजदूर के रूप में कैरेबियन देशों में गिरमिटिया बनाकर ले जाया जाता था, के संघर्ष भरे जीवन को एक बहुत व्यापक कैनवस पर उकेरनेवाला पहला उपन्यास माना जा रहा है। 
गिरमिटिया को एक प्रथा के रूप में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अंतर्गत औपनिवेशिक शासनसत्ता की कोलोनियल नीति का  परिणाम कहा जा सकता है, जहाँ आम भारतीय नागरिकों को शोषण की पराकाष्ठा तक सताया और उन्हें गुलाम बनाने का प्रयास किया जाता था। शोषण के इसी क्रम में उन विवश भारतीयों को  कुछ शर्तों के अधीन गुलाम बनाकर उन्हें दूसरे देशों में एक एग्रीमेंट करवाकर भेजने का सिलसिला अंग्रेजों द्वारा सन् 1834 ई. में आरंभ किया गया। जिसके अंतर्गत यहाँ का अधिकांशतः मजदूर वर्ग दूसरे देशों में पलायन करने के विवश हुआ। औपनिवेशिक नीति के अंतर्गत उन्हें एक एग्रीमेंट (इसी ऐग्रीमेंट शब्द से बिगड़कर गिर्रिमंट या गिरमिट या गिरमिटिया बन गया) के अंतर्गत कैरेबियाई देशों- फिजी, ब्रिटिश गुयाना, डच गुयाना( सूरीनाम), ट्रिनिनाड, टोबैगो आदि में श्रमिक बनाकर ले जाया गया। यह सब सरकारी संरक्षण में किया जाता था, जिसे कानूनी तौर पर मान्यता मिली हुई थी। यद्यपि उन्हें कुछ वर्षों के अंतराल पर वापस लौटने का भी नियम था, पर वह इतना जटिल और उनके स्तर से इतना खर्चीला था कि पैसे-पैसे के लिए परावलंबी वे श्रमिक अपने वतन वापस आने का सिर्फ सपना पाले हुए, वहाँ की धरती में रचबसकर वहीं खप गए। छिन्नमूल ऐसे ही भारतवंशी श्रमवीरों की व्यथाकथा का जीवंत दस्तावेज के रूप में हमारे सामने आता है, जिसमें सूरीनाम के भारतवंशी श्रमिकों की करुणकथा का प्रामाणिक आख्यान प्रस्तुत किया गया है।   
  हालाँकि, गिरमिटिया को हिंदी में  बहुत व्यापक स्तर पर उपन्यास का विषय बनाने का गंभीर उपक्रम गिरिराज किशोर के बहुचर्चित एवं बहुपठित उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ में किया गया है, जहाँ महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ्रीका-प्रवास को केंद्र में रखते हुए उन्हें ही पहला गिरमिटिया के रूप में स्वीकार किया गया है। इस रचना से िर्हंदी समाज गिरमिटिया को साहित्यिक रचना के स्तर पर जानता-पहचानता है। बावजूद इसके ‘छिन्नमूल’ को इस दिशा में लिखा गया एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास कहा जा सकता है, जिसकी न केवल भारत के  हिंदी जगत में स्वागत हुआ है, बल्कि दुनिया के हिंदी-समाज में भी उसकी चर्चा-परिचर्चा हुई है, हो रही है। सही मायने में ‘छिन्नमूल’ सूरीनाम में जाकर बस गए ऐसे प्रवासी भारतीय मजदूरों के जड़विहीन जीवन की संघर्षगाथा है, जो गिरमिटिया कुप्रथा के अंतर्गत अपने देश से बहुत दूर श्रमिक बनकर गए और वहाँ की धरती को अपने श्रम से हराभरा-रहने लायक बनाया। वे अपनी जमीन से कटकर छिन्नमूल (जड़विहीन/रूटलेस) तो हो ही गए, पर दूरदेश की परायी धरती पर वहाँ के समाज में भी उन्हें वह सम्मान या स्थान नहीं प्राप्त हुआ, जो उन्हें मिलना चाहिए। बावजूद इसके वे न केवल अपने देश भारत से अपनी पूरी भारतीय सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ वहाँ भारत को जीवित रखने में सफल हुए, वरन धीरे-धीरे अपनी आनेवाली पीढ़ी के लिए संघर्षपथ पर सफलता के साथ आगे बढ़ते रहने का मार्ग भी प्रशस्त कर गए। आज सूरीनाम के समाज में भारतवंशियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा है, जो वहाँ की सामाजिक व्यवस्था, संस्कृति में रचबस गया है। इस उपन्यास में उन भारतीय श्रमवीरों के जीवनसंघर्ष एवं सामाजिक अवदान को प्रभावी ढंग से उभारा गया है...‘‘तारीखों के इतिहास में बंद पड़ा है अतीत के एक सौ चौवालीस वर्षों का इतिहास। अहर्निश होनेवाली वर्षा ने धोया है, बहाया है दुख-दर्द का इतिहास, लेकिन पानी के धोने और बहाने से नहीं खतम होता हैकृऐतिहासिक दर्द, जिसे पीढ़ियाँ जीती हैं, भोगती हैं। भारत-भूमि का मानव-धन एक समय में ब्रिटिश, फ्रेंच और डच सत्ताधारियों का धन बना। भारत-भूमि के मानव-ईख की तरह जल-जहाजों पर पैसे के लिए कैरेबियन देशों में लाए गए। कोल्हू के बैल की तरह लगे रहे। इनकी देह के शंख के भीतर इनकी साँसें भारतीय संस्कृति का ही शंखनाद करती रहीं। मजदूरी के श्रम में यह भारत की स्मृतियों के ही लोकगीत गाते रहे, उन्होंने मन से न अपना देश छोड़ा न अपनी संस्कृति, न अपना धर्म और न ही अपना ईश्वर और यह उन हिंदुस्तानी मजदूरों की आत्मशक्ति का बहुत बड़ा सबूत है कि वे न टूटे और न ही बुझे।’’     (वही, पृ. 251) 
      अगर हम इतिहास पर नज़र डालें, तो स्पष्ट होगा कि अतीत में अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के कालखंड में यूरोप के  देशों ने सारी दुनिया में प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के द्वारा औपनिवेशिक  साम्राज्यवाद का एक ऐसा ढाँचा तैयार किया था, जिसके आधार पर उन्होंने शेष दुनिया में अपने औपनिवेशिक शासन और साम्राज्य को स्थापित कर दिया था। उद्देश्य वही था कि दुनिया के विकासशील या अल्पविकसित देशों पर शासन कर उनकी विविध संपदा पर आधिपत्य जमाना। इसके लिए पश्चिम के देशों ने भारत जैसे अनेक देशों में अपना आधिपत्य स्थापित करने की गरज से वहाँ की समुद्री यात्राएँ की और उन देशों पर अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करते हुए, उन पर औपनिवेशिक शासन थोपते हुए उन राष्ट्रों को आर्थिक रूप से खोखला करने का सारे तरीके इस्तेमाल किए। इस क्रम में अनेक देशों या देश के हिस्सों के मूलवासियों को विस्थापित करते हुए वे वहाँ पर स्वयं बस गये । विश्व के अनेक दूसरे देशों पर औपनिवेशिक साम्राज्यवाद ने अपना प्रत्यक्ष शासन करते हुए उन पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। भारत के संदर्भ में यह बात और अच्छी तरह समझी जा सकती है। 
ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत में अपना औपनिवेशिक शासन स्थापित करते हुए इस देश की न केवल सार्वभौमिक एकता-अखंडता को क्षति पहुँचाई, बल्कि यहाँ की बौद्धिक संपदा, भाषा, साहित्य, संस्कृति आदि को बहुत नुकसान पहुँचाया। औपनिवेशिक शासन यह चाहता था कि भारत अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति, अपना चिंतन, अपना उद्योग, अपना सबकुछ खो दे, जिससे वह सदा के लिए परावलंबी बना रह सके, साथ ही पश्चिम की कर्मठता, वैज्ञानिकता, उद्यमशीलता, से भी अलग रहे, जिससे वह आजाद होकर भी, परतंत्रा बना रहे। इसी सोच के साथ अँगरेजों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया, बहुत चतुराई के साथ यहाँ के उद्योग-धंधों को नष्ट किया, स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर देश को पराश्रित और परावलंबी बना दिया, यहाँ के शाश्वत जीवनमूल्यों को विकृत एवं कमजोर कर दिया, पश्चिम के वैज्ञानिक एवं कर्मठ जीवनदर्शन को इस भूमि पर आने नहीं दिया। इसी में उसका हित था।
अपनी औपनिवेशिक विस्तारवादी नीति के अंतर्गत उनका एकमात्रा लक्ष्य भारत को अपना उपनिवेश बनाना था तथा यहाँ की अकूत आर्थिक एवं बौद्धिक संपदा पर प्रभुत्व स्थापित करना था। वे बहुत सूझबूझ एवं चतुराई से यहाँ अपना उपनिवेश स्थापित करने और भारत की शासनसत्ता में परोक्ष या प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करने आए थे, जिसके लिए वे अपने मूल देश ग्रेटब्रिटेन से नियंत्रित और संचालित होते थे। ऐसी विस्तारवादी औपनिवेशिक रीति-नीति का प्रयोग वे अन्य बहुत से देशों में कर चुके थे। ऐसा करने के पीछे उनकी औपनिवेशक नीति और अपने साम्राज्य के प्रति उनकी विस्तारवादी अवधारणा काम कर रही थी। दुनिया के इतिहास पर नज़र डालें, तो दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात् उपनिवेशवाद का उदय एक कड़वी सचाई के रूप में सारी दुनिया को चुनौती देता हुआ दिखाई देता है। इस क्रम में उपनिवेशवाद की विचारधारा और अवधारणा के अंतर्गत कुछ प्रमुख पश्चिमी राष्ट्रों ने दुनिया के अनेक देशों पर औपनिवेशिक शासन के माध्यम से अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए, उन पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। यह भी सचाई है कि उपनिवेशवाद ने न केवल विश्व की सभ्यता और संस्कृति को बेतरह प्रभावित किया, वरन जहाँ भी औपनिवेशिक शासन स्थापित हुआ, उस उपनिवेशित देश की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था एवं तानेबाने को छिन्न-भिन्न कर उसे पूरी तरह तबाह करके रख दिया। उस देश का हर स्तर पर शोषण किया और उसकी संस्कृति को तहस-नहस करके रख दिया- ‘‘वैसे तो पंद्रहवीं सदी के बाद से ही यूरोप ने मिलकर अपनी सैनिक शक्ति का प्रयोग किया और सारे गैर-पश्चिमी भागों में अपना साम्राज्य स्थापित किया, उसके परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे एक अशांत-अविश्वास पश्चिमी शक्तियों के बारे में सारे अफ्रीका और एशिया में घऱ करता रहा। इन पाँच सौ वर्षों में पश्चिमी शक्तियों ने या तो बड़ी संस्कृतियों को समाप्त किया या फलने-फूलने से रोका। विशेष रूप से स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस, नीदरलैंड और इंगलैंड जैसे देशों ने जो शोषण अपने साम्राज्यों में शुरू किया, वह आज भी किसी न किसी रूप में जारी है।’’ (अन्यथा, जुलाई-2006, संपादकीय, पृ. 7)  ------ 

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